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कहानी- थोड़ी-सी बेवफ़ाई (Story- Thodi-si Bewafai)

अवनी क्या कभी मुझसे लिपटकर प्यार करते व़क़्त सोचेगी कि मेरी आंखें, नाक, रंग, बाल उससे मेल खाते हैं या नहीं? शायद कभी नहीं! मैं तो उसका लविंग पापा हूं और हमेशा रहूंगा. फिर मैं क्यों सोचने लगा ये सब? पैदा होने से अब तक जिसे मैंने उंगली पकड़कर चलना सिखाया, बोलना सिखाया, जिसको रातों में लोरी सुनाई, दिन में कंधे पर बिठाकर खिलाया-घुमाया, आज अचानक वह मेरे लिए पराई हो जाएगी? वह भी केवल इसलिए कि मेरी पत्नी की थोड़ी-सी बेवफ़ाई की वह परछाईं है?

 

जीवन शांत झील-सा बेखलल गुज़रता जा रहा था, पर इन काग़ज़ के टुकड़ों ने ऐसी अनवरत् तरंगें उठा दी थीं कि लग रहा था झील में कोई लगातार पत्थर बरसा रहा हो. अभिनव के सुरीले जीवन के तारों को इन प्रेम पत्रों ने अचानक छेड़कर मन में तूफ़ान उठा दिया था.
सकते में आ गया था अभिनव. सोच रहा था- ‘न पुरानी गाड़ी बेचने का विचार बनता, न सुबह-सुबह यह ग्राहक आता. न आस्था मायके गई होती, न मुझे गाड़ी के काग़ज़ात ढूंढ़ने के लिए आस्था की आलमारी उलट-पुलट करनी पड़ती और न ये पुराने प्रेम पत्र मिलते…’ अभिनव पुनः उन प्रेम पत्रों को पढ़ने लगा, जो कुछ रोहित ने आस्था के नाम तो कुछ आस्था ने रोहित के नाम लिखे हुए थे… शायद रोहित ने आस्था के लिखे पत्र उसे लौटा दिए थे, तभी तो रोहित के पत्रों के साथ-साथ आस्था के पत्र भी उसे मिल गए. कितना संभालकर रखा है आस्था ने इन्हें. सच, कितनी वेदनीय पीड़ा थी यह.
‘शादी को छह साल बीत गए. एक मीठे एहसास में सदैव डूबा रहा मैं… पति-पत्नी के प्यार से सराबोर यह घरौंदा, जिसमें हमारी पांच साल की अवनी चिरैया-सी चहकती-फुदकती रहती है. ये सारे सुखद एहसास पलभर में धराशायी हो गए. कभी एक पल को भी यह विचार मन में नहीं आया था कि मेरे अलावा कोई और भी है, जो आस्था के दिल पर राज कर चुका है. काश… जीवन भी किसी ब्लैकबोर्ड की तरह होता, जिस पर ग़लत लिखे जाने पर हम डस्टर से तुरंत मिटा देते हैं, पर मैं इन पीड़ादायी क्षणों को क्या किसी डस्टर से अपने जीवन से मिटा सकता हूं?’
एक बार फिर अभिनव ने रोहित का पत्र उठाया- ‘प्रिय आस्था, काश तुम थोड़ा और इंतज़ार करती तो हमारे जीवन के सपने आज यथार्थ में बदल चुके होते. क्या कहें इसे… नियति या कुछ और? जो भी हो, तुम्हें भूल पाना मेरे बस में नहीं है. तुम्हीं बताओ अब मैं उन सपनों को लेकर कहां जाऊं? कहां ढूंढ़ूं अपनी आस्था को? जब आस्था ही न होगी तो कहां मिलेगी हमारी अवनी और अपना अंबर. बताओ, चुप क्यों हो? तुम्हीं कहा करती थी न कि अपनी बेटी होगी अवनी और बेटा होगा अंबर.’
एक कांटा-सा चुभ गया अभिनव के मन में. उसने उलट-पुलटकर सारे पत्रों की तारीख़ें देखीं. विवाह के सालभर बाद तक इन पत्रों का सिलसिला जारी था और आस्था ने भनक तक नहीं पड़ने दी उसे.
