सुषमा सब समझती है अरुण ने कई बार उसके क़रीब आने की कोशिश भी की है. उसकी आंखों में उसने मूक प्रणय के भाव पढ़े हैं, लेकिन सुषमा ने हमेशा स्वयं को अरुण के क़रीब आने से रोका है. कहीं अरुण के मन के किसी कोने में चाह का छोटा-सा अंकुर फूटा भी था, लेकिन सुषमा ने पनपने नहीं दिया.
कॉलबेल की आवाज़ सुनकर सुषमा ने दरवाज़ा खोला, तो एकदम चौंक उठी. प्रोफेसर अरुण सामने खड़े थे. वह एकदम कितनी अस्त-व्यस्त हो रही थी. बाल खुले और साड़ी मुड़ी-तुड़ी, कारण सुबह ही तो लौटी है अंबाला से. मन और तन दोनों से थक गई थी. सोचा थोड़ा आराम कर ले, तभी घर को ठीक करेगी. कॉलेज तो अभी दो दिन बाद खुलने है, लेकिन इस अस्त-व्यस्त घर में अरुण को...
"मुझे देखकर कहां खो गई सुषमाजी. क्या मेरा आना अच्छा नहीं लगा."
"नहीं, नहीं अरुणजी. आइए… आइए… बस यही सोच रही थी कि घर अस्त-व्यस्त पड़ा है. आप देखकर क्या सोचेंगे." सुषमा ने संकोचवश कहा.
"घर होगा, तो अस्त-व्यस्त तो होगा ही. इसमे संकोच कैसा?"
क्या कहे सुषमा? अचानक जैसे बहुत कुछ अन्दर घुमड़ने लगा, वह एकदम अशांत हो उठी.
"लग रहा है आप कुछ परेशान हैं?" पुनः अरुण ने ही बात का सिरा पकड़ा.
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. आप बैठिए मैं कॉफी लेकर आती हूं." सुषमा ने कॉफी के बहाने वहां से उठकर अपना हुलिया ठीक किया. फिर कॉफी लेकर पास पहुंची. अरुण मेज पर पड़ी पत्रिका के पन्ने पलट रहा था.
"लीजिए कॉफी पीजिए." सुषमा ने प्याला अरुण की ओर बढ़ाया.
कॉफी की चुस्की लेते हुए अरुण ने टोका, "एक बात पूछूं सुषमाजी. अकेली-अकेली आप बोर नहीं होतीं?”
"बोर होने का वक़्त ही कहां मिलता है अरुणजी. सुबह से शाम तक एक निश्चित दिनचर्या, फिर ये क़िताबें और उसके बाद आराम…" एक फीकी सी हंसी हंस दी सुषमा.
"इन सबसे अलग हटकर क्या आप कुछ और की चाहना नहीं करती?"
सीधा-सा सवाल अरुण ने उछाल दिया.
सुषमा सब समझती है अरुण ने कई बार उसके क़रीब आने की कोशिश भी की है. उसकी आंखों में उसने मूक प्रणय के भाव पढ़े हैं, लेकिन सुषमा ने हमेशा स्वयं को अरुण के क़रीब आने से रोका है. कहीं अरुण के मन के किसी कोने में चाह का छोटा-सा अंकुर फूटा भी था, लेकिन सुषमा ने पनपने नहीं दिया. अब इस उम्र में छोटे भाई-बहन और समाज क्या कहेगा? कोई बड़ा होता, तो शायद मुश्किल आसान भी होती, लेकिन क्या पता अरुण उसकी परीक्षा हो ले रहा हो.
व्यर्थ की जग हंसाई से तो अच्छा है जैसे अब तक जीवन कट गया आगे भी कट जाएगा. पर आज अरुण क्या यही सब कहने आया है?
"अब इस उम्र में और क्या चाहना? चाहने की भी एक उम्र होती है. उस उम्र में फ़ुर्सत मिली नहीं और अब... आप भी क्या बात ले बैठे अरुणजी." उत्तर देते हुए किसी छोर पर स्वयं को समेटा सुषमा ने.
"चाहने की कोई उम्र नहीं होती. इच्छाएं मरती नहीं, बस. दब जाती हैं. उन्हें जगाने भर की देरी है. अभी क्या बिगड़ा है. अच्छी भली हैं, पढ़ी-लिखी हैं, अपने पैरों पर खड़ी हैं. आपको पाकर कोई भी धन्य हो जाएगा."
"इस दृष्टि से तो कभी सोचा ही नहीं. यह विचार ही नहीं आया. शायद मेरे हाथ में विवाह की रेखा ही न हो." कहते-कहते कंठ भीगने लगा, हंसते हुए कोरे छलछला आईं.
"वाह ख़ूब आपकी आंखें तो संगम हैं." अरुण ने आंखों में झांकते हुए कहा.
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कैसी तो हो आई थी सुषमा. स्मृति में कौंध गई थी नीलू-दीपू की बातें. नीलू दीपू से पूछ रही थी, "बुआजी अपने घर कब जाएंगी?"
"बुआजी का कोई घर थोड़े ही है, बुआजी तो यहीं रहेंगी."
"छुट्टियों का सत्यानाश हो गया भैया, मम्मी तो कह रही थीं इस बार कश्मीर चलेंगे, पर मम्मी-पापा बुआजी को थोड़े ही ले जाएंगे."
