काफ़ी देर तक मैं फोन पकड़े हुए सोचता रहा. मानो कभी शाहिना की आवाज़, कभी अख़बार की हेडलाइन और कभी फ्रंट पेज पर छपी कॉशिमा और जॉन की तस्वीरें आंखों के आगे तैर जातीं. घबराहट के मारे मेरा पूरा शरीर पसीने से तर-बतर हो रहा था. और उधर इन सभी बातों से बेफिक्र शाहिना को डर छू भी नहीं रहा था. सच ही कहा है किसी ने, पुरुष के लिए ‘प्रेम’ एक भावना मात्र है, लेकिन नारी के लिए प्रेम पूजा से कम नहीं. संपूर्ण समर्पित हो जाने को ही नारी प्रेम समझती है.
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैं स्टेज पर पहुंचा. आज मुझे मेरे उपन्यास ‘शाहिना’ के लिए सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार का पुरस्कार मिल रहा था. मुख्यमंत्री से पुरस्कार ग्रहण करके मैं नीचे उतरा, तो पुष्पहारों और कैमरों के फ्लैशों का तांता शुरू हो गया. लेकिन उस चकाचौंध के बीच भी मैं कहीं और खोया हुआ था. मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है वो दिन, वो लम्हे…
एयरपोर्ट पर उतरते ही मेरे हृदय की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गई थी. कभी इस विदेशी सरज़मीं का अंजानापन मुझे गुदगुदा जाता, तो कभी अपने देश की मिट्टी की यादें गमगीन कर देती थीं.
मेरी नौकरी सऊदी अरब की अल-फ़ज़ल नामक एक बड़ी कंपनी में लगी थी. मुहम्मदहुसैन-अल-जफ़र-अलफहाद काजी उस कंपनी के मालिक थे, जो वहां पर ‘आबू’ नाम से मशहूर थे.
मैनेजर की नौकरी बड़ी ज़िम्मेदारीवाली थी. पहली ही मुलाक़ात में फुहादीन अल हुसैन और मैं एक-दूसरे से काफ़ी खुल गए थे. हमउम्र फुहादीन, आबू का तीसरा बेटा था. पिता का सेल्स विभाग वही सम्भालता था. कभी मेरे ऑफिस में आ जाता, तो कभी मुझे ही अपने बंगले पर बुलाकर अगले दिन के कामकाज के लिए हिदायतें दे दिया करता था. मैं अक्सर बंगले पर आने-जाने लगा.
वहीं बंगले पर एक दिन मेरी मुलाक़ात शाहिना से हुई थी. सिर से पैर तक बुरके से ढंकी हुई शाहिना दरवाज़े के पीछे चाय लेकर खड़ी थी. फाइलों पर अपनी नज़रें गड़ाए हुए ही फुहादीन ने मुझसे चाय की प्याली पकड़ लेने का निवेदन किया था.
मेरा संक्षिप्त परिचय दिया, तो प्याला पकड़ाकर शाहिना ने मुझे सलाम किया था. मौन अभिवादन. हाथों के नीचे से ऊपर आने और ऊपर से नीचे आने में उसके हाथों की सारी चूड़ियां एक साथ खनक उठी थीं और वह अंदर भाग गई. बुरके के अंदर से मैंने सिर्फ उसकी आंखें देखी थी. अंग्रेज़ी में मुझे फुहादीन ने बताया, “मेरी छोटी बहन है- शाहिना. मेडिकल सेकंड ईयर में पढ़ती है, इजिप्ट में, अभी छुट्टियों में घर आई है.”
“इजिप्ट में?” मैंने जिज्ञासा प्रकट की.
