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कहानी- यह यात्रा याद रहेगी…‌(Short Story- Yah Yatra Yaad Rahegi…)

सुषमा मुनीन्द्र

लोग छोटे-छोटे लक्ष्य बनाते हैं, हासिल करते हैं. ख़ुश रहते हैं. जबकि वह बस यात्रा करने का मानस नहीं बना पा रही थी. यदि अड़चनों से जूझने का मानस बना लें, तो अड़चनों से गुज़रने की मज़बूती पाई जा सकती है. नवेली मुस्कुरा दी. रूप-रंग को जाने दो. आत्मविश्‍वास काजल को ख़ास बना रहा है. यह बस यात्रा याद रहेगी!..

जो लोग हर स्थिति-परिस्थिति में सकारात्मक भाव रखने का मानस बना लेते हैं, जानते हैं जीवन किसी का भी हो पूर्णतः बाधारहित नहीं होता, इसीलिए ये लोग बाधाओं में भी काम लायक मसला ढूंढ़ लेते हैं.
घटना ख़ास नहीं, मामूली है.
मामूली घटना ने नवेली का सकारात्मक भाव से परिचय करा दिया.
जब सड़क मार्ग अच्छा था, नवेली साठ किलो मीटर का सफ़र कार से एक घंटे में पूरा कर सतना से रीवा पहुंच जाती थी.
फोर लेन बनाने के उपक्रम ने पथ को ऐसा क्षतिग्रस्त कर डाला है कि कार और कमर को समान रूप से क्षति पहुंचती है. पथ के दोनों ओर उन्नत खड़े प्राचीन आयु के वृक्ष काटने, अतिक्रमण हटाने में जो तेज़ी दिखाई गई थी,
अनुमान था बघेलखण्ड जल्दी ही फोर लेन प्राप्त कर लेगा. तीसरा साल है, फोर लेन प्राप्त नहीं हुई.
अरसा हुआ नवेली ने बस यात्रा नहीं की है. लंबी दूरी के लिए रेल और छोटी दूरी के लिए कार को प्राथमिकता देती है. इस बार तय किया कि अपने पिता की श्राद्ध में कार से नहीं बस से रीवा जाएगी. काफ़ी ऊंची होने के कारण बस, उतना न कूदेगी-लहराएगी, जितनी कार कूदती-लहराती है. कमर को क्षति कम पहुंचेगी. बस को पहुंचेगी, तो सुकून रहेगा. निजी संपत्ति नहीं है.
नवेली प्रातः नौ बजे बस स्टैंड पहुंची. रीवा जाने की तत्परता में कई बसें स्टार्ट थीं. हॉर्न बजाते चालक अपनी सीट पर यूं मुस्तैद मानो यात्री मिलें न मिलें, वाहन हांक ले जाएंगे.
यद्यपि जानकार बताते हैं कि बस जब तक क्षमता से अधिक न भर जाए, हांकी नहीं जाती. रीवा… रीवा… रीवा… तीक्ष्ण स्वर में चिल्ला कर लोगों को अपनी बस की ओर आकृष्ट कर रहे परिचालकों की पस्त दशा
बताती थी उनका काम कितना थकाने वाला है. नवेली अभिजात भंगिमा का प्रदर्शन करती हुई कुछ देर बस स्टैंड की गतिविधियों को देखती रही, फिर एक बस में चढ़ गई. दूसरी पंक्ति की खिड़की वाली सीट पर बैठते हुए
लगा वह शान खो गई है, जो शोफर ड्रिवेन कार में यात्रा करने से बनती है. डेढ़ साल की बच्ची को गोद में लिए एक देहाती युवती उसके पास आई, “मैडमजी, हिंया बइठ जाएं?”
शिक्षित और अशिक्षित में यही फ़र्क़ है. नवेली चूंकि शिक्षित जान पड़ती थी, अशिक्षित युवती ने उससे इस तरह अनुमति मांगी, जैसे बस नवेली का निजी वाहन है. नवेली ने गर्व में भर कर युवती को बैठने का  संकेत किया.
