कई बार किताब के पन्ने उलटते-पुलटते या पेन में संपदा की उंगलियां उपमन्यु की उंगलियों से छू गई थीं, पर उस दिन उपमन्यु की कमीज की जेब में लिफ़ाफ़ा डालते समय संपदा की लरजती हथेली उपमन्यु की घड़घड़ाती छाती से जा टकराई. उपमन्यु के हृदय की धड़कन का एहसास पाकर संपदा बिल्कुल ही ध्वस्त हो गई. संपदा को रात भर उपमन्यु का क्षमादान झिंझोड़ता रहा. उसकी दूधिया मुस्कान याद आती रही.
विश्वास तो किसी को नहीं होता, पर लाल साहब प्रेम में पड़ चुके हैं. उस भव्य बंगले की बनावट में व्याप्त वायुमंडल का एक-एक अणु चकित है. लाल साहब के इस प्रेम पर, ये खुर्राट लाल साहब जो गाहे-बगाहे चण्डिका का रूप धारण कर कप-प्लेट-गिलासें तोड़ते हैं, अबोध भतीजे-भतीजियों पर उमड़ते-घुमड़ते हैं, दानवी अट्टहास करते हैं या मुंह फुला कर लंबी-लंबी सांसें छोड़ते हैं, आज वही लाल साहब अपने शाही शयन कक्ष, जिसमें बाबूजी के अतिरिक्त कोई अन्य नॉक किए बिना नहीं जा सकता, में भतीजे-भतीजियों के छोटे-मोटे जुलूस के साथ कमर लचका-लचका कर नाच रहे हैं. गाना भी कौन-सा? 'मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे…'
लाल साहब के शयन कक्ष की साज-सज्जा किसी राजकुमारी के शयनकक्ष से कम नहीं है. कक्ष में बच्चों का प्रवेश प्रायः वर्जित है. एक दिन मझली भाभी कुमकुम के नन्हें पुत्र की सू-सू निकल गई थी और लाल साहब ने सारा घर सिर पर उठा लिया था, "इन भाभियों ने औलादें पैदा कर दीं और छुट्टा छोड़ दिया. अम्मा, मेरा कमरा साफ़ कराओ जल्दी." आदेश दे लाल साहब ने अपनी सुंदर नासिका पर सेंटेड रूमाल रख लिया था. बड़ी भाभी भागवंती जाने किस दुस्साहस से कह गई थीं, "ननदजी,
तुम्हारे बच्चे होंगे तब क्या होगा?"
"माय फुट. विवाह कर अपने हाथ की लकीरों में कौन जनमभर की ग़ुलामी लिखाएगा? दिनभर वानर सेना को
सहेजो-सकेलो, पति की बाट जोहते हुए तुम लोगों की तरह उबासी लो, ये हमसे न होगा, मैं तो बस कोई उसकेदार सरकारी पद हथिया कर रौब ग़ालिब करूंगी."
इन्हीं रोबीली लाल साहब के दुर्लभ कक्ष में बच्चे नाच-गा रहे हैं.
संपदा को लाल साहब नाम यूं ही नहीं दे दिया गया. ठाकुरों की रियासत का आतंक अब भले ही न रहा हो, पर ठाकुर रणधीर सिंह की इस इकलौती पुत्री की लाल साहिबी आज भी अक्षुण्ण है. वे हिन्दी साहित्य से एम.ए. कर रही हैं. छोटी भाभी नीरजा अक्सर फुसफुसाकर हंसा करती हैं, "लाल साहब के तेवर ऐसे कलफ़वार हैं कि जब सुरूर में आकर कोई पद ज़ोर-ज़ोर से पढ़ती हैं, तो लगता है जैसे कोई कोतवाल क़ैदियों को हड़का रहा है."
यह सुनकर कुमकुम तनिक अभिमान से कंधे उचकाती है, "इसीलिए तो मैंने संपदा को इतना बढ़िया उपनाम दिया है- लाल साहब… वाह-वाह."
