नलिन की मृत्यु के दौरान जो हर रोज़ उसके घर जाने का क्रम चला, तो मैंने उसे आगे भी बरक़रार रखा. उस घर में नलिन की उपस्थिति महसूस करती थी मैं. कभी वासवी की बातों में, तो कभी उसकी बेटी कनुप्रिया की आंखों में. कनु ने बहुत कुछ पाया था अपने पापा से.
नए शहर के कॉलेज में जाकर पढ़ने और हॉस्टल में रहने की सोचकर ही घबराहट हो रही थी. मेरे पास कोई विकल्प भी तो नहीं था. पापा की तबादलेवाली नौकरी थी और जिस छोटे-से शहर में तब हम रहते थे, वहां आधुनिक जीवनशैली के सभी संभव साधन, मसलन- क्लब, सिनेमाघर, अस्पताल आदि होते हुए भी ढंग का कोई कॉलेज नहीं था. एक था भी तो गुजराती मीडियम का. अत: मुझे जयपुर के कॉलेज में प्रवेश दिला दिया गया. “चिंता किस बात की, अपना नलिन भी तो वहीं पढ़ रहा है.” पापा ने समझाया.
नलिन के और मेरे पापा कॉलेज के दिनों के मित्र थे. बाद में भी हम दोनों परिवार मिलते रहे. हम शिमला गए, तो उन्हीं के घर रुके. वो मुंबई घूमने आए, तो हमारे घर. नलिन की बहन मुझसे वर्षभर छोटी थी. यूं ही पारिवारिक मित्रता हो गई थी. मम्मी-पापा को तो तसल्ली हो गई कि मेरा सहारा भी निश्चय ही तिनके से कहीं अधिक था.
शांत स्वभाव और कर्त्तव्यनिष्ठ, मेरे अनुसार तो यही नलिन का परिचय होना चाहिए. हर रविवार को वह मेरी खोज-ख़बर लेने आता. हमारे घर में सदैव उसके गुणों के चर्चे होते रहते थे, परंतु अब जो भाव मेरे मन में जन्म ले रहे थे, वह पूर्णत: भिन्न थे. दिल कुछ और भी चाहने लगा था. मन करता वह स़िर्फ काम की ही बात न करे और भी कुछ कहे. मन करता कि वह जाने की जल्दी न करे, कुछ देर और रुका रहे. मतलब यह कि अच्छा तो वह मुझे पहले भी लगता था, लेकिन यौवन की दहलीज़ पर पहुंचकर उसके प्रति जो आकर्षण जगा था, वह पहले से बहुत अलग था. पहल करने की हिम्मत नहीं पड़ी. विश्वास था कि एक दिन वह भी तो पहचानेगा मेरे अनुराग को.
हॉस्टल लाइफ ने मुझे एक और अनमोल तोहफ़ा दिया था- मेरे कमरे की साथिन वासवी के रूप में. हमारे विषय अलग थे, परंतु कॉलेज के बाद का पूरा समय हम साथ ही बिताते. पढ़ाई पूरी करके मौज-मस्ती करते, घूमने और पिक्चर जाते. प्राय: नलिन को भी बुला लेती थी मैं. वासवी बहुत अच्छा गाती थी और जब कभी कॉलेज के फंक्शन में उसका गायन होता, तब तो नलिन को आमंत्रित करने का बहाना मिल जाता.
तीन वर्ष कैसे निकल गए, पता ही नहीं चला. नए शहर में अकेले रहने की घबराहटवाली बात अब पुरानी हो चुकी थी. यह जीवन छूटनेवाला है. अब तो यही मलाल था. नलिन का कोर्स तो हमसे भी दो महीने पहले ख़त्म हो गया था और उसके लौटने का दिन भी नज़दीक आ गया था.