युवती यथासंभव फ़ासला बना कर बैठी तथापि नवेली को लगा उसके और युवती के स्तर में फ़र्क़ नहीं रह गया है. दोनों पचास रुपया टिकट वाली हो गई हैं. युवती सावधानी बरत रही थी, फिर भी उसका बादामी रंग का
मोटे कपड़े वाला मटमैला झोला नवेली की भुजा से छू गया. संक्रमण की आशंका से नवेली ने रुमाल से अपनी त्वचा साफ़ की. संक्रमण जैसी आशंका से सर्वथा अपरिचित बच्ची, नवेली की कलाई के आकर्षक कंगन को खींचने की कुचेष्टा करने लगी. नवेली कंगन छुड़ाने लगी. बच्चों में शायद प्राकृतिक ताक़त होती है. उसकी पकड़ मज़बूत थी. मज़बूत पकड़ को हिदायत से नहीं आग्रह से ढीला किया जा सकता है. युवती ने पुचकार कर बच्ची का हाथ अपनी ओर खींच लिया. नवेली ने देखा, बच्ची के रंग उड़े भूरे बल्कि हल्के पीले कुपोषित दिखते केशों में दो-तीन
गुलाबी क्लिप लगी हैं. गले में काले धागे से बंधी ताबीज. नवेली खिन्नता से भर आई. गहरे सांवले रंग की कुपोषित लग रही बच्ची को कौन नज़र लगाएगा, जो युवती इतना एहतियात बरत रही है? और इसे सजाए कितना है? चूंकि नवेली बस में यात्रा करने का मानस नहीं बना पा रही थी, अतः सकारात्मक भाव नहीं रख पा रही थी, इसलिए नहीं समझ सकती थी, मां के लिए बच्चे का रंग और रंगत अर्थ नहीं रखती.

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बस के क्षमता से अधिक भरने पर परिचालक ने पदार्पण किया. एक यात्री ज़ोर से बोला, “कंडक्टर सुनिहौ? यह सीट बहुत डिस्टर्ब (ख़राब) है. दूसर दो.”
ऐसी आपत्तियों से गुज़रने का परिचालक को अभ्यास है, “लाल साहब आप डिस्टर्ब हैं. सीट ठीक है.”
“पैसा पूरा लेते हो. सीट अइसी डिस्टर्ब.”
उपद्रवी यात्री को उपेक्षित कर परिचालक ने अचम्भित खड़ी महिला को विलोका, “मलकिन थोड़ा पीछे जाइए. सीट है.”
“सीट मिलेगी तो बैठूंगी, वरना उतर जाऊंगी. बहुत बस हैं.”
“सीट है. सभी पसिन्जर (पैसेन्जर) को मिलेगी.”
इधर बस चली, उधर यात्री सेल फोन पर सूचना-समाचार लेने-देने में व्यस्त हो गए. किसी के सेल फोन पर कॉल आ रही है. कोई कॉल कर रहा है. सार्वजनिक स्थल पर कॉल आ जाए, तो निजी बातों का खुलासा न हो जैसी सावधानी बरतते हुए लोग धीमे स्वर में बात करते हैं. कुछ तो हथेली से लबों को छिपाकर फुसफुसाते हैं. कुछ थोड़ा अलग जाकर बात करते हैं. कुछ कह देते हैं बाद में बात करेंगे. लेकिन आंचलिकता के अभ्यास स्वरूप बघेलखंड के लोग सेल फोन पर रहस्य को भी इतनी ऊंची आवाज़ में बताते हैं कि वह रहस्य नहीं रह जाता.