"अच्छा-अच्छा. इतना न इतराओ, लाल साहब को अपने नाम के बारे में पता चल जाएगा, तो हम तीनों की खैर नहीं."
दूसरे दिन कुमकुम के लाल साहब का नामकरण आनन-फानन में हो गया था. कुमकुम की बैंगनी साड़ी लाल साहब की नज़रों में चढ़ गई थी. यद्यपि लाल साहब लड़कों जैसे परिधान शर्ट्स और जीन्स पहनते हैं, पर उन्हें भाभियों को पीड़ा पहुंचाने में आनंद आता है, इसलिए वे उनकी व्यक्तिगत वस्तुएं हड़पती रहती हैं.
कुमकुम भाभी की एक साड़ी उन्हें भा गई, पर कुमकुम ने कह दिया, "यह साड़ी मेरे लिए तुम्हारे भैया मेरे जन्म दिवस पर लाए हैं. तुम बाज़ार से अपने लिए ऐसी ही साड़ी मंगा लो."
दूसरे दिन कुमकुम के बिस्तर पर उस प्रिय साड़ी की कतरनें फैली मिली थीं. लाल साहब ने न जाने कब कैंची उठा साड़ी को तरकारी-भाजी की भांति कतर डाला था. बाबूजी पुत्री के पक्ष में ढाल से खड़े हो गए थे, "अभी संपदा में बचपना है. धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा. कुमकुम, तुम्हें दूसरी साड़ी मिल जाएगी."
तीनों भाई रमानाथ, कामता नाथ, श्रीनाथ मूक-बधिर से उस करुण दृश्य को देखते रह गए. लाल साहब जितनी ऊर्जा और बल किसी की भुजाओं में न था. फिर रसोई में भागवंती और कुमकुम की बैठक हुई थी. कुमकुम हिचकते हुए बोली, "लाल साहबों का ज़माना लद गया, पर इसकी लाल साहिबी अभी तक न गई. यह लाल साहब ग़लत समय में पैदा हो गए, इन्हें तो आज़ादी के पहले पैदा होना चाहिए था."
भागवंती ने कुमकुम की पीठ ठोंकी, "वाह कुमकुम, क्या नाम सुझाया है तुमने लाल साहब."
भाभियां लाल साहब की कितनी ही निंदा करें, पर बाबूजी को वे प्राणों से प्रिय हैं. वे नियमपूर्वक प्रातः लाल साहब के कमरे में जाते हैं, उनके काले कत्थई रेशमी केश सहलाते हैं, "बिटिया, उठो, दिन चढ़ आया है." और लाल साहब कुनमुनाते हुए, हाथ-पैर झटकते हुए चादर मुंह तक तान कर सो जाती हैं. बाबूजी कहते हुए अघाते नहीं, "संपदा के जन्म के बाद ही हम पर धन लक्ष्मी की कृपा हुई. पहले बघेल वस्त्रालय बिल्कुल नहीं चलता था, अब तो रेडीमेड गार्मेन्ट्स के तीन-तीन प्रतिष्ठान हैं."
"साक्षात लक्ष्मी है लक्ष्मी." ममता में डूबी अम्मा बाबूजी का अनुमोदन करतीं. अम्मा-बाबूजी के अतिरिक्त संरक्षण और दुलार से पोषित लाल साहब का शैशव, तीनों भाइयों की शिकायतें करते हुए बड़ी आन-बान-शान से बीता, तरुणाई तक पहुंचते-पहुंचते उनकी प्रकृति-प्रवृत्ति का तीखापन शीर्ष पर पहुंच गया.
भाभियां लाल साहब को चाहे जितना बुरा कह लें, पर इनकी असीम अनुकम्पा न होती, तो शायद इन लोगों का गृह प्रवेश भी दुर्लभ हो जाता. लाल साहब के सर्वोच्च परीक्षण से गुज़र कर आ पाई हैं. बाबूजी ने स्पष्ट कह दिया था, "बहू का चयन तो हमारी बिटिया ही करेगी."
