झूठ के पीछे के विज्ञान के मुताबिक़, इंसानों में झूठ बोलने की प्रतिभा नई नहीं है. शोध बताती है कि भाषा की उत्पत्ति के कुछ वक़्त बाद ही झूठ बोलना हमारे व्यवहार का हिस्सा बन गया था. आइए, इस दिलचस्प लेख के ज़रिए इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर एक नज़र डालते हैं.
झूठ बोले कौवा काटे, काले कौवे से डरियों.. बचपन में हमें सिखाया गया था, मगर फिर भी हम झूठ बोलते हैं, रोज़ बोलते हैं. कहते हैं किसी भी रिश्ते में झूठ-फरेब नहीं होनी चाहिए, नहीं तो यह उस रिश्ते को तबाह कर देता है. लेकिन फिर भी हम झूठ बोलते हैं और छोटी-छोटी बातों पर बोलते हैं. कभी-कभी ज़रूरत नहीं हैं, फिर भी झूठ बोलते हैं. आख़िर क्यों?
झूठ सुनना किसी को भी अच्छा नहीं लगता है. फिर भी, किसी-न-किसी कारणों से विश्वभर में लोग एक-दूसरे से झूठ बोलते हैं.
जेम्स पैटर्सन और पीटर किम द्वारा लिखित पुस्तक, जिस दिन अमेरिका ने सच बोला, में छपनेवाले सर्वेक्षण ने प्रकट किया कि 91 प्रतिशत अमेरिकी लोग नियमित रूप से झूठ बोलते हैं. लेखक कहते हैं कि हम में से अधिकांश लोगों को बिना झूठ बोले एक सप्ताह भी गुज़ारना कठिन लगता है. कुछ लोगों के लिए तो झूठ बोलना इतना आसान है कि जहां सच से काम चल जाए, वहां भी उनके मुंह से झूठ ही निकलता है. वैसे झूठ बोलने की अनिवार्यता को पहली बार क़रीब दो दशक पहले कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के सामाजिक मनोविज्ञान पढ़ानेवाले प्रोफेसर बेला डे पोलो ने दस्तावेज़ किया था.
पोलो और उनके साथियों ने 147 व्यस्कों से कहा था कि वह लिखे हर हफ़्ते उन्होंने कितनी बार झूठ बोला. इस सर्वे में सामने आया कि हर व्यक्ति ने दिन में औसतन एक या दो बार झूठ बोला. इनमें से ज़्यादातर झूठ किसी को नुक़सान पहुंचाने या धोखा देनेवाले नहीं थे, बल्कि उद्देश्य अपनी कमियां छुपाना या दूसरों की भावनाओं को बचाना था.
हालांकि बाद में की गई एक स्टडी में पोलो ने पाया कि ज़्यादातर ने किसी मौक़े पर एक या एक से ज़्यादा बार बड़े झूठ भी बोले हैं, जैसे- शादी के बाहर किसी रिश्ते को छुपाना और उसके बारे में झूठ बोलना.
भले ही झूठ बोलने पर कौवा काट ले, पर हम झूठ बोलने से परहेज़ नहीं कर सकते, क्योंकि कहीं-न-कहीं यह हम इंसान के डीएनए का हिस्सा है या कहें, आधुनिक जीवन के तक़रीबन हर पहलू में झूठ बोलना एक सामान्य रिवाज़ बन गया है. इस पर
आख़िर क्यों बोलते हैं लोग झूठ?
हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ़ गोयबल्स की एक बात बड़ी मशहूर है. वह ये कि किसी झूठ को इतनी बार कहो कि वो सच बन जाए और सब उस पर यकीन करने लगें.
आप ने भी अपने आसपास ऐसे लोगों को देखा होगा, जो बहुत ही सफ़ाई से झूठ बोल लेते हैं. वे अपना झूठ इतने यक़ीन से पेश करते हैं कि वह सच लगने लगता है. हमें लगता है इंसान इतने भरोसे से कह रहा है, तो बात सच ही होगी.
