विरह के बाद का प्रेम और तीव्र होता है. आज यह कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं कि वे दस दिन मेरे जीवन के अत्यधिक सुंदर दिन थे. प्रेम वह शब्द है, जिसकी व्याख्या असंभव है, पर इसमें जीवन छुपा है. जीने की चाह छुपी है.
कहीं पढ़ा था मैंने कि जिस क्षण एक शिशु पैदा होता है, उसी क्षण मां का भी जन्म होता है. उसका अस्तित्व पहले से कभी विद्यमान नहीं होता. एक औरत अवश्य होती है, लेकिन एक मां, कभी नहीं. एक मां कुछ ऐसी है, जो पूर्णतया नई है. यह शब्द मेरे नहीं हैं, किंतु सत्य हैं.
स्वयं को एक नूतन संरचना प्रदानकर मैं, एक कन्या से पहले पत्नी और फिर मां बनी. इस जीवन में अनगिनत भूमिकाओं को निभाते हुए मैंने अपने हर कर्त्तव्य का पालन पूरी ईमानदारी से किया. मैं शिशु से बालिका बनी, फिर किशोरी, फिर युवती, फिर औरत और फिर मां. इस जीवन के हर वसंत और हर पतझड़ को मैंने भी वैसे ही जीया है, जैसे कि तुम जी रहे हो और आगे भी जिओगे. फिर मेरी इच्छाएं और ज़रूरतें तुमसे भिन्न कैसे हो सकती हैं? मैं भी हाड़-मांस से कृत एक इंसान हूं, ठीक तुम्हारे समान. मुझे पारलौकिक अथवा देवी परिभाषित कर दंडित क्यों कर रहे हो?
तुम्हें याद है कक्षा नौ में तुम में चिड़चिड़ापन आ गया था. दिनभर कमरे में गुमसुम बैठे रहते थे. तुम्हारी नानी, जिसे पढ़ाई का तनाव समझ रही थीं, मैं जानती थी कि वह पहले प्रेम की आहट थी. उस प्रथम पीड़ा को हमने साथ ही झेला था और शीघ्र ही तुम उस दौर से निकल आए थे.
किंतु जब मैं इस उम्र में थी, मेरे पास न प्रेम को समझ पाने की परिपक्वता थी और न दिल टूट पाने के बाद का संबल. उन दिनों हम ऐसी बातें न अपने
माता-पिता से कहने की हिम्मत कर पाते थे और न वे समझने की. इसलिए जब कक्षा आठ में ज्ञान हमारी स्कूल में पढ़ने आया, तो प्रारंभ में अपने भीतर के उन्माद को मैं समझ ही नहीं पाई थी.
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कक्षा आठ से बारहवीं तक हम साथ ही पढ़े, किंतु मात्र मुस्कुराहटों के हमारे मध्य कोई संवाद नहीं हुआ. फेयरवेल पार्टी में भी हम, मात्र फिर मिलेंगे के अतिरिक्त एक-दूसरे से कुछ कह नहीं पाए थे. परंतु हां, जब उसके शहर से बाहर चले जाने की ख़बर मुझे मिली थी, तो कई महीनों तक मेरे आंसू नहीं थमे थे. उसके बाद समय के साथ ज़िंदगी आगे बढ़ गई और मैंने एक विद्यार्थी की भूमिका का अच्छा निर्वाहन करते हुए एक बैंक में नौकरी प्राप्त कर ली थी.
प्रेम फिर दुबारा मेरे जीवन में नहीं आया. संभवतः तुम यह जानकर दुखी होगे, किंतु सत्य यही है. तुम्हारे पिता से विवाह एक समझौता था और संपूर्ण जीवन मैंने उस समझौते को ही निभाया था. ऐसा नहीं है कि प्रेम दुबारा नहीं हो सकता, किंतु यह भी तय है कि प्रेम किया नहीं जा सकता.