लाल साहब बड़ी ठसक से श्रीनाथ, अम्मा, बाबूजी के साथ नीरजा को देखने पहुंची थी और काफ़ी परखने के बाद ही नीरजा को हरी झंडी दिखाई थी.
फिर धूमधाम से बारात आई. बारात में पधारी लाल साहब ऐसी अलग दिख रही थीं, जैसे पानी की सतह पर तैरती-उतराती तेल की बूंदें. दूधिया रंगत में लाल परिधान, नीरजा का भाई उपमन्यु बड़े नाटकीय ढंग से एक हाथ छाती पर रख बोला, "नीरजा, ये लाल छड़ी तो हमारे दिल के आर-पार हो गई. मैं तो उसे देखते ही ढेर हो गया हूं. ससुराल पहुंचकर तुम कोई ऐसा जुगाड़ बैठाना कि लाल छड़ी का शाही दिल मेरी झोली में आ गिरे."
नीरजा आठ दिन रही ससुराल में, नौंवे दिन जाकर उपमन्यु उसे वापस ले आया. इधर-उधर ताक-झांक करता रहा, पर लाल छड़ी के दर्शन न हो सके. घर पहुंचते ही अधीर सा पूछने लगा, "नीरजा, हमारी लाल छड़ी कहां लोप थी भई? हम उचकते-छटपटाते रहे कि तनिक झलक दिख जाए पर…"
सुनकर विक्षुब्ध नीरजा बम सी फट पड़ी, "लाल छड़ी नहीं, लाल साहब कहो. मेरी जेठानियां उसे लाल साहब कहती हैं. उपमन्यु भाई, तुमने ग़लत नंबर डायल कर दिया है. लाल साहब के दांव-पेंच सामान्य मनुष्य की समझ से परे हैं. बिजली गुल होने पर वे इसलिए घर की चूलें हिला देती हैं कि उन्हें गर्मी लग रही है."
सुनकर मां ने कपाल थामा, "राम-राम, दिखने में इतनी सुंदर और लच्छन ऐसे."
उपमन्यु ने नीरजा की पीठ में एक धौल जमाई, "लच्छन चाहे जैसे हों, पर ऐसा शाही रुतबा न देखा न सुना. अब मेरा क्या होगा?"
नीरजा चिढ़ गई, "होगा क्या? उम्मीदवारी से अपना नाम वापस ले लो, अन्यथा तुम्हारे दिमाग़ के सारे कोण सही जगह पर आ जाएंगे. सहायक प्राध्यापिकी में जो पाते
हो, उतना लाल साहब अपने वस्त्र, प्रसाधन, पेट्रोल, होटल आदि में स्वाहा कर देती हैं."
"बाप रे, मुझे तो सुनकर ही पसीना आ गया." कहकर हंसते हुए उपमन्यु ने एक बार फिर अपने लौह हाथों से नीरजा की पीठ थपक दी, "बहनजी, लगी रहिए लाल साहब की सेवा में, मेवा मिलेगा."
"ठीक है, सेवा मैं कर दूंगी, मेवा तुम खा लेना." नीरजा ने उलाहना दिया.
पता नहीं उपमन्यु के भाग्य में मेवा खाना बदा था या नहीं, पर अगले महीने ही उसका स्थानांतरण नीरजा के ससुराल के शहर में हो गया. लाल साहब ने जब उपमन्यु को जी.डी.सी. (गर्ल्स डिग्री कॉलेज) में देखा और उसे पता चला कि वह उसकी क्लास को हिन्दी साहित्य पढ़ाएगा, तो वह मन-ही-मन फुफकारी, 'सफ़ेद कपड़ों में स्वयं को शशि कपूर समझ रहा है.'
