किसी नवयुवती की तरह मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठी थीं. अजीब सी ख़ुशी और उत्साह से मैं उसी समय सैर छोडकर उसे फोन करने के लिए घर की तरफ़ चल पड़ी. बहुत सी बातें करनी थीं उससे, कितना कुछ पूछना था, कितना कुछ बताना था.
जानती हूं कुछ ग़लत कर रही हूं. कुछ क्या, बहुत ग़लत. क्यो अजीब-सी बेचैनी में तीन साल से इधर से उधर घूम रही हूं? सुबह उठने से लेकर रात में सोने तक सबसे पहले उसी का ख़्याल एक मीठे एहसास के साथ अपराधबोध से भरता चला जाता है. देखनेवालों को प्रत्यक्षत: मेरे जीवन में सब कुछ अच्छा नज़र आता है, मेरे बहुत ही अच्छे पति निखिल और मेरा युवा बेटा पार्थ. पर कहीं कुछ तो होगा ही न अधूरा सा, बेमानी सा, इश्क़ जैसा कुछ… जो मुझे हो गया है.
मैं जिस सोसायटी में रहती हूं, वहीं वो भी रहता है. नाम नहीं पता मुझे. रात-दिन उसे देखनेभर की चाह में ही तीन साल बीन गए है, ऐसे ही, यूं ही. मैं कोई षोडशी भी नहीं, मेरे पैंतालीस साल के जीवन में ऐसा कभी हुआ भी नहीं कि मैंने कभी कुछ ऐसा किया हो कि मन अपराधबोध से भरा हो. बाईस साल का सुखद वैवाहिक जीवन है मेरा! निखिल से अच्छे पति की कल्पना भी नहीं की कभी, ईश्वर ने बिना मांगे ही सब कुछ दिया है, हमेशा जिसके लिए मैं मन में ईश्वर को धन्यवाद करती रही हूं. फिर अब क्या हो गया? किसकी नज़र लग गई मेरे सुख-चैन को?
एक विवाहित परपुरुष, जो एक पिता भी है और मुझसे शायद आठ-दस साल छोटा भी होगा क्यों मैं उसकी तरफ़ आकर्षित हो गई हूं? क्या करूं? कैसे संभालू दिल को? सुनता ही नहीं है! इसे बस उसे देखने से ही मतलब है और कुछ भी नहीं चाहता यह, ऐसा भी नहीं कि उसे लेकर कुछ अनैतिक सा संबंध सोच लिया हो मैंने. बस, कहीं हल्की सी चाह रहती है उससे बात करने की, उसे जानने की. बस, और कुछ भी नहीं है. और तसल्ली भी बस यही है कि सिर्फ़ मैं ही नहीं, वो भी इस बेचैनी के दौर से गुज़र रहा है.
मैंने देखा है उसे अपने लिए बेचैन, यश के कॉलेज निकलने का समय जानता है वह. यह हर बार इत्तेफ़ाक तो नहीं हो सकता न कि वह उसी समय अपनी बालकनी में आता है, जहां से उसे मेरे घर का काफ़ी हिस्सा दिखाई देता है. और आंखों की तो एक अलग भाषा होती ही है, तभी तो हम दोनों के बीच बिना कुछ कहे-सुने कुछ तीन साल से है. आंखें सब कुछ कह-सुन लेती हैं. आंखों में एक अजीब सी शक्ति होती है दिल की हर बात बयां करने की, जिसे वही समझता है, जिसको आंखें समझाना चाहती हैं. ईश्वरप्रदत्त वरदान हैं आंखें. आज सोचने बैठी हूं, तो महसूस हो रहा है. इन आंखों के कहने-सुनने के कारण ही तो हम एक-दूसरे से बंधे हैं, वरना दिनभर देखते तो कइयों को हैं, पर किसी को बिना जाने सबके लिए थोड़े ही तीन साल से बेचैन घूमा जा सकता है.
