हर बार आफ़ताब की पचास फ़ीसदी बातें पब्लिसिटी के इर्द-गिर्द घूमती हैं और पचास फ़ीसदी वो, जो घूम-फिरकर उसी मुकाम पर पहुंच जाती हैं. आफ़ताब क्या सचमुच उससे उतना ही प्यार करता है जितना वह करती है. बीस सालों के बाद भी शक की प्रेत छाया उसका पीछा नहीं छोड़ती. वह अधमरी सी हो गई सोच सोचकर.
चार पहर ख़ुद पर पहरा बिठाना उसके लिए दूभर हो गया. उसका दम घुटने लगा, पर उसने फोन नहीं किया आफ़ताब अली को. यह सोचकर कि शायद सैलाब सी भावुकता अच्छी नहीं. हीरे-मोती या रत्न रखने की मंजूषा भी तो सुन्दर होती है, माना कि वह आफ़ताब को प्राणों से अधिक प्यार करती है, पर इतनी भी क्या प्रतीक्षा कि कलेजा मुंह को आ जाए. बड़ी यातना में गुज़ारे ये पल. रिंग हुई- उसने फोन को ऐसे देखा, जैसे ख़ुद आफ़ताब ही हो. मन के मृतप्राय पेड़ की टहनियां हरी हो गई. भीषण सूखे के बाद रसहीन वनस्पति में कंपन्न हुआ. आफ़ताब के बोल मन प्राण भिगो गए, "प्राची, समीर से कह देना कि वह इंटरव्यू वाले दिन हर अख़बार में ख़बर और फोटो पहुंचा दे. और हां, हो सके तो टेप कर लेना शायद तुम्हारा टेपरिकॉर्डर ख़राब है. पुलकित से कह देना..." प्राची का मन किया कि पूछे, "क्या यही सब कहने को फोन किया था, पर सोचा जाने दो, पूरे दो माह की विदेश यात्रा पर जा रहा है. वह तो आवाज़ तक को तरस जाएगी, इसलिए बात जारी रखी, मन भर आया. फूस के छाजन की तरह आंखें बहती रहीं.
हर बार आफ़ताब की पचास फ़ीसदी बातें पब्लिसिटी के इर्द-गिर्द घूमती हैं और पचास फ़ीसदी वो, जो घूम-फिरकर उसी मुकाम पर पहुंच जाती हैं. आफ़ताब क्या सचमुच उससे उतना ही प्यार करता है जितना वह करती है. बीस सालों के बाद भी शक की प्रेत छाया उसका पीछा नहीं छोड़ती. वह अधमरी सी हो गई सोच सोचकर.
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शाम ने अंधेरों से दोस्ती कर ली. नीड़ों तक लौटते, चहकते पंछी आसमान की उदासी भूल घोंसलों में छिप गए. लेकिन क्या पंख समेटकर आंखें बंद करने से आसमान की बेरुखी से निजात मिल जाएगी? काश! ऐसा ही पाता, हवाओं ने भी अंधेरों का वज़न देख मैत्री के लिए हाथ बढ़ा दिया.
सांझ के धुंधलके में दुबारा फोन की घंटी, कोयल की मात कर गई. उसकी सिन्दूरी आवाज़ पर प्राची का मन झूम गया. वह ख़ुद ही पूछती ख़ुद ही जवाब देती. लैला-मजनूं दोनों ख़ुद ही हो गई. सचमुच, आफ़ताब उसे वाकई प्यार करता है. भले ही इंटरव्यू वाले दिन उसका सलूक पत्थर से भी ज़्यादा सख़्त और धूल जैसी बेरुखी से भर गया था.
शायद एक हफ़्ते पहले उसका सौ साल का बूढ़ा बाप मर गया था इसलिए. पर नहीं, वह जन संपर्क के सारे काम तो उतनी ही मुस्तैदी से कर रहा था. फिर क्या सारा ग़म उसी के हिस्से में आया है? नहीं, हां करते हुए वह अपने ख़्यालों को अपने ही समर्थन से सहलाने लगी. प्यार न होता, तो क्या दुबारा फोन करता? पर आफ़ताब ने कहा भी तो क्या, "प्राची, तुम बात-बात में रोया मत करो. इतना नहीं सोचना. हां, वो देखना तो ज़रा, हमारी विदेश यात्रा का फोटो अख़बार में आया या नहीं. कल आ जाना स्टेशन पर. मुझे और मेरी बीवी को फूल दे देना. सभी आने वाले हैं." कहकर उसने फोन रख दिया.