“हां, असल में हमारे यहां अलग से लड़कियों के लिए कोई मेडिकल कॉलेज नहीं है न. और यू नो… हम लोग लड़कियों को एड में पढ़ाते नहीं हैं. एनी वे, वह टोकियोवाला ओकासिवा फर्म की फाइल निकालना तो…”
मैं काम में जुट गया, मगर अनायास ही मेरी निगाहें बार-बार अंदर की ओर उठ जाया करती थीं. चूड़ियों की वही खनक मुझे बार-बार सुनाई दे रही थी.
दिन बीतते रहे. मेरा बंगले पर आना-जाना लगा रहा. मैं हमेशा दरवाज़े के पासवाले सोफे पर ही जान-बूझकर बैठता था. चाय आते ही मैं लपककर उठ जाता. एक दिन चाय लेकर मैंने अरबी भाषा में ‘शुक्रन’ कहा, तो शाहिना के साथ-साथ फुहादीन भी ज़ोरों से हंस पड़ा था और बोला, “अच्छा तो अरबी सीख ली है आपने… वेरी गुड.”
वक़्त गुज़रता गया और हमारी बातचीत का सिलसिला भी बढ़ता गया. अब शाहिना चाय देने अंदर कमरे में आ जाती थी और फुहादीन के आग्रह करने पर हम लोगों के साथ बैठकर टीवी भी देख लेती थी. अरबी में कुछ धीरे-से वो कमेंट करती, तो फुहादीन हंस पड़ता था और वह अंग्रेज़ी में ट्रांसलेट करके मुझे बता देता. शाहिना झेंपकर अपनी खनखनाती हुई हंसी हंसती हुई दौड़कर अंदर भाग जाती.
मैंने बहुत कम अरसे में ही अच्छी अरबी सीख ली थी. फुहादीन खुले विचारों का व्यक्ति था. एक दिन उसी ने मुझसे शाहिना को अंग्रेज़ी पढ़ा देने का निवेदन किया. मैं रोज़ उसके घर जाने लगा था. शुरू में दो-चार दिनों तक शाहिना की मां भी आकर साथ में बैठ जाती थी, मगर हफ़्तेभर में ही उसे विश्वास हो गया कि मैं एक सीधा-सादा-सा लड़का हूं, तो उसने भी बैठना छोड़ दिया. कभी-कभार आकर मेरा हालचाल पूछ जाती और चाय-नाश्ता भिजवा देती. धीरे-धीरे मैं उस घर में घरेलू-सा हो गया. बिना फोन किए उस घर में मेरा आना-जाना आम बात हो गई थी.
धीरे-धीरे शाहिना के साथ उसकी अन्य बहनें भी मेरे सामने आने लगीं. बुरका क्रमश: कम होता गया. बातचीत का सिलसिला बढ़ता गया. हिन्दुस्तान के रस्मो-रिवाज़ की बातें वे बड़े चाव से सुनती, यहां की एक शादी-प्रथा पर उन सभी को आश्चर्य भी होता, प्रसन्नता भी.
इन्हीं दिनों मैं शाहिना के काफ़ी क़रीब आ चुका था. घंटों फोन पर बातें होतीं. मेरे पहुंचते ही उसकी प्रतीक्षारत आंखों में चमक बढ़ जाना कोई भी पढ़ सकता था…
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एक दिन अचानक शाहिना की अम्मी का फोन आया. मैं घबरा गया. अचानक शाहिना को बुखार आ जाने से अम्मी घबरा गई थीं. घर में उस व़क़्त कोई पुरुष नहीं था. मैंने फुहादीन को फोन कर दिया और ख़ुद भी उनके फैमिली डॉक्टर को साथ लेकर घर पहुंच गया. घबराहट में उस दिन अम्मी शाहिना को बुरका पहनाना भी भूल गई थीं. शाहिना ने मुझे कमरे में देखा तो शर्म से तकिए में मुंह छिपाने लगी.