वैसे लाल साहब गुरू का निरादर नहीं करतीं, पर ये तो गुरू बाद में, नीरजा भाभी का भाई पहले हैं और भाभियों के मायकेवालों से आदर से बात करना लाल साहब की नियमावली में नहीं आता. लाल साहब ने बड़ी सतर्कता से प्राध्यापक की कुर्सी में केंवाच फैला दी. बैठते ही उपमन्यु को खुजलाहट का दौरा सा पड़ गया. उसे ताण्डव करते देख छात्राएं पेट पकड़कर हंसने लगीं.
खुजलाहट पर किसी सीमा तक नियंत्रण पाकर उपमन्यु ने एक विहंगम दृष्टि पूरी क्लास पर डाली. उसकी भूरी पुतलियां, लाल साहब के मुख पर आबद्ध हो गईं, "अरे आप… आप इस कॉलेज में हैं.”
"ज… ज… जी." संपदा सकपका गई.
"मैं यह सत्कर्म करनेवाले के उज्ज्वल भविष्य की कामना
करता हूं. कभी-कभी ऐसा स्वागत भी होना चाहिए. वैसे मैं चेहरा पढ़कर बता सकता हूं कि ये काम किसका है, पर सबके बीच उसका नाम लेकर मैं उसे लज्जित नहीं करूंगा."
फिर उपमन्यु पूरी कक्षा से संबोधित हुआ, "आज आप लोग अपना-अपना परिचय दें. कुछ अपनी कहें, कुछ मेरी सुनें. मुझे अपना मित्र समझें और स्वयं को मित्र समझने दें. कोई कठिनाई हो, तो मुझसे बेझिझक कहें." उपमन्यु ने अपने सरल-शांत स्वभाव से पहले दिन ही मैदान मार लिया. सभी छात्राएं अपना- अपना परिचय देने लगीं, लाल साहब का उत्साह एकाएक चूक गया. वे पिचके गुब्बारे सी दिखने लगीं. ये प्रथम अवसर था जब लाल साहब स्वयं को अपराधी पा रही थीं. क्लास के बाद अपराधबोध से ग्रसित लाल साहब उपमन्यु के सामने जा खड़ी हुई, "सॉरी सर."
"किस बात के लिए."
"मैंने आपकी कुर्सी पर केंवाच…"
"केंवाच आपने डाली थी? पर आप जैसी शिष्ट लड़की… आप कहती हैं, तो मान लेता हूं." लाल साहब को इतने समीप से देखकर उपमन्यु की छाती रेलगाड़ी सी धड़घड़ाने लगी.
"तो… तो आप नहीं जानते थे कि केंवाच किसने डाली है?" संपदा के कण्ठ में शब्द अटक रहे थे.
"नहीं, मैं कैसे जानूंगा? खैर छोड़िए भी आपने अपराध स्वीकार कर लिया, ये अच्छी बात है. मैं आशा करता हूं कि आप आगे ऐसी कुचेष्टा नहीं करेंगी." कहकर उपमन्यु मुस्कुरा दिया और स्टाफ रूम की ओर चला गया.
… और फिर कवियों की कविताओं का सरस वर्णन करते हुए उपमन्यु पता नहीं कब लाल साहब के हृदय में उतरता चला गया. उन्हें अचरज होता कि वे अनजाने में उपमन्यु के स्वर, चाल-ढाल, पोस्चर, वस्त्र विन्यास, केश विन्यास को जांचती-परखती रही हैं. ख़ुद में आए इस परिवर्तन पर लाल साहब बहुत चकित थीं, फिर भी उन्हें लगने लगा कि पुरुषों में एक ऐसा आकर्षण होता है, जिसमें बंध कर बड़े आनंदी भाव से सारी उम्र गुज़ारी जा सकती है. निष्ठुर निर्मोही हठी लाल साहब अपने सद्यः प्रस्फुटित प्रेम अंकुरों को लेकर झेंपी लजाई, उड़ी-उड़ी रहने लगीं और भाभियां एक-दूसरे को कनखी मार कर उनके इस राधा रूप का बखान करने लगीं.
एक दिन सुबह नाश्ते के समय लाल साहब ने उद्घोषणा की, "मुझे एम.ए. की पढ़ाई कठिन लग रही है और मैं उपमन्यु सर से ट्यूशन लूंगी." तो नीरजा कांप कर रह गई कि अब ये उसके भाई की भावनाओं से खिलवाड़ करेगी और वो गरीब मारा जाएगा. अभी कुछ दिन पहले ही तो बाबूजी, अम्मा से कह रहे थे, "अपनी इस बच्ची को बड़े ठाठ-बाट से विदा करूंगा, हिंडोले में झूलेगी. हुकुम बजाने को दसियों नौकरानियां होंगी. बड़े समधी के माध्यम से बात चल रही है. यदि जम जाएगा, तो इस गर्मी में इसका विवाह कर देंगे. लड़का आई.ए.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका है. आजकल मसूरी में ट्रेनिंग में है."
इधर लाल साहब के मन में कुछ और ही चल रहा था. लाल साहब का प्रस्ताव सुन बाबूजी कहने लगे, "ट्यूशन लेना ही है तो किसी और से लो. उपमन्यु, नीरजा का मौसेरा भाई है, ट्यूशन फीस न लेगा, तो हमें संकोच होगा."
"कैसे न लेंगे. लिफ़ाफ़ा जबरन जेब में डाला जा सकता है बाबूजी, वे बहुत अच्छा पढ़ाते हैं. मेरा डिवीजन बन जाएगा."
"ठीक है, बात करेंगे." लाल साहब के प्रस्ताव पर सोचने-विचारने की गुंजाइश नहीं रहती. नीरजा ने उपमन्यु को अपनी अनिच्छा बताई, "तुम व्यर्थ ही परेशान होती हो." कहकर उपमन्यु नित्य सांध्य काल ट्यूशन पढ़ाने के लिए पहुंचने लगा.
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कई बार किताब के पन्ने उलटते-पुलटते या पेन में संपदा की उंगलियां उपमन्यु की उंगलियों से छू गई थीं, पर उस दिन उपमन्यु की कमीज की जेब में लिफ़ाफ़ा डालते समय संपदा की लरजती हथेली उपमन्यु की घड़घड़ाती छाती से जा टकराई. उपमन्यु के हृदय की धड़कन का एहसास पाकर संपदा बिल्कुल ही ध्वस्त हो गई. संपदा को रात भर उपमन्यु का क्षमादान झिंझोड़ता रहा. उसकी दूधिया मुस्कान याद आती रही.
संपदा रात भर वह स्पर्श अनुभव करती रही. उपमन्यु की धड़कन सुनती रही. जैसे उपमन्यु का हृदय छाती फाड़ कर उसकी कनपटियों में कहीं फिट हो गया है. सुबह लाल साहब रसोई में पहुंचे, "बड़ी भाभी, आज सब्ज़ी मैं बनाऊंगी."
तीनों भाभियां इस तरह एक-दूसरे का मुंह ताकने लगीं जैसे उनके साथ कोई दुर्घटना घटने जा रही है. इन लाल साहब को तो बघार के तीक्ष्ण धुएं से उबकाई आती है, फिर आज ये कैसा हठ? भागवंती बोली, "अरे नहीं लाल… ओह संपदाजी, ये ग़जब न ढाओ. बाबूजी हमारे प्राण निकाल लेंगे, रहने दो, रहने दो."
"बाबूजी से मैं निपट लूंगी. भाभी तुम तो मुझे सब्ज़ी बनाना सिखाओ… प्लीज़…" लाल साहब, नीरजा को कंधे से पकड़ कर गोल-गोल घूमने लगीं. नीरजा, निरीह सी दिखने लगी. लाल साहब के ऐसे स्नेह की आदत न थी.