शादी की पहली सालगिरह और आस्था की डिलीवरी होनेवाली थी. अभिनव कितना ख़ुश था उस व़क़्त. प्यार से उसने आस्था को बांहों में भरकर कहा था, “मुझे तो तुम्हारी तरह ही एक प्यारी-सी, छोटी-सी परी चाहिए, फिर उसका नाम…” वो कुछ कहता, उससे पहले ही आस्था बोल पड़ी थी- “अवनी रखेंगे.” वह भी मान गया. पर आज उसी अवनी से उसे परायेपन की बू आने लगी.
अभिनव ने आनन-फ़ानन में सारे पुराने एलबम निकाल डाले. अवनी के बचपन की सारी तस्वीरें बिस्तर पर फैली पड़ी थीं. कभी उन तस्वीरों से वह अपनी आंखें मिलाता, तो कभी नाक. कहीं से भी कोई साम्य नज़र नहीं आ रहा था. अभिनव के मन की शंकाओं के कई फन एक साथ डंक मारने लगे- ‘कहीं अवनी रोहित और आस्था के प्यार की… ओ़फ्! अभिनव को अपना सिर चकराता नज़र आया. आंखें बंद कर वह निढ़ाल-सा बिस्तर पर बिखरी अवनी की तस्वीरों को एक ओर सरका कर लेट गया.
उसे याद आया जब सांवली-सलोनी अवनी को अस्पताल में देखकर बुआ बोल पड़ी थी, “अभि, यह किस पर गई है? तुम्हारा और आस्था, दोनों का ही रंग कितना साफ़ है.” आज बुआ का वह वक्तव्य आग में घी का काम कर रहा था.
किसी करवट चैन न पाकर अभिनव फिर उठकर बैठ गया और उन पत्रों को देखने लगा. यह पत्र शादी के महीने भर बाद ही आस्था ने रोहित को लिखा था- ‘रोहित, मैं नहीं जानती कि मैं अपने वर्तमान से कैसे निभा पाऊंगी. दिन-रात मुझे तुम्हारा ही चेहरा नज़र आता है. वे पल याद आते हैं, जब तुम हरी दूब पर पैर पसारे मेरी गोद में सिर रखकर आंखें बंद करके गुनगुनाया करते थे और मैं तुम्हारे घुंघराले बालों में अपनी उंगलियों को उलझाकर न जाने कहां खो जाती थी.’
आगे पढ़ पाना अभिनव के लिए कठिन था, पर घुंघराले बालों से उसे याद आया. मुंडन पर अवनी के घुंघराले बालों के छल्ले गिरते देख वह नाराज़ होकर बोला था, “आस्था, इतना ज़रूरी था क्या यह मुंडन? कितने प्यारे और घुंघराले बाल हैं मेरी बिटिया के और तुम हो कि कटवाए जा रही हो.”
“अरे घर की खेती है, फिर आ जाएंगे ऐसे ही घुंघराले बाल.” कहकर खिलखिलाकर हंस पड़ी थी आस्था.
अभिनव ने डबलबेड के साइड टेबल पर रखी आस्था व अवनी की क्लोज़अप फ़ोटो उठाई. आज अवनी के घुंघराले बाल देखकर न जाने क्यों चिढ़-सी उठी मन में, वरना हमेशा तो जब भी आस्था मायके जाती तो वह इस तस्वीर को अकेले में कई बार देर तक निहारा करता और मन ही मन इस मुस्कुराती तस्वीर की जीवंतता पर मुग्ध होता रहता था. आज इस तस्वीर में मुस्कुराती आस्था व अवनी दोनों ही उसे मुंह चिढ़ाती-सी लगीं. कुछ ही पलों में जैसे सब कुछ बदल गया था. अभिनव ने फ़ोटो को तुरंत उल्टा घुमाकर रख दिया.
