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कहानी- विवाह (Short Story- Vivah)

'क्या संबोधन दूं तुम्हें, समझ ही नहीं पा रही, इसलिए बिना संबोधन के ही पत्र शुरू कर रही हूं. जानती हूं तुम ख़ुश होगे आज मेरे जाने से. और ये भी जानती हूं कि मेरे आने के पहले ही दिन से तुम इसी प्रयास में थे कि मैं घर छोड़ जाऊं, इसीलिए बात-बात पर मेरा अपमान करते रहे, वरना इतना बुरा बोलना तुम्हारा स्वभाव नहीं है, ये मैंने पहले दिन ही तुम्हारा चेहरा देखते ही पढ़ लिया था. तुम अपने लक्ष्य में सफल हुए.'

जब से पुनर्विवाह की बात चली है, रामानुज की विचित्र मन:स्थिति है. शादी करें या न करें. लेकिन जब से जयश्री को देखकर आए हैं, विवाह न करने का विचार बदलने लगा है. 
अभी एक साल ही बीते हैं पत्नी सुलभा के देहांत को. उस समय तो दृढ निश्‍चय कर लिया था कि अब पत्नी की जगह किसी को न देंगे. लेकिन जयश्री की सुंदरता देखने के बाद उनका दृढ़ निश्‍चय डगमगाने लगा है, उस पर उन लोगों ने शादी के लिए हां भी कर दी है.
अनिर्णय की स्थिति बनी हुई है. सोचा प्रोफेसर त्रिपाठी की सलाह ली जाए. क़रीबी मित्र होने के साथ ही वे समझदार, सुलझे हुए व आदर्शवादी इंसान भी हैं.
“यार बड़ी दुविधा में हूं दोबारा विवाह करूं या न करूं?” बड़ी झिझक के साथ रामानुज ने पूछा.
“दोबारा नहीं रामानुज तिबारा. अपनी बालिका वधू को क्यों भूल जाते हो. और मैं कहता हूं फिर से शादी करने से तो अच्छा है अपनी बालिका वधू को ही ले आओ. भली लड़की है. तुमने त्याग दिया तो बेचारी भाइयों की चाकरी करते हुए जीवन व्यतीत कर रही है. कभी तो उसकी भी सुध लो.”
रामानुज खीझ गए. बेवजह त्रिपाठी की सलाह लेने आ गए. इन्होंने तो बातों को और भी उलझा दिया. अब उस पागल को घर ले आऊं, जिसका चेहरा तक न देखा कभी, जिससे सालों पहले ही नाता तोड़ चुका हूं.
जानकी नाम था उसका. रामानुज तब यही कोई 16-17 साल के थे. पढ़ना-लिखना चाहते थे, लेकिन परिवार के बाल विवाह की परंपरा के बलि चढ़ गए. बाबूजी के दबाव के चलते ना-ना कहते हुए भी जानकी से विवाह करना पड़ा. चूंकि जानकी अभी 12-13 साल की ही थी, इसलिए गौना 5 साल बाद होना तय हुआ. रामानुज ख़ुश हो गए कि बाबूजी ने जानकी नाम का जो फंदा गले में डाला था, पांच साल तक उससे पीछा छूटा. वो जी-जान से पढ़ाई में जुट गए.
इसी बीच रामानुज के बाबूजी का देहांत हो गया. मां तो पहले ही चल बसी थीं. बाबूजी ही कभी-कभार जानकी की सुध लेते थे. पर उनके देहांत के बाद तो रामानुज ने जैसे उसे भुला ही दिया. पांच साल बाद जब जानकी के पिता ने गौने की बात छेड़ी तो रामानुज ‘अभी नहीं’ कहकर बात टाल गए.
इधर पढ-लिख कर वो प्रोफेसर बन गए. दिखावा पसंद तो वे थे ही. प्रो़फेसर बनने के बाद अनपढ़-गंवार जानकी उन्हें अपनी गृहस्थी के लिए अनुपयुक्त लगने लगी. उन्होंने साफ़-साफ़ कह दिया कि ऐसी गंवार पत्नी को वो घर नहीं लाएंगे.