मैं सुबह-शाम सैर पर जाती हूं, तो कई बार सोचती हूं कि क्या वह मुझसे बात नहीं करना चाहता? क्यों नहीं आ जाता कभी गार्डन में? सालों से मैं यही सोच रही हूं, सुबह तो खैर उसकी कामकाजी पत्नी घर में होती होगी, जो मुझे अच्छी लगती है. सुंदर है, स्मार्ट है. पर कितनी ही शामें मैंने उसका मन ही मन गार्डन में इंतज़ार किया है. कितना मुश्किल है एक विवाहिता स्त्री के लिए, किसी परपुरुष के लिए अपनी कोमल भावनाएं छुपाना, क्या करूं? यह ग़लत है, पर दिल पर ज़ोर नहीं रहा मेरा, नादान अपनी राह पर ही चलता जा रहा है.
ऐसे ही कितने दिन बीत रहे थे. एक शाम मैं गार्डन में सैर कर रही थी. अचानक मुझे लगा कि क्या अब उसके लिए मेरी दीवानगी इतनी बढ़ गई है कि वह मुझे सामने से आता भी दिखाई देगा. अपनी आंखों पर मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ, जब वह मेरी तरफ़ आया. गार्डन में काफ़ी लोग थे, उनकी परवाह करते हुए उसने धीरे से कहा, "इतने दिन हो गए, आपसे बात करना ही नहीं होता. यह मेरा कार्ड है. मुझे फोन करना और हां, क्या नाम है आपका?"
मैं जैसे किसी जादुई अवस्था में बोली, "कावेरी… और आपका?"
"विनय, ओके, फोन करना," कहकर वह चला गया. मैंने पहली बार उसे इतने पास से देखा था. वह भी मुझे बहुत ध्यान से देखता रहा था. मैंने उसके कार्ड को बेचैनी से पढ़ा, विनय गुप्ता! किसी कंपनी में सी.ए. है. किसी नवयुवती की तरह मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठी थीं. अजीब सी ख़ुशी और उत्साह से मैं उसी समय सैर छोडकर उसे फोन करने के लिए घर की तरफ़ चल पड़ी. बहुत सी बातें करनी थीं उससे, कितना कुछ पूछना था, कितना कुछ बताना था.
निखिल और यश के आने में काफ़ी समय था. मैंने घर पहुंचकर अपने स्पोर्ट्स शूज़ भी नहीं उतारे, बस, हाथ धोकर उसका कार्ड देखते हुए लैंडलाइन से फोन मिला दिया. नेटवर्क नहीं था, मोबाइल से टाइम ख़राब होता और मैं तो अति उत्साहित थी ही. पहली ही घंटी में उसने फोन उठा लिया, तो मुझे बहुत अच्छा लगा. लगा उसने मुझे घर आते हुए देखा होगा, मेरे फोन का इंतज़ार होगा उसे.
"मैं कावेरी." मेरे कहते ही वह बोला, "हां कावेरी, हाऊ आर यू?" उसके मुंह से मुझे अपना नाम पहली बार इतना ख़ूबसूरत लगा! लगा, वह कई बार कावेरी… कावेरी कहे, मैं शुरू हो गई, "विनय, आपको पता है मैं कब से आपका गार्डन में इंतज़ार कर रही हूं, रोज़ सोचती थी आप क्यों नहीं आ जाते किसी दिन? वहां बात करना कितना आसान था, आपने इतने दिन क्यों लगा दिए?"
विनय हंसा, उसकी हंसी जैसे मुझे एक शीतल बौछार में भिगो गई. बोला, "बस, अब आना ज़रूरी लगा. मुझे आपसे एक ज़रूरी बात करनी थी, इसलिए फोन नंबर दिया आज."
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मैं बहुत ख़ुश थी, "हां, कहिए."
"बात यह है कि मुझे ऐसा लगता है कि यह जो कुछ भी हमारे बीच है, वह ठीक नहीं है. जब हम एक-दूसरे के रूटीन के हिसाब से बाहर आकर एक-दूसरे को देखते हैं, उस समय आपके नीचेवाले फ्लैट में कोई हमें देखता है. आप तो नीचे नहीं देख पाएंगी न, मैंने नोट किया है. मैं अपनी लाइफ में कोई भी अनावश्यक टेंशन नहीं चाहता, अच्छा-भला सुखी परिवार है मेरा. आप भी अपने पर कंट्रोल रखिए अब, बस, यही कहना था मुझे आपसे. अब रखता हूं, कुछ ज़रूरी काम है." कहकर वह फोन रख चुका था.