पहली बार मैंने उसका चेहरा देखा था. उसकी सुन्दरता देखकर मैं क्षणभर को अवाक्-सा रह गया था. गुलाब की पंखुड़ियों से गढ़ी हुई काया. पलकों की ओट से झांकती हुई उसकी मादक आंखें. डॉक्टर ने अपना बैग मुझसे मांगा, तो मेरी तन्द्रा टूटी. डॉक्टर को उनका बैग पकड़ाकर मैं शालीनता से कमरे से बाहर आ गया.
डॉक्टर ने बताया इन्जेक्शन दे दिया है, सुबह तक बुखार उतर जाएगा. अम्मी को थोड़ी तसल्ली हुई. रात के आठ बज रहे थे, इसलिए मुझे खाना खाने के लिए रोक लिया गया. फुहादिन आया, तो मैं उसके साथ ही पुन: शाहिना के कमरे में पहुंचा, शाहिना सो रही थी. फुहादीन ने उसके सिर पर हाथ रखकर पूछा, “अब कैसी हो?” शाहिना ने अचानक आंखें खोलीं. मुझे सामने देखकर उसके गाल लाल हो उठे. शर्म और लाज से उसके कान तक गुलाबी हो गए. शाहिना ने सिर्फ सिर हिलाकर ज़ाहिर कर दिया कि ठीक हूं और अपना चेहरा पास पड़े दुपट्टे से ढंक लिया.
मैं फुहादीन के साथ वहीं बैठ गया. अम्मी कमरे में चाय पहुंचाकर चली गई. हम दोनों चाय पी ही रहे थे कि तभी फुहादीन का फोन आ गया. वो फोन अटैंड करने बाहर चला गया. अनायास ही मेरा हाथ उठा और शाहिना के ललाट पर मैंने हाथ रखते हुए पूछा, “बहुत तप रहा है? एक सौ तीन तो बहुत ज़्यादा होता है…” शाहिना ने आंखें खोलकर बंद कर ली.
यह मेरा पहला स्पर्श था. शाहिना मानो अपनी ही रजाई में घुस जाना चाहती थी. मैंने उसे घूरते हुए अंग्रेज़ी में कहा, “आप बीमार न पड़ा करें, मैं परेशान हो जाता हूं..” और सबकी नज़रें बचाकर मैंने काग़ज़ का एक मुड़ा-तुड़ा-सा टुकड़ा उसे पकड़ा दिया. उसे मानो कोई ख़ज़ाना मिल गया हो. होंठों को हिलाकर उसने ‘थैंक्यू’ कहा. अम्मी आ गई, तो मैंने उठते हुए धीरे से कहा, “गेट वेल सून…”
उस रात मैं बेड़ पर लेटा करवटें बदलता रहा.
दिनभर भी काम में मन नहीं लगा. शाम को जब शाहिना का फोन आया तो मेरे दिल को चैन आया. उसने सिर्फ ‘शुक्रन’ कहकर फ़ोन रख दिया. उसके बाद हमारा पत्रों का सिलसिला शुरू हो गया. आठ-दस पेज की चिट्ठियां उसके लिए आम बात थी. हम दोनों एक-दूसरे के बारे में बहुत कुछ जान चुके थे, पारदर्शी हो चुके थे. मैं शाहिना से अटूट प्यार करने लगा था, पर अपने आप को संयम में रखे हुए था. मगर शाहिना का दीवानापन उसके पागलपन में बदल चुका था…
एक दिन मैं ऑफिस में बैठा कामकाज में व्यस्त था. अचानक फोन आया, “मैं सुपर मार्केट जा रही हूं, नीलीवाली क्लासिक गाड़ी है. सुनो, अम्मी भी मेरे साथ हैं, तुम आ जाओ. तुम्हें देखना चाहती हूं.” इससे पहले कि मैं अपनी असमर्थता ज़ाहिर करता, वह बोल पड़ी, “तुम कैसे भी मैनेज करो, आई डोंट नो, बस तुम्हें आना है…” और उसने फोन रख दिया.