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कैसे भूल सकती हूं वह शाम. हमेशा की तरह उसने हमारे हॉस्टल पहुंचकर मुझे रिसेप्शन पर बुलवा भेजा. इधर-उधर की बातें करने के बाद उसने एक बड़े से लिफ़ा़फे में से हल्के गुलाबी रंग का एक ग्रीटिंग कार्ड निकाला, गुलाब के रंग-बिरंगे फूलों से चित्रित. मेरा दिल ज़ोर से धड़कने लगा. जिस पल का मुझे इंतज़ार था, वह पल आ गया था. कानों के साथ-साथ पूरा तन उसकी बात सुनने को प्रतीक्षारत था. जब उसने कहा, “तुम इतनी अच्छी शेर-ओ-शायरी जानती हो, कविताएं पढ़ती हो, इस कार्ड पर कुछ ऐसी पंक्तियां लिख दो न कि वासवी पढ़ते ही मुग्ध हो जाए. तुम्हें हमारी इतनी पुरानी दोस्ती का वास्ता...” वह बोले ही चला जा रहा था. मनुहार कर रहा था शायद. किंतु उसके शब्द मेरे भीतर नहीं घुस पा रहे थे, पर मन के सोचने का तरीक़ा अलग होता है और बुद्धि का अलग. मेरे मस्तिष्क ने फौरन मेरे मन को वश में किया और मैंने उससे ग्रीटिंग कार्ड लेते हुए कहा, “ठीक है, मैं अच्छी तरह सोचकर कल तक लिख दूंगी.” और लौट आई अपने कमरे में. मोहब्बत मांगी या छीनी नहीं जा सकती, उस पर हक़ नहीं जताया जा सकता, यह जानती थी मैं.
मैंने उस कार्ड पर जो लिखकर दिया, वह मेरे ही दिल से निकली आवाज़ थी. जब भी नलिन का ख़्याल आता, यही पंक्तियां आतीं मन में. जब वह ही मेरा नहीं रहा, तो उन पंक्तियों का क्या करती मैं. अत: वही उस कार्ड पर लिख दीं, बस नाम बदल गए थे ‘नलिन की ओर से- वासवी को.’
कार्ड पाकर बहुत ख़ुश हुई थी वासवी. कितनी बार तो वह कार्ड उसने मुझे दिखाया, कितनी ही बार वह पंक्तियां पढ़कर सुनाई. मैं उसकी ख़ुशी में ख़ुश दिखने को मजबूर थी. अच्छी बात यह थी कि अपने उत्साह में उसे मेरी उदासी दिखी ही नहीं.
पढ़ाई पूरी हुई. हॉस्टल छूटा और संगी-साथी भी. मां तो मेरे विवाह के लिए उतावली थीं, “पढ़ाई तो पूरी हो गई है. पापा की अवकाश प्राप्ति से पहले विवाह हो जाए, तो अच्छा है.” मैं चुप रही. मना क्यों करती? किसका इंतज़ार करना था मुझे? न कोई उमंग थी, न कोई सपने. लड़कियों के लिए नौकरी का प्रचलन तब नहीं था. भारत में तो वैसे भी लड़की के जीवन की राह उसके बड़े ही चुनते हैं, जिस पर आंख मूंदकर बस चलना होता है उसे. फ़र्क़ यह था कि मैंने भी नादानी में कुछ सपने बुन लिए थे.
परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि नलिन और वासवी के विवाह से पहले ही मेरा विवाह हो गया. ख़ैर, मैं उनके विवाह में गई थी. अधिक समय वासवी के संग ही बिताया और नलिन के लिए ख़ुशियों की ढेर सारी दुआएं मांगीं सच्चे मन से, पर उससे मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. समय आगे बढ़ता रहा. मेरा बेटा हुआ और उसे पालने में पूरी तरह से व्यस्त हो गई मैं. पारिवारिक मित्रता होने के कारण शादी-ब्याह में या फिर अन्य अवसरों पर नलिन-वासवी से भेंट हो जाती, पर भीड़भाड़ में नलिन से दूरी बनाए रखना आसान नहीं होता. एक ही शहर में रहने के कारण एकदम कटकर रहना तो संभव नहीं था, परंतु उनके घर कम ही जाती मैं. इस बीच उनकी एक बेटी हुई, नाम रखा- कनुप्रिया.
