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कहानी- वनस्थली (Short Story- Vanasthali)

''इस वनस्थली का ध्यान रखना लल्ला!'' सुधा काकी के वे शब्द कानों में फिर से गूंज गए. तमाम तरह के मकान और बड़ी-बड़ी इमारतें देखकर मन भीग सा गया. आज सुधा काकी से किया एक भी वादा तो नहीं निभा पाए थे हम.

बचपन में हम जहां रहते थे. वह जगह बहुत ख़ूबसूरत और सकून से भरी हुई थी. हमारे घर से कुछ ही दूरी में सुधा काकी रहती थीं. वे बिल्कुल भी पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन पेड़-पौधों और प्रकृति के बारे में उन्हें पढ़े-लिखे लोगों से ज़्यादा ज्ञान था। उस दौरान उस पूरे इलाके में खेतों और हरे-भरे पेड़-पौधों से घिरे बस इका-दुका मकान ही थे. हम बच्चे उस हरे-भरे स्थल को वनस्थली कहते थे. इसलिए बाद में सचमुच उस जगह का नाम वनस्थली ही रख दिया गया.
बचपन वाली सुधा काकी हम सब बच्चों को बड़ी प्यारी लगती थीं. वे अपने घर के बगीचे से हमें ख़ूब आम-अमरूद और तरह-तरह के फल-फूल इस वादे के साथ तोड़ने देती थीं कि हम बड़े होकर इन पेड़-पौधों का ख़्याल रखेगें और इस वनस्थली की सुंदरता को खत्म नहीं होने देगें. मीठे फलों के लालच में हम भी उनसे वादा कर देते कि हम इस वनस्थली का सदा ध्यान रखेंगे.
सुधा काकी का बड़ा परिवार था. उनके ख़ूब खेत थे. वे सारा दिन खेतों में काम करती हुई बड़े सुहाने बुंदेली लोक गीत गाती रहतीं, ''ओ लल्ला, इन बागन से जीवन है, ओ लल्ला इन खेतन से सावन है, ओ लल्ला इन सबरन की राखे रहियो लाज…''


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प्रकृति का संदेश देते यह गाने उस उम्र में ज़्यादा समझ में तो नहीं आते थे, पर उनकी आवाज़ में बहुत मधुर ज़रूर लगते थे. सुधा काकी का प्रकृति से अलग ही जुड़ाव था.
''लल्ला, आम की गुठली तुम लरका कहूं भी न फेंको करो, गली के किनारे, खेतन के किनारे माटी में गांप देउ करो, फिर देखियो तुमाए मोड़ा-मोड़ी इनाई के नीचे खैलें।.''
हम उनकी बातों पर ज़ोर से हंसकर फिर आम खाने लगते.
 वो सुहाना सा बचपन आज फिर सालों बाद वनस्थली आकर याद आया.
''इस वनस्थली का ध्यान रखना लल्ला!'' सुधा काकी के वे शब्द कानों में फिर से गूंज गए. तमाम तरह के मकान और बड़ी-बड़ी इमारतें देखकर मन भीग सा गया. आज सुधा काकी से किया एक भी वादा तो नहीं निभा पाए थे हम.
हाईस्कूल के बाद मैं और मेरे अन्य वनस्थली वाले साथी धीरे-धीरे वहां से बाहर पढ़ने को चले गए. सभी पढ़ते-पढ़ते नौकरी करने लगे. सबकी शादी हो गई और लगभग सभी हमेशा के लिए दूसरे शहरों में रहने लगे. सबका तो नहीं पता पर मेरे मन से वनस्थली कभी भी नहीं छूटा हमारा पुराना मकान मुझे बार-बार यहीं खींच लाता.
पर अब यह वनस्थली कहां वनस्थली सी थी. सारे खेत मिटाकर मकान बना दिए गए थे. दूर-दूर तक कोई बड़ा पेड़ न था.
मैं उदास होकर सुधा काकी के घर की ओर चल पड़ा. वहां जाकर देखा, तो उनके घर के बाहर अब भी एक बड़ा सा बाग था और अब भी उनके बगीचे में आम-अमरूद के पेड़ अपनी जड़े बनाए हुए थे. मैं उनके बाग में जाकर खड़ा हुआ, तो एक नन्हीं सी बच्ची को छोटा सा पौधा रोपते हुए देखकर बोला ''तुम कोई पौधा लगा रही हो क्या?''
''जी अंकल! पौधे हमारा जीवन हैं. हमारी सुधा दादी हमें बहुत सारा जीवन दे गईं. अब हम भी आने वाले लोगों के लिए जीवन रोप रहे हैं.''

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''क्या मुझे भी कुछ बीज और पौधे दोगी, मैं भी गली के अगल-बगल खाली पड़ी जगहों पर उन्हें रोप दूंगा. मैं अब अपने घर की खाली पड़ी जगह पर और कमरे नहीं, बल्कि एक बगीचा तैयार करवाऊंगा.'' मैंने उस नन्हीं सी बच्ची से जैसे ही यह कहा वह मुस्कुराती हुई कुछ पौधे और बीज मेरे लिए झट से ले आई.
मैं मन ही मन सुधा काकी से माफ़ी मांगता हुआ एक बगीचा तैयार करने को कह, वहां से जाने लगा. और वह नन्हीं बच्ची सुधा काकी के गीत को अपनी बोली के हिसाब से गाती हुई पेड़ों को सींचने लगी, ''ओ बेटा इन बागों से जीवन है, ओ बेटा, इन खेतों से सावन है, ओ बेटा‌ इन सबका तुम रखना ध्यान…'' उस बच्ची का प्रकृति प्रेम देखकर यूं लगा की जैसे सुधा काकी ही वापस आ गईं हैं.

writer poorti vaibhav khare
पूर्ति वैभव खरे

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Photo Courtesy: Freepik

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