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कहानी- उतना ही उपकार… (Short Story- Utna Hi Upkar…)

"प्रेम बांटो, संसार में बस, निःस्वार्थ, निश्चल प्रेम बांटो. और हां, जितना प्यार दूसरों को दोगी उतना ही प्यार. अपने आप से भी करो. कभी दूसरे के आचरण की वजह से अपने आप को आहत मार करो. मेरा बेटा आज मेरे साथ नहीं है, मगर जब था तो गर्भ से लेकर चालीस साल तक उसने मुझे संतान का सुख तो दिया ना. उन लोगों की सोचो जिनकी संतान ही नहीं है. उन्हें तो वो सुख प्राप्त नहीं हुआ या जिनके बच्चे असमय ही काल कवलित हो जाते हैं वो क्या कर लेते हैं? अब मैं उस सुख का आनंद क्यों न मनाऊं, प्रत्युत्तर में कुछ चाहना प्यार नहीं होता..."

बरसते मेघ के साथ कब दिल में घुमड़ते बादल आंखों से बरसने लगते सिमरन को पता ही नहीं चलता. जब से साहिल उसे बीच मझधार में छोड़कर गया है उसका मन और जीवन दोनों तूफ़ान में घिरी नाव की तरह हिचकोले खा रहे है. साहिल, जिसके साथ से वह आज तक समझती आयी थी कि उसके जीवन की बहती नदी को एक प्यारा सा मगर सुदृढ़ किनारा मिल गया है और उस साहिल की बांहों से घिरी उसकी ज़िंदगी सुरक्षित और सुकून भरी है. साहिल की आखों से बरसते प्यार में वह सराबोर रहती थी. सिमरन के मन में जितना भी प्यार था, ख़ुशहाली थी, छांव थी सब उसने साहिल पर न्यौछावर कर दिया था. फूल की एक पंखुड़ी, अंजुली भर छांव, कुछ भी उसने अपने पास नहीं रखा था. तभी साहिल के जाते ही उसका अपना मन तपते शुष्क मरुस्थल जैसा हो गया था, जो धू-धू करता तिल-तिल उसका जीवन भस्म करता जा रहा है.
प्यार में धोखा खाने वालों की अपनी ही लीला समाप्त करने की कितनी ही कहानियां सुनी थी सिमरन ने. कमोबेश उसकी मनःस्थिति भी वही हो चली है. सांसों की डोर बस, एक ही उम्मीद से बंधी हुई है कि किसी दिन साहिल को उसकी ग़लती का एहसास होगा और सिमरन का प्यार उसे वापस खींच लाएगा. हां, झूठी उम्मीद से अपनी जीवन डोर बांधे बैठी है सिमरन आजकल. आख़िर कैसे जिए वह अपने प्यार, अपने साहिल के बिना. जितने भी रंग उसके पास थे उसने अपने और साहिल के प्यार भरे सपनों को सोने में ख़त्म कर दिए. अब जब साहिल ने उन सारे सपनों को तोड़ डाला तो सिमरन के पास सिवाय एक स्याह अंधेरे के कुछ नहीं बचा है.
आंखों से बरसती धारा के साथ ही बाहर भी झमाझम बरसात हो रही थी. मनुष्य चाहे किसी का दर्द न समझ पाए, लेकिन प्रकृति हमेशा समझ जाती है. तभी वह भी आपकी मनःस्थिति के अनुसार प्रतिक्रिया करती है. सिमरन के मन के खालीपन में बार-बार एक ही गूंज उठ रही थी- आख़िर ऐसी क्या कमी थी उसके प्यार में जो साहिल ऐसे उसे ठुकरा कर चला गया, सारी डोरियां झटके से तोड़कर, उसे संभलने का मौक़ा भी नहीं दिया उसने.