अभिनव के हाथ में अगला पत्र रोहित का था- ‘आस्था रक्षाबंधन पर उम्मीद थी कि तुम्हारा मायके आना होगा. बेसब्री से इंतज़ार किया था मैंने. तुमसे मिल पाने का मौक़ा यूं ही निकल गया. तुम नहीं आईं. जान सकता हूं क्यों? तुम तो जानती हो न कि बस यही कुछेक पल अब हमारे भाग्य में रह गए हैं.’
आस्था का जवाब भी इन्हीं पत्रों में था- ‘रोहित, यह सच है कि तुम मुझसे बेइंतहा प्यार करते हो और शायद मैं भी तुम्हें. परंतु अभिनव के निश्छल प्रेम के आगे मैं नतमस्तक हूं. जब भी तुम्हारा ख़्याल मन में आता है तो मन ग्लानि से भर उठता है. निश्‍चित ही यह मेरा अपराधबोध है, जो मुझे मेरी ग़लती का एहसास कराता है. एक स्वच्छ, निर्मल, निस्वार्थ भाव से प्रेम करनेवाले पति को मैं छल रही हूं यह ख़्याल ही मुझे अपनी नज़रों से गिरा देता है. अभिनव को मुझ पर कितना विश्‍वास है. यह विश्‍वास उनका अथाह प्रेम ही तो है.
रोहित, अभिनव का मन भी उनके नाम के अनुरूप ही सुंदर, अप्रतिम और विशाल है. जानते हो, यदि मैंने उन्हें अपने अपराध के बारे में बता दिया तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी? अपने विशालतम मन में वे मेरे तमाम अपराधों को छिपाकर मुझे माफ़ कर देंगे. पर ऐसे उदार व्यक्ति को मैं एक क्षण के लिए भी पीड़ा देने की भूल नहीं करूंगी. यदि करूंगी तो उनके प्रति अन्याय होगा न? हां, तुमसे यही विनती है कि तुम अब मुझसे किसी भी प्रकार की उम्मीद न रखना. जो कुछ अब तक हुआ, उसे दुःस्वप्न मानकर भूलने का प्रयास करना. इसी में हम दोनों की भलाई है.’
शायद यह आख़िरी पत्र था उन दोनों के बीच, जो अवनी के जन्म के महीनेभर पूर्व ही लिखा गया था.
नवविवाहितों का विवाहोपरांत पहला वर्ष जिस तरह एक-दूसरे में मगन होकर गुज़रता है, उनका भी गुज़रा था… यह भ्रम आज टूट गया. ‘उन दिनों मैं अपनी ही अर्द्धांगिनी द्वारा छला जा रहा था. विवाह के तीन-चार माह पश्‍चात् ही जब आस्था उम्मीद से थी, मैं दिन-रात उसकी देखभाल में लगा रहता था. उसके तन-मन की सुध लेते-लेते मैं स्वयं को भी भुला देता था और आस्था? उन दिनों वह चुपके-चुपके अपने पूर्व प्रियतम को ठंडी आहों भरे प्रेम पत्र लिखा करती थी. मेरी बांहों में केवल एक मन व भावनारहित शरीर होता था. इतना बड़ा छल मेरे साथ किया गया और मैं मूर्ख अज्ञानी कैसे आंखें मूंदे अपनी ही अलग दुनिया में जीता रहा? इस परायेपन से अब तक अनभिज्ञ रहा.’
अभिनव का मन खिन्न-सा हो गया. जीवन में सब कुछ निरर्थक महसूस होने लगा था. वास्तविकता यथार्थ से कितनी अलग है. बार-बार छले जाने का एहसास उसे उद्वेलित करने लगा.
कभी-कभी अज्ञानता में कितना सुख होता है. पर अब? सच्चाई जान लेने के पश्‍चात् सहज-सरल भाव से आस्था को प्यार कर पाना अभिनव के लिए असंभव ही था. और अवनी? पराए अंश का एहसास अब स्वाभाविक रूप से बहती स्नेहधारा में अवरोधक प्रतीत होने लगा. अवनी को बांहों में भरकर दुलारने की कल्पना मात्र कष्टप्रद अनुभूति में परिवर्तित होने लगी थी. सब कुछ छिन्न-भिन्न सा हो गया था. व्यथित-द्रवित अभिनव विचारों की गर्त में गिरता जा रहा था.