प्राची मन के अंदर-ही-अंदर सुखों की नमी से भीग गई. धरती की सारी तहें नम हो गई. उसे भरोसा हो गया कि बीवी का बहाना सही, पर बिदाई की बेला में वह उसे देखना चाहता है. फूलों का भी ती बहाना है. थोडा-या लरज गया था आफ़ताब. कैसे बोल रहा था- आ जाना फूल देने. वह मन- ही-मन यह वाक्य दोहराती रही. सहलाती, बहलाती, समझाती, तृप्त करती रही. पर हवा के झोंके की तरह शक छू-छूकर जाता रहा उसे. लाख तर्क भिड़ाए पर खटका बना रहा.
ऐसे वक़्त में अपनी ही हमदर्दी से पिघल गई वह. नाशुक्रे, एक बार तो प्यार का नाम होंठों पर ले आता. अब लरज रहा है. प्राची के मन का एक हिस्सा कहता है- चली जा प्राची, पहली बार उसने फूल मांगे हैं.
लेकिन दूसरा कोना कहता है, प्राची- देखा नहीं तूने, इंटरव्यू वाले दिन तो वह ऐसे देख रहा था जैसे अजनबी हो, एकदम पराया. उसने जो भी पूछा, वह काटता रहा फटाक से. जैसे फूंक में उड़ा रहा हो या फ़ालतू करार दे रहा हो या फिर इस सोच का अहंकार भरा दबाव सह रहा हो कि प्राची- नसीब समझ कि मैंने तुझे इंटरव्यू लेने का मौक़ा दिया. या फिर कोई और बात है. ए.आई.आर. के कॉरीडोर में चटर्जी जी से बात की और तीर सा निकल गया. जाते- जाते परायी गंध में सानकर बोला, "हमने ये फोटो अख़बार में देने के लिए निकलवाए हैं." पुनः वही पब्लिसिटी की बात. क्या नेता लोग इसके बिना ज़िंदा नहीं रह सकते?.. वह आफ़ताब और अपने रिश्ते को ढूंढ़ने लगी.
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प्यार के अपमान ने उसे छटपटाहट से भर दिया. नहीं, वह उसे भी बराबरी की यातना देगी. सूनी आंखों से ढूंढ़ता रह जाएगा, पर नहीं दिखाई दूंगी तुझे. जा, तू ये टीस लिए जा. पर दूसरे ही पल हृदय में हूक उठी. प्राची उसके लरजने की तह में छिपा कारण फिर ढूंढ़ने लगी. जाने क्या बात है- वह कब से इतना भावुक होने लगा. नहीं, वह अपनी तड़प का बदला लेगी. उसे फोन पर कहेगी, "अली, तुम भावुक हो, पर सिर्फ़ अपनों के लिए और मैं भावुक हूं, गैरों के लिए." उसने ग़ैर शब्द पर मन-ही-मन ज़ोर दिया. "अली, थोड़ी सी तड़प का स्वाद तुम भी तो चखो. मुझे ए.आर. आर. में कितनी उपेक्षापूर्ण यातना दी. हां, यही ठीक होगा." कहकर प्राची ख़्यालों में खो गई.
एक इंटरव्यू लेने का मौक़ा दिया तो इतना अकड़ रहा है. क्या मैं इसकी कोई नहीं. बीस सालों से अघोषित रिश्ते का यही अंज़ाम है. मान लो कोई और लेता इंटरव्यू, तो क्या अली को हर पहलू से परख पाता? प्राची को मजबूरी में अपने दो दांत निकालने पड़े. कहीं यही तो वजह नहीं. पर उसने तो अली से पूछा था. अली ने जवाब दिया था बड़ी लापरवाही से, "तो क्या हुआ. सारे तो नहीं निकाले ना. हमारे लिए व्यक्ति महत्वपूर्ण है, आवाज़ नहीं. अगर चाहो तो आवाज़ टेप करके देख लेना."
