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कहानी- हम आपके हैं कौन? (Story- Hum Aapke Hain Kaun?)

Anoop-Shrivastav
    अनूप श्रीवास्तव
Hindi Short Story
उन्हें लगा जैसे लोग कैलेंडर में छपे किसी देवता के चित्र को पूजते हैं और नया साल आते ही उस कैलेंडर को हटा देते हैं. उनका भी हाल कैलेंडर जैसा है, बस दिसंबर कभी भी आ सकता है. उनका दोष क्या था? वे तो कोई लाभ भी नहीं चाहती थीं. थोड़ा-सा प्यार, थोड़ा-सा अपनापन ही तो चाहती थीं वे. बस, वो भी पाने को नहीं, बल्कि लुटाने को. रिश्तों में छिपे झूठे बहाने ही तो खोज रही थीं वो, पर क्या अब प्यार, रिश्ते, भावनाएं सब महत्वहीन हो गए हैं? 
शाम हो रही थी. संजीवजी स्काइप पर अपनी बेटी से बात कर रहे थे. दामाद ऑफिस जा चुके थे. संजीवजी अपनी बेटी पूनम से अधिक नातिन रुनझुन को देखकर उसकी प्यारी बोली सुनकर निहाल हो रहे थे. सात माह की हो जाने से उसकी चंचलता और बढ़ गई थी. एकाएक पूनम पूछ बैठी, “पापा, ममा कहां हैं? इतनी देर से वो आईं ही नहीं.” “बेटा, वो अपनी बहू के पास गई हैं.” “बहू के पास?” पूनम को हैरानी हुई, क्योंकि अगर ममा उसके भाई के पास ऑस्ट्रेलिया जातीं, तो उसे ख़बर ज़रूर करतीं. पूनम को उलझन में देखकर संजीवजी ठहाका लगाकर बोले, “अरे, वो अपनी छोटी बहू के यहां गई हैं.” पापा की हंसी से पूनम माजरा समझ गई और बोली, “क्या पापा, आप कुछ भी बोल देते हैं. मैं तो चकरा गई थी. यह कहिए कि किराएदार के यहां गई हैं.” “अरे, भूल कर भी किराएदार न कहना, वरना तुम्हारी ममा बुरा मान जाएंगी. वैसे तुम दूर रहकर सेफ हो न, इसलिए किराएदार कह सकती हो, पर मुझे अपनी शामत थोड़े ही बुलानी है.” कहकर पापा हंसे, तो पूनम भी हंसने लगी. फिर एकाएक संजीदा होकर बोली, “पापा, मज़ाक अपनी जगह है, लेकिन आप ममा का ज़रा ध्यान रखिएगा. कोई भी उनके भोले स्वभाव का सहज ही फ़ायदा उठा सकता है. आजकल समय बड़ा ख़राब चल रहा है. क्या पता किसके दिल में क्या है? ममा तो किसी पर भी भरोसा कर लेती हैं, रिश्ता बना लेती हैं, इसलिए पापा आप ध्यान दीजिएगा.” वैसे संजीवजी की छोटी बहू वाली बात सही भी थी, क्योंकि आजकल मालिनीजी बहुत प्रसन्न रहने लगी थीं. ऐसा नहीं कि उन्होंने नया मकान या नई कार ख़रीद ली हो. यह सब तो उनके पास पहले से ही है, पर इन सबके बावजूद वे ख़ुश नहीं रह पाती थीं और इसकी वजह बस यही थी कि उनके बच्चे भारत में नहीं रहते. बेटा अपने परिवार के साथ ऑस्ट्रेलिया में, तो बेटी अपने परिवार के साथ अमेरिका में. वे इतने अधिक व्यस्त हो गए थे कि दो साल से अधिक समय हो गया था, पर भारत नहीं आ पाए थे. हालांकि स्काइप पर रोज़ ही चैटिंग तो होती रहती थी, पर उसमें वो बात कहां, जो अपने बच्चों के साथ रहने में है, विशेषकर अपने प्यारे नटखट से पोते यश व चंचल नातिन रुनझुन को लैपटॉप पर देखकर, उनकी प्यारी-प्यारी बातें सुनकर मालिनीजी की आंखें ही भर आती थीं, जिसे देख संजीवजी हंसने लगते. इस पर मालिनीजी नाराज़ होतीं, तो संजीवजी कहते, “अरे, अब कम से कम लाइव चैट तो कर सकती हो, वरना पहले तो चिट्ठी व हाई रेट आईएसडी कॉल से ही संतोष करना पड़ता था. लेकिन मालिनीजी को चैन नहीं पड़ता. अकेलापन