पहली पंक्ति में बैठे यात्री की तेज़ आवाज़ नवेली के कानों में पड़ी, “… मैं कटिंग (हेयर कट) कराऊं या न कराऊं, तुम मुझे सलाह न दिया करो… हां, नहीं करा पाया…”
नवेली ने पूरी तरह खिन्न होकर सिर, सीट की पुश्त पर टिका कर यूं आंखें मूंद लीं जैसे ऐसा करने पर सारी आवाज़ें चुप हो जाएंगी. लेकिन बस आपका निजी वाहन नहीं है. आप आवाज़ों से नहीं बच सकते. नवेली के ठीक
पीछे की सीट पर विराजमान सेल फोन कान में लगाए लड़की तेज़ आवाज़ में बोल रही थी. लड़की के अंदाज़ में नखरा, नाराज़गी, नसीहत थी. बात चरम पर आ चुकी थी. ज़ाहिर था लड़की को किसी से बात करते हुए थोड़ा समय हो गया है. नवेली ने पहला संवाद यह सुना, “… न हंसिए. आपके जैसे हंसने वाले बहुत देखे हैं.”
“ठीक है, ठीक है. काजल-काजल कह कर हमको तेल न लगाइए. रीवा जा रही हूं, वहां से करसरा जाऊंगी.”
अर्थात काजल नाम की कन्या जिला रीवा के गांव करसरा जा रही है.
“……….”
“नहीं, करसरा में कोई मरा-वरा नहीं है. कोई न मरे, तो हम करसरा न जाएं?”
नवेली आवाज़ों से बचना चाहती थी, पर दिलोदिमाग़ आसपास के संदर्भों को ग्रहण करना अपना धर्म मानता है.
“बाबा की सराद्ध (श्राद्ध) में जा रही हूं.”
“………..”
“अच्छा तो आप भी सराद्ध खाने जा रहे हैं? कटनी?”
“……………..”
“ट्रेन में हैं?”
मानव चित्त चंचल होता है, यूं ही नहीं कहा गया है. नवेली नहीं सोचना चाहती, लेकिन काजल की बातें प्रेरित करने लगीं. उसे लगा सारे यात्री श्राद्ध में जा रहे हैं. पितरों की तृप्ति के लिए पितृ पक्ष में पांच बलि की जाती है. ब्राह्मण बलि, गौ बलि, श्‍वान बलि, काक बलि, पिपीलिका बली. गाय, श्‍वान, कौवे को टिकरिया (पूरी और उड़द के वडे) खिलाए जाते हैं. लेकिन कौवे ढूंढ़े नहीं मिलते. मोबाइल टावरों के रेडिएशन से इनकी प्रजनन क्षमता ख़त्म हो रही है. फसलों में प्रचुर रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक दवाओं से मरने वाले कीट-पतंगों को खाकर कौवे मर रहे हैं. संभव है एक दिन श्‍वान और गाय भी ढूंढ़े न मिलें.”
“आप तीन दिन पहले भी सराद्ध खाने कटनी गए थे. रोज़ कटनी जाते हैं?”
“…………..”
“अच्छा तो आपके झौआ भर (कई) रिस्तेदार कटनी में बसे हैं. कहीं न कहीं सराद्ध होती रहती है. बस आप लोग ही सीहोरा में रहते हैं?”
“………….”
“धीमी आवाज़ में बात क्यों कर रहे हैं? हम आपकी प्रेमिका नहीं हैं, जो आप फुसफुसा कर बात कर रहे हैं. पत्नी हैं.”
नवेली ख़ुद को निर्लिप्त रखना चाहती है, पर लगता है काजल नाम की यह ग़ुस्सैल कन्या यात्रा को दिलचस्प बनाकर दम लेगी. नवेली अनायास सोचने लगी. उधर वाला प्राणी काजल का पति है. इसकी बातें सुनकर पता नहीं किस टोन में क्या जवाब दे रहा होगा. मोबाइल का स्पीकर ऑन होता, तो उधर से आते जवाब को सुन पाती.