और फिर कई लड़कियों को देखने के बाद उन्होंने सुलभा को पत्नी के रूप में चुना. अमीर घराने की सुलभा की सुंदरता, शिक्षा और रहन-सहन के तरीक़े को देखकर रामानुज आनंदित हो गए. ये बात और है कि सुलभा ने कभी गृहस्थी का कार-भार न संभाला. सारे काम के लिए उसने नौकर लगवा दिए और ख़ुद बन-संवरकर दिनभर घर में बैठी रहती. लेकिन रामानुज को कोई शिकायत नहीं थी. इधर जानकी के बारे में कभी-कभार सुनाई दे जाता कि उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया है. वो दिन भर बस पूजा-पाठ, घर के काम-काज में व्यतीत करती है. किसी से मिलना-जुलना नहीं, उठना-बैठना नहीं. लेकिन रामानुज पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं होता था.

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वो तो बस सलीकेदार पत्नी सुलभा को पाकर मगन थे. लेकिन उनकी ख़ुशियों को शायद जानकी की आह लग गई. पिछले साल सुलभा को ऐसा बुखार हुआ कि वो ठीक ही नहीं हो पाई. उसके देहांत के बाद एक बार फिर रामानुज अकेले रह गए. घर में दो नौकरों के साथ. 
एक साल तक सब यूं ही चलता रहा, लेकिन फिर लोगों ने सलाह देनी शुरू कर दी कि अभी उम्र ही क्या है. यूं अकेले जीवन थोड़े ही बीतेगा. शादी कर लो, तुम्हें आसरा भी मिल जाएगा और वंश बढ़ाने के लिए कुलदीपक भी तो चाहिए…और ये लोगों की सलाह का ही नतीज़ा है कि दोबारा विवाह का ज़िक्र होने लगा है.
ख़ैर रामानुज दिखावेबाज भले ही हों, लेकिन बुरे इंसान नहीं हैं. उनके दूसरे दोस्तों ने भी उन्हें यही सलाह दी कि जानकी को ही वापस बुला लिया जाए. रामानुज ने सोचा कोशिश करने में बुराई नहीं है. वैसे तो स्वाभिमानी जानकी वापस आएगी नहीं और आई भी तो मैं ऐसा सख़्त व्यवहार करूंगा उससे कि चार दिनों में ही भाग जाएगी. यही ठीक रहेगा. दोस्तों के बीच अच्छा भी बन जाऊंगा और मानसिक संतुलन खो चुकी जानकी के साथ निभाना भी नहीं पड़ेगा. 
रामानुज स्वयं नहीं गए, बल्कि अपने नौकर को भेज दिया जानकी को लाने ये सोचकर कि नौकर को देखकर ही शायद जानकी न लौटे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. शाम को जब रामानुज कॉलेज से लौटे तो एक स्त्री पानी के ग्लास के साथ हाज़िर हो गई. रामानुज अचंभित थे…
“चाय बनाऊं? कुछ नाश्ता करेंगे? वैसे नाश्ता तैयार है.” स्त्री की आवाज़ सुनकर रामानुज चेते. लेकिन कुछ भी न बोलते बना.
“मैं जानकी हूं. शायद आपने पहचाना नहीं मुझे.”
“हां हां ठीक है.” आवाज़ थोड़ी सख़्त कर ली रामानुज ने जैसा कि उन्होंने पूर्व योजना बना रखी थी. “मुझे नाश्ता-वाश्ता नहीं करना.” 
“तो चाय ही पी लें. थकान दूर हो जाएगी.”
कहकर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए जानकी रसोई की ओर मुड़ गई. रामानुज दंग थे. सुलभा जब तक जीवित रही, कॉलेज से लौटने पर कभी पानी का ग्लास तक लेकर नहीं खड़ी रही, न ही कभी चाय-नाश्ता पूछा. उसके रहते ये ज़िम्मेदारी नौकरों ने ही पूरी की. तभी जानकी चाय ले आई. 
रामानुज चाय पीकर तरोताज़ा हो गए, लेकिन घर पर अधिक समय वो नहीं बिताना चाहते थे, जानकी उन्हें फांसने के फिराक में है और वो उसे और मौक़ा नहीं देना चाहते थे, इसलिए फौरन निकल गए. 