प्रेम में कभी-कभी यह अधिकारपूर्ण व्यवहार भारी पड़ जाता है. मैंने फोन रख दिया और बैठकर सोचने लगा. तीन बजे उठा, अपने सहायक को काम समझाकर, टैक्सी पकड़कर सीधे सुपर मार्केट पहुंच गया.
सुपर मार्केट के पास ही एक चौराहे पर खड़े होकर आने-जाने वाली गाड़ियों में क्लासिक ढूंढ़ने लगा. शाहिना की नीली क्लासिक कार दिखाई पड़ी, तो मैं रास्ता क्रॉस करने लगा. हमारी योजना सफल हुई. शाहिना के ड्राइवर ने मुझे देखा तो गाड़ी रोक दी, “अरे साहब आप… आप यहां कैसे?” अभिनय करते हुए मैंने उत्तर दिया, “मेरी गाड़ी ख़राब हो गई, तो मैंने सोचा टैक्सी से… अरे नमस्ते अम्मी… हेलो शाहिना.”
शाहिना अपने चेहरे से पर्दा हटाकर अपनी मां से नज़रें बचाते हुए मुझे जीभ निकालकर चिढ़ाने लगी. अम्मी की ज़िद पर मैं भी कार में आकर बैठ गया. उन्होंने कहा कि मार्केट के बाद वे मुझे घर तक छोड़ देंगी. यही तो हमारी योजना थी.
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मैं घर पहुंचा. कार से उतरने ही वाला था कि शाहिना ने मुझे पीछे से चिकोटी काटी. मैंने उसे देखा, तो उसने मां की तरफ़ इशारा किया. मैंने अंदर चलने के लिए आग्रह किया. एक-दो बार इंकार करने के बाद वो राज़ी हो गईं.
अपने एक कमरे के छोटे-से फ्लैट में मैं अम्मी और शाहिना को ले आया. चाय बनाने लगा, तो अम्मी ने शाहिना को अरबी में झड़पते हुए चाय बना देने का इशारा किया. शाहिना यही तो चाहती थी. मगर अम्मी के सामने ना-ना करती हुई मेरे पास आ बैठी. अम्मी ने मुस्कुराते हुए पूछा- “शादी क्यों नहीं कर लेते बेटा…?” मैं जवाब के लिए शब्द चुन ही रहा था कि शाहिना चाय को प्याली में छानती हुई बोली, “कौन शादी करेगा इस मोटू से..?” शाहिना की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि अम्मी उसे डांटने लगी.
कुछ देर बाद अम्मी बालकनी में आई, तो मैंने शाहिना को अपनी बांहों में भरते हुए पूछा, “क्यों, मैं मोटू हूं..?”
“ऑफकोर्स…” और वो मेरे सीने से लग गई. मैंने उसके होंठों पर चुंबन लेना चाहा, तो वो रोकती हुई बोली, “बस शुरू हो गए न… तुम लड़कों को और भी कुछ सूझता है? तुम सभी लड़के एक से होते हो… फ्रॉड, एकदम फ्रॉड…”
“मैं फ्रॉड हूं..?” मैंने उसकी आंखों में झांकते हुए पूछा “ऑफकोर्स… यू आर ए फ्रॉड… ए रीयल फ्रॉड…” और वो खिलखिलाने लगी.
शाहिना अचानक ख़ामोश हो उठी. मुझसे लिपटती हुई बोली, “मनु… इसी तरह हमारे ख़ुशनुमा दिन कटते रहेंगे ना, हंसते-खेलते… तुम्हारी बांहों में इसी तरह समाए हुए… है न? बोलो ना…?”
“हां… स्वीटहार्ट… बस तुम और मैं. मैं और तुम…” मैंने उसके बालों को प्यार से सहलाते हुए उसके माथे पर प्यार से एक चुंबन ले लिया.