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“आपके जनक-जननी आपके साथ हैं. वे भी सराद्ध खाने जा रहे हैं? तभी आपकी आवाज़ नहीं खुल रही है. वे दोनों आपके अगल-बगल बैठे हैं, जो हमारी बात सुनेंगे?”
“…………….”
“आप वहां से उठकर बाथरूम के पास काहे नहीं आ जाते हैं?”
“………..”
अब नवेली को जिज्ञासा हो रही है. वह काजल द्वारा पूछे जा रहे प्रश्‍न, दिए जा रहे उत्तर के आधार पर उधर की स्थिति का अनुमान लगाने लगीे.
“बाथरूम के पास आ गए? तभी आवाज़ खुल रही है. नहीं, मैं नहीं लजाती हूं. अकेले नहीं जा रही हूं. मम्मी मेरे साथ हैं. मैं उनके सामने आपसे बात करने में नहीं लजाती. लीजिए बात कीजिए… मम्मी सीहोरा वाले तुमसे बात करेंगे.”
अर्थात काजल के पति ने ‘तुम भी अपने माता-पिता के सम्मुख मुझसे बात करने में शर्माओगी’ जैसा कुछ कहा है.
काजल ने अपनी माता को सेल फोन पकड़ा कर संकोच में डाल दिया है, यह उनकी हड़बड़ाहट से नवेली को ज्ञात हो गया, “अरे… काजल… नहीं… हम का बात… हां बेटा साखी गोपाल, ख़ुस रहो, आनंद रहो, जियत रहो, भगवान नीके-कुशल रखें… नहीं, आप काजल की कउनो बात का नागा (बुरा) न मानेंगे… जबसे सिच्छाकर्मी बनी है, थोड़ा फारबड (फारवर्ड) हो गई है. लो काजल से बात करो.”
“…………”
बातों से नवेली ने समझ लिया काजल की माता अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित महिला हैं, जबकि काजल के लक्षण बताते हैं वह बहुत फारवर्ड है.
“विश्‍वास हो गया न मम्मी हमारे साथ हैं.”
“…………..”
अब नवेली का ध्यान प्रसंग पर केन्द्रित होता जा रहा है. साखी गोपाल का स्वभाव कैसा होगा? मितभाषी होगा? या यह इतनी वाचाल है कि उसे बोलने की गुंजाइश नहीं दे रही है?
“नहीं, बाबू और दूनौ भाई करसरा नहीं जा रहे हैं. आप जेंटिलमैनों को इतना टाइम कहां होता है? वह तो औरतें ़फुसर्त में समझी जाती हैं कि जो काम कोई न करे इन लोगन से करा लो. बाबा की सराद्ध करसरा में करनी पड़ती है. मम्मी अकेले कैसे जातीं? तो हम लेकर जा रहे हैं.”
नवेली, काजल की बातों पर एकाग्र होती जा रही थी कि एक यात्री ने दख़ल दे दिया, “कंडक्टर आगे उस पानी की टंकी के पास गाड़ी रोक देना. वहीं उतरना है.”
परिचालक यात्रियों के टिकट बना रहा था. “अभी मनकहरी मोड़ से चढ़े, अब उतरना है. बस को ऑटो समझ लिए हो का? टंकी के पास उतरने की नौटंकी करने लगे. घर-घर गाड़ी रोक कर पसिन्जर नहीं उतारेंगे.”
“बैठाए हो तभी बैठे हैं. न बैठाते.”
“ठीक है. पंद्रह रुपिया निकालो.”
“दस लगता है.”
“पंद्रह.”
व्यवधान के कारण नवेली काजल की वार्ता को ठीक से नहीं सुन पाई. अब जो सुना वह यह था, “आपके घर का कायदा दुनिया से अलग है का? हमारी नौकरी लग गई है, इसलिए हम सीहोरा में कम ही रहेंगे, लेकिन जितना भी रहेंगे इतना कायदा हमसे न होगा.”
“………..”