अगली बार वह इसी बात पर क्रूर हंसी हंसा था.वह कांपकर रह गई थी. सोचते-सोचते रात के ३ बज गए. आंख लगी, फिर खुल गई. सिर भारी ही गया. नहीं, वह स्टेशन नहीं जाएगी. अली एक बार तो तड़पे, न मिलने का दर्द महसूस तो करें. सुबह हुई तो अख़बार तक नहीं देखा. बेचैनी में बारह बज गए ज्यों-त्यों करते, रिंग नहीं हुई. मन बुझ गया. प्राची जब एक माह को कश्मीर गई थी, तो टूरिस्ट बस घर के सामने आकर खड़ी हुई. ऐसे में वह भागकर बूथ पर फोन करने गई थी, लेकिन अली ने ठंडा सा वाक्य कहा था, "ठीक है." आख़िर प्राची का कोमल मन एक बजते तक हार गया. उसने नंबर डायल किया और बेसाख्ता रो पड़ी, "गुड बाय अली. मुझसे तुम्हारा जाना देखा नहीं जाएगा. मैं नहीं आ सकूंगी स्टेशन पर. ईश्वर तुम्हें अच्छा रखे. कब लौटोगे? कुछ तो कहो…" पर इस बार भी अली उसी सपाट अंदाज़ में बोला, "हो सका तो एकाध बार फोन करूंगा." सुनते ही उसकी सिसकियां बंध गई.
जब शान्त हुई प्राची, तो सोचने लगी कि क्या पता वह भी मन में रोया हो. वीडियो फोन तो है नहीं, जो पता चले. उसने फोन तो रख दिया, पर इस धुंधली सी मासूम आस में फोन के पास बैठी रही कि अली इतने लंबे सफ़र पर जा रहा है, कहीं भावुक होकर फोन न कर दे. रिश्तेदारों का, मिलने-जुलने वालों का जमघट है तो क्या? महबूबा, महबूबा होती है. ट्रेन छूटने का वक़्त हुआ- उम्मीद का आख़िरी दीया भी बूझ गया. वह कातर स्वर में रोने लगी. बीस साल बाद अगर लगे कि सारा प्यार एकतरफ़ा था, तो जीने का क्या हक़ है? पर नहीं, मन की गति भी अजीब है. क्या जाते हुए उसने मुड़-मुड़कर देखा होगा? किसी से पूछा होगा कि वह क्यों नहीं आई. पर कौन बताएगा? इस संज्ञाहीन असामाजिक प्यार की तलाश का नज़ारा? प्राची की सारी ज़िंदगी सच्चे प्यार की तलाश में लहूलुहान हो गई है.
काश! कोई झूठ ही कह दे कि उसकी आंखें तुझे ढूंढ़ रही थीं. उसका जीवन धन्य हो जाएगा. वह हारकर इधर-उधर फोन करती रही. एक सहेली ने बताया, "प्राची, तुझे पता है, अली की बीवी कह रही थी कि प्राची ने बिदाई पार्टी में बात तक नहीं की, बड़ी मग़रूर है."
सुनते ही प्राची का पूरा वजूद आंसू हो गया. सूत्र जुड़ा- तो अली अपनी बीवी को ख़ुश करने के लिए फूल मंगवा रहा था. सच भी तो है, जिन रिश्तों के समाज में कोई नाम नहीं होते, वे कितने ही पाक और ख़ूबसूरत क्यों न हों, अंधेरे में ही जीते और अंधेरे में ही मर जाते हैं. उनके जीने-मरने का किसी की सेहत पर कोई असर नहीं होता.
प्राची परकटे पंछी की तरह छटपटा कर ज़मीन पर गिर पड़ी. वह नादान अली का फूल मांगना, लरजना उसे आख़िरी बार देखने की चाह समझ बैठी थी. तो वो प्यार नहीं था. उसके आंसुओं के कतरे जहां भी गिरे, ज़मीन सुर्ख़ हो गई.
- इंदिरा किसलय
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