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बाहर बादल गरज रहे थे और अंदर कई तूफ़ान मन की दीवारों पर अपना सिर पटक रहे थे. पता नहीं कब बाहर प्रकृति बरस-बरस कर गई थी और अंदर सिमरन. दरवाज़े पर जब घंटी बजी तो सिमरन की नींद खुली. वहीं टेबल पर साहिल की तस्वीर पर सिर रखे जाने कब आंख लग गई थी उसकी. उसने बाथरूम में जाकर मुंह पर पानी के छींटें मारे और बाहर आकर दरवाज़ा खोला.
सामने बाली सिन्हा आंटी थी. हाथ में चाय और नमकीन की ट्रे लिए. सिमरन संकोच से गढ़ गयी. आंटी पिछले दो सालों से उसे भी जानती हैं और उसके व साहिल के रिश्ते के बारे में भी. और उस ख़ूबसूरत रिश्ते के अचानक टूटने के बारे में भी. इसीलिए वो बीच-बीच में आकर सिमरन की खोज-ख़बर भी ले जाती हैं और उसे प्यार से कुछ खिला-पिला भी जाती हैं.
आज भी आंटी बैठी और सिमरन को ज़बर्दस्ती थोड़ा खिलाया. बाहर बारिश रुक गई थी और मौसम साफ़ हो चुका था.
सिन्हा आंटी ने सिमरन से कहा कि वह तैयार हो जाए उन्हें ज़रूरी काम से बाहर जाना है. वो सिमरन को साथ ले जाना चाहती हैं, ताकि उन्हें किसी का साथ मिल जाए. सिमरन ने हामी भर दी. सिन्हा आंटी उन दिनों की साक्षी थीं, इसलिए सिमरन को वह अपनी आत्मीय लगती थीं. उन्हें देखते ही पुराने दिन आंखों के आगे तैरने लगते जो दर्द देने के बावजूद अपने से लगते हैं. सिमरन ने कपड़े बदले और आंटी के साथ कार में बैठ गई. आंटी ने ड्राइवर को निर्देश दिया और कार चल दी. पंद्रह-बीस मिनट बाद ही कार शहर के वृद्धाश्रम 'बसेरा' के आगे रुकी. दोनों उतरकर अंदर गईं.
बड़ी सी ज़मीन पर दो-तीन इमारतें बनी हुई थीं. एक इमारत दफ़्तरनुमा थी. एक ओर बड़ी इमारत में शायद रहने के कमरे बने थे. एक छोटी इमारत और थी. तीनों इमारतों के बीच बड़ा सा बगीचा था. आंटी ने दफ़्तर वाली इमारत में जाकर पहले संचालक से मिलकर उन्हें अपने साथ लाया कुछ सामान दिया, फिर सिमरन को साथ लेकर बगीचे में आ गई. चारों ओर आम, जामुन, अमरूद आदि के फलदार वृक्ष लगे थे और बीच-बीच में रंगबिरंगे गुल और मौसमी फूलों से भरी क्यारियां थीं. क्यारियों के आगे बेंचें लगी हुई थीं जिन पर कई वृद्ध-वृद्धाएं बैठे थे. सिन्हा आंटी कोने में जामुन के पेड़ के नीचे लगी हुई एक बेंच की ओर बढ़ीं. उस पर क़रीब सत्तर बरस की एक बुज़ुर्ग महिला बैठी हुई थी. इन दोनों को देखकर वे तपाक से उठीं और बड़ी आत्मीयता से स्वागत किया.
"सिमरन ये अरुणाजी हैं." सिन्हा आंटी ने परिचय करवाया तो सिमरन ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, प्रत्युत्तर में उन्होंने सिर पर हाथ फेरकर उसे आशीर्वाद दिया.
तीनों बैठ गईं. अरुणाजी और सिन्हा आंटी बातें करने लगीं. सिमरन चारों ओर बैठे लोगों को देखने लगी. अपनों द्वारा त्यागे गए, निर्वासित जीवन जीने को अभिशप्त हताश, निराश, दुखी चेहरे देखकर उसका जी भर गया. फिर अरुणाजी के चेहरे पर ध्यान गया तो उनके चेहरे पर सबसे अलग एक तेज था. एक गहन शांति और तृप्ति थी उनके चेहरे पर. झुर्रियों से भरे उनके चेहरे पर कुछ ऐसी आत्मीयता भरी मुस्कराहट थी कि आंखें बरबस उनकी ओर खिंच रही थीं. थोड़ी देर बाद सिन्हा आंटी किसी और से मिलने चली गईं. सिमरन और अरुणाजी बातें करने लगे. सिमरन को लगा कि अरुणाजी अपने परिवार में से वक़्त निकालकर शायद सेवा भाव से दिन में यहां आ जाया करती होंगी. लेकिन अरुणा जी ने बताया कि उनका इकलौता बेटा इसी शहर में रहता है, मगर वह उन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहता इसलिए वह यहां हैं. सिमरन का मन असीम दुख से भर गया. न चाहते हुए भी उसके मुंह से उनके बेटे के लिए बुरे शब्द निकल गए.
"ऐसा कभी नहीं सोचते. रिश्तों का सुख गले में फंदा डालकर बांधने में नहीं, बल्कि मुक्त कर देने में है. याद सिर्फ़ यही रखना चाहिए कि किसने हमें कितना सुख दिया है, वही बात महत्वपूर्ण है बस." अरुणाजी ने हंसते हुए कहा.