“सीहोरा में बहुत कैसे रहेंगे? सुभाविक है जब बच्चों को पढ़ाने जवा जाएंगे, सीहोरा में कम ही रहेंगे.”
काजल शिक्षक है, लेकिन स्वाभाविक को सुभाविक बोल रही है. नवेली चिंतित हो गई. शुद्ध उच्चारण न कर पाने वाले शिक्षक, विद्यार्थियों को ज्ञानी कैसे बनाएंगे? विद्यार्थियों का भविष्य क्या होगा?
“………..”
“न हंसो. आपके जैसे हंसने वाले हमने देखे हैं…… नहीं, हमको नौकरी का घमंड नहीं हो गया है. हमारी ज़बान ही ऐसी है. सुनने वाले को लगता है हम घमंड से बात कर रहे हैं या ग़ुस्से से.”
“…………….”
“आप अइसी बात कर देते हैं कि मेरा करेजा (कलेजा) कसकता है. हम नौकरी नहीं छोड़ेंगे. काहे छोड़ेंगे? आपकी आलीशान नौकरी नहीं है, जो आप हमको पूरी सुविधा देंगे.”
नवेली सोचने लगी. काजल की यह अपनी नौकरी के प्रति सजगता है या इसे अपने वर्चस्व के लिए जूझना आता है. ग्रामीण पृष्ठभूमि की यह लड़की बता रही है गांवों में बदलाव दस्तक देने लगा है.
परिचालक फिर चिल्लाया, “रोको, बहुत औरतें हैं.”
सड़क के किनारे खड़ी दस-पंद्रह ग्रामीण स्त्रियां हाथ लहरा कर बस रोक रही थीं. चालक ने विरोध किया, “बस भरी है. इतनी महिलाओं को कहां बैठाओगे?”
“झिरिया मोड़ पर कुछ लोग उतरेंगे. सीटें खाली हो जाएंगी. औरतें बेचारी घाम में खड़ी हैं.”
परिचालक ने कुछ ऊपरी कमाई कर लेने की मंशा से बस रुकवाई, लेकिन बस में मात्र दो महिला ही चढ़ीं. बाकी दल इन दो को रुख़सत करने आया था. परिचालक को तौहीन लगी, “अइसी-अइसी सवारी. अरे मलकिन थोड़ा सब्र करो. झिरिया मोड़ से सीट मिल जाएगी.”
नवेली अब काजल की बातों में पूरी रुचि ले रही थी. लगा परिचालक बार-बार बस रोक कर दरअसल उसकी एकाग्रता को भंग कर रहा है. उसने काजल का संवाद सुना, “हम सच्ची बात किए, तो आप बात पलट कर साड़ी का रंग पूछने लगे? टी-शर्ट और जींस पहिने हैं.”
अर्थात गांवों में जींस और टी-शर्ट वाली आधुनिकता आ गई है. काजल अपने स्तर पर आधुनिक होने के साथ निश्‍चित रूप से सुंदर भी होगी. तभी तो साखी गोपाल नाज उठा रहा है, वरना मोबाइल ऑफ कर देता.
“…………..”
“हमारी याद आ रही है, इसलिए साड़ी का रंग पूछ रहे हैं. हम पंद्रह दिन बीमार रहे, महीना भर कमज़ोरी रही, तब याद नहीं आई? आप एक दिन को न आए. जनक-जननी न आने देते होंगे. गमन (गौना) नहीं हुआ है, इसलिए हम सीहोरा नहीं आ सकते, पर आप तबियत देखने आ सकते थे.”
“… जितनी रोक-टोक, नियम-कायदा है सब लड़कियों के लिए है. लड़कों को छूट ही छूट है.”
अब नवेली की समझ में आ रहा है. गौना नहीं हुआ है अर्थात साखी गोपाल पूरी तरह पति नहीं बना है. इसलिए इसके तैश में उसे रोमांच मिल रहा होगा. पति बनते ही बराबरी ख़त्म कर देगा. दबाव बनाएगा. ये जिन कायदों को मानने से इंकार कर रही है इसे मानने पड़ेंगे. नहीं मानेगी तो रंजिश होगी.
