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नई पीढ़ी को लेकर बुज़ुर्गों की सोच (The Perception Of Elderly People About The Contemporary Generation)

'आजकल के बच्चों को ज़रा भी तमीज नहीं है. न उठने-बैठने का सलीक़ा, न बात करने का ढंग. नई पीढ़ी तो जाने किस गुमान में रहती है? अरे, हम भी कभी युवा थे, पर इनके जैसा न थे. इन्हें तो देखो, न तज़ुर्बा है, न सीखना चाहते हैं. बड़े लापरवाह हैं. किसी की इज्ज़त नहीं करते, किसी की परवाह नहीं इन्हें. बस अपने में ही मग्न रहते हैं’ ये जुमले आपने भी कभी सुना होगा. अपने घर के लोगों से, पड़ोस के चाचा-ताऊ से या चाची-मौसी से.
बुज़ुर्गों को युवा पीढ़ी में ज़माने भर की बुराइयां नज़र आती है, पर ये सिलसिला कोई नया नहीं है. जो बुज़ुर्ग आज के नौजवानों को कोस रहे हैं. वे ख़ुद भी ऐसे जुमलेबाजी के शिकार हुए होंगे. और उन्हें सीख देने वाली उनके पहले की पीढ़ी भी.
युवाओं को लेकर ऐसी सोच सदियों से नहीं, हज़ारों सालों से चली आ रही है. नौजवानों की बेपरवाही पर नाक-भौं सिकोड़ने का चलन बहुत पुराना है.
डेली मेल अख़बार में 21वीं सदी की युवा पीढ़ी के बारे में लिखा था कि ‘मेलेनियल यानी 21वीं सदी के युवा आलसी हैं और बुनियादी बातों से भी अंजान है. मगर ये कोई नई बात नहीं है. 1951 में स्कॉटलैंड के अख़बार फलकिर्क हेराल्ड ने लिखा था कि ‘बहुत से युवाओं को इतना लाड़-प्यार और दुलार मिलता है कि वह भूल जाते हैं कि टहलना भी कोई चीज़ होती है. सीधे बसों पर सवार हो जाते हैं. कहीं ऐसा न हो कि ये आगे चलकर पैदल चलना ही भूल जाए.
ज़रा सोचिए, क़रीब 72 साल पहले युवा पीढ़ी के बारे में एक अख़बार ने जो लिखा, कमोबेश वही बात आज के दौर के अख़बारों में भी लिखी गई. आज की पीढ़ी पर सबसे बड़ा आरोप यही लगता है कि वे अपने आप में मग्न रहते हैं, स्वार्थी हैं.
परवरिश को लेकर काम करनेवाली अमरीकी वेबसाइट मॉमजेट लिखती हैं कि ‘आज के बच्चे हकीक़त से कोसों दूर हैं. उनका ज़्यादा वक़्त तो कॉफी शॉप में ही बीतता है. वो बेपरवाह हैं. बहुत बिगड़े हुए हैं. वो ख़ुद को तमाम अधिकारों से लेस समझते हैं.‘
कुछ ऐसी ही बात 1771 में पेरिस की एक पत्रिका टाउन एंड कंट्री मैगज़ीन में लिखी गई थी. ‘वो मर्दों वाली बात आज के युवाओं में कहां है? आज के युवा एक कमज़ोर नस्ल हैं. ख़ुद की तारीफ़ में मुब्तिला. आज के कामचोर और कमज़ोर युवाओं को अपने पहले की शानदार पीढ़ी का वारिस कहलाने का बिलकुल भी हक़ नहीं है.
