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कहानी- थैंक्यू फॉर हयूमिलिएशन (Short Story- Thank You For Humiliation)

शाम को भी काफ़ी देर तक अभ्यास करती. टीवी, मोबाइल से उसने दूरी बना रखी थी. इनका प्रयोग वह कम से कम करती थी. सिर्फ़ आवश्यक काम के लिए ही वह इनका प्रयोग करती थी. उसके सहकर्मी कई बार उससे कहते भी थे, तुम ज़िंदगी जीना नहीं जानती. जवाब में वह मुस्कुराकर रह जाती थी. मन ही मन कहती, ‘तुम्हारे लक्ष्य और मेरे लक्ष्य में अंतर है.'

उदया राज्य पुलिस में एक सिपाही थी. अपने सिपाही होने से संतुष्ट थी. ख़ुशी-ख़ुशी ज़िंदगी जी रही थी. परंतु तरक़्क़ी के लिए परिश्रम भी कर रही थी. घर की माली हालत ठीक नहीं थी. माता-पिता बचपन में ही गुज़र गए थे. दादी ने उसे पाल पोसकर बड़ा किया था. अब दादी की उम्र काफ़ी अधिक हो गई थी. अतः उसे कोई न कोई काम चाहिए था घर-परिवार चलाने के लिए. सिपाही के लिए भर्ती में उसने आवेदन दिया था और बड़ी ही आसानी से उसका चयन हो गया था. पढ़ने में तो वह होशियार थी ही, खेलकूद में भी अव्वल थी. अतः न तो लिखित परीक्षा में कोई परेशानी हुई, न फिजिकल टेस्ट में.
सिपाही का काम वह बड़ी ही तन्मयता से करती थी, पर समय निकालकर अन्य परीक्षाओं के लिए भी तैयारी करती रहती थी. नियम के अनुसार किसी भी परीक्षा में शामिल होने के लिए विभाग से अनुमति लेना आवश्यक था. छोटी-मोटी नौकरी के लिए तो उसे अनुमति बिना किसी टीका टिप्पणी के लिए मिल गई थी, पर जब सिविल सर्विसेज के लिए उसने अनुमति मांगी, तो उसके इंस्पेक्टर बॉस ने उस पर कटाक्ष कर दिया, “सिपाही सिविल सर्विस में आकर क्या काम करेगी?” यह टिप्पणी ऑफिस में सभी के सामने की गई थी.
बड़ा अपमानजनक लगा था उसे सभी के बीच बॉस की ऐसी टिप्पणी. पर सेवा शर्त से बंधी थी. जवाब नहीं दे सकती थी. शायद इंस्पेक्टर को यह बात जंची नहीं कि एक सिपाही सिविल सर्विसेज में चयन होने का सपना देखे.
ऐसी अपमानजनक टिप्पणी सुनकर उसे बहुत दुख हुआ. इस कटाक्ष ने उसे हतोत्साहित कर दिया. इसके बाद इंस्पेक्टर उसकी ड्यूटी भी ऊटपटांग लगा दिया करता था, जिससे वह तैयारी ठीक से न कर सके.