“…………”
“आप फिर बात पलट कर पूछ रहे हैं मौसम कैसा है. वही है जो कटनी-सीहोरा में होगा. कटनी, सीहोरा, रीवा में बहुत दूरी नहीं है. जाने न (समझे न)?”

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“झिरिया मोड़ वाले आगे आ जाओ…”
काजल की बातों को लेकर नवेली की चेतना पूरी तरह जागृत हो चुकी है. लगा बार-बार व्यवधान देकर परिचालक साजिश रच रहा है. पंद्रह यात्री उतरे. इस बीच साखी गोपाल ने क्या कहा, काजल ने क्या जवाब दिया जानने से नवेली साफ़ तौर पर वंचित रह गई. काजल कह रही थी, “आपकी आदत को हम जानते नहीं क्या? आप हमको टाइम-कुटाइम कॉल करते हैं. आज हम कर लिए तो कहते
हैं अब बंद करो.”
“………….”
हम समझ रहे हैं पैसा कट रहा है, पर आप बैलेंस की चिंता न करो.”
“…………”
“नहीं. हमारे पास बहुत पैसा नहीं हो गया है. न ही हमारे बाबू के पास है. होता तो आपके बाबा शादी में रिसा न जाते. सुन लीजिए… आपके बाबू आए, हमारे घर में नया ट्रैक्टर खड़ा देखा, तो हुलहुला गए कि ट्रैक्टर वाला आदमी है. दहेज अच्छा देगा, बारात का स्वागत अच्छा करेगा. अच्छा किए भी पर आपके बाबा रिसाए रहे. बाबू ट्रैक्टर का लोन आज भी नहीं चुका पाए हैं. हम पांच भाई-बहिनों की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर है. पूरा धन हमको ही दे देंगे?”
“………..”
“लोन की चिंता हम काहे न करें. घर की सबसे बड़ी संतान हैं. चिंता करेंगे.”
“…………”
नवंबर में गमन होना है. बाबू को एक बार फिर बहुत ख़र्च करना पड़ेगा… सुनिए, गमन में बाबा को न लाइएगा. सादी में अगल-बगल से दो लोग पकड़ कर उन्हें चला रहे थे, लेकिन वे ठीक से चल नहीं पा रहे थे. लोग कह रहे थे काजल की ससुराल में पूरी बटालियन है. तीन साल के पड़पोता से लेकर पचासी साल के बाबा तक बारात में आए हैं.”
“…………..”
“हम नाराज़ नहीं हैं. हम भले के लिए नरम, नखरे करने वालों के लिए गरम हैं.”
“……………”
“अरे कितना बोलें? बस बाई पास से पेट्रोल पंप की ओर मुड़ रही है. रीवा पहुंच रहे हैं.”
काजल, नवेली को पूरी तरह से शिकंजे में ले चुकी है. नवेली सोच रही है- संचार तकनीक ने क्या-क्या सुविधा दी, क्या-क्या खत्म कर दिया. रोज़ मोबाइल पर बात करते हुए ये दोनों एक-दूसरे को इतना जान गए होंगे कि
जब काजल ससुराल जाएगी, इसे कुछ भी अनोखा नहीं लगेगा. जिज्ञासा नहीं होगी. असमंजस या झिझक नहीं होगी. मुख पर नई दुल्हन वाली लुनाई नहीं होगी.”
“…………”
“रीवा में बैकुंठपुर वाली बस पकड़ लूंगी. करसरा मोड़ पर उतार देगी. वैसे एक-दो जीप भी करसरा आती-जाती हैं. देखते हैं क्या साधन मिलेगा.”