"ऐसे क्या देख रही हो भाभी? सिखाओगी न."
लाल साहब के इस आग्रह-अनुग्रह पर तीनों भाभियां द्विविधाग्रस्त हो गईं. लाल साहब सब्ज़ी बनाने में जुट गए और हाथ जला बैठे. लाल-सुर्ख हथेली में फफोले पड़ गए, पर अचरज कि उन्होंने कोई विशेष तबाही नहीं मचाई. यह वही लाल साहब थे जिनके हाथ में गुलाब का पुष्प तोड़ते हुए कांटा चुभ गया था और वे ऐसे कराहे-छटपटाये थे कि घर के सभी सदस्यों को दर्द होने लगा था.
शाम को उपमन्यु पढ़ाने आया, तो उसकी दृष्टि सबसे पहले लाल साहब की लाल-सुर्ख हथेली पर पड़ी.
"ये क्या?" उपमन्यु ने न जाने किस तरंग में बहते हुए उसकी कमल नाल सी कलाई जकड़ ली. उस क्षण संपदा का सब कुछ हरण हो गया. उपमन्यु की ऊष्ण हथेली की दृढ़ता ने संपदा को भीतर तक मथ डाला. प्रकम्पित कण्ठ से बोल फूटा, "सब्ज़ी बना रही थी, जल गई."
"ओह… खाना तुम बनाती हो?"
"नहीं, मैं खाना नहीं बनाती. कल आपकी बातों से जाना कि आपको खाने का बहुत शौक है, तो इच्छा हुई कुछ सीखूं."
"सीखो पर तनिक प्यार से."
दोनों की समवेत हंसी कक्ष में गूंज उठी.
अध्ययन-अध्यापन और लीला. लाल साहब को जो इन्द्रधनुषीय अनुभूति इस समय हो रही है कभी न हुई थी. वे चकित हैं कि उन्होंने प्यार जैसी महान उपलब्धि के बारे में अब तक कैसे नहीं सोचा. नीरजा तो उनकी विशेष कृपा पात्र बन गई है. लाल साहब कभी-कभी नीरजा के कमरे में आकर उसका एलबम देखने लगते हैं. इस एलबम में उपमन्यु के बहुत से फोटो हैं. लाल साहब उन फ़ोटो पर न्यौछावर हो जाते, "भाभी, सर आपके मौसेरे भाई है न?"
"हां, हम चार बहने हैं, भाई की कमी उपमन्यु भाई पूरी कर देते हैं. कोई भी काम हो, हाजिर." नीरजा के हाथ एक गति और लय से स्वेटर बुन रहे हैं.
"सर का स्वभाव सबसे अलग है. स्टूडेन्टस तो उन्हें इतना पसंद करते हैं.
"बाकी सब ठीक है, बस लापरवाह बहुत हैं. ठण्ड आ रही है, पर भाई अपने लिए स्वेटर तक न ख़रीदेंगे. ये एक बनाए दे रही हूं."
दूसरे दिन सबने देखा, कॉलेज से लौटते हुए लाल साहब बाज़ार से ऊन ख़रीद लाए हैं और अपने कमरे में बैठे ऊन-सलाई से लड़ रहे हैं. देखकर भागवंती च्व…..च्च…. उच्चारते हुए कुमकुम की कनपटी के पास फुसफुसाई, "प्रेम में पड़कर लाल साहब का बुरा हाल है. पढ़ाई करें, खाना बनाना सीखें, स्वेटर बुनना सीखें कि सर की राह तकें."
सौंदर्यरस पढ़ाते-पढ़ाते उपमन्यु बोल पड़ा था, "तुम मेरे सौंदर्यबोध को नहीं जानतीं, मैं तो चेहरा देखकर बता देता हूं कि किसके ऊपर क्या सूट करेगा. सोचता हूं तुम पर सादे लिबास जितने अच्छे लगेंगे, उतने ये आधुनिक लिबास नहीं लगते."