देर रात घर लौटे तो जानकी सो़फे पर बैठी इंतज़ार कर रही थी. देखते ही बोली, “हाथ-मुंह धो लें. खाना लगा देती हूं.”
“क्यूं नौकर नहीं हैं क्या घर में. मैं उनसे खाना मंगवा लूंगा. तुम्हें तकलीफ़ करने की ज़रूरत नहीं.”
“पति को खाना नौकर परोसें, ऐसे संस्कार मेरे नहीं. वैसे भी इतनी पूजा-पाठ के बाद तो आपकी सेवा का मौक़ा मिला है. उसे गंवाना नहीं चाहती.” 
रामानुज से कुछ कहते ही नहीं बना. घर में इस तरह का संस्कार देखने का उन्हें सौभाग्य ही कहां मिला था. मां बचपन में गुज़र गई थीं और पत्नी सुलभा को तो अपने बनाव-शृंगार से ही फ़ुर्सत नहीं मिली कभी. वो हाथ-मुंह धोकर खाने बैठ गए. पहली बार किसी ने प्यार से अपने हाथों से खाना बनाकर खिलाया था, वरना तो बचपन से लेकर अब तक नौकरों के हाथ का बना खाना ही खाया था उन्होंने. और उस प्यार की मिठास वो खाने के स्वाद में स्पष्ट महसूस कर सकते थे.
लेकिन तारीफ़ नहीं की उन्होंने, वो चाहते ही नहीं थे. कहीं जानकी ये न समझ बैठे कि उनका नाता जुड़ रहा है.  वो चुपचाप खाना खाकर सोने चले गए. 
सुबह भी बिना किसी से कुछ कहे जल्दी ही निकल गए, ताकि उस पतिव्रता से सामना न हो. लेकिन एक बात वो महसूस कर रहे थे कि वो दिनभर उनके दिलोदिमाग़ से नहीं हटी. बल्कि चक्कर काटती रही. कॉलेज से छूटने के बाद मित्र-मंडली के साथ चौकड़ी जमाने की तो उनकी पुरानी आदत थी, लेकिन आज तो उनका घर जाने का मन ही नहीं हो रहा था. एक अजनबी स्त्री के रहते घर में जाना ठीक नहीं लग रहा था. अजीब-सी उलझन थी मन में. वो पत्नी के सारे अधिकार जमाने की कोशिश कर रही थी और ये बिल्कुल ही भूल चुके थे कि उससे कभी उन्होंने ब्याह किया था. 
लेकिन देर रात ही सही उन्हें घर तो लौटना ही था. घर लौटे तो फिर जानकी प्रतीक्षारत मिली. 
“मैंने कहा था न तुमसे कि मेरी चाकरी को नौकर हैं घर में. तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं.”
“नौकरों को मैंने छुट्टी दे दी है.” 
“मुझसे बिना पूछे.”
“मैं आपकी पत्नी हूं. निर्णय लेने का अधिकार है मुझे. अब मैं आ गई हूं तो नौकरों की क्या ज़रूरत है.”
रामानुज खीझ गए. ये तो बेवजह अधिकार जता रही है और घर में घुसपैठ करने की कोशिश भी कर रही है. लेकिन बोलते कुछ भी नहीं बना उनसे.  रातभर सो भी नहीं पाए ठीक से, इसलिए सुबह जल्दी उठकर भागने की उनकी योजना भी आज विफल हो गई. सुबह-सुबह जानकी से सामना तो होना ही था. वो चाय का ट्रे लेकर बेडरूम में चली आई.
रामानुज तो बेचारे अपने कपड़ों को संभालने में लग गए. 
“तुम यहां क्यों आईं.”
“चाय देने. और मैं क्या आपके कमरे में भी नहीं आ सकती.”
बड़ी ढीठ है ये तो. हर रोज़ एक नए अधिकार के दावे के साथ मेरे जीवन में प्रवेश के लिए प्रयासरत…
“ठीक है रख दो चाय. मैं पी लूंगा.
