फॉरवर्डेड मैसेजेस का दौर
पहले लोग त्योहारों की शुभकामनाएं अपने मित्र-संबंधियों के घर पर स्वयं जाकर देते थे. बाज़ारवाद के कारण पहले तो इसका स्थान बड़े और महंगे ग्रीटिंग कार्ड्स ने लिया, फिर ई-ग्रीटिंग्स ने उनकी जगह ली. ग्रीटिंग कार्ड या पत्र के माध्यम से अपने हाथ से लिखकर जो बधाई संदेश भेजे जाते थे, उसमें एहसास की ख़ुशबू शामिल होती थी, लेकिन उसकी जगह अब फेसबुक और व्हाट्सऐप पर मैसेज भेजे जाने लगे हैं. ये मैसेज भी किसी के द्वारा फॉरवर्ड किए हुए होते हैं, जो आगे फॉरवर्ड कर दिए जाते हैं. कई बार तो बिना पढ़े ही ये मैसेजेस फॉरवर्ड कर दिए जाते हैं. उनमें न तो कोई भावनाएं होती हैं, न ही भेजनेवाले की असली अभिव्यक्ति. ये तो इंटरनेट से लिए मैसेज ही होते हैं. इसी से पता लगाया जा सकता है कि तकनीक कितनी हावी हो गई है हम पर, जिसने संवेदनाओं को ख़त्म कर दिया है.रिश्तों की गढ़ती नई परिभाषाएं
परस्पर प्रेम और सद्भाव, सामाजिक समरसता, सहभागिता, मिल-जुलकर उत्सव मनाने की ख़ुुशी, भेदभावरहित सामाजिक शिष्टाचार आदि अनेक ख़ूबियों के साथ पहले त्योहार हमारे जीवन को जीवंत बनाते थे और नीरसता या एकरसता को दूर कर स्फूर्ति और उत्साह का संचार करते थे, पर आजकल परिवार के टूटते एकलवाद तथा बाज़ारवाद ने त्योहारों के स्वरूप को केवल बदला नहीं, बल्कि विकृत कर दिया है. सचमुच त्योहारों ने संवेदनशील लोगों के दिलों को भारी टीस पहुंचाना शुरू कर दिया है. सोशल मीडिया के ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल ने जहां हमारी एकाग्रता को भंग किया है, वहीं सामाजिकता की धज्जियां उड़ा दी हैं. फोन कर बधाई देना भी अब जैसे आउटडेटेड हो गया है. बेवजह क्यों किसी को फोन कर डिस्टर्ब किया जाए, इस सोच ने मैसेज करने की प्रवृत्ति को बढ़ाकर सामाजिकता की अवधारणा पर ही प्रहार कर दिया है. लोगों का मिलना-जुलना जो त्योहारों के माध्यम से बढ़ जाता था, उस पर विराम लग गया है. ज़ाहिर है जब सोशल मीडिया बात कहने का ज़रिया बन गया है, तो रिश्तों की संस्कृति भी नए सिरे से परिभाषित हो रही है.हो गई है सामाजिकता ख़त्म
‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’, यह वाक्य हमें बचपन से रटाया गया, परंतु तकनीक ने शायद अब हमें असामाजिक बना दिया है. सोशल मीडिया के बढ़ते वर्चस्व ने मनुष्य की सामाजिकता को ख़त्म कर दिया है. देखा जाए, तो सोशल मीडिया आज की ज़िंदगी की सबसे बड़ी ज़रूरत बन गया है. व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और न जाने क्या-क्या? स़िर्फ एक टच पर दुनिया के इस हिस्से से उस हिस्से में पहुंचा जा सकता है. देश-दुनिया की दूरियां सिमट गई हैं, लेकिन रिश्तों में दूरियां आ गई हैं. संवादहीनता और अपनी बात शेयर न करने से आपसी जुड़ाव कम हो गया है और इसका असर त्योहारों पर पड़ा है. माना जाता था कि त्योहारों पर सारे गिले-शिकवे दूर हो जाते थे. एक-दूसरे से गले मिलकर, मिठाई खिलाकर मन की सारी कड़वाहट ख़त्म हो जाती थी. पर अब किसी के घर जाना समय की बर्बादी लगने लगा है, इसलिए बहुत ज़रूरी है तो ऑनलाइन गिफ़्ट ख़रीद कर भेज दिया जाता है. यह भी पढ़े: लव गेम: पार्टनर से पूछें ये नॉटी सवाल (Love Game: Some Naughty Questions To Ask Your Partner)रसोई से नहीं उठती ख़ुशबू
आजकल प्रत्येक क्षेत्र में बाज़ारवाद हावी हो रहा है. इस बनावटी माहौल में भावनाएं गौण हो गई हैं. ऑनलाइन संस्कृति ने अपने हाथों से उपहार को सजाकर, उसे स्नेह के धागे से बांधकर और अपनी प्यार की सौग़ात के रूप में अपने हाथों से देने की परंपरा को पीछे धकेल दिया है. बाज़ार में इतने विकल्प मौजूद हैं कि ख़ुद कुछ करने की क्या ज़रूरत है. एक समय था कि त्योहारों पर घर में न जाने कितने तरह के पकवान बनाए जाते थे. न जाने कितने नाते-रिश्तेदारों के लिए लड्डू, मठरी, नमकपारे, नमकीन, बर्फी, गुलाब जामुन और न जाने कितने डिब्बे पैक होते थे और यह भी तय किया जाता था कि कौन किसके घर जाएगा. पर एकल परिवारों ने त्योहारों की रौनक़ को अलग ही दिशा दे दी. महंगाई की वजह से त्योहार फ़िज़ूलख़र्ची के दायरे में आ गए हैं. ऐसे में मिठाइयां या अन्य चीज़ें बनाने का कोई औचित्य दिखाई नहीं पड़ता. पहले के दौर में संयुक्त परिवार हुआ करते थे और घर की सारी महिलाएं मिलकर पकवान घर पर ही बना लिया करती थीं. लेकिन अब न लोगों के पास इन सबके लिए व़क्त है और न ही आज की हेल्थ कॉन्शियस पीढ़ी को वह पारंपरिक मिठाइयां पसंद ही आती हैं. कोई घर पर आ जाता है, तो झट से ऑनलाइन खाना ऑर्डर कर उनकी आवभगत करने की औपचारिकता को पूरा कर लिया जाता है. कौन झंझट करे खाना बनाने का. यह सोच हम पर इसीलिए हावी हो पाई है, क्योंकि तकनीक ने जीवन को आसान बना दिया है. बस फ़ोन पर एक ऐप डाउनलोड करने की ही तो बात है. फिर खाना क्या, गिफ़्ट क्या, घर को सजाने का सामान भी मिल जाएगा और घर आकर लोग आपका हर काम भी कर देंगे. यहां तक कि पूजा भी ऑनलाइन कर सकते हैं. डाक से प्रसाद भी आपके घर पहुंच जाएगा. हो गया फेस्टिवल सेलिब्रेशन- कोई थकान नहीं हुई, कोई तैयारी नहीं करनी पड़ी- तकनीक के एहसास ने मन को झंकृत कर दिया. बाज़ार से आई मिठाइयों ने मुंह का स्वाद बदल दिया और बाज़ारवाद ने उपहारों की व्यवस्था कर रिश्तों को एक साल तक और सहेजकर रख दिया- नहीं हैं इनमें जुड़ाव का कोई अंश तो क्या हुआ, एक मैसेज जगमगाते दीयों का और भेज देंगे और त्योहार मना लेंगे.- सुमन बाजपेयी
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