“कब तक हम लोग यूं पल-दो पल के लिए मिलते रहेंगे मनु… तुम्हारी जुदाई मुझसे अब नहीं सही जाती… आई लव यू… आई कांट लिव विदाउट यू…”
मैंने शाहिना का आंसुओं से भीगा हुआ चेहरा उठाया, उसकी आंखों में झलकता सम्पूर्ण समर्पण कोई भी स्पष्ट पढ़ सकता था. वह मेरे सीने से चिपककर रोती रही. अम्मी की आहट पाकर जब वह अलग हुई, तो मेरी कमीज़ का अगला हिस्सा भीगा हुआ था. हमारा प्रेम अब अपने अंतिम पायदान पर पहुंच चुका था. प्रेम के अंजाम और अरब देश के निरंकुश रस्म-ओ-रिवाज़ से अनभिज्ञ हम अपने भविष्य की योजनाओं में ही व्यस्त रहा करते थे. सुनहरे सपनों में खोए रहते थे.
सच ही कहा गया है, प्रेम की पींग अच्छा-बुरा सोचने का वक़्त ही नहीं देती. शाहिना की छुट्टियां ख़त्म हो गई. वह चार दिनों के बाद ही इजिप्ट जा रही थी. उसका टिकट आ चुका था, पर वह जाने से साफ़ इंकार कर रही थी. उसकी उस अवज्ञा का अंजाम मैं जानता था. समझा-बुझाकर उसे जाने के लिए राजी करना चाहा, तो समझने की बजाय उसने फोन पटक दिया. काफ़ी कशमकश के बाद जब हम दोनों ने साथ जाने की योजना बनाई, तब जाकर वह मानी.
मैं भी शाहिना के बिना बेचैन रहने लगा था. इजिप्ट के टूरिस्ट वीसा पर वहां से हिन्दुस्तान जाने का प्रोग्राम तय हो गया. और यह भी तय हो गया कि हिन्दुस्तान पहुंचते ही हम शादी कर लेंगे. शाहिना सोच-सोचकर रोमांचित हो रही थी. तीन दिन जो बाकी थे मानो तीन साल लग रहे थे.
आख़िर वह दिन भी आ गया. सुबह 9 बजे की ‘एयर सऊदी’ की फ्लाइट थी. रात को ही मैंने वीसा के सारे पेपर्स तैयार करके चुपचाप शाहिना को थमा दिए थे. सुबह सात बजे हमें एयरपोर्ट पहुंचना था और इससे पहले कि कोई हमें देख ले, हम देश छोड़कर हवा से बातें कर रहे होंगे. किसी को हल्का-सा शक़ भी हो गया, तो हमें पकड़वा सकता था और अगवा की सज़ा वहां मौत है. हम लोग अपनी प्लानिंग को गुप्त रखकर सारे काम करते जा रहे थे.
प्रेम की इस आंधी के सामने मौत के भय की सच्चाई नहीं टिक पाई. भावनाओं के सतत प्रहार ने विवेक को धराशाई कर दिया था. हम दोनों रातभर सो नहीं पाए.
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मैं सुबह पांच बजे ही उठकर तैयार होने लग गया.
तैयार सूटकेस पास रखकर मैं चाय की चुस्कियां लेते हुए बार-बार अपनी घड़ी देख रहा था. भविष्य की कल्पना मुझे रोमांचित करके गुदगुदा रही थी. सोच रहा था, कैसे जल्दी से सात बजे और हम एयरपोर्ट में आकर मिलें.
दरवाज़े के नीचे से पेपरवाले ने पेपर फेंका, तो मेरी सुनहरी तन्द्रा टूटी. पेपर की हेडलाइन देखी, तो सन्न रह गया. बिल्कुल फ्रंट पेज पर ही दो तस्वीरें छपी थीं. एक अरब की राजकुमारी कॉशिमा की थी, जिसे किसी विदेशी से शादी करने के ज़ुर्म में मौत की सज़ा सुनाई गई थी और दूसरा फोटो उसके अमेरिकन पति जॉन का था. मेरे हाथ जहां के तहां रुक गए. मैं कटे हुए पेड़ की तरह बेड पर गिर पड़ा.