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“आप मुझसे नज़रें चुराकर क्यों बातें करते हैं. इतनी बुरी शक्ल नहीं मेरी कि सुबह देख लो तो दिनभर पानी न मिले.” कहते हुए खिलखिलाकर हंस दी वो और बाहर चली गई.
पहली बार रामानुज ने जानकी को नज़र उठाकर देखा था. जैसा सोचकर उन्होंने जानकी का परित्याग किया था, वो वैसी बिल्कुल भी नहीं थी. सुंदरता में सुलभा से उन्नीस नहीं थी. न ही उसका रहन-सहन बेसलीकेदार था. हां उसने सुलभा की तरह मेकअप नहीं थोप रखा था, लेकिन उसकी सादगी में एक अलग ही बात थी. लेकिन अगले ही पल रामानुज को लगा कि वो ये सब क्यों सोच रहे हैं. उन्हें क्या मतलब? वो चाहे जैसी दिखे.
चाय पीकर वो नीचे उतरे तो घर एकदम बदला-बदला सा लगा उन्हेेंं. पूरा घर अगरबत्ती की ख़ुशबू से महक रहा था. शायद अभी-अभी जानकी पूजा करके उठी है. रामानुज के नीचे आते ही प्रसाद की थाली लेकर जानकी हाज़िर हो गई. पर रामानुज को इन सबमें रुचि नहीं थी. “मैं कभी पूजा-पाठ नहीं करता और न ही ईश्‍वर में विश्‍वास करता हूं. पिता के देहांत के बाद इस घर में कभी पूजा-पाठ नहीं हुई. बेहतर होगा कि तुम भी अपनी नौटंकी इस घर में न चलाओ और न ही इस घर को अपने अनुसार चलाने का प्रयास करो.”
रामानुज ने जान-बूझकर बहुत सख़्ती से ये बात कही थी. लेकिन जानकी के चेहरे पर उन्हें कोई रोष नज़र नहीं आया. “मैं अपने अनुसार घर चलाने का प्रयास नहीं कर रही हूं. हां लेकिन जब से इस घर में हूं पूजा-पाठ का अपना नियम नहीं बदलूंगी. बरसों पूजा करके ही तो आपको पाया है. अब अगर पूजा छोड़ दूंगी तो ईश्‍वर समझेंगे कि मैं स्वार्थी हूं. काम बन गया तो उन्हें भुला बैठी.”
रामानुज फिर अचंभित. जिस स्त्री का उसके पति ने अकारण ही परित्याग कर दिया हो, उस पति के लिए व्रत-उपवास, पूजा-पाठ कोई स्त्री कैसे कर सकती है? और किस विश्‍वास के बल पर?”
शायद जानकी ने रामानुज के मन की बात पढ़ ली थी, “मुझे विश्‍वास था ईश्‍वर मेरे साथ बुरा नहीं कर सकते. जन्म-जन्मांतर का रिश्ता ऐसे टूटता है भला. 
इतना विश्‍वास एक ऐसे व्यक्ति पर जिसे परखने का मौक़ा भी नहीं मिला कभी? नहीं सब बकवास है. मुझे फांसने और आकर्षित करने की कुशल चाल. लेकिन मैं इसकी बातों में आनेवाला नहीं हूं.
यूं ही एक महीने कब बीत गए, रामानुज को पता ही न चला. लेकिन इस दौरान वे महसूस करने लगे थे कि जानकी की उपस्थिति अब उन्हें बुरी नहीं लगती. सच पूछो तो घर क्या होता है, रिश्ते किस तरह जीए और सहेजे जाते हैं, ये उन्हें जानकी के इस घर में आने के बाद ही पता चला था. उसकी हर बात का, हर हरकत का न चाहते हुए भी वो सुलभा से तुलना करते और इस तुलना में  जानकी हमेशा सुलभा को पछाड़ देती.  लेकिन वो ये बात जानकी पर ज़ाहिर करना नहीं चाहते थे. वो तो बात-बात पर कड़वी बातें कहने, उसका अपमान करने का कोई मौक़ा नहीं चूकते थे. लेकिन जानकी हर हाल में शांत बनी रहती. बस चुपचाप ज़िम्मेदारियां निभाते हुए. कोई अपेक्षा नहीं, कोई सपने नहीं. शायद पति के  घर में जगह मिल जाने के बाद उसका कोई सपना शेष बचा ही नहीं था.