“…………”
“काहे का डर? सतना से जवा (गांव) बारह किलो मीटर है. बस से अकेले आती-जाती हूं. सड़क के किनारे जवा मोड़ पर एक कच्चा घर है. उसी के सामने उतर जाती हूं. उस घर में अपनी साइकिल रख दी हूं. स्कूल मेन रोड
से एक किलो मीटर भीतर है. साइकिल से जाती हूूं. लौटकर साइकिल उसी घर में रखती हूं. बस, जीप जो भी मिले. सतना आ जाती हूं.”
अर्थात काजल सतना से रीवा आती-जाती है. नवेली के भीतर एकाएक भगिनी भाव उदित होने लगा. काजल कुछ हज़ार रुपयों के लिए ये जोख़िम उठाती है. परिश्रम करती है. जबकि वह कार द्वारा सतना से रीवा आने-जाने में हज़ार-डेढ़ हज़ार रुपए पेट्रोल में व्यय कर देती है. वायु प्रदूषण बढ़ता है. वायु प्रदूषण को कम करने में व्यक्तिगत प्रयास करते हुए बस यात्रा को प्राथमिकता देनी चाहिए.
“…………..”
“काहे? ट्रैक्टर चला लेती हूं, साइकिल क्यों नहीं चला लूंगी?”
“………….”
“बाद में बात करूंगी.”
बस, रीवा बस स्टैंड में रुक गई. नवेली ने काजल की वार्ता से ख़ुद को इतना जोड़ लिया था कि लगा दूसरी दुनिया से ठीक अभी वास्तविक दुनिया में वापस लौटी है. युवती के कंधे से चिपक कर बच्ची सो गई है. नवेली
को मां-बेटी से सहानुभूति हुई. लगा आम जीवन वस्तुतः कठिन, असुविधाजनक, बाधाओं से भरा होता है. ख़ास बात यह है आम लोग उद्यम नहीं छोड़ते. संघर्ष करते हैं. रोज़मर्रा के जीवन से अलग-थलग रहते हुए उसने वह ताक़त, क्षमता, जुझारूवृत्ति खो दी है, जो इस युवती, काजल या आम जन में स्वाभाविक रूप से मौजूद है. नवेली, युवती से बोली, “लोगों को उतर जाने दो. बच्ची को लेकर आराम से उतरना.”
“जी, मैडमजी.”
नवेली, काजल को भर नज़र देखना चाहती थी. काजल ने सफ़र को रोचक बनाया या नहीं बनाया, लेकिन नवेली का ध्यान उन झोल-झटकों की ओर बिल्कुल नहीं गया, जो लगे होंगे. काजल अपनी सीट से उठकर बस के गेट की ओर जाते हुए नवेली की सीट के समीप से गुज़री.
नवेली ने देखा सीधे पल्ले वाली उसकी मां ग्रामीण सरल स्त्री लग रही है. काजल ढीली टी-शर्ट, नीले चुस्त जींस में सजी है. नवेली का ख़्याल था जिस गुरूर से साखी गोपाल को परास्त कर रही थी निश्‍चित तौर पर काजल सुंदर होगी, लेकिन वह मध्यम ऊंचाई की सांवली युवती थी. अलबत्ता अपने स्तर से ऊपर उठकर शिक्षाकर्मी जैसा लक्ष्य पा लेने का आत्मविश्‍वास उसके चेहरे पर था.
लोग छोटे-छोटे लक्ष्य बनाते हैं, हासिल करते हैं. ख़ुश रहते हैं. जबकि वह बस यात्रा करने का मानस नहीं बना पा रही थी. यदि अड़चनों से जूझने का मानस बना लें, तो अड़चनों से गुज़रने की मज़बूती पाई जा सकती है. नवेली मुस्कुरा दी. रूप-रंग को जाने दो. आत्मविश्‍वास काजल को ख़ास बना रहा है. यह यात्रा याद रहेगी!
याद रहेगी करसरा की काजल, जिसका कलेजा साखी गोपाल की पता नहीं किस बात के लिए कसक रहा था.

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