घड़ी की सूइयां अविरल बढ़ती जा रही थीं. समय बीतता गया. साढ़े छह बजे फोन की घंटी खनखनाई. यह शाहिना थी, “अरे तुम सोए हुए हो न… मुझे मालूम है. देखो जल्दी करो, मैं एयरपोर्ट पहुंच चुकी हूं. ड्राइवर को हमने वापस भी भेज दिया है. कम फास्ट.”
“मैं… मैं आता हूं…” मेरी आवाज़ में कंपकपाहट थी.
“उदास हो क्या? तुम्हारी आवाज़ कांप क्यों रही है… मनु.” शाहिना ने पूछा.
“कुछ भी नहीं… नथिंग…” मैं स्पष्ट नहीं बोल पा रहा था.
"आज… आज का अख़बार पढ़ा तुमने शाहिना..?” मैंने डरते हुए पूछा.
“क्या..? अरे हां, कॉशिमा वाली न्यूज़ तो नहीं.” शाहिना ज़ोरों से हंस पड़ी. “मनु! डर गए क्या? डरपोक कहीं के… चलो, जल्दी तैयार हो जाओ. मैं फोन रखती हूं. रास्ता साफ़ है. जल्दी आ जाओ.”
सात बजे फिर फोन की घंटी बजी. मैं यूं ही ठंडी चाय का कप हाथों में लिए बैठा था. यह शाहिना थी. “जानते हो मनु… इंडिया काउन्टर पर मोहर लगवाते हुए आबू के एक फ्रेंड ने देख लिया मुझे, पर कोई बात नहीं. अभी 20 मिनट के अंदर हम दोनों फ्लाइट के भीतर होंगे. दरवाज़े बंद और प्लेन आसमान में… जल्दी आओ मनु… कम फास्ट. आई एम मिसिंग यू वेरी मच… तुम्हारे बिना एक पल भी बिताना मुश्किल हो रहा है. जल्दी आओ… और देखो, ज़्यादा तेज़ गाड़ी मत ड्राइव करना… समझे न…” शाहिना की भावुकता चरम सीमा पर थी.
प्रेम में सराबोर, भय-डर सबसे दूर शाहिना की बातें मैं अवाक्-सा सुनता जा रहा था, चुपचाप.
“और सुनो, गले में वो लालवाला मफलर ज़रूर डाल लेना… बहुत सर्द हवा चल रही है. ठीक है, जल्दी निकलो… मैं फोन रखती हूं. आई एम मिसिंग यू मनु.” शाहिना ने फोन रख दिया.
काफ़ी देर तक मैं फोन पकड़े हुए सोचता रहा. मानो कभी शाहिना की आवाज़, कभी अख़बार की हेडलाइन और कभी फ्रंट पेज पर छपी कॉशिमा और जॉन की तस्वीरें आंखों के आगे तैर जातीं. घबराहट के मारे मेरा पूरा शरीर पसीने से तर-बतर हो रहा था. और उधर इन सभी बातों से बेफिक्र शाहिना को डर छू भी नहीं रहा था.
सच ही कहा है किसी ने, पुरुष के लिए ‘प्रेम’ एक भावना मात्र है, लेकिन नारी के लिए प्रेम पूजा से कम नहीं. संपूर्ण समर्पित हो जाने को ही नारी प्रेम समझती है. एयरपोर्ट पर अंतिम कॉल की घोषणा हुई तो शाहिना ने फिर फोन मिलाया.
फोन की घंटी बजती रही. मैं सुनता रहा, मगर मुझमें हिम्मत नहीं हो पा रही थी कि मैं फोन उठा लूं. घंटी बजती रही. मैं कटे हुए पेड़ की तरह बेड पर लेटा हुआ था. लाख कोशिशों के बाद भी साहस नहीं जुटा पाया.