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"लेकिन मां बच्चे को जन्म देती है, उसे बड़ा करती है." सिमरन के मन में अभी भी क्षोभ था."हां, तो बच्चे को गोद में दुलारने, बड़ा करने, मां होने का गौरव और सुख भी तो वहीं प्राप्त करती है ना." अरुणाजी ने एकदम नई बात कही.
"तो क्या बच्चों का कोई फ़र्ज़ नहीं होता? मां-पिता कितनी उम्मीदों से बच्चों को बड़ा करते हैं और बच्चे उन्हें दुखी कर देते है." सिमरन ने अफ़सोस से कहा.
"ये उम्मीद ही तो वास्तव में सब दुखों की जड़ है. हम बिना उम्मीद किए किसी को सिर्फ़ प्रेम ही क्यों नहीं कर सकते, सिर्फ़ निश्चल प्रेम, तब दुखों का कोई कारण ही नहीं रह जाएगा. हम सबमें प्रेम बांटें निःस्वार्थ प्रेम बस." अरुणाजी ने कहा.
"लेकिन साथ की ज़रूरत तो सबको होती है ना." सिमरन ने दुख भरी सांस लेते हुए कहा.
"होती है बेटी, लेकिन एक बात हमेशा याद रखना कि साथ कभी कमाया नहीं जा सकता. रुपए-पैसे, खाना-पीना तो मिल जाता है, लेकिन साथ नहीं." अरुणाजी ने समझाया.
"जब उसे ज़रूरत थी तब आपने उसका साथ दिया, अब आपको भी चाहिए कि…"
"क्या साथ मांगने की शर्त रखी जा सकती है?"
अरुणाजी ने उसकी बात काटते हुए कहा, "जो साथ थे उसकी ख़ुशी मनाओ, देने वाले के सामने शीश झुकाओ.
जो न दे उसे मुस्कुराकर बिदा कर दो, अच्छा किया उसने अधूरे मन से साथ नहीं दिया. और जो जब तक साथ दे, उसका शुक्रिया अदा करो. याद रखना बेटी, जब देना, जिसे देना, पूरे मन से भरपूर साथ देना. लेकिन साथ न देने वाले को या बाद में छोड़ देने वाले को कभी कोसना मत, उलाहना मत देना. मुक्त कर देना उसे सुखी रहने की शुभकामनाएं देकर. फिर देखना, मन का, जीवन का सारा दर्द चला जाएगा. हम भले ही माने नहीं, लेकिन सब रिश्ते हमें कुछ ना कुछ अच्छाई और सुख देते हैं, पर हम एक दर्द से तिलमिलाकर सब सुखों की गिनती भूल जाते हैं. हम बस, अच्छाई और सुख को ही याद रखें जो हमें मिला है. अपनों से बोलकर या बिना बोले ही सबकी उम्मीद लगा लेते हैं. बाद में शिकायतें करते हैं. दुख और निराशा के साये खींचकर रिश्तों के आस-पास की सारी रोशनी बुझा देते हैं."
सिमरन एकटक देखती रह गई. ऐसी भेद की बातें वह आज पहली बार सुन रही थी.
"प्रेम बांटो, संसार में बस, निःस्वार्थ, निश्चल प्रेम बांटो. और हां, जितना प्यार दूसरों को दोगी उतना ही प्यार. अपने आप से भी करो. कभी दूसरे के आचरण की वजह से अपने आप को आहत मार करो. मेरा बेटा आज मेरे साथ नहीं है, मगर जब था तो गर्भ से लेकर चालीस साल तक उसने मुझे संतान का सुख तो दिया ना. उन लोगों की सोचो जिनकी संतान ही नहीं है. उन्हें तो वो सुख प्राप्त नहीं हुआ या जिनके बच्चे असमय ही काल कवलित हो जाते हैं वो क्या कर लेते हैं? अब मैं उस सुख का आनंद क्यों न मनाऊं, प्रत्युत्तर में कुछ चाहना प्यार नहीं होता.
जीवन में हर समय, प्रत्येक परिस्थिति में बस, उस सुख के बारे में सोचो जो किसी की वजह से तुम्हें मिला है या मिल रहा है." अरुणाजी के चेहरे पर एक पवित्र तेज आ गया था. सिमरन मुग्ध दृष्टि से उन्हें और उनकी अनोखी जीवन दृष्टि को देखती रह गई.
तभी सिन्हा आंटी वापस आ गईं. थोड़ी देर और आपस में बातचीत करके सिमरन और वो फिर आने का वादा करके घर वापस आ गए. सिमरन आज बहुत हल्का महसूस कर रही थी. वह समझ गई कि आंटी उसे जान-बूझकर अरुणाजी से मिलवाने ले गई थीं.
"थैंक्स आंटी." सिमरन ने घर पहुंचकर सिन्हा आंटी को धन्यवाद दिया.

