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कहानी- पुराना चश्मा (Story- Purana Chashma)

Hindi Short Story
“परिवार के लिए बहुत समझदारी, सामंजस्य, सहिष्णुता, समर्पण और आपसी तालमेल की ज़रूरत होती है. छोटी-छोटी बातों पर तक़रार करना, अपने को ही सही मानना, हर समय अपने अहं को ढोते रहना या अपनी ग़लत बातों को भी सही मानने की ज़िद्द करना बहुत बड़ी ग़लती होती है और अपनी ग़लती को स्वीकार करने से कोई छोटा नहीं हो जाता.”
ऑफिस में आज इतना ज़्यादा काम था कि अक्षय बुरी तरह थक चुका था. वापस आते समय अचानक उसे याद आया कि अक्षरा तो घर में होगी नहीं, इसलिए मन न होने के बावजूद उसने मजबूरी में एक पिज़्ज़ा पैक करा लिया. रात के नौ बजे घर में घुसते ही एक अजीब-सी गंध ने उसका स्वागत किया, जैसे घर कई दिनों से बंद पड़ा हो. अस्त-व्यस्त बेडरूम में कल रात को उतारकर फेंके पैंट-शर्ट, आज सुबह नहाने के बाद बदले कपड़े, गीला तौलिया उसे मुंह चिढ़ा रहे थे. अक्षय ड्रॉइंगरूम में आया, लेकिन जाने क्यों आज उसका मन अपना मनपसंद क्रिकेट मैच देखने का भी नहीं हो रहा था, जिसके लिए वो अक्षरा से झगड़ जाया करता था. कुछ देर बाद उसे एहसास हुआ कि भूख भी लग रही है और थकान की वजह से नींद भी आ रही है. बेमन से कॉफी बनाकर उसके सहारे पिज़्ज़ा खाने लगा. उसकी निगाहें ड्रॉइंगरूम की दीवारों पर तैरने लगीं. वो सामने सजे क्रीम-मैरून रंग के परदों को ऐसे देख रहा था, जैसे पहली बार देख रहा हो. एक आकर्षक गोल्डन फ्रेम में उसका और अक्षरा का हनीमून के समय का फोटोग्राफ सज़ा हुआ था. अक्षरा को घर सजाने का बेहद शौक़ था. घर का अकेलापन उसे काटने को दौड़ता-सा लगा. अक्षरा की मीठी-मीठी बातें और खनकती हंसी उसे याद आने लगीं. उसे लगा कमरे में अभी अक्षरा का स्वर गूंजनेवाला है, पर उसके मन ने इन यादों को झटका. क्या सोचती है वो, क्या मैं उसके बिना रह नहीं सकता? बेडरूम में आकर लेटा, तो बेड का खालीपन उसे डसने-सा लगा. वो अपने ऊपर ही झुंझला गया कि क्यों उसका मन इतना कमज़ोर पड़ रहा है कि वो घर के हर कोने में अक्षरा को याद कर रहा है. क्या अक्षरा के बिना उसका कोई वजूद ही नहीं है? क्या यह घर अक्षरा के बिना अधूरा है? मुझे उसे याद करने की क्या ज़रूरत है? लेकिन न तो किसी को याद करना हमारे अपने हाथ में होता है, न ही किसी को भूल जाना. गुज़रा समय उसके सामने घूमने लगा. पिछले महीने ही विवाह की पहली वर्षगांठ बीती थी. विवाह के दो-चार महीने सपनों की तरह गुज़रने के बाद अक्षरा ने पाया कि अक्षय बेहद ग़ैरज़िम्मेदार है. अक्षरा सुबह पांच बजे का अलार्म लगाकर उठ जाती, पर अक्षय देर तक सोता. उसे बेड टी व अख़बार देना, सुबह नाश्ता बनाना, दोनों का टिफिन लगाना, वॉर्डरोब से अक्षय के कपड़े निकालकर रखना उसका रूटीन था. दोनों के कपड़े, किचन, पूरा घर मेंटेन रखना अक्षरा की ही अघोषित ज़िम्मेदारी हो गई थी. नहाने के बाद अक्षय गीला तौलिया जहां-तहां फेंक देता. एक दिन अक्षरा के टोकने पर अक्षय चिढ़कर बोला, “ज़रा-ज़रा-सी बातों पर उलझना मुझे पसंद नहीं है. तुम सुबह उठ जाती हो, तो क्या यह भी नहीं कर सकती?” इस पर अक्षरा को ग़ुस्सा तो बहुत आया कि मेरी तरह तुम भी तो जल्दी उठ सकते हो, पर चुप रह गई कि बात बढ़ाने से क्या फ़ायदा. घर के लोग उससे कहते थे कि अधिक सहनशील