अपमान और दुख से मेरी आंखों से आंसू बह चले. आज इतने सालों बाद दिल को जो सुकून मिला, वह इतना क्षणिक था. मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ था. मैंने उसे फिर फोन मिलाया, उसने नहीं उठाया. अपना आत्मसम्मान भूलकर मैंने फिर उसे फोन मिलाया, उसने नहीं उठाया, मैं रोती हुई फोन घूरती रही. यह क्या हो गया, यह क्या किया विनय ने! मैं कौन सा उससे कुछ मांग रही थी, कोई सीमा पार करने के लिए कह रही थी. उसे देखना था, उससे बातें करनी थीं, बस, यही था न? और क्या चाहिए था मुझे?
निखिल और पार्थ लौटे, तो मेरी हालत देखकर घबरा गए. सूजी आंखें, पसीना-पसीना शरीर, उड़ी रंगत! निखिल ने तो मुझे बेड से उठने ही नहीं दिया. मुझे भी समझ नहीं आया क्या करूं… निखिल और पार्थ के चिंतित चेहरे देखकर दुख हुआ.
"तेज सिरदर्द है." कहकर चुप पड़ी रही. थोड़ी देर बाद उठकर निखिल और पार्थ के मना करने पर भी डिनर तैयार किया, ख़ुद खाया ही नहीं गया, मुझे अपनी हालत पर बहुत ग़ुस्सा भी आ रहा था. मैं कोई युवा लड़की तो नहीं थी कि ब्रेकअप हो गया था या दिल टूट गया हो. पर हां, दिल तो टूटा था ना!
अगले दो-तीन दिन यह स्पष्ट हो गया कि विनय ने अपना रास्ता बदल लिया था, उसने मेरी तरफ़ आंख भी नहीं उठाई, उसकी तरफ़ से अब कुछ नहीं था. अपने दिल को संभालना मेरे लिए मुश्किल काम था, पर संभालना तो था ही न… मैं डिप्रेशन का शिकार हो रही थी… या तो हमेशा रोती रहती या चुपचाप पड़ी रहती. निखिल मुझे डॉक्टर के पास ले गए. स्ट्रेस और हाई बी.पी. देखकर उन्होंने मुझे दवाइयां दीं. मेरे अजीब… अधूरे… बेमानी से इश्क़ का यह अंजाम होगा, यह तो मैंने सोचा ही नहीं था. एक महीना हो रहा था, उसके बाद विनय ने आमना-सामना होने पर भी मेरी तरफ़ आंख तक उठाकर नहीं देखा था.
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एक दिन अचानक अवसाद के इन बादलों में से मेरे मन में एक ख़्याल की चमक उभरी. मैं उसे अपने दिल में क्यों भला-बुरा कह रही हूं, वह तो एक शरीफ़ आदमी है. कितना अच्छा पति और पिता है. कोई और पुरुष होता, तो अपनी तरफ़ एक परस्त्री का झुकाव देखकर आगे बढ़ने के लिए तैयार रहता. मैं तो अंधी थी ही उसके लिए, वह चाहता, तो कितनी आसानी से मुझे अपने और क़रीब कर सकता था. पर एक पड़ोसी की मेरी तरफ़ उठती नज़र से भी उसने मुझे बदनाम होने से बचा लिया. निखिल और पार्थ को अगर पता चल जाता तो… मुझे इससे आगे सोचकर ही झुरझुरी आ गई. एक परपुरुष ने मेरे बहके कदमों को संभाला है. मुझे तो उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए और कौन कहता है कि हर पुरुष स्वभाव से कामुक, अय्याश और मौक़ापरस्त होता है. यह शराफ़त हम स्त्रियों की बपौती थोड़े ही है, पुरुष भी होते हैं अपनी पत्नी के प्रति निष्ठावान, अच्छे इंसान, परिवार की मर्यादा को निभानेवाले. किसी एक पुरुष के चरित्रहीन होने पर सारी पुरुष जाति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. एक पुरुष की शराफ़त का उदाहरण मेरे सामने था, मेरा पागलपन, मेरे बहके कदम गवाह थे.
- पूनम अहमद
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