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कहानी- वादों का उपहार (Short Story- Vadon Ka Uphaar)

"तुम तैयार नहीं हुए? चलो उपहार लेने चले. फिर शाम को एक ज़ोरदार पार्टी-हंगामा होगा दोस्तों के साथ."
"कौन से दोस्त?.. नहीं, मुझे कहीं नहीं जाना, न ही अपना जन्मदिन मनाना है, बेकार है ये सब."
पिताजी चौंके, पास जाकर देखा, शांतनु की मासूम आंखों से बहे आंसू सूख गए थे. टेबल पर पड़ा नाश्ता कब का ठंडा हो चुका था. हैरान-परेशान से पिता का दिल धक से रह गया.
"क्यों बेटा, क्या हुआ? क्या किसी ने तुम्हारा दिल दुखाया? क्या मां ने तुम्हें डांटा? बताओं तो मुझे."

"हेलो, कौन? भोला? जरा शैकी को फोन दो, बात करना चाहता हूं."
दोड़ा-दौड़ा भोला शैकी के कमरे की खिड़की तक गया और कॉर्डलेस देते हुए शीघ्रता से बोला, "शैकी बाबा, मालिक का फोन… बैंगलोर से…"
फोन पर पिता की आवाज़ सुनकर शांतनु के सुंदर मुखड़े पर छाई बदलियां कुछ पलों के लिए छंट गईं.
"हेलो पिताजी…" ख़ुशी में चेहरा दमक रहा था. उधर से आवाज़ सुनाई दे रही थी, "शैकी बेटे, माई डियर सन, हैप्पी बर्थडे."
"थैंक्यू पापा."
"आई मिस यू बेटा, अच्छा सुनो, कुछ ही घंटों में मैं तुम्हारे पास पहुंच रहा हूं, फ्लाइट का समय ही गया है. अपना बर्थडे गिफ्ट क्या लेना है, सोचकर तैयार रहो. अपने सारे दोस्तों को इनवाइट कर लो. उन्हें शाम को ज़ोरदार पार्टी दूंगा, बाय."
फोन कट गया. शांतनु एक बार तो प्रसन्नता से उछलने को हुआ, "मैं सुबह से आपके फोन का इंतज़ार ही कर रहा था." परंतु तभी उसके हृदयाकाश पर अचानक ही उदासियों के काले बादल तिरने लगे, फोन हाथ में लिए-लिए ही यह खिड़की के साथ वाले सोफे पर जा बैठा. सामने टेबल पर उसके जन्मदिन का बधाई कार्ड व गुलदस्ता रखा हुआ था. शायद उसे सोता जानकर मां स्कूल जाने से पहले यह रख कर गई होगी? मगर उन्होंने मुझे जगाकर विश किया होता, तो मेरा मन ख़ुशी से नाच उठता, अपने बेटे के लिए ही औपचारिकता? भोला पास ही खड़ा शांतनु के मुखड़े पर पल-पल छाते धूप और छांव के नज़ारे देखता रहा, फिर उसकी मुखमुद्रा पर गौर करते हुए बोला, "क्या कहा साहब ने?"
"कुछ नहीं, तुम जाओ." बेरुखी भरा जवाब मिला. खोया-खोया सा शांतनु खिड़की से बाहर देखने लगा.
तभी सामने से उसका हमउम्र मोनू अपनी मां के हाथों में हाथ डालें बड़ी मस्ती से हंसता-खिलखिलाता बाज़ार की ओर जाता दिखा. शांतनु सूनी-सूनी आंखों से उन्हें ओझल होने तक देखता रहा. काश! मां को भी ऐसे ही बाज़ार जाना पड़ता तो मैं भी उनकी उंगली पकड़कर मस्ती में मुस्कुराता उनके साथ जाता. कितना आनंद है ऐसे घूमने में मां के साथ.
"शांतनु बाबा, चलो स्कूल के लिए तैयार हो जाओ." आया के पास आते स्वरों की उसने अनसुना कर दिया. "बेटा, चलो जल्दी से तैयार हो जाओ. आज तो तुमको अपने दोस्तों को भी इनवाइट करना है. तुम्हारा हैप्पी बर्थडे है ना."
"नहीं, मुझे किसी को भी इनवाइट नहीं करना है, न ही स्कूल जाना है."