वहीं अभी कुछ साल पहले अमीरीकी अख़बार डेली मेल ने नौजवान पीढ़ी के बारे में कुछ इस तरह लिखा था ‘अफ़सोस की बात है कि आज की पीढ़ी के युवा फोन की लत के शिकार हैं. ख़ुद में मशगूल रहते हैं. हैशटैग करने, स्नैपचैट करने, टवकिंग करने में व्यस्त रहते हैं. वो हमेशा ही शिकायत करते रहते हैं. उन्हें न चीज़ों की समझ है, न जानकारी. राजनीति में भी वह कोई फ़ैसला नहीं ले पाते. हर बात उन्हें बुरी लगती है. सेक्स के बारे में उनके ख़यालात एकदम अजीब हैं!’
वहीं हल डेली मेल नाम के अख़बार ने 1925 में कुछ इस तरह की बात उस दौर के युवाओं के बारे में लिखी थी, ‘आज की युवा पीढ़ी विचारहीन है. आज के युवा निरे जाहिल और बेहद ख़ुदगर्ज हैं.
मशहूर पत्रकार वैनिटी फ़ेयर ने 2014 में नई नस्ल के बारे में लिखा था कि ‘आज की युवा पीढ़ी हमेशा यही सोचती हैं कि वही सही है, जबकि ज़्यादातर मौक़ों पर वो ग़लत होते हैं.
वहीं मशहूर यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने ईसा से भी चार सदी पहले युवा पीढ़ी के बारे में कहा था कि ‘वो समझते हैं कि वो सब कुछ जानते हैं. उन्हें अपनी नासमझी पर भी बड़ा यक़ीन होता है.
क़रीब ढाई हज़ार सालों से नौजवानों के बारे में उनसे पहले की पीढ़ी यही तल्ख़ सोच रहती आई है.
युवा कुछ ज़्यादा ही एहतियात बरतते हैं वॉशिंगटन पोस्ट ने 2016 में लिखा था कि ’21वीं सदी के युवा कुछ ज़्यादा ही सावधानी बरतते हैं. वो कार की सीट बेल्ट लगाकर बड़े हुए हैं, वो बिना हेलमेट के साइकिल भी नहीं चलाते. वे ऐसी पीढ़ी से ताल्लुक़ रखते हैं, जिन्हें अकेले घूमने जाने का मौक़ा नहीं मिला. जो कभी अकेले खेलने नहीं गए.
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वहीं मशहूर पत्रकार लाइफ ने सन 1950 में कमोबेश यही बात उस दौर के युवाओं के बारे में कही थी कि ‘ये विडम्बना है, मगर आज के युवा बड़े चौकस रहते हैं, बहुत नर्वस रहते हैं, आज के दौर के लोगों को डर लगता है कि कहीं वो इंकलाबी ख़्याल के शिकार न हो जाए. युवा पीढ़ी कोई जोख़िम भरा दांव खेलने को तैयार नहीं दिखते.
एक तरफ़ तो नौजवानों को डरा हुआ बताया जाता है, फिर ये भी कहते हैं कि साहब ख़ुद पर इन्हें कुछ ज़्यादा ही ऐतबार है.

जैसे सातवें आसमान पर…
आयरलैंड के एक अख़बार में लिखा था कि ‘युवा पीढ़ी आत्मविश्वास से कुछ ज़्यादा ही लबरेज नज़र आती है, उन्हें क़ाबिलियत से ज़्यादा ख़ुद पर ऐतबार है. वहीं ढाई हज़ार साल पहले अरस्तू ने कहा था. ‘नौजवान का दिमाग़ सातवें आसमान पर रहता है, क्योंकि अभी उनका सबक ज़िंदगी के कड़वे तजुर्बों से नहीं पड़ा. न ही वो मुश्किलों के शिकार हुए हैं.‘
कितनी पीढ़ियां बीत गई, अरस्तू से लेकर अब तक. मगर युवाओं को लेकर ख़्याल जस के तस बने हुए हैं. कुछ ज़्यादा ही उम्मीदें पाल लेने का आरोप भी उन पर लगता रहता है.
