साल 1964 में सत्येन बोस द्वारा निर्देशित फिल्म दोस्ती ने रिलीज़ होते ही पूरे देश में धूम मचा दी. इसके सभी गाने इतने पॉप्युलर हुए कि चारों तरफ़ उन्हीं की गूंज सुनाई देती थी. चाहे फिल्म की कहानी हो, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत, रफ़ी साहब की मधुर आवाज़ हो या फिर सुशील कुमार और सुधीर कुमार की अदाकारी, इस फिल्म ने न सिर्फ़ देश, बल्कि विदेशों में भी लोगों को अपना दीवाना बना दिया था. यह फिल्म 4थे मॉस्को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी शामिल हुई थी और सबसे बड़ी बात उस ज़माने में भी फिल्म ने 2 करोड़ का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन किया था. फिल्म की रिलीज़ के साथ ही दोनों सितारे सुशील कुमार और सुधीर कुमार रातोंरात स्टार बन गए, पर ऐसा क्या हुआ कि इतनी बड़ी ब्लॉकबस्टर फिल्म देनेवाले दोनों स्टार्स उसके बाद किसी और फिल्म में नज़र नहीं आए? आख़िर कहां गुम हो गए ये दोनों सितारे?
आपको जानकर हैरानी होगी कि जब दोनों सितारे इस फिल्म के बाद किसी और फिल्म में नज़र नहीं आए, तो एक ख़बर आग की तरह पूरे देश में फ़ैल गई कि दोनों ही स्टार्स की एक कार एक्सीडेंट में मौत हो गई और इसके पीछे नाम लगाया गया मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार का. जबकि आपको बता दें कि यह एक महज़ अफ़वाह थी, न ही दोनों सितारों की मौत हुई थी और न ही इसके पीछे दिलीप कुमार का कोई हाथ था.
यह फिल्म कितनी बेहतरीन है इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इस फिल्म को उस साल का नेशनल अवॉर्ड फॉर बेस्ट फीचर फिल्म इन हिंदी का अवार्ड मिला. इसके अलावा फिल्म को 1965 में फिल्मफेयर के बेस्ट फिल्म, बेस्ट स्टोरी, बेस्ट डायलॉग्स, बेस्ट म्युज़िक डायरेक्शन जैसे अवॉर्ड्स मिले. फिल्म में 6 गाने थे, जिसमें से 5 मोहम्मद रफी और एक लता मंगेशकर ने गाया था. उसके गाने चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे, राही मनवा दुःख की चिंता, कोई जब राह न पाए, मेरा जो भी कदम है, जानेवालों ज़रा मुड़के देखो यहां आज भी उतने ही पॉप्युलर हैं. इस फिल्म के बाद दोनों ही कलाकारों के साथ क्या हुआ यह जानने से पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि उससे पहले उनकी ज़िन्दगी में क्या हुआ था. यहां हम आपको उन दोनों की ज़िन्दगी से जुड़े कुछ पहलुओं के बारे में बताते हैं.
सुशील कुमार (Sushil Kumar)
फिल्म में बैसाखी का सहारा लिए रामनाथ का किरदार निभानेवाले सुशील कुमार का जन्म 4 जुलाई, 1945 को कराची में हुआ था. उनका असली नाम सुशील बेलानी था. उनके जन्म के ढाई साल बाद ही देश का बंटवारा हो और वो परिवार समेत गुजरात आ गए. बचपन में वो काफ़ी रईस थे, पर उनका परिवार का बिजनेस कुछ ख़ास नहीं चला, तो वे लोग मुम्बई आ गए. मुम्बई में उनके दादाजी को बिज़नेस में बहुत बड़ा नुकसान हुआ और वो दिवालिया हो गए. इस सदमे में पिता और दादा दोनों की मृत्यु हो गई और सुशील कुमार की मां उन्हें और उनके दो भाई बहनों को लेकर उनकी मौसी जो मुम्बई के चेम्बूर इलाके में रहती थीं, वहां ले गईं. वहां उन्होंने अपनी पढाई जारी रखी. परिवार की तंगहाली से बचने के लिए उनकी मां ने उन्हें फिल्मों में काम करने भेज दिया. शुरू शुरू में उन्होंने 1-2 सिंधी फिल्मों में काम किया. कई फिल्मों में उन्होंने बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट काम किया. उन्होंने काला बाज़ार, धूल का फूल, दिल भी तेरा हम भी तेरे, फिर सुबह होगी, श्रीमान सत्यवादी, संपूर्ण रामायण और फूल बने अंगारे में काम किया था. फिर उन्हें मिली फिल्म दोस्ती, जिसमें उनकी सफलता ने आसमान की बुलंदियां छू लीं.
इसके बाद उन्होंने इस फिल्म के बाद एक प्रोड्यूसर दोनों ही एक्टर्स को अपनी एक फिल्म में लेना चाहते थे, लेकिन सुधीर कुमार ने साउथ की फिल्म बतौर लीड जॉइन कर ली थी, इसलिए उन्होंने यह फिल्म करने से मना कर दिया और प्रोड्यूसर्स ने सुशील कुमार को फिल्म के लिए मना कर दिया, क्योंकि वो दोनों की जोड़ी को लेना चाहते थे. इसके बाद सुशील कुमार ने जयहिन्द कॉलेज से ग्रैजुएशन की पढाई पूरी की और एयर इंडिया में नौकरी करने लगे. 1971 से 2003 तक उन्होंने एयर इंडिया में नौकरी की और रिटायरमेंट के बाद अपने परिवार के साथ मुंबई के चेम्बूर इलाके में ही रहते हैं.
सुधीर कुमार सावंत( Sudhir Kumar Sawant )
फिल्म में अंधे लड़के मोहन का किरदार निभानेवाले सुधीर कुमार सावंत एक महाराष्ट्रीय परिवार में जन्मे थे. वो मुम्बई के लालबाग, परेल इलाके में रहते थे. सुधीर कुमार के मामा मशहूर वी शांताराम की कंपनी राजकमल कला मंदिर में चीफ मेकअप मैन थे. सुधीर कुमार ने 1964 में ही संत ज्ञानेश्वर फिल्म में भी काम किया था. दोस्ती के बाद उन्होंने लाडला और जीने की राह जैसी फिल्मों में भी काम किया था. उन्होंने जानकी, अन्नपूर्णा और सुदर्शन, ची राणी जैसी मराठी फिल्मों में भी काम किया था.
इसके बाद उनका फ़िल्मी करियर लगभग समाप्त हो गया और उन्होंने शादी करके घर बसा लिया. सुधीर सावंत के बारे में आज भी कई सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स पर यह अफ़वाह है कि 1993 में चिकन खाते वक़्त उनके गले में हड्डी अटक गई और मुंबई में 93 दंगों के कारण लगे कर्फ्यू के कारण उन्हें तुरंत इलाज नहीं मिल पाया, जिससे उनका घाव बढ़ता गया और टाटा अस्पताल में भर्ती करने के कुछ दिनों बाद ही उनका देहांत हो गया. यह पूरी तरह ग़लत है, सुधीर कुमार की छोटी बहन ने खुद सोशल मीडिया के ज़रिये सबको बताया कि 1993 में उनका निधन कैंसर के कारण हुआ था. चिकन बोन वाली कहानी पूरी तरह ग़लत है.
अब तो आप जान गए कि फिल्म में मोहन का किरदार निभानेवाले सुधीर कुमार अब हमारे बीच नहीं रहे, जबकि रामू उर्फ़ सुशील कुमार सकुशल जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
- अनीता सिंह
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