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"ख़ुश रहो." सिन्हा आंटी ने उसे गले लगाकर कहा.
सिमरन ने घर के अंदर आकर कपड़े बदले और अपने कमरे में आ गई. टेबल पर साहिल की तस्वीर रखी थी. आज तस्वीर देखकर उसकी आंखें नहीं भीगी, बल्कि चेहरे पर एक शांत-स्निग्ध मुस्कुराहट छा गई. साहिल आज उसका नहीं है तो क्या हुआ, जीवन में बहुत सारे ख़ूबसूरत पल और ख़ुशी दी है उसने. प्यार के पहले कोमल, अनछुए, अनजाने मधुर एहसास से उसी ने परिचय करवाया था पहले पहल. उसका उतना ही साथ लिखा था, जो उसने दे दिया, उतना ही उपकार समझ.
साहिल की तस्वीर को ड्रॉवर के अंदर डालकर सिमरन अपनी फाइलें और डॉक्यूमेंट्स इकट्ठा करने लगी. कल से वह फिर ऑफिस जाना शुरू कर देगी. काम ख़त्म कर उसने आईने में देखा. सामने मांगने या चाहने वाली कमज़ोर सिमरन की बजाय आत्मविश्वास से भरी, निःस्वार्थ प्रेम कर सकने वाली क्षमाशील, ख़ुशी से भरपूर मज़बूत सिमरन खड़ी थी.

- विनीता राहुरीकर

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