जैसे कि आयरिश अखबार इंडिपेंडेट ने लिखा था कि ‘आज के युवा बस नौकरी बदलते रहते हैं. वे अच्छे मुलाज़िम नहीं हैं. आज से 25 साल पहले 1995 में फाइनेंशियल टाइम्स ने उस दौर के युवाओं के बारे में लिखा था कि ‘आजकल ऐसी कंपनियों की तलाश नहीं होती, जो ज़िंदगीभर के लिए रोज़गार दे. आजकल लोग नौकरी तलाश रहे हैं, जो आसान हो, जल्दी से बदली जा सके.‘
युवा बहुत शिकायत करते हैं. द टेलीग्राम ने 2015 में लिखा था कि नौकरी हो, संपत्ति हो या दुनिया का कोई भी मसला हो, युवा पीढ़ी की शिकायतें बहुत हैं.‘ आज के युवा फिज़ूलख़र्ची बहुत करते हैं, अरे, चार पैसे कमा कर दिखाओं तो जाने. पड़े-पड़े बाप की रोटियां कब तक तोड़ते रहोगे?’ ये शिकायतें तो हर नौजवान ने अपने बारे में सुनी होगी. हर पीढ़ी पर फिज़ूलख़र्ची का आरोप लगता आया है.
ऑस्ट्रेलिया के मशहूर कारोबारी टिम गर्नर ने कहा था, ‘जब मैंने अपना घर ख़रीदा तो मैं मंहगी कॉफी नहीं पीता था, न ही क़ीमती अवाकाडो खाता था, लेकिन आज के नौजवान तो रोज़ बाहर खाना चाहते हैं. हर साल विदेशों की सैर पर जाना चाहते हैं.‘ वहीं कुछ लोगों का कहना है, ‘आज के दाढ़ीविहीन युवा… समझते ही नहीं कि क्या फ़ायदेमंद है. उन्हें तो बस पैसों की बर्बादी से मतलब है.'
युवाओं से शिकायतें की फ़ेहरिस्त यहीं ख़त्म नहीं होती.

हर दौर में युवाओं से जो आम शिकायतें हैं लोगों की, वो कुछ इस तरह हैं-
• वो घर नहीं ख़रीद रहे, कितनी बुरी बात है.
• वो हमेशा बच्चा ही बना रहना चाहता है.
• उम्र हो चुकी है, शादी कब करोगे?
• शादी के इतने साल हो गए, अब बच्चा कब करोगे, बुढ़ापे में?
• तकनीकी ने आज की पीढ़ी को बिगाड़ कर रख दिया है.
• आज के युवा अपने आप में ही इतने मग्न रहते हैं कि उनके आसपास क्या हो रहा है, परवाह नहीं उन्हें.
• आज के नौजवानों ने तो धर्म का सत्यानाश कर दिया है.
• पता नहीं खेल से युवाओं को इतनी परेशानी क्या है.
• आज के युवा तो पढ़ना-लिखना ही नहीं चाहते.
• मां-बाप ने ही बच्चों को बिगाड़ रखा है. एक हमारा ज़माना था. मां-पिता के सामने चू तक नहीं करते थे और आज के बच्चों को देखो. कैसे बड़ों से बहस करते हैं…
तो देखा आपने? कैसे लोगों को युवाओं से शिकायतें हैं. दौर बदला, सदियां बदली, मगर नहीं बदला तो युवाओं के बारे में लोगों की सोच.

आख़िर क्यों लोगों को युवाओं से इतनी शिकायतें हैं?क्या उन्हें देश की चिंता नहीं? क्या उनमें भावनाएं नहीं है? या वे संवेदनाएं रहित हैं?