"हां. अब तो पूरी छुट्टियां यहीं सड़ना पड़ेगा." और सुषमा की आंखों में ढेर सारा समंदर उमड़ पड़ा था. उस समंदर में दस वर्षीय आलोक निकल आया था. आलोक, जो हमेशा अपनी ज़रूरतों के लिए दीदी-दीदी… कहता आगे-पीछे घूमता. पक्षाघात से पीड़ित बिस्तर पर लेटे बाबूजी, अपनी बेबसी के आंसू पीती मां और तीनों भाई-बहनों के साथ पायताने खड़ी सुषमा.
"लाइए अपना हाथ दिखाइए," अरुण उसका हाथ देखने लगा. पेंसिल की नोक से जाने रेखाओं में कितने जोड़-घटाने अरुण मिला रहा था और सुषमा सुदीप के पास पहुंच गई थी. पुष्पा सुदीप से कह रही थी, "दीदी के कारण कितनी बदनामी होती है सुदीप अब तो. मैं अपनी सहेलियों के सामने नज़र उठाने की भी नहीं रही."
"कुछ हुआ क्या?" सुदीप ने पूछा.
"आज मैं बाज़ार गई थी. वहीं मिसेज़ भार्गव और मिसेज़ वर्मा मिल गई. मिसेज़ वर्मा बोलीं- पुष्पाजी, अब तो अपनी ननद की शादी कर ही डालो. इस उम्र में तो दुहाजू ही मिल सकता है."
तभी मिसेज़ भार्गव ने कहा, "नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली. आप भी कैसी बातें करती है मिसेज़ वर्मा. इन तपस्विनियों का हाल क्या आप नहीं जानती?" और दोनों खिलखिलाती चली गईं.
मुझे लगा जैसे किसी ने गरम शीशा मेरे कानों में उड़ेल दिया हो.
"आप दीदी से कहें यहां न आया करें."
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रात-रातभर बैठकर कॉपियां जांचती, लेक्चर तैयार करती, सुदीप की फीस जमा करती. केवल चार साड़ियों में गुज़ारा करती. नौकरी, घर और पिताजी की बीमारी के त्रिकोण को जीती सुषमा…
"देखिए आपके हाथ में शादी की रेखा बिल्कुल स्पष्ट है. आप कैसे इंकार करती हैं. मुझे हाथ देखना बहुत अच्छा आता है."
"और क्या-क्या देखा मेरे हाथ में? अच्छा बताइए मुझसे शादी करनेवाला कौन ख़ुशक़िस्मत होगा?"
"मैं…" अरुण ने सुषमा की आंखों में देखते हुए कहा.
सुषमा एकदम चौंक उठी, "यह आपने क्या कह दिया अरुणजी. ऐसा मज़ाक शोभा नहीं देता "
"यह मज़ाक नहीं है सुषमाजी मैंने जो कहा है सच कहा है. ख़ूब सोच-विचार कर कहा है. आपकी तरह में भी अकेला हूं. बस एक छोटा बेटा है, जो बाहर बोर्डिंग में पढ़ता है. छुट्टियों में घर लौटता है. आपको घर और मुझे एक साथी मिल जाएगा. मैं आपको मजबूर नहीं कर रहा. बुरा लगे तो माफ़ कर देना." कहते-कहते अरुण का स्वर भारी हो गया.
सुषमा को लगा, अब तक बांधा गया संयम का बांध
टूट कर बह जाएगा.
"नहीं अरुण मुझे बुरा नहीं लगा, तुमने मेरी मुश्किल आसान कर दी." और सचमुच उस टूटते बांध में याद आई बाबूजी की मृत्यु पर विलाप करती मां कि अब अनु के हाथ पीले कौन करेगा?
मां को सुषमा का स्मरण नहीं था, क्योंकि वह तो पहले ही परिवार के लिए शादी न करने का प्रण ले चुकी थी. उस समय मां एक नन्हा पौधा और सुषमा एक घना वृक्ष बन गई थी. अनु की फ़िक्र उसकी फ़िक्र बन गई थी. समस्त जोड़े हुए पैसों के साथ भविष्य निधि से भी ऋण लेकर अनु के हाथ पीले किए थे.
छुट्टियों में अनु को आने के लिए पत्र लिखा था. जवाब आया था, "मनोज को मेरा वहां आना अच्छा नहीं लगता दीदी. लोग तरह-तरह की बातें करते हैं… और सुषमा के आगे फ्राक पहने इप्पी-दुप्पी खेलती, आइसक्रीम के लिए ज़िद करती, सुषमा के बिस्तर में घुसकर लिपटकर सोती अनु साकार हो उठी थी.
आज फिर अथाह सागर उसकी आंखों में उमड़ पड़ा था.
"ये क्या सुषमा. तुम रो रही हो…" अपनी दोनों हथेलियों से उसके आंसू पोंछते हुए अरुण ने कहा.
"हां अरुण, इस सागर को आज उमड़कर बहने दो. इसकी एक बूंद भी अब नहीं बचनी चाहिए, मुझे मेरे हिस्से का थोड़ा आकाश, थोड़ी धूप मिल गई है.”
- सुधा गोयल
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