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, यह एक ‘सेल्फ सेविंग ह्यूमन टेंडेंसी’ है. कई लोगों को झूठ बोलने की आदत होती है, तो वहीं कई लोग मजबूरी में या किसी परेशानीवश झूठ बोल देते हैं. झूठ बोलने की बहुत सारी वजहें हो सकती है, जिन्हें आसानी से जान पाना और समझना बहुत कठिन है. क्योंकि हरेक इंसान में झूठ बोलने की अपनी-अपनी अलग वजह होती है. कभी कोई किसी के अच्छे के लिए झूठ बोलता है. तो किसी के झूठ बोलने का कारण होता है, विवादित बयानों के ज़रिए अन्य लोगों को बुरे इरादोंवाला या उनके चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगाने का प्रयास करना, ताकि ख़ुद के दोष को छुपा सकें. कोई आगे बढ़ने के लिए झूठ बोलता है, तो कोई किसी को पीछे धकेलने के लिए झूठ का सहारा लेता है. फिर ऐसे लोग भी हैं, जो लज्जा से बचने, पिछले झूठ को सही साबित करने या लोगों को धोखा देने के ख़्याल से झूठ बोलते हैं. वैसे झूठ बोलने की अनिवार्यता को पहली बार क़रीब दो दशक पहले कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के सामाजिक मनोविज्ञान पढ़ानेवाले प्रोफेसर बेला डे पोलो ने दस्तावेज़ किया था.
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संसाधनों की रस्साकशी में बिना किसी ताक़त और ज़ोर-जबर्दस्ती के लोगों से चालाकी से काम निकलवाना ज़्यादा कारगर होता है और यह झूठ का रास्ता अपनाने पर आसानी से हो पाता है. यह जानवरों की अपनाई जानेवाली रणनीतियों से काफ़ी मिलता-जुलता है.
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में नीतिशास्त्र पढ़ानेवाली सिसेला बोक मानती हैं कि किसी का पैसा या संपत्ति हासिल करने के लिए, डाका डालने या सिर फोड़ने से ज़्यादा आसान है झूठ बोलना.
दिलचस्प बात यह है कि कुछ झूठ की सच्चाई जानते हुए भी हम उस पर यक़ीन करते हैं. इससे हमारी दूसरों को धोखा देने की और हमारी ख़ुद की धोखा खाने की प्रवृति दिखाई देती है. अगर सोशल मीडिया की ही बात करें, तो शोध के मुताबिक़, हमें उस झूठ को स्वीकाने में ज़रा भी संकोच नहीं होता, जो हमारी ही सोच को और मज़बूत करती है.
इसलिए जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि उनके शपथ ग्रहण समारोह में ऐतिहासिक भीड़ जमा हुई थी, तब उनके समर्थकों ने बगैर उस बात को जांचे स्वीकार कर लिया था, जबकि बाद में सामने आया कि ट्रंप की ओर से ज़ारी की गई तस्वीरें दरअसल, फोटोशॉप्ड थीं. वाॅशिंगटन पोस्ट फैक्ट चेकर्स ने उनके बयानों को खंगाला, तो पता चला कि वे औसतन लगभग 22 झूठ प्रतिदिन बोलते हैं. बावजूद इसके हम उसे झूठ मानने से इंकार करते हैं, क्योंकि वह बात कहीं-न-कहीं हमारे बनाए विचारों का समर्थन करती है. जॉर्ज लैकऑफ, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बॅकलीं में भाषाविद हैं और कहते हैं कि अगर कोई तथ्य सामने रखे और वो आपकी सोच में फिट न हो, तो या तो आप उसे अनदेखा करेंगे या फिर उसे बकवास बताने लगेंगे.
अभी कुछ समय पहले की ही बात है. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में एक महुआ का पेड़ रातों-रात चमत्कारी बन गया. दरअसल, एक चरवाहा ने लोगों को कहानी सुनाई कि जब वह जंगल से गुज़र रहा था, तब उसे महसूस हुआ कि कोई उसे खींच रहा है. फिर जाकर वह एक महुआ के पेड़ से लिपट गया और पल भर में ही उसके शरीर और जोड़ों का दर्द गायब हो गया. फिर क्या था, लोगों की वहाँ भीड़ जमा होने लगी, यह जांचे बगैर कि वह चरवाहा सच बोल रह है या झूठ. आज लोग सुनी-सुनाई बातों पर यक़ीन करने लगे हैं, लेकिन सोचिए ज़रा कि कैसे कोई पेड़ किसी को रोगमुक्त कर सकता है? एक झूठे अफ़वाह के पीछे इस कदर लोग पागल हो गए कि वहां धूप-अगरबत्ती जलाने लगे और पेड़ को छूने-लिपटने लगे. आश्चर्य तो इस बात का कि पढ़े-लिखे लोग भी उन सब में शामिल हो गए. मगर भूल गए कि वहां धूप-अगरबत्ती जलाने से ना केवल पेड़-पौधों को नुक़सान पहुंच रहा है, बल्कि पर्यावरण भी दूषित हो रह है.