अक्सर देखा गया है कि बुज़ुर्गों का अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक नज़रिया उनकी समस्याओं का कारण बनता है. वे अपनी संतानों को अपने एहसानों के लिए कर्ज़दार मानते हैं. उनकी सोच के अनुसार, अपने बच्चों के लालन-पालन, पढ़ाने-लिखाने में उन्हें अनेक तरह के कष्टों से गुज़रना पड़ा और इसलिए वह अपनी संतान को अपने बुढ़ापे का सहारा मानने लगते हैं. उन्हें लगता बेटा सिर्फ़ उनके बारे में सोचे, उनकी सेवा करे, और जब बच्चे यही सब कुछ नहीं कर पाते, किसी कारण वश, तो वही संतान उनकी नज़रों में नालायक बन जाते हैं. नहीं समझते बुज़ुर्ग कि मां-बाप के अलावा भी उनकी अपनी दुनिया है, उनकी भी अपनी ज़िम्मेदारियां हैं, जो उन्हें निभानी है.
बुज़ुर्ग लोग दुनिया में आ रहे बदलाव को अनदेखा कर युवा पीढ़ी के परंपरा व्यवहार से क्षुब्ध रहते हैं. उन्हें तो सिर्फ़ युवा पीढ़ी में बुराइयां ही बुराइयां नज़र आती है. युवा के तर्कपूर्ण बातों को बुज़ुर्ग अपना अपमान मानते हैं. युवा के नए विचार, उनकी जीवनशैली उनके आंखों में चुभती हैं. उन्हें लगता है आज के युवा पीढ़ी बुज़ुर्गों का सम्मान नहीं करती, पर सच्चाई तो यह है कि आज के युवा पीढ़ी को चापलूसी करना नहीं आता. परंतु बुज़ुर्ग उनके बदल रहे व्यवहार को अपना निरादर करना समझते हैं. बुज़ुर्गों के अनुसार, उनके संतान को परंपरागत तरीक़े से बड़ों की सेवा करनी चाहिए. उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य अपने माता-पिता की सेवा होनी चाहिए, बाद में कुछ और. क्योंकि यही संतान का कर्तव्य होता है.
उनके अनुसार, संतान की अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी, नौकरी, परिवार, उनकी खुशियां कोई मायने नहीं रखती. और जब यही सब आज के युवा पीढ़ी नहीं कर पाते हैं, तो वे बुज़ुर्गों की नज़रों में एहसानफरामोश बन जाते हैं.
बुज़ुर्गों के अनुसार, आज की नई पीढ़ी अधिक स्वछन्द और अनुशासनहीन है. वह पहनावे के नाम पर अर्ध नंग कपड़े पहनते हैं. उनके परिधान अश्लील है. देर से उठना, देर तक सोना, जंक फूड खाना आदि सब अप्राकृतिक हो गया हैं. ऐसे सभी जीवनशैली के बदलाव से पुरानी पीढ़ी खफ़ा रहती है, आक्रोशित रहती है और जब वे उन्हें बदल पाने में असफल रहते हैं, तो कुंठा के शिकार हो जाते हैं.
लेकिन परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है. समय के साथ बदलाव होता ही है, इस पर किसी का बस नहीं चलता. यह भी उतना ही सही है कि प्रत्येक बदलाव कुछ नया लेकर आती है. इसलिए नए बदलाव को स्वीकार करके ही नई पीढ़ी के साथ सामंजस्य बैठाया जा सकता है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यक्रम ‘मन की बात’ में देश की युवा पीढ़ी को समझने एवं समझाने की कोशिश की. परिवर्तन की लहर विकास की नाव पर सवार है, लेकिन परिवर्तन बहुरंगी, विविध आयामी पक्षों के बीच जाते हुए वर्ष में युवा आक्रोश का उभरना या उभारने के षडयंत्रपूर्ण दृश्यों को समझना ज़रूरी है. ताकि हम समझ पाएं कि आगे बढ़ते देश के निर्माण में युवा सहभागिता कितनी और किस हद तक महत्वपूर्ण है.
हाल ही में राममंदिर, अनुच्छेद 370, तीन तलाक़, एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) की संभावना को पुरज़ोर तरीक़े से प्रकट किया गया और इन मुद्दों पर युवा सोच भी नए तेवर के साथ सामने आई.