"सच सर?"
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"मैं स्पष्टवादी हूं. न झूठ बोलता हूं, न मुंह देखी."
उपमन्यु ने संपदा के भाल पर छितरा आई लटों को तर्जनी से पीछे कर दिया, "इन केशों को कायदे से बांधों, फिर देखो अपना रूप."
आत्मविस्मृत-अवश संपदा ने केश पीछे करते सर का हाथ बहुत कोमलता से थाम लिया, "सर, आपकी इसी सादगी ने तो मुझे ऐसा अधीर बना डाला है. आपकी बातों में इतना सुख मिलता है कि जी करता है आप बोलते रहें मैं सुनती रहूं."
"संपदा, संभालो स्वयं को. तुम बहुत रईस पिता की इकलौती पुत्री हो. उन्होंने तुम्हारे लिए बहुत कुछ सोच रखा है. वे तुम्हारा विवाह ऐसे व्यक्ति से करेंगे, जो तुम्हें राजसी ठाट-बाट दे सके."
"आप से मिलने के बाद मुझे किसी राजसी ठाट की कामना नहीं रही सर. अब मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्य के विषय में नहीं सोच सकती."
इस प्रेम प्रसंग का जब रहस्योद्घटन हुआ, तो पूरे घर की चूलें हिल गई. जो स्नेहिल बाबूजी अब तक स्नेह ही लुटाते रहे, उसकी उचित-अनुचित मांग पूरी करते रहे, उसके लिए चंद्र खिलौना लाने का दम भरते रहे, बादलों से उमड़-घुमड़ रहे थे.
"संपदा, तुम बौरा तो नहीं गई, पढ़ने के नाम पर यह लीला कर रही थी?.. अरे वो दो टके का मास्टर, उसकी तनख़्वाह तुम्हारे पेट्रोल, होटल, क्लब, कपड़ों के लिए भी पूरी न पड़ेगी… यही है हमारे प्यार-दुलार का परिणाम? आज से ट्यूशन बंद, मैं तुम्हारा विवाह आई.ए.एस. लड़के से करने ्वाला हूं और तुम ये घटियापन कर रही हो."
बाबूजी के कपाल पर चढ़े जा रहे लाल नेत्र देख कर लाल साहब की कलफ़ादर आवाज़ कण्ठ में घुट कर रह गई. वे समझ गए कि ये बात किसी वस्तु की मांग करने, ट्रिप में जाने या सहेलियों की बर्थडे पार्टी में जाने की उद्घोषणा करने जैसी सरल नहीं है. बहुत साहस कर लाल साहब मेमने से मिमिआए, "बाबूजी… मैं सर को पसंद…"
"चोप… पिता से कैसे बात की जाती है यह भी सिखाना होगा तुम्हें? ये प्रेम-प्यार का भूत चार दिन में उतर जाता है, समझी. सारी रिश्तेदारी धरी रह जाएगी. इस उपमन्यु को मैं ऐसा सबक सिखाऊंगा कि इस शहर में नज़र नहीं आएगा."
किसी अनिष्ट की आशंका से छटपटाती संपदा बाबूजी के पैरों में लोट गई, "बाबूजी, फिर मैं भी ज़िंदा नहीं रह सकूंगी. आप मेरा हठ तो जानते ही हैं… रही सर की बात, तो उन्हें व्यर्थ दोष न दीजिए. उन्होंने तो शायद अब भी मुझसे विवाह की बात नहीं सोची होगी, क्योंकि वे मानते हैं मेरे जैसी रईस लड़की उनके साथ सामंजस्य नहीं बैठा सकेगी. बाबूजी… आपने अब तक मेरी हर इच्छा मानी है, बस एक ये इच्छा पूरी कर दीजिए, फिर कभी कुछ नहीं मागूंगी… कभी नहीं."