मेरे माता-पिता ने जतिनजी का चुनाव मेरे लिए किया था. एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिए पुत्री का विवाह किसी युद्ध जीतने जैसा ही है और जब पुत्रियों की संख्या चार हो, तो बिना शर्त विवाह के लिए तैयार हो जानेवाला पुरुष देवतातुल्य हो जाता है. मेरी नौकरी और मेरी योग्यता का मूल्य मात्र यह था कि जतिनजी और उनका परिवार इस अतिरिक्त आय के घर आने से प्रसन्न थे. जिस रिश्ते की जड़ में ही स्वार्थ की खाद हो, वहां प्रेम का अंकुर कैसे पनप सकता था?
किंतु मेरी इस कृत्रिम बगिया में भी फूल खिला, जब तुमने जन्म लिया था. जब मैं अपनी नौकरी और तुम में व्यस्त थी, तभी जतिनजी के फेफड़ों में उस घातक रोग का प्रवेश हुआ. फिर आरंभ हुआ था मेरा वास्तविक संघर्ष. घर, ऑफिस और हॉस्पिटल के मध्य सामंजस्य स्थापित करने में मैं पराजित तो नहीं हुई थी, किंतु एक अंतहीन पीड़ा का अनुभव अवश्य कर रही थी. इस पीड़ा चक्रव्यूह में मुझे सहारा देने, वह पुनः मेरे जीवन में आ गया था. नियति का खेल ही था कि ज्ञान ही वह कैंसर स्पेशलिस्ट था, जिसका मुझे एक महीने से इंतज़ार था.
समय और परिस्थिति हमें निकट लाती चली गई. जतिनजी की बीमारी का कारण उनके परिवारवाले मुझे मानकर लगातार प्रताड़ित करते थे. पति की बीमारी, उनके परिवारवालों के आक्षेप, नन्हे से तुम और ऑफिस की ज़िम्मेदारियां... यह सभी निभाते हुए मैं कई बार टूटी थी, किंतु ज्ञान मेरा अवलंब बन मुझे पुनः जोड़ देता था.
न उसने कभी कुछ कहा और न मैंने कुछ पूछा, हमारी भावनाओं को शब्दों की आवश्यकता ही नहीं थी. जतिनजी की मृत्यु के बाद घटनाक्रम शीघ्रता से बदलता चला गया था. उनके परिवारवालों के व्यवहार से तो मैं अवगत थी ही, अब उनका एक पैशाचिक रूप भी मेरे सम्मुख आ गया था. जतिनजी द्वारा बनाए गए मकान को हथियाने के लिए उन्होंने छल और बल दोनों का उपयोग किया. उस समय यदि ज्ञान और मेरी नौकरी का संबल नहीं होता, तो संभवतः मैं वह युद्ध हार ही जाती.
इस दौरान मैं और ज्ञान अधिक क़रीब आ गए थे. वह हमारे रिश्ते को नाम देने के लिए व्यग्र था. एक युद्ध जतिन के परिवार के साथ कोर्ट में चल रहा था और एक युद्ध मेरे भीतर.
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अंततः मैं केस जीत गई थी. केस जीतने की ख़ुशी में उसने मुझसे एक पार्टी का आग्रह किया था. मैं जानती थी, दूसरे केस की सुनवाई का समय आ गया था. हम दोनों होटल मानसिंह के डाइनिंग एरिया में आमने-सामने बैठे थे और ज्ञान के वे शब्द मेरे कानों में संगीत की स्वर लहरियों की तरह पड़े थे.
“थाम लो ये हाथ मेरा कि अब विरह की इस पीड़ा को आराम मिले... भटकते हुए इस बादल को उसका मुट्ठीभर आसमान मिले...”
उस समय तो मैं मात्र मुस्कुराहट ही भेंट स्वरूप दे पाई थी, किंतु घर लौटकर मैंने अपना फैसला ज्ञान को सुना दिया था.
