उसने कभी महसूस ही नहीं किया था कि उसके सीने में कुछ धड़कता है. जिसे दुनिया दिल कहती है. वह किसी के लिए धड़कना चाहता है, उसमें भी कोमल भावनाएं पलती हैं.
जाने क्यों उसने एक भ्रम-सा पाल लिया था, अभी थोड़ी देर बाद वह मासूम चेहरे वाला दौड़ता हुआ आएगा, 'हैलो' कहता हुआ दूर चला जाएगा
माघ-पूस की सर्दी शरीर में सिहरन भरती चली जाती. लोग बिस्तर में दुबके सवेरे देर तक उठने का नाम न लेते.
किन्तु वह न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी, जो इस जाड़े में सुबह-सुबह ऐसी सुनसान जगह में चली आती. घंटों खानाबदोशों की तरह भटकती बेचैन आंखें जाने किसे ढूंढ़ती रहती.
जाने क्यों उसने एक भ्रम सा पाल लिया था, अभी थोड़ी देर बाद वह मासूम चेहरे वाला दौड़ता हुआ आएगा, "हेलो" कहता हुआ दूर चला जाएगा.
किंतु यह उसका भ्रम था. काफ़ी देर इंतज़ार करने के बावजूद कोई नहीं आया. दिल बेचैनी से भर गया.आंखों में नमी तैरती चली गई. दो महीने पहले हुई उस लड़के से मुलाक़ात याद हो आई.
उस दिन वह सुबह जल्दी जाग गई थी.
किताब लिए छत पर आ खड़ी हुई. सर्द हवा के थपेड़े जैसे सुइयां चुभा रहे थे. दूर क्षिप्रा नदी की मधुर कल-कल सुबह के शांत वातावरण में रागिनी भर रही थी. सारी उज्जैन नगरी कोहरे में नहायी सोयी पड़ी थी.
शॉल ओढकर यूं ही टहलने निकली. टहलते टहलते दूर निकल गई. ढलान की दूब पर बिखरी थीं ओस की जगमगाती बूंदें, मानो पृथ्वी ने स्वयंवर सा रचा हो. सब कुछ उसे प्रफुल्लित करता चला गया.
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वह प्रकृति के सौंदर्य में खोई थी कि उसके कानों के समीप किसी ने "हेलो" कहा, उसने पलटकर देखा, एक अजनबी चेहरा दौड़ता हुआ दूर चला जा रहा था. एक बार उसने फिर पलटकर मुस्कुराकर देखा, फिर दौडता हुआ धुन्ध में ओझल हो गया.
वह असमंजस में पड़ी अपलक उसे जाता देखती रही, फिर सोचा, शायद कोई परिचित हो.
दूसरे दिन मन में जिज्ञासा लिए वह फिर चली आई, थोड़ी देर बाद वह अजनबी दौड़ता हुआ आया और "हैलो" कहता चला गया.
"सुनिए."
अजनबी दौड़ता हुआ ठिठक गया.
"आप परिचित तो नहीं जान पड़ते, फिर कौन हैं आप?"
"मेरा नाम आवेश है. आप ही के शहर में इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता हूं." अजनबी ने मुस्कुराते हुए कहा.
"अगर आपको ऐतराज़ न हो तो मैं आपसे दोस्ती
करना चाहता हूं."
"मुझे लड़कों से दोस्ती करने में कोई दिलचस्पी नहीं." उसने सीधा कटाक्ष किया, फिर अपनी राह ले ली.
घर आकर उसे लगा जैसे उसने सही आदमी के साथ ग़लत व्यवहार कर दिया हो. दूसरे दिन जब सुबह वह मिला तो बोली, "बात अगर सिर्फ़ दोस्ती की है तो मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है."
इस तरह अब रोज़ दोनों की मुलाक़ात होने लगी. उसने दोस्ती को दोस्ती तक ही सीमित रखा, कभी बेवजह बात नहीं की. लेकिन कभी-कभी आवेश नाम के उस लड़के की आंखों में अपने लिए प्यार देखकर डर जाती. फिर एक दिन वही हुआ, जिससे वह डरती थी, "वरुणाजी, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं." उसने डरते-डरते कहा, "मैं आपसे बहुत..."