लेकिन इसी बीच एक घटना घट गई. रामानुज अपने बेडरूम में सोए थे. आधी रात बीत चुकी थी कि बिस्तर पर किसी के हाथ का स्पर्श पाकर वो हड़बड़ाकर उठ गए. ये जानकी का हाथ था. बस उन्होंने न आगे देखा न पीछे. बस बरस पड़े उस पर, “शर्म नहीं आयी तुम्हेेंं आधी रात को एक पुरुष के कमरे में यूं प्रवेश करते? अब तक जो करती आई तुम, उसे मैं अनदेखा करता रहा… मुझ पर, मेरे घर पर जबरन अधिकार जमाती आई, फिर भी मैंने कुछ नहीं कहा. लेकिन अब तुम मेरे शरीर पर भी अधिकार जमाने की योजना बनाने लगी हो. जब मैं तुम्हें पत्नी मानता ही नहीं तो क्यों मेरे गले पड़ी हो…छी: मैं तो सोचता था कि तुम शरीफ़ और संस्कारी स्त्री हो…”
जानकी की आंखें भर आईं, लेकिन वो एक शब्द न बोली, फौरन कमरे से निकल गई. सुबह रामानुज की आंखें खुलीं तो उसे लगा कि आज तो चाय भी नसीब नहीं होगी. रात को इतना कुछ सुनने के बाद शायद जानकी मुंह फुलाए बैठी हो. लेकिन नीचे उतरे तो डाइनिंग टेबल पर चाय-नाश्ता तैयार मिला. हां रोज़ की तरह जानकी का मुस्कुराता हुआ चेहरा नज़र नहीं आया उन्हें. वो बेचैनी से यहां-वहां देखने लगे, लेकिन जानकी नज़र नहीं आई. अब उन्हें लग रहा था कि शायद रात को वो कुछ ज़्यादा ही कह गए थे. उन्हें इस तरह प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए थी. लेकिन फिर अगले पल सोचा, बोल दिया तो बोल दिया. अब इतनी-सी बात के लिए माफ़ी थोड़े ही मांगूंगा.
उस दिन रामानुज कॉलेज चले तो गए, पर पढ़ाने में उनका मन बिल्कुल भी नहीं लगा. पहली बार जानकी का अपमान करके उन्हें इतना बुरा लग रहा था. काफ़ी सोच-विचार के बाद आख़िरकार उन्होंने तय किया कि जानकी से जाकर कह ही दूंगा कि ग़लती हो गई. रात को अचानक नींद खुल जाने की हड़बड़ाहट में अनाप-शनाप बोल गया, लेकिन आवाज़ थोड़ा सख़्त ही रखूंगा. हां यही ठीक रहेगा. कैसे बात करनी है, क्या कहना है, पूरी स्क्रिप्ट की पूरे दिन में कई बार रिहर्सल करने के बाद शाम को जब वे घर लौटे तो रोज़ाना की तरह जानकी उन्हें पानी के ग्लास के साथ नज़र नहीं आई. उन्हें थोड़ी बेचैनी हुई, एक-डेढ़ महीने से उन्हें आते ही जानकी को देखने की आदत-सी पड़ गई थी. तभी नौकर गोपाल पानी लेकर आ गया.
"अरे तुम कब आए."
"मालकिन ने बुलवा भेजा. कहा कि वो जा रही हैं. इसलिए आपका ख़्याल रखने के लिए मैं आज ही आ जाऊं. और हां आपके लिए एक पत्र छोड़ गई हैं."
"अच्छा तुम जाओ. एक कप चाय बना लाओ." गोपाल को भेजकर रामानुज फौरन पढ़ने बैठ गए.