हम सब अपनी-अपनी तरह से व्यस्त रहे और बच्चे बड़े होते रहे. मेरा बेटा इंद्रनील 20 का हो गया और कनु 18 की. एक दिन दोपहर को ख़बर मिली कि ‘नलिन का देहांत हो गया है’ विश्वास करनेवाली बात नहीं थी और मन विश्वास करने को तैयार भी नहीं था, पर बम-विस्फोट पूर्व सूचना देकर होते हैं क्या? नलिन के विवाह से उतना नहीं टूटी थी मैं, जितना कि इस बात से. अभी 45 का भी नहीं हुआ था नलिन. व्यस्तता के बीच नलिन को पता ही नहीं चला कि उसके भीतर कोई रोग पनप रहा है. प्रात: उठा तो उसे ज़ोर का चक्कर आया. वह फिर से बिस्तर पर बैठ गया. वासवी ने पानी लाकर पिलाया, तो थोड़ा बेहतर महसूस किया उसने. वासवी चाय बनाने चली गई, तभी नलिन को लगा कि उसका दम घुट रहा है और वह बाहर लॉन में निकल आया, ताज़ी हवा की तलाश में. पर शायद उसे एक बार फिर चक्कर आ गया और वह वहीं गिर गया. पड़ोसी ने देखा और भागा आया. चेहरे पर पानी के छींटें मारा, वासवी को बाहर बुलाया. फ़ौरन अस्पताल ले गए. डॉक्टरों ने सब प्रकार से प्रयत्न करके देख लिया, परंतु वह नलिन को बचा नहीं सके. उसका दिल ही उसे धोखा दे गया था.
नलिन से चाहे मैंने दूरी बनाए रखी थी, पर वासवी से मैंने दोस्ती कायम रखी. घर नहीं भी जाती, तो टेलीफोन पर बात कर लेती थी. नलिन की मृत्यु के दौरान जो हर रोज़ उसके घर जाने का क्रम चला, तो मैंने उसे आगे भी बरक़रार रखा. उस घर में नलिन की उपस्थिति महसूस करती थी मैं. कभी वासवी की बातों में, तो कभी उसकी बेटी कनुप्रिया की आंखों में. कनु ने बहुत कुछ पाया था अपने पापा से. हंसती तो बिल्कुल वैसे ही थी, चलने का ढंग भी बिल्कुल वैसा था. धीरे-धीरे मेरा उस पर मोह बढ़ रहा था.
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पति से मुझे कोई शिकायत नहीं थी. दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे वह. अति गंभीर और ख़ामोश. पीएचडी कर रखी थी और अपने विषय में पूर्ण पारंगत थे. उनके चिंतन का क्षेत्र ब्रह्मांड की उत्पत्ति और ऐसे ही अन्य गूढ़ रहस्य थे, जो मेरी समझ के बाहर थे. उन्हें देखकर लगता था, जैसे विश्वभर की समस्याओं का हल उन्हें ही तलाशना है. अत: रोज़मर्रा की घर-गृहस्थी की बातों में न उनकी रुचि थी, न ही इतना समय. घर की व्यवस्था से एकदम निर्लिप्त रहते वह. कुछ भी पूछने पर यही कहते, “तुम्हें जो ठीक लगे, वही कर लो.”
बेटा इंद्रनील दूर शहर में पढ़ रहा था और कोर्स के अंतिम वर्ष में कैंपस सिलेक्शन में अपनी मनपसंद नौकरी भी पा चुका था.