फ़ोन की घंटी सुनकर स्वयं को सामान्य बनाने की चेष्टा करते हुए उसने रिसीवर उठाया, “हैलो पापा…!” अवनी की आवाज़ सुनकर पलभर को अभिनव सब कुछ भूल-सा गया.
“पापा, आज आप आ रहे हो न! मम्मा पूछ रही है… लीजिए मम्मा से बात कीजिए…”
“हां… मैं आस्था बोल रही हूं. आज आ रहे हो न हमें लेने?”
आस्था और अवनी को आज वापस लेेने के लिए जाना था अभिनव को. “हां? हां… हां, आऊंगा रात तक.”
“जल्दी आना. एक ख़ुशख़बरी है तुम्हारे लिए.” आस्था की आवाज़ में रोमांच था, पर ख़ुशख़बरी की बात सुनकर भी अभिनव का टूटा-बिखरा मन संयत नहीं हो पाया. अवनी का परसों से स्कूल खुल रहा है. आज जाना तो होगा ही…
अभिनव ने सारे पत्रों को समेटकर यथावत रख दिया. बिस्तर पर बिखरी अवनी की सारी तस्वीरों को इकट्ठा कर वह एलबम में पुनः व्यवस्थित करने लगा. कितनी मासूम, कितनी भोली है अवनी. बार-बार अवनी की “हैलो पापा” की मीठी-सी आवाज़ कानों में प्रतिध्वनित होकर गूंजने लगी.
बचपन से ही अवनी को आस्था से ़ज़्यादा अभिनव से लगाव रहा है. अभिनव लाड़-प्यार भी तो ज़रूरत से ़ज़्यादा लुटाता रहा है अवनी पर. कभी-कभी आस्था बिगड़ भी पड़ती कि तुम्हारे लाड़ में ज़िद्दी होती जा रही है अवनी. लेकिन जहां आस्था को ग़ुस्से से गर्म होते देखती, तुरंत अभिनव की गोद में दुबक जाती अवनी.
बच्चे कितने मासूम होते हैं, छल-कपट रहित, अपने-पराये से अनभिज्ञ, केवल प्रेम की भावना से अभिभूत होकर रिश्ते में बंध जाते हैं. जहां स्नेह पाया, वहीं के हो गए.
अवनी क्या कभी मुझसे लिपटकर प्यार करते व़क़्त सोचेगी कि मेरी आंखें, नाक, रंग, बाल उससे मेल खाते हैं या नहीं? शायद कभी नहीं! मैं तो उसका लविंग पापा हूं और हमेशा रहूंगा. फिर मैं क्यों सोचने लगा ये सब? पैदा होने से अब तक जिसे मैंने उंगली पकड़कर चलना सिखाया, बोलना सिखाया, जिसको रातों में लोरी सुनाई, दिन में कंधे पर बिठाकर खिलाया-घुमाया, आज अचानक वह मेरे लिए पराई हो जाएगी? वह भी केवल इसलिए कि मेरी पत्नी की थोड़ी-सी बेवफ़ाई की वह परछाईं है?
… और आस्था? हां, उसने ग़लती की है. पर क्या सज़ा दूं उसे? उसने किसी से प्रेम किया था, पर प्रेम करना कोई ग़लती तो नहीं.
अभिनव मन ही मन सवाल-जवाब करने लगा. आस्था ने प्रेम किया था, पर उसने अपने माता-पिता से अपनी पसंद से शादी करने की ज़िद्द नहीं की. नतीज़ा? माता-पिता की मर्ज़ी से मुझसे विवाह. पर यह भी तो ग़लती नहीं. हमारा परिवेश ही तो कुछ ऐसा है कि लड़की के माता-पिता अपने मान-सम्मान, इ़ज़्ज़त का वास्ता देकर एक तरह से भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर अपनी इच्छा पूरी करवाने के लिए विवश कर देते हैं और भारतीय परिवेश में पली-बढ़ी, सीधी-सादी लड़की अपनी इच्छाओं का गला घोंटकर चली आती है पिया के घर. यदि आस्था ने भी यही किया तो वह ग़लत कहां है?