'क्या संबोधन दूं तुम्हें, समझ ही नहीं पा रही, इसलिए बिना संबोधन के ही पत्र शुरू कर रही हूं. जानती हूं तुम ख़ुश होगे आज मेरे जाने से. और ये भी जानती हूं कि मेरे आने के पहले ही दिन से तुम इसी प्रयास में थे कि मैं घर छोड़ जाऊं, इसीलिए बात-बात पर मेरा अपमान करते रहे, वरना इतना बुरा बोलना तुम्हारा स्वभाव नहीं है, ये मैंने पहले दिन ही तुम्हारा चेहरा देखते ही पढ़ लिया था. तुम अपने लक्ष्य में सफल हुए.
खैर, मुझे कोई शिकायत नहीं. ईश्‍वर ने पति सेवा का भले ही कुछ दिनों के लिए ही सही, जो मौक़ा दिया, उसके लिए मैं उनकी बड़ी आभारी हूं. शेष जीवन इन्हीं दिनों को याद करके गुज़ार दूंगी. 
पत्र लिखने का कारण शिकायत करना नहीं है. बस अपनी सफ़ाई देना चाहती हूं, हालांकि झूठ को झूठ साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं होती और न ही मुझे ऐसी आदत है. उस दिन-रात को मैं तुम्हारे कमरे में तुम्हारा प्यार पाने की इच्छा से नहीं आई थी. अपने पति का प्यार पाने की सोचने की भी ग़लती नहीं कर सकती. दरअसल, उस दिन मैं रसोई में काम करते गिर गई थी और बहुत चोट आई थी. दर्द बर्दाश्त नहीं हो रहा था, इसलिए दवाइयां लेने तुम्हारे कमरे में आ गई. ये सोचकर तुम्हें जगाया नहीं कि दिनभर के थके हो, अकारण नींद क्यों ख़राब करूं. दवाई का बैग तुम्हारी तकिया के नीचे था, इसलिए स्वयं निकालने की कोशिश करने की ग़लती कर बैठी. नहीं जानती थी कि पति के बिस्तर पर हाथ रखना भी एक पत्नी के लिए इतना बड़ा अपराध हो सकता है? तुम्हारी किसी बात का इतने दिनों में बुरा नहीं माना, लेकिन अपने चरित्र के विरुद्ध कुछ नहीं बर्दाश्त कर सकती. इसलिए जा रही हूं. गोपाल को बुला भेजा है और उसे सारी बातें समझा दी हैं. वो मुझसे भी बेहतर तुम्हारा ख़्याल रखेगा.
जानकी
पत्र पढ़ते-पढ़ते रामानुज की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. शायद ये पश्‍चाताप के आंसू थे. नहीं अब जानकी को वो और वनवास नहीं देंगे. और जब जानकी जैसी पत्नी है तो जयश्री से पुनर्विवाह करने का तो प्रश्‍न ही नहीं उठता. इस बार वो स्वयं जाएंगे जानकी को लेने पूरे जीवनभर अपने पास रखने के लिए. उसे शेष जीवन में पत्नी का वो सारा मान-अधिकार देंगे, जिसकी वो अधिकारिणी है.
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आज उन्हें पहली बार जानकी की अहमियत समझ में आ रही थी और विवाह की भी. आज वो सोच रहे थे कि सचमुच सात फेरे का बंधन बहुत मज़बूत होता है. हम लाख कोशिश करें, लेकिन ये बंधन नहीं टूटता. ईश्‍वर ने पत्नी के रूप में उनके लिए जानकी को ही चुना था. उन्होंने सुलभा से विवाह करके ईश्‍वर की इच्छा के विरुद्ध जाने की कोशिश की, शायद इसलिए ईश्‍वर ने सुलभा को उनसे छीन लिया. हमारे क़ानून की तरह ईश्‍वर की अदालत में भी शायद दूसरे विवाह को वैधानिक नहीं माना जाता.
लेकिन अब सारी ग़लतियों को सुधारने का अवसर आ गया है. अगली सुबह उन्होंने जयश्री के परिवार में संदेश भिजवा दिया कि उन्हें विवाह नहीं करना और स्वयं जानकी को लेने के लिए निकल पड़े. आज जैसी प्रसन्नता उनके चेहरे पर झलक रही थी, वैसी प्रसन्नता और आतुरता सुलभा से विवाह के समय भी उनके चेहरे पर नज़र नहीं आई थी.

प्रतिभा तिवारी

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