आया पुचकार कर, मना कर लौट गई, पर शांतनु उदास बैठा रहा.
उसे गर्मियों की वह शाम अनायास ही याद आ गई, जब भोला के साथ बाज़ार में लौटते वक़्त फ़रमाइश कर करके एक फेरीवाले से वह मीठी आइस्क्रीम ख़रीद लाया था.
मुंह में पानी के स्रोत बह उठे थे. ऐसी आइस्क्रीम खाने का आनंद घर में कहां? उसने भोला के बहुत मना करने पर भी एक कैंडी ले ही ली. चलते-चलते एक-दो चुस्कियां ही ले घर पहुंचा, तो मां सामने ही खड़ी थी. वे आग्नेय दृष्टि से घूरते हुए भोला पर क्रोधित हो उठी. "क्यों दिलाई यह दो टके की फेरीवाली आइस्क्रीम ? कुछ पता भी है इसमें मिठास के लिए हानिकारक सैक्रीन पड़ी रहती है." भोला बेचारा क्या कहता? वह तो
मना ही कर रहा था. शांतनु ने देखा बूढ़े भोला का मुख भय से सफ़ेद हो रहा था, पता नहीं इस बात की सज़ा बीबीजी किस प्रकार दें, "शांतनु, ख़बरदार! फिर कभी ये फेरीवाली सड़ी-गली वस्तु खाई तो…" उन्होंने उसके हाथ से आइस्क्रीम लेकर गुलाब की कटीली झाड़ियों की ओर उछाल दी. शांतनु सिसक उठा.
बड़ी देर पश्चात् ज्यों त्यों साहस करके मां के अध्ययन कक्ष में झांका, तो देखा, मां कैनवास पर कोई चित्र उभारने में व्यस्त थीं. दरवाज़े की ओर उनकी पीठ होने के कारण वे शांतनु को न देख सकी, वरना उसकी आंखों में उभरते नमी को महसूस कर पातीं. चित्रों के ज़रिए दर्द, संवेदनाएं, भावनाओं की कोमलता व्यक्त कर सकने में पूर्णतया समर्थ कलाप्रेमी मां, मेरी ही भावनाएं क्यों नहीं समझ पाती है? प्यार की बजाय मुझे अनुशासन से, कठोरता की छड़ी से क्यों हांकना चाहती है मां…' शांतनु मन ही मन मां से बातें करता आंखों में आंसू भरे ही लौट गया था.

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बहुत नाम था मां का. यत्र-तत्र उनके बनाए चित्रों की प्रदर्शनियां लगती. बड़े-बड़े लोग, कलाप्रेमी, व्यवसायी, धनिक वर्ग उनके चित्र देखने आते. मुक्त कंठ से प्रशंसा होती मां के हाथों के हुनर की, सौंदर्यबोध की एवं संवेदनाओं की सूक्ष्म पकड़ की. मगर एक शांतनु के मासूम मन, अबोध हृदय की भावनाओं को कोई न जान पाता. नौकर अपनी नौकरी जाने के भय से उसके सारे कार्यों को अंजाम देते, मगर वो लगाव, आत्मिक प्रेम, वह जुड़ाव कहां? शांतनु चाहता वह भी मां की प्रदर्शनियों में जाए. मगर स्कूल, होमवर्क एवं ट्यूशन की वजह से वह कहां जा पाता था. हां, कभी कभार पिताजी अपने साथ ले जाते, मगर ऐसा कम ही हो पाता. गिने-चुने अवसर ही उसकी स्मृतियों के आकाश में थे.उसे लगता मां और पिता अलग-अलग दिशाओं में स्थित चमकीले तारों की भांति हैं, जिन्हें हम देख तो सकते हैं, मगर छूना या प्यार से सहलाना अपने वश में नहीं होता. वह निरीह बेबस की तरह उन्हें ताकता. प्यार करने और पाने की हार्दिक तमन्ना करता, फिर भी दूर ही दूर रहता कि कहीं ऐसा न हो कि हाथ जला बैठे.