कुछ ज़्यादा ही सताने पर मालिनीजी ने अपनी सहेली की सलाह मानते हुए घर के ऊपरी हिस्से में बने टू रूम सेट को किराए पर उठा ही दिया. उसका कहना था कि किसी ऐसे छोटे परिवार को किराए पर देना, जिन लोगों का स्वभाव अच्छा हो, इससे तुम्हारा अकेलापन दूर हो जाएगा और मन भी लगा रहेगा. बात समझ आई, तो वे किराएदार रखने को तैयार हो गए. पैसा उनकी प्राथमिकता तो थी नहीं, इसलिए बस यह देखा जाता कि किराएदार मन मुताबिक़ हो, जिससे अकेलापन तो दूर हो सके, परिवार का भी एहसास हो सके. इसी कारण से अकेले रहनेवाले लड़के या लड़कियों को साफ़ मना कर दिया जाता. फिर चाहे वे स्टूडेंट हों या नौकरी करनेवाले हों या कितना भी किराया दे रहे हों. कई लोगों ने उनको पीजी बनाने के अनेक लाभ समझाए, पर वे कह देते इन झमेलों में कौन पड़े, बस फैमिली होनी चाहिए. आख़िरकार उनको दिनेश का परिवार पसंद आ गया. एक नामी फार्मा कंपनी में एरिया मैनेजर दिनेश, पत्नी काव्या, जो इसी शहर के कॉन्वेंट स्कूल में शिक्षिका थी व उनकी तीन साल की बेटी अनु, बस छोटा-सा परिवार. हालांकि मालिनी की चाहत ऐसे किराएदार की थी, जहां पत्नी हाउसवाइफ हो, ताकि अकेलापन दूर हो सके, जीवन की एकरसता भी कुछ कम हो सके, लेकिन आज की इस दोहरी आमदनी की मानसिकतावाले समय में ऐसा परिवार मिलना मुश्किल था, इसलिए मालिनी ने अपनी इच्छा से समझौता करते हुए इस परिवार को ही किराएदार रख लिया था. काव्या सुबह आठ बजे अनु को लेकर स्कूल निकल जाती और दोनों ही तीन बजे लौटते. सुबह नौ बजे निकलनेवाले व देर रात वापस आनेवाले दिनेश महीने में दस दिन तो टूर पर ही रहते, इसलिए काव्या का भी काफ़ी समय मालिनीजी के साथ बीतता. दोनों एक-दूसरे के अकेलेपन और दुख-सुख की साथी बन गई थीं. मालिनीजी उसे अपनी बहू मानतीं, तो काव्या भी बहू जैसा व्यवहार करती व उन्हें पूरा मान-सम्मान देती. जब अनु मालिनीजी को ‘दादी’ कहकर बुलाती, तो वे जैसे निहाल हो जातीं. मालिनीजी उसकी अनेक इच्छाएं पूरी कर देतीं, बल्कि ख़ुद ही कभी महंगा खिलौना, तो कभी तरह-तरह की खाने-पीने की चीज़ें देतीं. कभी-कभी काव्या नकली रोष दिखाते हुए कहती, “क्या आंटी, आप इसकी आदतें ख़राब कर रही हैं. कल को हम लोग कहीं और रहेंगे, तो इसके ऐसे नखरे कौन उठाएगा?” इस पर मालिनीजी उसे प्यार से डपटते हुए कहतीं, “तू कौन होती है, हम दादी-पोती के प्यार के बीच आनेवाली? और यह सब पैसा मैं कोई ऊपर तो ले नहीं जाऊंगी. वैसे भी तुम लोगों को यहां से जाने ही कौन देगा. इतने दिनों के बाद मुझे मौक़ा मिला है अपनी पोती के साथ रहने का.” इसके बाद वास्तव में मालिनीजी को ख़ुश रहने के जाने कितने ही बहाने मिल गए थे. कहां तो वे पहले करवा चौथ की पूजा अकेले रस्म अदायगी के लिए ही करती थीं, पर इस बार तो उनका उत्साह देखते ही बनता था. काव्या को साथ लेकर उन्होंने जाने कितने पकवान बना डाले थे. इसके बाद रात में दोनों ने पूजा भी एक साथ ही की थी. मालिनीजी तो ख़ुशी में एक जोड़ी भारी-सी पायल भी काव्या को देनेवाली थीं कि इस घर में पहला त्योहार है उसका, लेकिन संजीवजी ने कहा, “ज़्यादा इमोशनल अटैचमेंट मत रखो. आजकल के समय में सोच-समझकर ही किसी से घनिष्टता बढ़ानी