होना, दूसरों की सहायता करना ठीक नहीं होता, वरना लोग फ़ायदा उठाते हैं. इस पर वो ही हंसकर कह देती कि मेरे स्वभाव का फ़ायदा उठानेवाले लोग ग़ैर नहीं, बल्कि मेरे अपने ही होते हैं, इसलिए मुझे अच्छा लगता है. धीरे-धीरे अक्सर छोटी-छोटी बातों पर तक़रार होने लगी. शाम को चाय बनाना भी अक्षरा की ही ज़िम्मेदारी थी. किसी भी देश का क्रिकेट मैच हो या फुटबॉल मैच, अक्षय को देखना ही है, वरना वो न्यूज़ देखता. डिनर भी अक्षरा अकेले ही तैयार करती. छोटी-मोटी मदद मांगने पर वो ऐसे नाराज़ हो जाता, जैसे उसका अपमान कर दिया गया हो. अक्षय को जैसे किचन में झांकने से भी नफ़रत थी. एक दिन किचन से आवाज़ देने पर अक्षय नाराज़गी के साथ आया. अक्षरा ने कहा, “मैं आटा गूंध रही हूं, ज़रा गैस धीमी कर दो.” अक्षय बड़बड़ाने लगा, “किचन में मल्टीटास्किंग क्यों करती हो? आख़िरी चार ओवर बचे हैं, इसलिए अब डिस्टर्ब न करना.” अक्षरा ने सोचा कि क्या वो केवल अपने लिए डिनर तैयार कर रही है? वो तो कुछ रोमांटिक बातें करने की सोच रही थी. उसकी आंखें नम होने लगीं. पिछले महीने टैक्सी ख़राब होने से वापसी में अक्षरा को देर हो गई और ऑफिस में काम भी ज़्यादा होने से वो थकान महसूस कर रही थी. घर में घुसते ही अक्षय बोला, “आज बहुत देर लगा दी?” “हां, टैक्सी ख़राब हो गई थी.” “अच्छा ठीक है. मैंने भी अभी तक चाय नहीं पी है. चलो दोनों के लिए चाय बना लो.” अक्षय स्मार्टफोन में देखते हुए बोला, तो अक्षरा को बहुत ग़ुस्सा आया कि टी बैग्स भी रखे हैं, क्या चाय भी नहीं बना सकते? अक्षरा बोली, “मेरा सिरदर्द कर रहा है, क्या आप चाय बना दोगे?” अक्षय मोबाइल के मैसेज पर ही निगाहें टिकाए हुए चिढ़कर बोला, “सिरदर्द हो रहा है, तो बाम लगाकर लेटो. मैं चाय नहीं बना पाऊंगा.” बात न बढ़े, इसलिए अक्षरा सिरदर्द के बावजूद चाय बना लाई, पर अक्षय को कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ा, वैसे ही चाय पीता रहा. चार-पांच दिन पहले अक्षय अपनी पेनड्राइव ढूंढ़ते हुए अक्षरा से बोला, “कमरे में कोई पेनड्राइव मिली है? मेरा बहुत इम्पॉर्टेन्ट प्रेज़ेंटेशन था.” अक्षरा के मना करने पर उसने ग़ुस्से में मैट्रेस तक ढकेल दी, पर पेनड्राइव नहीं मिली. अक्षरा इतना ही बोली, “अरे, मैट्रेस तो ठीक कर देते.” पेनड्राइव अपनी ही लापरवाही से खोने के बावजूद अक्षय ग़ुस्से में चिल्लाने लगा, तो आज अक्षरा रोने की बजाय जवाब देने लगी. अक्षय आपे से बाहर होकर गाली-गलौज करने लगा. झगड़े की बात सह लेनेवाली अक्षरा इस अपमान को न सह सकी और अपना ज़रूरी सामान लेकर अपनी एक बैचलर कलीग के यहां यह कहकर चली गई कि जब तक वो अपना रवैया नहीं सुधारता, वो उसके साथ नहीं रहेगी. परसों कामवाली बाई ने भी कह दिया कि मेमसाहब वापस आ जाएं, तभी आऊंगी. अक्षय दिन में कैंटीन में खाता और डिनर पैक करा लेता. वो डिस्पोज़ेबल प्लेट्स, स्पून्स वगैरह ले आया था. अक्षय अब चाय-कॉफी ज़रूर बनाने लगा था, क्योंकि हर समय बाहर पीना या पैक कराना मुश्किल था. सुबह कॉलबेल की आवाज़ से उसकी आंख खुली. सुबह सात बजे कौन हो सकता है? अक्षरा? नहीं? अक्षरा नहीं होगी. उसने दरवाज़ा खोला, तो हैरान रह गया. सामने अंजू दीदी खड़ी थीं. ड्रॉइंगरूम में घुसते ही दीदी बोलीं, “अक्षरा घर में नहीं है क्या?” अक्षय को बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि दीदी को तुरंत कैसे पता चल गया कि अक्षरा घर में नहीं है. उसे लगा शायद गृहिणियों के घर में न रहने से माहौल ही कुछ अलग-सा हो जाता है. “दीदी, आप बैठो. मैं अभी फ्रेश होकर आया.” कहकर अक्षय वॉशरूम में चला गया, पर वास्तव में वो ऐसी स्थिति में दीदी से तुरंत सामना करने से बचना चाहता था. दीदी दो कप चाय बना चुकी थीं. अक्षय को शर्मिंदगी लग रही थी कि दीदी किचन की हालत देखकर क्या सोच रही होंगी. अंजू दीदी अंदाज़ा लगा चुकी थीं कि अक्षरा कई दिनों से घर में नहीं है. अक्षय ने पूछा, “दीदी, यूं अचानक आने की कोई ख़ास वजह?” “तेरी शादी की पहली सालगिरह पर आ नहीं सकी थी. कल मेरी ननद के बेटे की सगाई है. जीजाजी कल ही आएंगे, पर मैं सरप्राइज़ देने पहले आ गई, पर यहां तो मुझे ही सरप्राइज़ मिल गया. कहां है अक्षरा और कब से घर में नहीं है?” दीदी ने आश्‍चर्य से पूछा. सबसे झूठ बोला जा सकता था, पर अपनी बड़ी बहन और जो दोस्त की तरह हो, उससे तो बिल्कुल भी नहीं. अक्षय ने सारी बातें अंजू दीदी को बताईं. उसने अपने पक्ष को बहुत मज़बूत और अक्षरा के पक्ष को बेहद कमज़ोर करने का प्रयास किया, पर समझदार व अनुभवी दीदी से सच कितना छिप सकता था और जब कि वो अपने भाई को अच्छी तरह जानती हो. “अच्छा चलो, अक्षरा को फोन मिलाओ.” दीदी की बात से अक्षय चौंक गया और टाल-मटोल करते हुए बोला, “जब वो अपनी मर्ज़ी से गई है, तो अपने आप आए. मैं क्यों फोन करूं?” “अक्षय, मैं तुम दोनों को जानती हूं. वो अपनी मर्ज़ी से नहीं गई है, बल्कि तुमने उसे यहां से जाने पर मजबूर किया है. गृहस्थी ऐसे नहीं चलती है. विवाह के बाद पति-पत्नी दोनों की ही ज़िम्मेदारियां बढ़ती हैं. यह तो ग़लत है कि अक्षरा विवाह के बाद लड़की से पत्नी बन जाए, लेकिन तुम वैसे ही लड़के बने रहो. तुमको भी पति के रूप में अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होना चाहिए कि नहीं?” कहकर दीदी ने अक्षय का मोबाइल फोन उठाकर अक्षरा का नंबर मिला दिया. अक्षरा का सामान्य-सा स्वर गूंजा, “क्या बात है? फोन क्यों किया?” “अक्षरा, मैं अंजू बोल रही हूं.” “अरे दीदी आप? प्रणाम! आप कब आईं?” अक्षरा के स्वर से आश्‍चर्य और उल्लास के साथ कुछ शर्मिंदगी-सी भी झलक रही थी. “मैं तो बस एक घंटा पहले ही आई हूं. यह बताओ तुम कब आ रही हो?” “दीदी, मैं बस दस मिनट में आ रही हूं.” अंजू दीदी को यह सुनकर ख़ुशी हुई कि अक्षरा ने उनसे मिलने के लिए एक बार भी अपने अहं को आगे नहीं आने दिया. “देखा अक्षय, मेरे आने की बात पता चलते ही अक्षरा तुरंत यहां आ रही है. इसी से पता चलता है कि वह कितनी सुलझी हुई, व्यावहारिक व समझदार लड़की है, वरना वो कोई बहाना बनाकर मना भी तो कर सकती थी. उसके आने के बाद आपस में झगड़ना मत.” “दीदी, आप अपने भाई की बजाय उसकी पत्नी का पक्ष ले रही हैं?” अक्षय ने कुछ दबे स्वर में कहा ही था कि अंजू दीदी बोलीं, “मैं न भाई का पक्ष ले रही हूं, न भाभी का. मैं न्याय के साथ हूं. तुमको पता भी है कि तुमने अपनी पत्नी पर कितनी ज़िम्मेदारियों का बोझ डाल दिया है. मैं मानती हूं कि तुम किचन का काम नहीं कर सकते, पर अक्षरा की मदद तो कर सकते हो. अपने सामान की देखभाल, अपने कपड़ों को संभालने का काम तो ख़ुद ही कर सकते हो ना? क्या उसे सारे काम बचपन से ही आते