एक नज़र आंकड़ों पर
- वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन के अनुसार, साल 2011 में अमेरिका के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश था, जहां लिविंग ऑर्गन डोनेशन सबसे ज़्यादा हुआ. - आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के पहले सबसे ज़्यादा लिविंग ऑर्गन डोनेशनवाले देश अमेरिका के मुक़ाबले में भी ज़्यादा महिला डोनर्स हमारे देश में हैं, जबकि ट्रांसप्लांट सबसे ज़्यादा अमेरिका में होते हैं. - जहां अमेरिका में 62% महिलाएं किडनी डोनर्स हैं, वहीं भारत में यह आंकड़ा 74% है, जहां अमेरिका में 53% लिवर डोनर्स महिलाएं हैं, वहीं हमारे देश में यह संख्या 60.5% है. - जबकि ऑर्गन लेने के मामले में हमारे देश में यह आंकड़ा कम है. जहां अमेरिका में किडनी के 39% और लिवर का 35% डोनेशन महिलाओं को मिलता है, वहीं भारत में यह आंकड़ा 24% और 19% है. - हमारे देश में सालाना लगभग 4,000 किडनी ट्रांसप्लांट होते हैं, जिसमें से 80% ऑर्गन डोनेट करनेवाली महिलाएं होती हैं. इसमें से भी 90% मामलों में पत्नियों ने किडनी देकर अपने पति की जान बचाई है. - यहां यह ध्यान देनेवाली बात है कि 80% मामलों में ऑर्गन लेनेवाले पुरुष हैं, क्योंकि महिलाओं की संख्या बहुत कम है. - वहीं इस मामले को दूसरे एंगल से देखें, तो जहां किसी पुरुष की जान बचाने के लिए पांच महिलाएं डोनेशन के लिए आगे आती हैं, वहीं केवल एक पुरुष किसी महिला को ऑर्गन डोनेट करने को राज़ी होता है. - अगर पुरुषों के अनुसार देखें, तो 64% किडनी ट्रांसप्लांट के मामलों में डोनर महिलाएं ही थीं, जबकि महज़ 8% मामलों में पुरुषों ने महिलाओं को किडनी डोनेट की. - आंकड़ों के मुताबिक़ जहां पांच पुरुषों को आसानी से किडनी मिल जाती है, वहीं दो में से केवल एक महिला को ज़रूरत पड़ने पर किडनी मिल पाती है. यह भी पढ़ें: संपत्ति में हक़ मांगनेवाली लड़कियों को नहीं मिलता आज भी सम्मान… (Property For Her… Give Her Property Not Dowry)महिलाओं की संख्या अधिक होने के पीछे का कारण व मानसिकता
- पुरुषों द्वारा डोनेशन या ट्रासप्लांट के लिए मना करने का सबसे बड़ा कारण उनका कमाऊ होना है. क्योंकि महिलाएं कमाऊ नहीं हैं, घर पर रहती हैं, इसलिए वो पहली चॉइस बन जाती हैं. - ऐसा माना जाता है कि घरेलू महिलाएं सर्जरी के बाद जितने दिन चाहें, आराम कर सकती हैं, जबकि पुरुष ऐसा नहीं कर सकते. - हमारे देश में आज भी पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं को कम तनख़्वाह मिलती है. यह भी एक कारण है कि अगर वर्किंग महिला को अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी, तो परिवार की आर्थिक स्थिति ज़्यादा प्रभावित नहीं होगी, जबकि पुरुष कुछ दिनों की छुट्टी भी परिवार को प्रभावित कर सकती है. - ज़्यादातर मामलों में देखा गया है कि पुरुष ऑर्गन डोनेट करने से साफ़-साफ़ मना कर देते हैं, पर महिलाएं डर, लिहाज़ या फिर संकोच के कारण मना करने से हिचकिचाती हैं. - भारतीय महिलाएं भावुक होती हैं, इसलिए ऐसे फैसले दिमाग़ से नहीं, दिल से लेती हैं. किसी अपने को बचाने में अगर उनकी जान पर भी बन आए, तो वो ख़ुद की परवाह नहीं करतीं. - ज़्यादातर महिलाएं स्वेच्छा से डोनेट करती हैं, क्योंकि उन्हें अपनों की जान ज़्यादा प्यारी होती है. - बहुत बार ऐसा भी देखा गया है कि अगर घर की बहू का मैच डोनेशन के लिए हो जाए, तो सब यह उम्मीद करते हैं कि वो ट्रांसप्लांट के लिए मना नहीं करेगी, चाहे उसकी मर्ज़ी हो या न हो. - महिलाओं पर अपनों