चाहिए. थोड़ा रिज़र्व रहा करो.” इस पर मालिनीजी ने उल्टा उन्हें ही लेक्चर दे डाला कि उनकी तो आदत है, हर एक पर शक करने की. भले ही ज़माना ख़राब हो, पर ऐसे अच्छे लोग कम ही मिलते हैं. काफ़ी भावुक और संवेदनात्मक स्वभाव की मालिनीजी का दिल दूसरों की समस्या से पसीज जाता था और उनकी सहायता करके उन्हें आनंद मिलता था. साथ ही वो हंसमुख व बातूनी स्वभाव की थीं. यह भी कारण था कि उनके दूसरों से अपनेपन के रिश्ते सहज ही बन जाते थे. वैसे संजीवजी भी ख़ुश थे कि मालिनीजी का एकाकीपन तो दूर हुआ. दो बजे से ही मालिनीजी की ख़ुशी छिपाए नहीं छिपती थी कि बहू-पोती आनेवाले हैं. आजकल तो वो रोज़ ही काव्या व अनु को आते ही नीचे ही रोक लेतीं. काव्या को अपने हाथों से चाय बनाकर पिलातीं, तो अनु, “दादा-दादी” करते उनकी गोद में चढ़ जाती. शुरू में एक-दो बार काव्या ने संकोच में दबे शब्दों में कहा, “यह अच्छा नहीं लगता कि आप मेरे लिए चाय बनाएं.” इस पर मालिनीजी ने उसे मीठी-सी झिड़की देते हुए कहा, “पूरे दिन की थकी हुई मेरी बहू आती है, तो क्या मैं उसके लिए एक कप चाय नहीं बना सकती.” डिनर में अक्सर दोनों ही अपनी बनाई हुई सब्ज़ी, स्पेशल डिश आदि एक-दूसरे को देती थीं, बल्कि काव्या ने मालिनीजी से कई पारंपरिक व्यंजन सीखे, तो उन्हें केक, पिज़्ज़ा, चाइनीज़ आदि नई डिशेज़ बनानी सिखाई. संजीवजी भी हंसते हुए कहते, “चलो, तुम्हारी बहू के आने से मुझे नए-नए व्यंजन तो मिल रहे हैं.” आज मालिनीजी ने काली गाजर का हलवा बनाया था और वही देने ऊपर गई थीं. दरवाज़े को खटखटाते उनके हाथ अपना नाम सुनकर रुक गए. काव्या दिनेश से कह रही थी, “यार, यह आंटी तो कुछ ज़्यादा ही पज़ेसिव होती जा रही हैं.” “क्यों? क्या हुआ?” “आज अनु मॉल चलने की ज़िद कर रही थी. मैंने कहा कि पापा बाहर गए हैं आज रात को वापस आ जाएंगे, तो कल चलेंगे, पर वो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं. बस, एक ही रट लगाए थी कि ‘मुझे आज ही जाना है. मुझे आज ही जाना है.’ मुझे भी ग़ुस्सा आ गया, तो एक चांटा लगा दिया. बस, उसने रो-रोकर सारा घर सिर पर उठा लिया. उसका रोना सुनकर उसकी दादी आ धमकीं व सारी बात सुनकर मुझे ही डांटने लगीं कि मुझे बच्चों को डील करना नहीं आता. मैं अपनी दिनभर की खीझ व थकान को मासूम बच्चे पर उतारती हूं. मुझे ग़ुस्सा तो बहुत आया, पर चुप रह गई. यार यह तो अपने को सच में मेरी सास समझने लगी हैं.” इस पर दिनेश ने लापरवाही से कहा, “यह तुम्हारी प्रॉब्लम है, तो तुम ही रास्ता निकालो. मैंने तो शुरू में ही कहा था कि रिज़र्व रहा करो, पर तुम मानो तब न. तुम्हारे इस सास-बहू के सीरियल ने अनु को बिगाड़ दिया है. उस लेडी ने ही अपने प्यार-दुलार से इसे ज़िद्दी बना दिया है. फिर भी इसे इतनी गंभीरता से न लो. कोई हमारा सगा रिश्ता तो है नहीं. जब तक इस मकान में रहना है ऐसे ही चलने दो और एक बार मकान बदल दिया, तो कौन किसकी सास, कौन किसकी बहू? यहां बाद में थोड़े ही मिलने आना है.” इस पर काव्या चहककर बोली, “यही तो मैं भी कहती हूं. तुम तो आए दिन टूर पर रहते हो, तो मैं भी अपना अकेलापन दूर करने को यह रिश्ता बनाए हुए हूं, पर वो तो दिल का रिश्ता समझ बैठी हैं. यहां सगे रिश्ते तो निभ नहीं पाते, गैरों से क्या खाक रिश्ता निभाएंगे. बस, वक़्त काटने को एक सहारा मिल गया है. ख़ैर हमें क्या? जब तक यहां हैं, तब तक हम आपके दिल में रहते हैं. जब कभी मकान बदल दिया, तो हम आपके हैं कौन?” इतना कहते हुए काव्या हंसने लगी और दिनेश ने भी उसका साथ दिया. मालिनीजी हाथ में गाजर के हलवे का डिब्बा लिए जैसे पाषाण की बन गई थीं. उनके काटो तो ख़ून नहीं. उनके पैरों के आगे बढ़ने का तो कोई सवाल ही नहीं था, पर जाने क्यों उनके पैर पीछे भी नहीं हट पा रहे थे. शायद इतने निर्मम और क्रूर आघात ने उनकी सोचने-समझने की शक्ति का हरण कर लिया था और वे जाने कितनी ही देर संज्ञा शून्य-सी खड़ी रहीं या शायद उनका दिल एक झटके में इस रिश्ते की हक़ीक़त को स्वीकार करने के लिए तैयार ही न था. उन्हें यक़ीन नहीं हो रहा था कि ऐसे निष्ठुर लोग भी हो सकते हैं क्या? बार-बार हथौड़े की तरह उसके दिलोदिमाग़ पर यही शब्द चोट कर रहे थे. “यहां सगे रिश्ते तो निभ नहीं पाते, गैरों से क्या रिश्ता निभाएंगे. जब कभी मकान बदल दिया, तो फिर हम आपके हैं कौन?” मालिनीजी का कुछ ऐसा हाल था जैसे भावनाओं व संवेदनाओं से भरी झील में अचानक बड़ी-सी चट्टान गिरी हो और वो छलकने को बेताब हो. उन्हें लगा जैसे लोग कैलेंडर में छपे किसी देवता के चित्र को पूजते हैं और नया साल आते ही उस कैलेंडर को हटा देते हैं. उनका भी हाल कैलेंडर जैसा है. बस, दिसंबर कभी भी आ सकता है. उनका दोष क्या था? वे तो कोई लाभ भी नहीं चाहती थीं. थोड़ा-सा प्यार, थोड़ा-सा अपनापन ही तो चाहती थीं वे. बस, वो भी पाने को नहीं, बल्कि लुटाने को. रिश्तों में छिपे झूठे बहाने ही तो खोज रही थीं वे, पर क्या अब प्यार, रिश्ते, भावनाएं सब महत्वहीन हो गए हैं? यह आजकल की पीढ़ी को हो क्या गया है? अपनी मंज़िल पाने के लिए या तथाकथित सफलता के लिए रिश्तों को, किसी की भावनाओं को, संवेदनाओं को कुचलते हुए आगे दौड़ते जाना ही प्रैक्टिकल होना कहलाता है? क्या येन-केन-प्रकारेण स्वार्थसिद्धि ही इंसान का मक़सद व मज़हब हो गया है? काश! वे भी व्यावहारिक हो गई होतीं, तो यह समझ जातीं कि रिश्तों की जगह गणितीय समीकरणों ने ले ली है, जिनमें भावनाएं नहीं, बस लाभ-हानि के जोड़-घटाने ही होते हैं. उन्हें लगा शायद वे ही मूर्ख थीं, जो सबसे बहस करती थीं कि समय नहीं बदलता. उनके तर्क अजीब होते थे या लोगों को अजीब लगते कि क्या अब फूल नहीं खिलते या उनकी ख़ुशबू में कोई कमी आई है? क्या बादल अब नहीं बरसते, कोयल नहीं चहकती कि पेड़ों पर फल नहीं आते हैं? जब प्रकृति की कोई कृति नहीं बदली, तो कैसे मान लिया जाए कि समय या इंसान बदल गया है? शायद उनके पति, बेटा, बेटी सच कहते थे कि वे आज के समय में मिसफिट हैं. उन्होंने अपनी आंखों से बहती भावनाओं को, अपने गले से निकलते स्वर को किसी तरह रोका. ऐसा नहीं था कि वे रोना नहीं चाह रही थीं, बल्कि वे तो फूट-फूटकर रोने को बेताब थीं. अभी तो वे बस इतना ही सोच रही थीं कि यदि संजीवजी ने उन्हें गाजर का हलवा वापस लाते या उनकी नम आंखों को देख लिया तो वे उन्हें क्या कहेंगी?...

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