अभी परसों की ही तो बात है. शांतनु के स्कूल से रिपोर्ट कार्ड मिला था, जिस पर अभिभावकों के हस्ताक्षर करवा कर अगले दिन क्लास टीचर को वापस करना था. अपने अर्जित किए प्रथम स्थान एवं सर्वोच्च अंकों की प्रसन्नता मां के साथ बांटने को उत्सुक वह मां के स्टडी रूम में जा पहुंचा. मां किसी पेंटिंग को पूर्णता देने में इतनी तन्मय थीं कि उनके हाथ में पकड़ी तुलिका अनायास ही उस समय कैनवास से जा टकराई, जब बाल सुलभ चंचलता से शांतनु ने मां के गले में लटककर गलबहियां पहना दीं पीछे से. अचानक ही मां चिहुंकी, "सत्यानाश कर दिया मेरे चित्र का. यदि कुछ चाहिए था, तो आया से मांग लेते थे. नौकर-चाकर तुम्हारी सुख-सुविधा के लिए ही तो रखे गए हैं. सारा मूड़ चौपट करके रख दिया. अब कहो भी, क्या बात है?"
शांतनु तब रुलाई रोकते हुए भरे गले से इतना ही कह सका, "रिपोर्ट कार्ड पर साइन कराना है." तब मां ने कठोर दृष्टिपात‌ किया, "हस्ताक्षर कराने के लिए पूरे सोलह घंटे हैं तुम्हारे पास." मां का इस तरह बोलना उसके दिल पर तीर की तरह लगा. उसका मासूम बाल मन भीतर ही भीतर अनेकों प्रश्न मां से करता रहा, "मां, तुम कब फ़ुर्सत में होती हो. सुबह-शाम तो आप लॉन या स्टडी में एकांत में चित्र बनाती रहती हो. दिन आपका स्कूल में व्यतीत होला है. मैं रोज़ाना आपका इंतज़ार करते-करते सो जाता हूं, जब आप क्लब से लौटती हो.
मां तुम भले ही शहर के जाने-माने विद्यालय की चित्रकला की प्राध्यापिका हो, मनर कठोर अनुशासन एवं तुम्हारे बनाए लिखित-मौखिक नियमों के प्रश्नपत्रों में उलझकर मैं तो बस सदा भयभीत ही रहता हूं. बेटा भले ही हूं आपका, मगर स्नेह और प्यार वह भी मां का, क्या होता है, मैं नहीं जानता. आपकी ज़िंदगी में तो सिर्फ़ कैनवास व ब्रश का ही महत्वपूर्ण स्थान है. मैं तो मां तुम्हारे जीवन में अनफिट हूं. तुम कम से कम आज मेरे नंबर तो देख लेतीं. कक्षा में प्रथम आने की शाबासी ही दे दी होती तुमने. देर तक सोचता बाथरूम में बैठा आंखों के अनमोल आंसू बहाता शांतनु मुंह धोकर बाहर आ गया.
"चलो शांतनु, कितनी देर से बाथरुम में हो. कपड़े बदलो और खाने के लिए आ जाओ." आया ने मीठी झिड़की दी, मगर वह गुमसुम ही बना रहा. दूध में बिस्किट डुबोते हुए वह देर तक पिता को याद करता रहा. जब पिता बिज़नेस ट्रिप से वापस लौटते, तो कुछ पलों के लिए कोठी में जैसे जान आ जाती. शांतनु को शैकी नाम  उन्होंने‌ ही दिया था. उन्हें अंग्रेज़ी से लगाव था. अंग्रेज़ी तौर-तरीक़े, वैसा ही लिबास. वे बेटे को गोद में उठा पूरे कंपाउड का चक्कर लगा आते. वह होता और उसके पिता, मगर ज्यों ही मां के कानों में पिता का प्यार में शैकी पुकारना पड़ जाता, वह बिफर पड़तीं. उन्हें पिता का शांतनु को 'शैकी शैकी' कहना बिल्कुल पसंद न आता.


मां की अतिरिक्त देखभाल के कारण आया भी शांतनु को इधर-उधर न जाने देती. न खेलने-कूदने की इजाज़त देती. वह चिरौरी सी करता. एक बार नंगे पैरों से ओस की बूंदों भरी घास पर दौड़ आने की ललक तीव्र हो उठती. मगर आया कानों को हाथ लगाती, "ना बाबा, अभी वो आ गईं, तो मुझे बहुत डांट पड़ेगी. क्या तुम चाहते हो मुझे नौकरी से निकाल दिया जाए?" और आया की मजबूरी समझ शांतनु अपना मन मसोसकर रह जाता.
