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शॉपिंग को लेकर जागरूक हुई है महिलाएं (Women Have Become Aware About Shopping)

 
अक्सर महिलाओं को शॉपहोलिक या शॉपिंग का दीवाना बताया जाता है. महिलाओं की बेतहाशा शॉपिंग की आदत को लेकर दुनिया भर के चुटकुले सुनाए जाते हैं और चटपटे क़िस्से गढ़े जाते हैं. इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स में भी उनकी शॉपिंग की दीवानगी पर अनगिनत रीलें बनाई और देखी जाती हैं. लेकिन हाल के दिनों में पढ़ी-लिखी और ज़िम्मेदार महिलाओं में मिनिमलिज्म, सेविंग्स जैसे मुद्दों पर जागरूकता और सक्रियता बढ़ी है.

समझती हैं ज़्यादा ख़रीद के नुक़सान
ये पढ़ी-लिखी महिलाएं अंधाधुंध ख़रीददारी के दुष्प्रभाव को भलीभांति समझती हैं. इसलिए ये उपकरणों, कपड़ों, गैजेट्स आदि की कम ख़रीदारी, उनकी रीसाइकलिंग, दोस्तों और परिवारजनों के साथ एक्सचेंज आदि तरीक़े अपनाकर अपने ख़र्चे कम कर रही हैं. साथ ही ये महिलाएं समझती हैं कि फिज़ूलख़र्ची उनकी आर्थिक स्थिति के लिए नुक़सानदायक होने के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और सामाजिक दृष्टिकोण से भी ग़लत है. इन्हें पता है कि उपभोक्तावादी संस्कृति हमें कहीं ना कहीं पीछे ही धकेलती है.


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सिद्धांतों की कसौटी पर ख़रीद
ऐसा नहीं है कि ये अपनी ज़रूरत की चीज़ ख़रीदती ही नहीं, बस ये बहुत सोच-समझकर, कुछ सिद्धांतों की कसौटी पर कसकर ख़रीददारी करती हैं. इन्हें मिनिमलिज्म, नॉन पजेसिवनेस और नॉन अटैचमेंट जैसे सिद्धांत भाने लगे हैं. इन्हीं पर विचार करते हुए ये अपनी ख़रीददारी करती हैं. साथ ही इन्हें वस्तुओं के निर्माण और उपयोग से पर्यावरण से होने वाले नुक़सान की भी जानकारी है, इसलिए इस विषय में भी यह काफ़ी सतर्क रहती है.

चार्टर्ड अकाउंटेंट स्वाती कॉटन के कपड़े, स्लो मेड क्लॉथ और इंडिगो जैसी ऑर्गेनिक डाई वाले कपड़े ख़रीदना पसंद करती हैं. उन्हें पॉलिएस्टर या कृत्रिम रूप से डाई किए गए या पॉलिएस्टर कंटेंट वाले कपड़ों से परहेज़ है, लेकिन वे अपनी बड़ी बहन के सही कंडीशन वाले कपड़े पहनने से गुरेज नहीं करतीं. साथ ही स्वाती अपनी सहेलियों के एक ग्रुप के साथ कपड़ों को एक्सचेंज भी करती हैं, ताकि एक ही तरह के कपड़ों से ऊब भी ना हो और फ़िजू़लख़र्ची भी ना हो.

सॉफ्टवेयर इंजीनियर शिल्पा को 8-9 साल पहले पता चला कि पाम तेल के इस्तेमाल के लिए इस्तेमाल होने वाले पाम ट्री उगाने में बड़ी तादाद में जंगलों की कटाई या उनका नुक़सान किया जा रहा है. इससे पर्यावरण ही नहीं, वन्य जीवों को भी नुक़सान हो रहा है, ओरांगुटान बेघर होने लगे हैं या मारे जाने लगे हैं. ऐसे में उन्होंने पाम आयल आधारित सौंदर्य प्रसाधन सामग्री, साबुन वगैरह या पाम तेल से बने फूड का यथासंभव बहिष्कार शुरू कर दिया. इतना ही नहीं वे अपने संपर्क में आनेवाले हर किसी को इसके बारे में बताती हैं.


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कॉरपोरेट हाउस में जॉब कर रही महिमा अपने कपड़ों के साथ तरह-तरह के प्रयोग करके उन्हें नया लुक देती रहती हैं. वे कपड़ों को जल्दी-जल्दी छोड़ देने और नए ख़रीदने की बजाय उन्हें री डिज़ाइन या कन्वर्ट करती रहती हैं. उन्होंने अपने कॉटन स्कर्ट को अनारकली कुर्ता बना लिया, वेस्टर्न लेस वाली ड्रेस को ब्लाउज़ में कन्वर्ट कर लिया. सिलाई करने और कपड़ों को रीडिज़ाइन करने को वह एक लाभकारी हॉबी और सकारात्मक सृजन मानती हैं, जिसका अर्थ यानी पैसे और अर्थ यानी पृथ्वी पर अच्छा असर पड़ता है. वह अपनी एक्सेसरीज़ की ख़रीदारी भी बहुत सोच-समझकर करती हैं. ज्वेलरी पहनने की बजाय महिमा अपना मेकअप और हेयर स्टाइल बदलकर ज़्यादा स्टाइलिश और अपडेटेड फील करती हैं. उनके वॉर्डरोब में बहुत सीमित कपड़े हैं. उनका सिद्धांत है कि नए लो तो पहले पुराना पुराने किसी ज़रूरतमंद को दे दो.

बाय नथिंग मूवमेंट
इन दिनों सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बाय नथिंग मूवमेंट यानी कुछ भी ना ख़रीदें का आंदोलन चल रहा है. इसके तहत आसपास रहनेवाले लोग नई चीज़ें ना ख़रीदकर अपने पास मौजूद चीज़ों को ऑनलाइन शेयरिंग करते हुए आपस में एक्सचेंज कर लेते हैं. यह एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन बन चुका है. यह पर्यावरण के लिए फ़ायदेमंद है. साथ ही यह ओवर परचेज़िंग या बिना सोचे-समझे ख़रीद को हतोत्साहित भी करता है. इसे अपनाकर धरती पर अनावश्यक कचरे का बोझ बढ़ने से रोका जा सकता है. डिस्पोजेबल वस्तुओं को तो इसमें पूरी तरह नकारा जाता है. यह विचार 1990 के दशक में कनाडा में उत्पन्न हुआ. कई लोग इससे फ़िजूलख़र्ची ना करना सीख रहे हैं. प्लास्टिक, काग़ज़ की पैकिंग आदि का कम उपयोग करना सीख रहे हैं. भारत में भी ऐसे बाय नथिंग चैलेंज ग्रुप सक्रिय हैं. इसमें इस वक़्त 830 सदस्य हैं.


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भारत में पुरानी परंपरा
हमारे देश में तो कपड़ों को बड़े बच्चों से छोटे बच्चों में और भाइयों और बहनों में आपस में शेयर करने की पुरानी परंपरा रही है. हमारे बुज़ुर्ग हमेशा से सोच-समझकर ख़र्च करने, मितव्यय, भोजन, पानी, कपड़े आदि बर्बाद ना करने की सीख देते रहे हैं. सास या मां की साड़ियां वर्षों तक बेटियां और बहुएं पहनती थीं. बच्चों के लिए नित नए ख़रीदने की परिपाटी नहीं थी, तब प्लास्टिक बिना भी ज़िंदगी मज़े से चल रही थी. इसलिए ख़रीदारी में समझदारी बहुत ज़रूरी है.

- शिखर चंद जैन

Photo Courtesy: Freepik

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