एयरपोर्ट पहुंचा, तो फ्लाइट जा चुकी थी. वहीं एक कोने में काफ़ी भीड़ इकट्ठी थी. मैं भीड़ को चीरता हुआ अंदर घुस गया. मुझे देखते ही शाहिना उठकर खड़ी हो गई. आगे मेरी ओर बढ़ने ही वाली थी कि रुककर, ठिठककर खड़ी हो गई. मैंने धीरे से ‘सॉरी’ कहकर उससे देर से आने के लिए क्षमा मांगी. शाहिना ख़ामोश-सी खड़ी अपलक मुझे घूरती रही. फिर अचानक उसने मुंह मोड़ लिया. तभी वहां पास में बैठे पुलिस इंस्पेक्टर ने अरबी में शाहिना से पूछा, “क्या यही है वो जिसके साथ आप इजिप्ट जा रही थीं?” शाहिना चुप रही.
इंस्पेक्टर ने फिर अरबी में पूछा “वो कहां है? ये जनाब कौन हैं? हेलो मिस शाहिना, जवाब दीजिए..?" थोड़ी चुप्पी के बाद शाहिना ने मुझे घूरते हुए कहा, “ये… इन्हें… मैं… नहीं जानती…” शाहिना के इस जवाब से मैं बिल्कुल चौंक पड़ा. तभी सामने से आबू की गाड़ी आती हुई दिखाई पड़ी. गाड़ी आकर पोर्टिको में रुकी, तो मैं सारी कहानी समझ गया. इससे पहले कि मैं इंस्पेक्टर के सामने अपना परिचय देता, शाहिना उठकर उस इंस्पेक्टर के साथ कमरे में जा चुकी थी. आबू भी घबराए हुए से उस कमरे में घुस गए. आबू के चेहरे पर उड़ी हवाइयों से साफ ज़ाहिर था कि क्या होनेवाला है.
मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी. मैं वापस घर आ गया. मैं अपने ऊपर आनेवाले संकट की प्रतीक्षा कर रहा था. एक-एक पल भारी लग रहा था. न जाने कब मुझे नींद आ गई.
अगली सुबह फिर पेपर की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया. पेपर में कॉशिमा की जगह फिर एक तस्वीर छपी थी फ्रंट पेज पर. मगर आज दो नहीं सिर्फ एक ही तस्वीर छपी थी और वह तस्वीर थी शाहिना की. अगले ही महीने मैं हिन्दुस्तान वापस आ गया.
…शाहिना की चूड़ियों की खनखनाहट आज भी मुझे चौंका देती है. प्रेम की परिभाषा को भावनाओं की खिलखिलाहट में घोलकर पी जानेवाली सुधा-पिपासी शाहिना आज भी ज़िंदा है. मरकर भी ज़िंदा रहने और ज़िंदा रहकर भी मरने में क्या फ़र्क़ है… यह शाहिना मुझे सिखा गई.
…मेरे कंधे पर मेरी पत्नी नीता ने हौले से हाथ रखा, तो मेरी तन्द्रा टूटी. आंखों से न जाने कब अश्रु बूंदें टपककर गालों पर आ गई थीं. नीता अपने आंचल से मेरे आंसुओं को पोंछती हुई मेरे कंधों को थपथपाने लगी, तो मैं अतीत के धुंधलके से बाहर निकला. अपने मेडल को सम्भालता हुआ, मैं अपनी सीट पर आ बैठा. तालियों की अविरल गड़गड़ाहट में मुझे शाहिना की चूड़ियों की खनक आज भी सुनाई पड़ रही थी. ऐसा लगा, मानो ‘मोटू’ कहकर वह खिलखिलाती हुई दौड़कर मेरे सामने आ जाएगी. और…
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