शांतनु का मन चाहता, वह और बच्चों की भांति खेले-कूदे, पिता बैटिंग करें और वह गेंद फेंके, मगर पिता के पास समय ही कहां? जैसे ही उनके मित्रों को पता चलता, आ धमकते. फिर पिताजी अपने दोस्तों के सामने उसकी पीठ ठोककर कहते, "देखो मेरा इकलौता लाड़ला शहर के सबसे महंगे स्कूल में पढ़ता है. सुनाओ तो बेटा, जरा अपनी पोयम." और शांतनु किसी टेप की भांति कुछ कविताएं सुना देता. हर बार पिताजी के मित्र शाबासी देते और ड्रिंक्स-स्नैक्स में व्यस्त हो जाते या कार में बैठ क्लब चल देते और शांतनु… उसे आकर भोला पकड़ ले जाता, "चलो शैकी बाबा, आपके सर आ गए हैं." मगर मां बेबाक़ भोला पर बरस पड़तीं, "शैकी बाबा मत कहा करो."
मगर शांतनु के दिल से पूछे कोई… मां-पिता के बीच की तल्ख़ियों ने उसे एक और अजीब सी मन स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया था. यह शैकी और शांतनु के बीच झूलता अंकुश बना लटका रहता आसमान की विपरीत दिशा के बीच अस्तित्व विहीन, मानो उसकी यही नियति है.
उद्वेलित मन, अज्ञान, मगर गुमसुम उदास बैठा शांतनु सोच रहा था कि क्यों यह जन्मदिन बार-बार चला आता है. जन्मदिन पर ढेरों खिलौने, उपहार, टॉफी आदि इकट्ठे हो जाते हैं. पूरा कमरा तो भरा पड़ा है, सभी चीज़ें दीवारों में, शोकेस में सजी हुई हैं और मैं भी तो एक खिलौना ही हूं, जिसे मां-पिताजी सजा कर रखते हैं,. जब मन किया खेल लिया, अन्यथा नहला-धुला कर कमरे में सजा दिया. न यह आस-पड़ोस के बच्चों के साथ खेल सकता है, न सामान्य जीवन जी सकता है. अभी उस दिन तो मोनू खिड़की पर आया, "चलो शांतनु क्रिकेट खेलते है." अपत्याशित प्रस्ताव को वह अस्वीकार न कर पाया और भोला की नज़रें बचाकर पिछवाड़े जाकर खेलने लगा. तभी पिता की कार पर जाने कहां से बैट पर आई मोनू के ज़ोरदार शॉट से गेंद उछलकर कार की साइड में जा लगी. मोनू के साथ-साथ वह भी भय से सहमा सा खड़ा रह गया और पिताजी तो मोनू पर बरस पड़े, "जंगली कहीं के. तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इधर आकर खेलने की." वो मौन खड़ा रहा अपमानित सा.
"और शांतनु तुम्हें कितनी बार कहा है दोस्ती बराबर वालों से की जाती है. इन फुटपाथ पर रहनेवालों से नहीं. चलो घर." शांतनु ने धीरे-धीरे बेट-बॉल उठाया, मानो कदमों में मन भर का बोझ बंधा हो. वह मोनू से बिना नज़रें मिलाए ही सिर नीचा किए अंदर चला आया था. नन्हा सा शांतनु और अनगिनत प्रसंग, वह भी ऐसी ही तल्ख़ियों, ज़्यादितियों से भरपूर. कौन कहता है कि बच्चे शैतान होते हैं? मनमानी करते हैं. ज़िद करते हैं? अरे! ये सब तो ये बड़े लोग करते हैं. स्वयं ही जेलर बने रहते हैं और बच्चों को कैदियों की भांति रखते हैं. मुझसे पूछे कोई कि मैं क्या चाहता हूं. अपनी महत्वाकांक्षा और अभिलाषाओं को मुझ पर थोप कर. मुझे सारी सुख-सुविधाएं प्रदान करने के नाम पर मेरे मम्मी-पापा
अपनी अपनी मनमानियां करते हैं.