हां, ग़लत तो है. जब वह जानती थी कि उसके परिवारवाले उसकी मर्ज़ी से शादी नहीं होने देंगे तो उसने रोहित से प्रेम क्यों किया? लेकिन प्रेम कहां सोच-विचारकर, पूछ-परखकर किया जाता है. वह तो स्वयं हो जाता है, फिर आस्था ने क्या ग़लत किया?
…हां, ग़लत किया तो इतना कि मुझसे विवाह हो जाने के बाद भी मन से वह रोहित से जुड़ी रही. क़रीब सालभर तक मुझे अंधेरे में रखकर रोहित से पत्राचार जारी रखा. जब-जब मायके गई, रोहित के संपर्क में रही.
लेकिन फिर क्यों तोड़ा उसने रोहित से नाता? शायद मुझसे… मेरे प्रेम से अभिभूत होकर ही तो. ‘शायद’ क्यों, यही तो शत-प्रतिशत सच है. मुझे जान लेने के बाद, मेरा प्रेम पाने के पश्‍चात् कहां कर पाई वह अपने कर्त्तव्यों के प्रति बेईमानी?
विचारों में उलझा अभिनव गुज़रे सालों के बारे में सोचने लगा. कहीं भी उसे आस्था की कर्त्तव्यपरायणता में कमी नज़र नहीं आ रही थी.
अपनी ग़लती को स्वीकार कर जो पहले से ही पश्‍चाताप कर चुकी हो व अतीत को भुलाकर जो अपने वर्तमान तथा भविष्य को अपने पति को समर्पित कर चुकी हो, क्या उस कर्त्तव्यपरायण स्त्री की थोड़ी-सी बेवफ़ाई क्षम्य नहीं है?
आस्था की जगह मैं भी तो हो सकता था. मन ही मन अभिनव सोचने लगा- जो गिरकर संभल जाए उसकी तो सराहना की जानी चाहिए, न कि उसे सज़ा देनी चाहिए. उसे पुनः उसके असंतुलन का एहसास दिलाना तो स्वयं की मानसिक कमज़ोरी दर्शाना होगा.
विचारों की कशमकश में फंसा अभिनव तैयारी कर रात को ही अपनी ससुराल पहुंचा. उसे देखते ही अवनी दौड़कर अपने प्यारे पापा से लिपट गई. “पापा, मेरी चॉकलेट?”
“पहले एक मीठी-सी पुच्ची दो.” अभिनव ने अवनी को बांहों में घेर लिया व चॉकलेट थमा दी.
अवनी के पीछे खड़ी आस्था को मंद-मंद मुस्कुराता देख अभिनव ने पूछा, “कौन-सी ख़ुशख़बरी है, सुनाओ भई जल्दी.”
“अच्छा? यूं ही सुना दूंगी? बेटी से तो रिश्‍वत लेकर चॉकलेट देते हो.”
“ओ.के. लो…” एक प्यारा-सा चुंबन आस्था के माथे पर जड़ते हुए अभिनव ने पूछा, “अब तो बताओ?.”
“कुछ ही दिनों में अपना परिवार पूरा होने वाला है.”
“क्या!” अभिनव ने ख़ुशी के मारे आस्था को गोद में उठा लिया.
“पता है अभिनव मैंने भगवान से क्या कहा है कि मुझे ऐसा बेटा देना, जो बिल्कुल अपने पापा की तरह हो. परफेक्ट…” आस्था की आंखों में नई चमक-सी आ गई.
जिसने मुझमें आस्था बनाए रखने का प्रयास किया, उसका विश्‍वास मैं कभी नहीं तोड़ूंगा. मन ही मन अभिनव ने तय किया. अब तो सारा संसार उसकी मुट्ठी में था. ‘अवनी’ तो पास थी ही, अब ‘अंबर’ भी उसका होने जा रहा था.

 
स्निग्धा श्रीवास्तव

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