नलिन को गए छह वर्ष बीत गए. इस बीच मैं और वासवी एक बार फिर से बहुत क़रीब आ चुके थे. नलिन के पिता का देहांत पहले ही हो चुका था और मां नलिन के जाने से पूरी तरह से टूट गई थीं. मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूप से. वासवी उनकी अच्छी देखभाल कर रही थी. नलिन की पेंशन आती थी. अत: उस तरफ़ से चिंता की कोई बात नहीं थी. देखने में तो सब ठीक ही था. पर जो बात नहीं पता थी वह यह कि एक नन्हीं-सी चिंगारी वासवी के भीतर सुलग रही थी. उसका शरीर खोखला कर रही थी. वासवी कुछ और काम से डॉक्टर के पास गई और चेकअप करने पर पता चला कि लिवर के कैंसर ने उसे पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया है. ऑपरेशन हुआ और इलाज भी शुरू किया गया, पर डॉक्टरों ने अधिक उम्मीद नहीं दिलाई. विदेश में रहती नलिन की बहन आकर मां को अपने साथ ले गई. वासवी की देखभाल की ज़िम्मेदारी मैंने संभाल ली. कनु तो थी ही. मृत्यु को सामने देख वासवी को अपनी बेटी की बहुत चिंता सता रही थी. कौन देखेगा उसे? बुआ के पास भेजने से पढ़ाई का नुक़सान होगा. कनु मुझे शुरू से ही पसंद थी. मैंने अपने बेटे के मन की बात जानने के लिए उसे टेलीफोन किया. कनु को वह बचपन से ही जानता था. इन दोनों की आपस में बनती भी ख़ूब थी. उसकी रज़ामंदी जान मैंने वासवी से इन दोनों के रिश्ते की बात की. यह भी तय हुआ कि बाकी पढ़ाई वह हमारे ही घर में रहकर पूरी कर सकती है. वासवी को इस बात से बहुत तसल्ली मिली, पर जब उसने बेटी से बात की, तो वह रोने लगी. मां की मृत्यु अवश्यंभावी जान दुख तो होना ही था.
और एक दिन वासवी भी हमें छोड़कर चली गई. सब संस्कार पूरे होने के बाद मैं कनुप्रिया को अपने घर ले आई.
मुझे छोटे बच्चों का साथ प्रारंभ से ही अच्छा लगता रहा है. बेटे इंद्रनील के बड़े होने पर मैने घर में क्रैश खोल लिया था. कामकाजी स्त्रियों के बच्चे दिनभर मेरे पास रहते और ऐसे ख़ुश रहते कि शाम को घर लौटना ही नहीं चाहते थे. कनु भी कॉलेज से आने के बाद बच्चों के साथ लगी रहती. उसका भी मन लग जाता और वह भी मेरी नज़रों के सामने रहती.
मैं कनु को प्रसन्न रखने का बहुत प्रयत्न करती, पर देखती कि वह हमेशा उदास रहती थी. उन दिनों मोबाइल नया-नया ही चलन में आया था और कनु ने अपनी मां की बीमारी के दौरान ही ख़रीदा था, ताकि ज़रूरत पड़ने पर उसे फ़ौरन बुलाया जा सके. अब मैं देखती कि कनु अपने मोबाइल पर हर रोज़ एक नियत समय पर किसी से बहुत धीमे स्वर में लंबी-लंबी बात करती. और जाने क्यों मुझे लगता कि मोबाइल की इस लंबी बातचीत के बाद वह अधिक उदास हो जाती थी, किसी खोल में सिमट जाती जैसे. पिता की कमी और मां को खोने का ग़म तो मैं भी समझती थी, पर कुछ और भी था जो मेरी पकड़ में नहीं आ रहा था.