जब मैं घर पहुंची थी, तुम सो चुके थे. तुम्हारा ख़्याल रखने के लिए जिस आया को मैंने रखा था, उसने बताया था कि तुम सोने से पहले बार-बार मुझे पुकार रहे थे. आज पहली बार तुम बिना मेरी लोरी के सोए थे. तुम्हारे पास लेटकर जब मैं तुम्हारे बालों को सहला रही थी, तो तुम्हारे गालों पर आंसुओं की एक रेखा ठहरी हुई मिली. आत्मग्लानि से मेरा मन रो उठा था. ज्ञान के कुछ पल के सानिध्य ने मुझे मेरे बच्चे के प्रति बेपरवाह कर दिया था, तो उसके मेरे जीवन में आ जाने पर कहीं मैं अपने बच्चे को पूरी तरह से उपेक्षित न कर दूं. मैं जानती थी कि ऐसा सोचना अतिशयोक्ति थी, किंतु मैंने चुनाव कर लिया था. एक मां ने एक प्रेमिका को पराजित कर दिया था. मेरी इच्छा का सम्मान करते हुए एक बार पुनः वह मेरे जीवन से चला गया था.
समय दौड़ता रहा और तुम प्रगति के पथ पर बढ़ते गए. इतना आगे बढ़ गए कि मां कहीं पीछे छूट गई. साल में एक बार जर्मनी से आते हो और पूरे महीने इस देश की बुराइयां मुझे गिनाते रहते हो. 25 वर्ष की छोटी-सी आयु में जो सफलता तुमने हासिल की है, सभी उसकी मिसालें देते हैं. प्रसन्न मैं भी हूं और अकेली भी हूं.
तुम्हारे एक फोन के लिए घंटों इंतज़ार करती हूं. तुम्हें याद है, तुम पहले कितनी बातें किया करते थे. जब तक सारी बात मुझे बता न दो, तुम्हें नींद नहीं आती थी. मैं तुम्हारी सबसे अच्छी दोस्त थी, किंतु अब तुम्हारे पास मुझसे शेयर करने लायक कुछ भी नहीं था. मैं अपने दोस्त को मिस करती थी. तुम्हें याद तो होगा कि एक शाम मैंने तुम्हें फोन किया था. असमय फोन करने के लिए तुम नाराज़ भी हुए थे. मैंने तुम्हें अपने प्रमोशन के बारे में बताने के लिए फोन किया था, किंतु तुम अपने दोस्तों के साथ इतने बिज़ी थे कि अपनी मां को ठीक से बधाई भी नहीं दे पाए और जब अगले दिन मैंने शिकायत की, तो तुम कैसे भड़क गए थे, “मां! आप यह बार-बार फोन की बात मत किया करो. कितनी बात करूं आपसे? आप जॉब से छुट्टी लेकर बाहर क्यों नहीं जातीं. बाहर जाओ, दुनिया घूमो. कितना कुछ है देखने और करने को. अब आप वे सभी ख़्वाहिशें पूरी कर सकती हैं, जो कभी अधूरी रह गई थीं और प्लीज़ उम्र की बात न करें. 48 वर्ष की आयु में अपनेआप को आप बूढ़ी कह रही हैं, यहां 90 वर्ष के बुज़ुर्ग दुनिया घूम रहे हैं.”
तुम्हारी इस बात से प्रेरित होकर मैंने तुम्हारे पास जर्मनी आने की इच्छा ज़ाहिर की, तो कितनी निर्ममता से तुमने मना कर दिया था.
“आप इतनी दूर अकेली ट्रैवल नहीं कर पाओगी. मै अंडमान के हेवलॉक आइलैंड की बुकिंग करा देता हूं. समंदर के पास के रिसॉर्ट की बुकिंग करा रहा हूं. चाहो तो रात में भी वहां बैठ पाओगी. आपको तो वैसे भी समंदर के पास बैठना बहुत पसंद है.”
जो मां अकेली इस संसार में तुम्हारी ढाल बनकर रही, तुम उस मां को एक सफ़र का डर दिखा रहे थे, किंतु मैं चली गई थी. सागर के प्रति मेरा लगाव तुम्हें याद था और मेरे लिए यह बहुत था. तब कहां जानती थी कि चतुर नियति मुझे पुनः छलने को तैयार बैठी है.