युवा सोच में राजनीतिक को व्यक्ति नहीं, विचार और विश्वास आधारित बनाना होगा. चेहरा नहीं, चरित्र को प्राथमिकता देनी होगी. मोदी के अनुसार, आज के युवा व्यवस्था, अनुशासन एवं पारदर्शिता को पसंद करते हैं और वे न केवल उसका पालन करते हैं, बल्कि यदि सिस्टम ढंग से काम न करे, तो सवाल भी करते हैं, रोष भी व्यक्त करते हैं. वास्तव में हम सब भारत के उस युवा पीढ़ी का उभार देख भी सकते हैं, जो न केवल नियम-कायदों के हिसाब से चलना पसंद कर रही है, बल्कि यह भी चाह रही है कि अन्य सभी भी ऐसा करें. राजनीतिक, अपराधिकरण, आतंकवाद एवं बेरोज़गारी को लेकर सबसे ज़्यादा युवा परेशान हैं. हालांकि, आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार की चिंता भी उन्हें परेशान किए हुए है. हमारे देश में सरकारी मशीनरी एवं राजनीतिक व्यवस्थाएं सभी रोगग्रस्त है. वे अब तक अपने आपको सिद्धांतों और अनुशसन में ढाल नहीं सके. कारण, राष्ट्र का चरित्र कभी इस प्रकार उभर नहीं सका. युवा पीढ़ी देश की राजनीति में पारदर्शिता एवं नैतिकता चाहती है. आज का युवा चाहता है राजनीतिक सोच एवं व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हो, ताकि कोई ग़रीब नमक और रोटी के लिए आत्महत्या न करे और किसी युवा के सपने आधे-अधूरे न रह जाए.
आज के युवा क्रांति का प्रतीक हैं, ऊर्जा का स्रोत हैं, इस क्रांति एवं ऊर्जा का उपयोग रचनात्मक एवं सृजनात्मक हो. इसी ध्येय से सारी दुनिया प्रतिवर्ष 12 अगस्त को अंतराष्ट्रीय युवा दिवस मनाती है. सन 2000 में अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस का आयोजन आरंभ किया गया था. यह दिवस मनाने का मतलब है कि युवा शक्ति का उपयोग विध्वंस में न होकर निर्माण में हो. पूरी दुनिया की सरकारें युवा मुद्दों और उनकी बातों पर ध्यान आकर्षित करें. न केवल सरकारें, बल्कि आम जनजीवन में भी युवकों की स्थिति, उनके सपने, उनका जीवन लक्ष्य आदि पर चर्चाएं हों. युवाओं की राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर भागीदारी सुनिश्चित की जाए. आज की युवा पीढ़ी रोज़ यथार्थ से जूझती है. उनके सामने भ्रष्टाचार, आरक्षण का बिगड़ा स्वरूप, दिन-प्रतिदिन महंगी होती शिक्षा, रोज़गार की समस्या और उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को कुचलने की राजनीति विसंगतियां जैसी तमाम विषमताओं और अवरोधों की ढेरों समस्याएं हैं.
वैसे यह भी नहीं कह सकते कि युवा हमेशा ही सही होते हैं. वे भी ग़लत हो सकते हैं, पर उन्हें समझाना होगा और युवाओं को भी समझना होगा कि उनके अपने हित के लिए और देश की रक्षा के लिए क्या सही है. युवा पीढ़ी के सामने दो रास्ते हैं, एक रास्ता निर्माण का और दूसरा रास्ता ध्वंस का. जहां तक ध्वंस का प्रश्न है, उसे सिखाने की ज़रूरत नहीं है, अनपढ़, अशिक्षित और अक्षम युवा भी ध्वंस कर सकता है. असल में देखा जाए तो ध्वंस क्रिया नहीं, प्रतिक्रिया है. उपेक्षित, आहत, प्रताड़ित और महत्वाकांक्षी व्यक्ति खुले रूप में ध्वंस के मैदान में उतर जाते हैं.

- मिनी सिंह

Elderly People

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