क्रोध में हांफते बाबूजी, तेज-तेज पैर पटकते छत पर चले गए. घर में ऐसी मुर्दानी छा गई जैसे अभी-अभी किसी की अर्थी उठी है.
अम्मा स्वभाव वश एक लय से रोने लगीं. रोती-सिसकती-हिचकती संपदा अपने कमरे में चली गई.
छत पर टहलते-छटपटाते बाबूजी पता नहीं फिर कितनी देर बादश्रनीचे उतरे और सोए.
लाल साहब का अन्न-जल त्याग आंदोलन चल पड़ा. बाबूजी का कड़ा आदेश था कि कोई उसे मनाने न जाए, भूख जब सही न जाएगी, तो दिमाग़ की सारी खुराफ़ात अपने आप निकल जाएगी.
लाल साहब अपना विश्व विख्यात हठ आसानी से कैसे छोड़ देते. उन्हें ज्वर चढ़ आया, ताप बढ़ता गया और सन्निपात में लाल साहब अंड-बंड बड़बड़ाने लगी. अम्मा ने बाबूजी को आड़े हाथों लिया, "लड़की मर जाएगी, तो उसकी लाश का बियाह कर देना और ख़ुश हो जाना. अरे कौन सा दोष है उस बेचारे उपमन्यु में. तुम्हें यही सब करना था तो ऐसा सिर पे न चढ़ाते लड़की को."
बाबूजी के भीतर समुद्र मंथन होने लगा. अम्मा को तो रोने के अतिरिक्त कुछ सूझ न पड़ता था.
तीसरे दिन भी ज्वर न उतरा. अधीर बाबूजी कभी चिकित्सक से निवेदन करते, तो कभी घर के लोगों पर कुपित होते. न घर में चित्त लगता, न प्रतिष्ठान में. अंतड़ियों में मरोड़ सी उठती रही. सोचने लगे, बच्चे ठीक कहते हैं, संपदा को ऐसा हठी उन्होंने ही बनाया है. और उसका हठ सहज ही टूटनेवाला नहीं है. शाम को घर पहुंचे, तो संपदा के सिराहने बैठी आंसू पोंछती अम्मा से बोले, "भई, बहुत हुआ. नीरजा से कहो, उपमन्यु के घर का पता बताए, उसके पिता को पत्र डालना है." कहकर बाबूजी अपने कमरे में चले गए. इधर संपदा ने अम्मा का हाथ पकड़कर खींचा, "अम्मा, आज मेरे लिए नीरजा भाभी से थोड़ा-सा हलवा बनवाओ न. हलवा खाने बड़ा मन है."
"अभी बनवाती हूं बिटिया." अम्मा तेज-तेज चली गईं.
नीरजा, हलवा बना कर लाई, तो भागवंती और कुमकुम भी नत्थी हो चली आईं.
लाल साहब ने एक चम्मच हलवा मुंह में डाला और भागवंती से बोले, "बड़ी भाभी, हमने तो सोचा था, बड़े मौक़े पर बुखार आया है. मामला फिट हो जाएगा. बाबूजी पर प्रभाव पड़ जाएगा, पर यहां तो ऐसा बुखार आया कि… इतना अंड-बंड बड़बड़ाने का नाटक करना पड़ा सो अलग."
भागवंती ने ठुड्डी पर उंगली टिकाई, "तो तुम जान-बूझकर वो सब बड़बड़ा रही थीं लाल साहब?"
न जाने किस उत्साह में भागवंती के मुंह से लाल साहब निकल गया, कुमकुम और नीरजा ने दांतों तले जीभ दाबी कि अब लाल साहब बम की भांति फट पड़ेंगे, पर लाल साहब तो मुस्कुरा रहे थे, "लाल साहब… आहा… हा… इस नामकरण पर तो आप लोगों को पुरस्कार मिलना चाहिए. सर ने बताया था आप लोग मुझे लाल साहब कहती हैं."
"तो तुम्हें मालूम था?" समवेत स्वर उभरा.
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