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मां आज सुबह से ही बाहर थीं, उनके विद्यालय में कोई कार्यक्रम था. तभी पिताजी की आवाज़ सुनाई दी, "शैकी बेटे… शैकी कहां हो तुम?" वे आवाज़ देते उसके कमरे में ही चले आए.
"तुम तैयार नहीं हुए? चलो उपहार लेने चले. फिर शाम को एक ज़ोरदार पार्टी-हंगामा होगा दोस्तों के साथ."
"कौन से दोस्त?.. नहीं, मुझे कहीं नहीं जाना, न ही अपना जन्मदिन मनाना है, बेकार है ये सब."
पिताजी चौंके, पास जाकर देखा, शांतनु की मासूम आंखों से बहे आंसू सूख गए थे. टेबल पर पड़ा नाश्ता कब का ठंडा हो चुका था. हैरान-परेशान से पिता का दिल धक से रह गया.
"क्यों बेटा, क्या हुआ? क्या किसी ने तुम्हारा दिल दुखाया? क्या मां ने तुम्हें डांटा? बताओं तो मुझे." स्थितिप्रज्ञ बैठा शांतनु मायूस स्वरों में प्रश्न किए बिना न रह सका, "मैं कोई उपहार नहीं चाहता, मगर क्या आप मेरी कुछ इच्छाएं पूरी कर सकते हैं."
"हां, हां, क्यों नहीं ज़रूर पूरी करूंगा."
"पिताजी, मैं एक सामान्य जीवन जीना चाहता हूं, जिसमें न तो स्टेटस हो, न दिखावा, न ही कोई स्पर्धा हो, न ही छोटे-बड़े, अमीर-गरीब का भेद."
पिता के मुंह से निकला, "क्या कह रहे हो तुम? बेटा तुम
क्या चाहते हो?"
"पिताजी, मैं अपने जन्मदिन पर दो वादों का उपहार चाहता हूं. एक तो आप मां की तरह ही मुझे शांतनु कहा करिए. मैं आप और मां के बीच सिर्फ़ प्यार चाहता हूं, झगड़ा और तनाव नहीं. दूसरा मोहल्ले के सारे बच्चों को टॉफी और मिठाइयां खिलाकर, उनके साथ खेलने की इजाज़त दे दीजिए… बोलिए, क्या दे सकेंगे पिताजी ये उपहार…" शांतनु के भरे गले से अटक-अटक कर उसके हदय के उद्‌गार निकले, तो पिता का हृदय सारे भेदभाव, अपने उच्च वर्ग के होने का अभिमान भुला बैठा. अब वे सिर्फ़ पिता और पुत्र थे. पिता ने पुत्र को अपने सीने से भींच लिया.
शांतनु कहता गया, "मैं बोर हो चुका हूं और एक सामान्य या जीवन जीना चाहता हूं. मोनू की तरह बचपन की ख़ुशियां चाहिए मुझे, देंगे पिताजी?" शांतनु की आंखों से बहती अश्रुधारा पिता के दिल की गहराइयों तक उतर गई.
"बेटे तुम जो चाहोगे, वही होगा." न जाने मां भी कब चुपके से आकर द्वार पर खड़ी यह सब सुन रही थीं. वे भी बोल उठीं, "आज से हर दिन ऐसा ही होगा. तुम दोस्तों के साथ खेलना-कूदना, मेरी व पिताजी की सारी पाबंदियां-अनुशासन आज से समाप्त. लेकिन आपको सभी कार्य अपने स्वअनुशासन से स्व विवेक से समयानुसार ही करने होंगे."
"करूंगा मां. देखिएगा आपको टोकने का अवसर ही नहीं दूंगा." शांतनु प्रसन्नता के मारे उछलकर खड़ा हो गया. मां ने पास आकर प्यार व स्नेह से बेटे का सिर सहला दिया, "चलो तो अब यह तय करें कि…" मां की अधूरी बात पूरी की पिताजी ने, "शांतनु का जन्मदिन किस तरह मनाएंगे." उपकार पाकर शांतनु का मन प्रसन्नता से खिल उठा.

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"मां-पिताजी आप लोग पार्टी की तैयारी कीजिए, तब तक में अपने सभी दोस्तों को इनवाइट करके आता हूं."

- श्रीमती शोभा मधुसूधन

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