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सुपर वुमन ये शब्द सुनकर एकबारगी तो बहुत अच्छा लगता है, लेकिन क्या वाक़ई ये हमारे लिए ख़िताब है या फिर ज़िम्मेदारियों का बोझ मात्र. क्या है सुपर वुमन की असल ज़िंदगी?
"मेरी वाइफ किसी सुपर वुमन से कम नहीं, वो कंपनी में एग्ज़क्यूटिव है. ऑफिस के साथ ही वो मेरे घर और बच्चों को भी बख़ूबी मैनेज कर लेती है.'' पत्नी की तारीफ़ में दोस्तों के सामने ऐसे कसीदे पढ़ने वाले पतियों की कमी नहीं है, लेकिन समाज में वर्किंग पत्नी का गुणगान करने वाले ऐसे पति घर के अंदर आते ही रंग बदल लेते हैं. दफ्तर से थकी-हारी आई पत्नी का किचन में हाथ बंटाना ये अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं. हालांकि कुछ ऐसे पति ज़रूर हैं जो घर के काम में पत्नी की मदद कर वाक़ई उन्हें सुपर वुमन का एहसास दिलाते हैं, लेकिन ऐसे समझदार पतियों की संख्या सीमित है. ज़्यादातर पुरुष पत्नी की तारीफ़ करके ही अपनी ज़िम्मेदारियों की इतिश्री मान लेते हैं. उन्हें लगता है उनके तारीफ़ भरे शब्द से पत्नी की ज़िम्मेदारी कम हो जाएगी. उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि सुपर वुमन की कसौटी पर खरा उतरने के लिए उनकी पत्नी किस मानसिक अवसाद व आंतरिक कशमकश की स्थिति से गुज़र रही होती हैं. ऑफिस से आने के बाद वो भी थक जाती है, उसे भी थोड़ा आराम चाहिए इस ख़्याल से पति की फरमाइशें कभी कम नहीं होती. सुपरवुमन/सुपर मॉम की कश्मकश सुपर वुमन कहलाने वाली आजकल की ज़्यादातर कामकाजी महिलाएं दोहरे तनाव का सामना कर रही हैं. हर समय जहां उनपर पर अपने कार्यक्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ करने का दबाव रहता है, वहीं बच्चों को समय न दे पाने की गिल्ट उन्हें अंदर ही अंदर सताती रहती है. बच्चों के साथ समय न बिता पाना, घर का काम ठीक तरह से न कर पाने, पति व परिवार की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने के कारण वो ख़ुद को दोषी समझने लगती हैं. घर और ऑफिस दोनों जगह अपना सौ फीसदी देने के चक्कर में वो भयंकर तनाव का तो शिकार हो ही रही हैंं, साथ ही अपनी सेहत से भी समझौता कर रही हैं. बच्चे और किचन आप कोई छोटी-मोटी नौकरी करती हैं या फिर किसी कंपनी की सीईओ ही क्यों न हो, लेकिन घर पहुंचकर होम मेकर के रोल में आना ही पड़ता है. आख़िर किचन और बच्चों की ज़िम्मेदारी महिलाओं के ही कंधे पर क्यों होती है? वर्किंग पत्नी की चाह रखने वाले पुरुष आख़िर क्यों नहीं किचन और बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारी में अपनी पत्नी का हाथ बंटा देते हैं? अधिकतर पुरुषों का जवाब होता है ये हमारा काम नहीं है. बरसों पुरानी रूढियों से चिपके ऐसे पुरुष दोहरा मानदंड अपनाते हैं यानी जब बाहर काम की बात आती है तो ये तथाकथित मॉर्डन बनकर पत्नी के बाहर काम करने का समर्थन करते हैं, लेकिन जब बात घर के काम की हो तो ये पुरुष प्रधान समाज वाला रुख़ अख़्तियार कर लेते हैं. वर्किंग चाहिए, मगर बराबरी नहीं इक्कीसवी सदी के युवाओं को पत्नी वर्किंग तो चाहिए, लेकिन अपनी शर्तों पर यानी पत्नी की सैलरी और ओहदा उनसे ऊंचा न हो, यदि ऐसा हो जाए तो उनके अहं को ठेस पहुंच जाती है और वो पत्नी को मगरूर समझने लगते हैं. बात-बात पर खरी-खोटी सुनाना, बे बात झगड़ा बढ़ाकर उन्हें दोषी ठहराने का एक मौक़ा भी नहीं जाने देते. ऐसे में अपनी क़ामयाबी ही महिलाओं को कुंठित कर देती है.![55777753](https://www.merisaheli.com/wp-content/uploads/2017/03/55777753-252x250.jpg)
बदलती तस्वीर यूरोपिए देशों में हाउस हसबैंड का कॉन्सेप्ट है, यानी पुरुष घर पर रहकर परिवार व बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारी उठाते हैं और महिलाएं आर्थिक मोर्चा संभालती हैं, लेकिन हमारे देश में इस तरह के कॉन्सेप्ट को समाज पचा नहीं पाएगा.
- कंचन सिंह
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