की जान बचाने के लिए एक तरह का सामाजिक दबाव भी होता है, जो पुरुषों पर नहीं होता. - डोनेशन या ट्रांसप्लांट के 0.5% मामलों में डोनर की जान जाने का ख़तरा भी होता है. यह भी एक बड़ा कारण है कि पुरुष डोनेशन के लिए आगे नहीं आते. - महिलाओं में त्याग की भावना इतनी प्रबल होती है कि अपने परिवार के लिए वो कुछ भी कर सकती हैं. - बहुत-से पुरुष डॉक्टर से झूठे-मूठे मेडिकल कारण बताकर डोनेशन से बच जाते हैं, जबकि महिलाएं ऐसा नहीं करतीं. यह भी पढ़ें: हर महिला को पता होना चाहिए रिप्रोडक्टिव राइट्स (मातृत्व अधिकार) (Every Woman Must Know These Reproductive Rights)दिल को आहत करनेवाले कुछ मामले
- पहला मामला 2016 में नवी मुंबई का है. दरअसल, दो साल की बच्ची को लिवर ट्रांसप्लांट की ज़रूरत थी. हॉस्पिटल प्रबंधन ने सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर पैसों का इंतज़ाम किया और बच्ची के पिता डोनर के तौर पर फिट पाए गए. फिर भी ट्रांसप्लांट आठ महीने बाद किया गया, क्योंकि उस व़क्त बच्ची की मां प्रेग्नेंट थी, उसका गर्भपात कराया गया, ताकि वो जल्द से जल्द डोनर बनने के लिए फिट हो जाए. बाद में डॉक्टर्स को पता चला कि पिता पर बच्ची के दादा-दादी का दबाव था कि बेटी के लिए उनका बेटा अपनी जान ख़तरे में न डाले, इसलिए पिता डोनर नहीं बना. - वहीं दूसरा मामला राजधानी दिल्ली का है. कामकाजी रितु को बचपन से एक किडनी में प्रॉब्लम थी. प्रेग्नेंसी के दौरान उसकी दूसरी किडनी में भी प्रॉब्लम हो गई. डॉक्टरों ने कहा, रितु को बचाने का तरीक़ा स़िर्फ ट्रांसप्लांट है. पति का ब्लड ग्रुप मैच होने से सभी को उससे उम्मीदें बंधी थीं, पर उसने सीधे-सीधे मना कर दिया. संयोग से एक 14 साल के बच्चे की मौत होने से रितु को किडनी मिल गई. - ऐसे मामलों को देखकर ही समझ आता है कि क्यों जब पति को ज़रूरत होती है, तो 80% महिलाएं तुरंत राज़ी हो जाती हैं, पर जब बारी उसकी आती है, तो स़िर्फ 20% मामलों में ही पति आगे आते हैं.क़ानून ने जब दिया महिलाओं को अधिकार
- साल 1995 में ‘द ट्रांसप्लांटेशन ऑफ ह्यूमन ऑर्गन्स एक्ट’ में पत्नियों को भी लीगल डोनर्स की लिस्ट में शामिल करते ही महिला लाइव ऑर्गन डोनर्स की लाइन लग गई. इससे पहले महिलाओं को डोनर्स की लिस्ट में शामिल नहीं किया गया था. - द ट्रांसप्लांटेशन ऑफ ह्यूमन ऑर्गन्स एंड टिश्यूज़ रूल्स, 2014 के अनुसार, कोई भी नाते-रिश्तेदार या फिर जिसे उस व्यक्ति से भावनात्मक लगाव हो, उसे ऑर्गन डोनेट कर सकता है, पर यह कमर्शियल इस्तेमाल के लिए नहीं होना चाहिए. - महिलाओं को ज़बर्दस्ती डोनेशन के लिए राज़ी तो नहीं कराया गया है, यह जानने के लिए डॉक्टर डोनर से अकेले में बात करते हैं. डोनेशन से पहले उन्हें इससे जुड़े ख़तरों के बारे में भी बताया जाता है. इस दौरान काउंसलिंग बहुत मायने रखती है.हमारी बहादुर शीरोज़
- कुछ समय पहले पूजा श्रीराम बिजारनिया की कहानी सोशल मीडिया के ज़रिए काफ़ी लोकप्रिय हुई थी, जहां पूजा ने अपने पिता को अपना लिवर देकर एक नई ज़िंदगी उपहार में दी थी. यह अपने आप में बहुत बड़ी ख़बर थी, क्योंकि पूजा की उम्र बहुत कम थी और ऐसे में इतना बड़ा ़फैसला लेकर उन्होंने एक मिसाल कायम की थी. - कुछ साल पहले रांची शहर की ख़बर ने सबको एक बार फिर बेटियों के गुणगान का मौक़ा दिया, जब परिवार की सबसे बड़ी बेटी ने अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए अपने पिता के लिए लिवर डोनेट किया था.- अनीता सिंह
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