सागर के किनारे स्थित वह रिसॉर्ट वाकई में सुंदर और सुरक्षित था. रात के खाने के बाद सागर के पास पड़ी हुई कुर्सियों में से एक पर बैठकर मैं लहरों के शोर का आनंद लेने लगी थी. तभी ऐसा लगा, जैसे एक आकृति मेरे निकट आकर सहसा थम गई हो. रात की नीरवता में सागर के शोर के मध्य एक अनजान के सानिध्य से मैं घबरा गई थी, किंतु उस स्वर की कोमलता ने मुझे बांध लिया था. उस कंठ को न पहचान पाऊं, मैं इतनी मूर्ख नहीं थी. वह ज्ञान ही था.
मध्यरात्रि तक हमारी ख़ामोशियां संवाद करती रहीं. मैं चलने को हुई, तो उसने इशारे से रुकने को कहा और बोला, “दिल की आख़िरी गली में तुम्हारे आने, फिर लौट जाने के क्रम में, तुम्हारे कदमों के जो निशान बने थे, वो आज भी, साफ़, सुंदर और सुरक्षित हैं.”
विरह के बाद का प्रेम और तीव्र होता है. आज यह कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं कि वे दस दिन मेरे जीवन के अत्यधिक सुंदर दिन थे. प्रेम वह शब्द है, जिसकी व्याख्या असंभव है, पर इसमें जीवन छुपा है. जीने की चाह छुपी है. कभी डर, तो कभी निडरता है. कभी समर्पण, तो कभी अलगाव है. इस आयु में पुनः प्रेम और उस प्रेम के लिए समाज से लड़ पाने की कल्पना भी हास्यास्पद लगती है, किंतु यदि साथी ज्ञान जैसा हो, तो उसके समर्पण के सम्मुख हर बाधा नतमस्तक हो जाती है.
मैं इस बार उसकी दस्तक पर द्वार खोलकर उस स्नेह का संपूर्ण सम्मान और प्रेम से स्वागत करना चाहती थी. मुझे लगा था कि मेरा सखा, मेरा बेटा अपनी मां को समझेगा, किंतु तुमने न केवल अपनी मां की भावनाओं का अपमान किया, बल्कि उसके त्याग और परवरिश पर भी प्रश्न उठाया.
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अधृत! क्या तुम्हें पता है, मैंने तुम्हारा नाम अधृत क्यों रखा? अधृत अर्थात् वह जिसे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है, किंतु जो दूसरों की सहायता के लिए सदा उपस्थित होता है. भगवान विष्णु के सहस्रों नामों में से मैंने तुम्हारे लिए यह नाम इसलिए चुना, क्योंकि मैं चाहती थी तुम में इन गुणों का समावेश हो.
किंतु कल जब फोन पर मैंने अपना निर्णय तुम्हें बताया, तो तुम्हारे शब्दों में मिश्रित नफ़रत और असहयोग सुनकर मुझे भान हुआ कि मैं संभवतः वास्तविकता में तुम्हारे अंदर किसी भी तरह की भावना प्रवाहित करने में हार गई थी.
अधू! मेरे बच्चे... एक मां के रूप में मैं सदा तुमसे प्रेम करती रहूंगी, किंतु गर्व! गर्व तब करूंगी, जब तुम अपने नाम की सार्थकता को न केवल समझ लोगे, वरन उसे अंगीकार कर लोगे. मैंने तुम्हें एक भ्रूण से शिशु, फिर बालक, बालक से किशोर और किशोर से पुरुष बनते देखा है. आज आशा करती हूं कि शीघ्र ही तुम्हें वह पुरुष बनते हुए देखूं, जो स्वार्थ का चश्मा उतारकर परमार्थ और प्रेम को देख पाए.
मैं निर्णय ले चुकी हूं! इस जीवन में संभवतः पहली बार स्वयं के लिए आगे बढ़ी हूं. यदि मेरा सखा साथ होगा, तो मेरी ख़ुशी बढ़ जाएगी. अगर ऐसा कर पाओ, तो जल्द मिलेंगे, तुम्हारी मां के विवाह में.
पल्लवी पुंडीर