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उसके इस टूटे-फूटे वाक्य का अर्थ वह समझ चुकी थी. आंखें तरेरते हुए बोली, "आ गए न अपनी औकात पर, हाथ में उंगली दी तो दामन थामने लगे. मैं उन लड़कियों में से नहीं, जिनके आशिक़ होने ज़रूरी हैं."
"माफ़ करना वरुणाजी, मैं आपकी दोस्ती को प्यार समझ बैठा, अब आपसे कभी मिलने की कोशिश नहीं करूंगा."
इतना कहकर वह आंखों में नमी लिए बोझिल कदमों से चला गया, वह उसे जाते हुए देखती रही.
ऐसा कतई न था कि वह घमंडी थी. वह तो किताबों की दुनिया में खोई रहने वाली सीधी-सादी सिद्धांतवादी लड़की थी. हर वक़्त आंखों में मोटा सा चश्मा लगा रहता. उसने कभी महसूस ही नहीं किया था कि उसके सीने में भी दिल है, वह किसी के लिए धड़कना चाहता है, उसमें भी कोमल भावनाएं पलती हैं.
समय धीरे-धीरे गुज़रता गया. जब कभी एकांत में बैठती तो वह मासूम चेहरा याद आने लगता. दिल में टीस सी उठने लगती. दिल तड़प उठता. आंखें उसे ही ढूंढ़ा करतीं. आती-जाती सांसें उसे ही पुकारा करतीं. प्रेम का बीज अंकुरित होकर विशाल वृक्ष बन चुका था. इंसान भी कितना मूर्ख है, जब वस्तु सामने होती है, तो वह उसकी कद्र नहीं करता, किंतु जब वही वस्तु उससे छिन जाती है तो वह यादें बटोरता रह जाता है.
वह भी मन ही मन जैसे पुकारती रही, किंतु उस दिन के बाद यह कभी नज़र नहीं आया. वह चला गया, लेकिन छोड़ गया सीने में एक रिक्तता, खालीपन और मीलों फैली तन्हाइयां.
आज भी वह आवेश के ख़्यालों में खोई थी कि सुबह की सुनहरी धूप में किसी की लम्बी परछाई उसे स्पर्श करती चली गई. आहिस्ता-आहिस्ता उसने सिर उठाकर देखा तो अपने पर विश्वास न हुआ. दिल के सभी तार एक साथ बज उठे, होंठों पर मुस्कान तैरती चली गई, सामने आवेश खड़ा था. वही आवेश जो उसके प्राणों में बस चुका था, जिसे उसने ख़्वाबों में मुस्कुराते, अपने से बातें करते हुए देखा था, जो उसकी ज़िंदगी बन चुका था.
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उसके जी में आया वह आवेश से लिपट कर फूट-फूट रो कर कहे, "मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं. रोज़ तुम्हारा इंतज़ार करती हूं. तुम्हारी बांट जोहती हूं, तुम क्यों नहीं आते..." किंतु वह चाहकर भी मन का गुबार न निकाल सकी.
"वरुणाजी, मैंने बहुत चाहा कि आपको भूल जाऊं, किन्तु भुला न सका. आज मैं यह शहर छोड़कर जा रहा हूं. जाने के पहले सोचा आपसे मिलता चलूं. जाने क्यों मुझे विश्वास था, आप यहीं मिलेंगी. मैंने अंजाने में कहीं आपका दिल दुखाया हो तो मुझे माफ़ करना." कहते कहते उसका गला भर आया, आंखों में नमी तैरती चली गई. वह तेज-तेज क़दमों से दूर होता चला गया. वह अपलक उसे जाता देखती रही. सहसा उसे लगा जैसे उसका सीना चीरकर कोई दिल निकालकर ले जा रहा हो. दिल में टीस सी उठी. प्रेम पीड़ा से आंखें छलछला आईं. उसके प्राण पुकार उठे, "आवेश..." उसका रोम-रोम चीख उठा और वह दौड़कर आवेश से जा लिपटी.
- भावेश राय
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