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उस दिन कनुप्रिया का जन्मदिन था और मैंने पूरा भोजन उसी की पसंद का बनाया था. कनु की छुट्टी थी. अत: शाम को उसे लेकर कहीं घूमने जाने या मूवी देखने की भी योजना थी मेरी. पर शाम होने से पहले ही एक युवक लाल गुलाबों का गुलदस्ता लिए आन खड़ा हुआ. दरवाज़ा मैंने ही खोला था. झिझकते हुए उसने पूछा, “कनु है, कनुप्रिया?” मैं उसे अंदर ले आई. मुझे उसका चेहरा कुछ
जाना-पहचाना-सा लगा. बाद में याद आया कि वासवी के दाह-संस्कारवाले दिन देखा था उसे. उसने कनु को फूल देते हुए जन्मदिन की शुभकामनाएं दीं और मुझसे कहा, “आंटी, क्या मैं कनु को डिनर पर बाहर ले जा सकता हूं?” कनु के चेहरे पर लालिमा थी, चेहरे पर ख़ुशी. ऐसी ख़ुशी, जो मैंने एक लंबे अरसे के बाद उसके चेहरे पर देखी थी. मैंने उस युवक- अनुराग को कॉफी पीकर जाने का निमंत्रण दिया. जानती थी कि उसका रुकने का मन नहीं है, किंतु मैं बिना तसल्ली किए कनु को उसके साथ कैसे भेज देती? उसकी मां होने की ज़िम्मेदारी भी मुझे निभानी थी. कनु को कॉफी बनाने का इशारा कर मैं अनुराग से बातें करने लगी.
अनुराग सीए पूरा करके नौकरी कर रहा था. इन दोनों का दो वर्ष पुराना परिचय था. निश्चय ही परिचय से बढ़कर था. कनु का जन्मदिन याद रखना और साथ में सेलिब्रेट करने की इच्छा रखना कुछ और ही संदेशा दे रहा था. ‘समय पर लौट आना’ कहकर मैंने उन्हें जाने की अनुमति दे दी. यद्यपि कनु ने जाते हुए कहा कि मौसी, यदि थोड़ी देर हो जाए, तो चिंता मत करना. जब तक वह लौटकर नहीं आए, मेरा ध्यान उधर ही लगा रहा. 10 बजे के बाद से तो मैं खिड़की से बाहर झांकती खड़ी रही.
11 से थोड़ा पहले आए वे. कार के रुकने के बाद भी वे देर तक उसके अंदर बैठे रहे. बाहर निकलकर उसने कनु का हल्का-सा आलिंगन लिया और जब तक वह बाहर के गेट से घर के दरवाज़े तक नहीं पहुंच गई, वहीं खड़ा उसे निहारता रहा. रास्ते में पड़ी किसी चीज़ से टकराकर वह थोड़ा डगमगाई, तो भागकर वह कनु के पास पहुंचा.
एक-दो दिन बाद मैंने अनुराग की बात छेड़ी, तो कनु के आंसू टपकने लगे. अपने प्यार को स्वीकार किया उसने. मां को अभी बताया नहीं था. अनुराग की नौकरी लग जाने का इंतज़ार कर रही थी. अब समझ आया कि जब मैंने वासवी के समक्ष कनु को अपनी बहू बनाने का प्रस्ताव रखा, तो वह क्यों रोई थी? स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह इंकार करती, मन की बात कहती. पर मैं उसकी मजबूरी का फ़ायदा नहीं उठाऊंगी, मैंने तय किया. मुझसे बेहतर कौन समझेगा प्यार को खोने का दर्द? प्यार को खोकर ज़िंदगी तो निकल ही जाती है, पर हज़ार नेमतें पा लेने के पश्चात् भी एक बेनाम-सा दर्द, कुछ अनकही-सी कमी रह ही जाती है जीवनभर के लिए.
मैंने अनुराग के बारे में जांच-पड़ताल की और पूरी तसल्ली करके उन दोनों का विवाह कर दिया.
मैं कनुप्रिया में तुम्हारा अक्स देखती थी नलिन, इसलिए उसे ही अपने घर लाना चाहती थी शायद. आज लग रहा है, जैसे एक बार फिर से तुम्हें खो दिया है मैंने.
पर फिर भी आज संतुष्ट हूं मैं, बहुत संतुष्ट.
उषा वधवा
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