झूठ हमें आकर्षित क्यों करती है?
कहते हैं, सच कड़वा होता है, पर झूठ हमें आकर्षित करती है. इसका एक कारण तो यह है कि झूठ बोलने की हमारी सेल्फ सेविंग ह्यूमन टेंडेंसी इतनी सामान्य है कि मनोवैज्ञानिकों ने इसे एक रोचक नाम दिया है, ’द फंडामेंटल अट्रिब्यूशन एरर’ यानि मौलिक रूप से ग़लती थोपने की आदत. यह हमारे भीतर इतनी गहरी बैठ गई है कि हम हर किसी के साथ झूठ बोलने में अभ्यस्त हो गए हैं. ऐसा हम ईमेल, सोशल मीडिया, वाहन बीमा राशि के समय, बच्चों के साथ, दोस्तों यहाँ तक कि अपने जीवनसाथी के साथ भी बेवजह लगातार झूठ बोलते हैं.
वैसे जानकार मानते हैं कि झूठ बोलने की आदत हमारी विकास का वैसा ही हिस्सा है, जैसे कि चलना, बोलना, खाना-पीना आदि. हालांकि, झूठ बोलने को कहीं-न-कहीं मासूमियत खोने की शुरुआत माना जाता है.
मनोवैज्ञानिक तो यह भी कहते हैं कि बच्चे का झूठ बोलना इस बात का संकेत है कि उसका ज्ञान संबंधी विकास पटरी पर है. उम्र के साथ बच्चे बेहतर तरीक़े से झूठ बोल पाते हैं. झूठ बोलने के दौरान दूसरे पक्ष के दिमाग़, उसकी सोच को समझने के तरीक़े को थ्योरी ऑफ माइंड कहा गया है.
बच्चों के झूठ में धीरे-धीरे इस थ्योरी का असर दिखाई देने लगता है. जब वह यह सोचकर झूठ बोलते हैं कि ऐसा बोलने पर मम्मी क्या सोचेंगी? और इसलिए इसे किसी दूसरे तरीक़े से कहा जाए, तो अच्छा होगा. इसके अलावा यह बताने की ज़रूरत है कि झूठ बोलने के लिए कितनी योजना और आत्मसंयम की जरूरत पड़ती है.
एक अध्ययन में सामने आया कि सच्ची भावनाओं को छिपाना आसान नहीं है, जबकि हम स्वाभाविक रूप से झूठ नहीं बोल सकते हैं. वहीं 2014 में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि धोखा या झूठ किसी को अस्थायी रूप से थोड़ा और रचनात्मक होने के लिए प्रेरित कर सकता है.
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झूठ बोलने की वजह अलग-अलग होती है…
• किसी ग़लती को छुपाने के लिए
• किसी को बचाने के लिए
• आर्थिक लाभ के लिए
• आर्थिक लाभ से परे निजी लाभ के लिए
• अच्छी छवि पेश करने के लिए
• मज़ाक
• परोपकार के लिए
• शिष्टाचार के लिए
• बुरी भावना की वजह से
• मानसिक वजह से
• अज्ञात वजहों से
वैसे अगर किसी के भले के लिए झूठ बोला जाए, तो वह कई सच से बड़ा होता है, ऐसा भी हमने सुना है, लेकिन कितना झूठ है सही?
इस संबंध में मनोवैज्ञानिक डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं कि दूसरों की भलाई के लिए कुछ ख़ास स्थितियों में बोले गए झूठ को झूठ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, लेकिन अपने फ़ायदे, लालच और दूसरों को नुक़सान पहुंचाने या उन्हें परखने के उद्देश्य से झूठ बोलने की आदत बहुत भारी पड़ सकती है. झूठे बच्चे और भेड़ियोंवाली कहानी तो आपने बचपन में ज़रूर सुनी होगी? ऐसा करनेवाले लोग अपनों का विश्वास खो देते हैं. नकारात्मक छबि की वजह से इनकी सच्ची बातों पर भी लोगों को यक़ीन नहीं होता. अगर कभी मजबूरी में आपको झूठ बोलना भी पड़े, तो बाद में जब स्थितियां सामान्य हो जाए, तो विनम्रता से माफ़ी मांगते हुए अपना झूठ स्वीकार लेना चाहिए. इससे मन में कोई ग्लानि नहीं रहेगी और आपकी छबि भी नहीं बिगाड़ेगी.
- मिनी सिंह