होंगे? वो भी तो पढ़ती-लिखती थी, पर उसने अपना घर बसाने के लिए कितनी चीज़ें सीखीं. जानते हो अक्षय, तुम्हारी सबसे बड़ी ग़लती यह है कि तुम पापा का पुराना चश्मा नहीं उतार पा रहे हो.” “पापा का पुराना चश्मा? मैं कुछ समझा नहीं.” अक्षय ऐसे हैरान हो गया, जैसे दीदी ने उसके सामने कोई पहेली रख दी हो. “हां पापा का पुराना चश्मा.” कहकर दीदी मुस्कुराईं. “तुमने बचपन से ही मां को किचन संभालते और पापा को इन सब बातों से दूर ही देखा है. याद है जब बचपन में हम सब घर-घर या दूसरे खेल खेलते थे, तो अक्सर दादी तुमसे कहा करती थीं कि ये सब लड़कियों के खेल हैं, तू इससे दूर रहा कर. यही वजह है कि बचपन से तुम्हारे मन में यह बात बैठ गई है कि कौन-से काम लड़कों के और कौन-से काम लड़कियों के हैं. पुराने समय में पत्नियां केवल गृहिणी होती थीं और घर में ही रहती थीं, तो चल जाता था, पर आज के समय में जब पत्नी भी नौकरी कर रही हो, तो इस प्रकार की मानसिकता उनके साथ अन्याय ही करती है. अक्षय, तुझे अपने को बदलने की कोशिश करनी होगी. मैं यह नहीं कहती कि घर के सारे काम तुम और अक्षरा करो, बल्कि अक्षरा ख़ुद ही ऐसा नहीं चाहेगी. बस, तुम छोटे-मोटे कामों में उसकी सहायता कर दिया करो. तुम ड्राइविंग, कंप्यूटर चलाना, क्रिकेट-फुटबॉल सीख सकते हो, तो क्या माइक्रोवेव, फूड प्रोसेसर चलाना, सब्ज़ी काटना नहीं सीख सकते? बस, तुम्हारे अंतर्मन में इन कामों के प्रति हीनता का भाव या कि इन कामों में पुरुषत्व को ठेस पहुंचने जैसी भावना नहीं होनी चाहिए. यह घर तुम दोनों का है और तुम दोनों को ही आपसी मेलजोल और तालमेल से इसे बसाना है. परिवार के लिए बहुत समझदारी, सामंजस्य, सहिष्णुता, समर्पण और आपसी तालमेल की ज़रूरत होती है. छोटी-छोटी बातों पर तक़रार करना, अपने को ही सही मानना, हर समय अपने अहं को ढोते रहना या अपनी ग़लत बातों को भी सही मानने की ज़िद्द करना बहुत बड़ी ग़लती होती है और अपनी ग़लती को स्वीकार करने से कोई छोटा नहीं हो जाता.” तभी डोरबेल का स्वर सुनकर अक्षय ने दरवाज़ा खोला. अक्षरा ने आते ही अंजू दीदी के पैर छुए, तो उन्होंने अपने गले से लगा लिया और फिर अपने बगल में बैठाकर बातें करने लगीं. “देख अक्षरा, मैं तुझे भी जानती हूं और अपने भाई को भी. मैंने इसे भी समझाया है और तुझे भी समझा रही हूं. अब तुम दोनों ही आपस में मिल-जुलकर रहना. कुछ तुम बदलना, कुछ यह बदलेगा. यह दिल का बुरा नहीं है, बस बचपन से घर के इन सब कामों से दूर रहने के कारण इनमें रुचि नहीं ले पाता है. मुझे उम्मीद है कि अब ऐसा नहीं होगा. अच्छा बैठो, मैं तुम दोनों के लिए चाय बनाती हूं.” इतना कहकर अंजू दी उठने ही वाली थीं कि अक्षरा बोली “दीदी, आप मेरे घर में आई हैं, तो आप क्यों चाय बनाएंगी. आप बैठिए मैं सभी के लिए चाय बनाकर लाती हूं.” इतना कहकर अक्षरा उठने ही वाली थी कि अक्षय बोल उठा, “मैं तो दीदी से काफ़ी बातें कर चुका हूं. अक्षरा, तुम तो अभी-अभी आई हो. तुम दोनों को जाने कितनी बातें करनी होंगी. तुम दीदी से बातें करो, चाय मैं बनाकर लाता हूं. यह मेरा भी तो घर है.” इतना कहकर अक्षय किचन की ओर जाने लगा और एकाएक तीनों ही हंस पड़े.
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       अनूप श्रीवास्तव

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