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एक बार उसे दो मिनट देर से पहुंचने पर एक घंटा अधिक ड्रिल करने की सज़ा सुनाई थी, पर उसका नाम उदया था. विपरीत परिस्थितियों में परिश्रम कर उसने पढ़ाई-लिखाई की थी. साथ ही खेल-कूद में भी भाग लिया था. किसी के अपमानजनक टिप्पणी सुनकर उसका हौसला अस्त होने वाला नहीं था.
“मैं आपसे उच्च पद पर चयनित होकर दिखाऊंगी.” उसने मन ही मन उस टिप्पणी करने वाले अधिकारी से कहा. मना तो वे कर नहीं सकते थे. उसे अनुमति दे दी गई थी.
दिनभर ऑफिस के काम करने के अलावा वह जी जान से पढ़ाई में जुट गई. सुबह उठते ही नित्य क्रिया से निवृत होकर आधा घंटे तक व्यायाम करने के बाद वह पढ़ाई में लग गई. घर के अन्य कामों को कैसे कम से कम समय में निबटाया जाए, इसकी तरकीब वह सोचा करती थी और उसे तरकीब मिल भी जाता था.
शाम को भी काफ़ी देर तक अभ्यास करती. टीवी, मोबाइल से उसने दूरी बना रखी थी. इनका प्रयोग वह कम से कम करती थी. सिर्फ़ आवश्यक काम के लिए ही वह इनका प्रयोग करती थी. उसके सहकर्मी कई बार उससे कहते भी थे, तुम ज़िंदगी जीना नहीं जानती. जवाब में वह मुस्कुराकर रह जाती थी. मन ही मन कहती, ‘तुम्हारे लक्ष्य और मेरे लक्ष्य में अंतर है.'
कई बार उसका मन ऊब जाया करता, तो वह उसे अधिकारी की कटाक्ष भरी टिप्पणी को याद करती, “सिपाही सिविल सर्विसेज में आकर क्या काम करेगा.” उस कटाक्ष को याद कर वह फिर से तैयार हो जाती थी अपने लक्ष्य को पाने के लिए कठोर परिश्रम करने के लिए.
ज़िंदगी कोई फिल्म की कहानी तो होती नहीं कि एक ही झटके में कोई सफलता प्राप्त कर ले, पर फिल्मों की कहानियां भी तो ज़िंदगी पर ही आधारित होती हैं. सच्ची घटनाओं पर आधारित कई सफल व्यक्तियों के जीवन पर बनी फिल्में उसने देखी थी और उनसे प्रेरित भी होती थी. पर कभी प्रारम्भिक परीक्षा में, कभी मुख्य परीक्षा में, तो कभी साक्षात्कार में असफलता का सामना करना पड़ा.
हिम्मत टूटती थी, पर फिर से जुट जाती थी. इस बार साक्षात्कार तक पहुंचने पर उसे लगा था कि उसका सपना पूरा हो जाएगा, पर दुर्भाग्य से उसका चयन नहीं हो पाया था.
उसने आत्मावलोकन किया तो पाया कि शायद लिखित परीक्षा में उसे कम अंक मिले होंगे जिसके के कारण उसका अंतिम चयन नहीं हो पाया.
साक्षात्कार तक पहुंचकर असफल होने पर उसका हौसला टूटने के स्थान पर बढ़ गया. साक्षात्कार तक आना भी कोई कम बात नहीं, उसने सोचा. कई लोग तो इस मुक़ाम तक भी नहीं पहुंच पाते.


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“सिपाही सिविल सर्विस में आकर क्या काम करेगी?..” यह वाक्य उसे सालता भी था, तो प्रेरित भी करता था. उसने इस वाक्य का पूरे पृष्ठ का एक प्रिंटआउट निकालकर अपने मेज पर रख लिया और फिर से जी जान से लग गई.
प्रतिदिन सुबह उठते ही उस काग़ज़ के टुकड़े को वह देखती थी और वह दिनभर उसे रिचार्ज रखता था. सोने के पहले भी वह उसे देखकर ही सोती थी, ताकि उसे याद रहे कि उसे क्या करना है.
दूसरी ओर स्थानीय सिविल सर्विसेज एकैडमी के उसके मेंटर उसका हौसला हमेशा बढ़ाते रहते थे. उसकी कमियां भी बताते थे और कैसे उसे दूर करना है इसका उपाय भी बताते थे. उसकी ख़ूबियों की तारीफ़ भी करते थे और उसे बनाए रखने की तरकीब भी बताते थे. इंस्पेक्टर के कटाक्ष और मेंटर के प्रेरक प्रोत्साहन दोनों से प्रभावित होकर वो संघ लोक सेवा की परीक्षा में सफल हो गई. यद्यपि उसका रैंक आठ सौ के बाद था, पर उसके हौसले को बढ़ाने के लिए यह काफी था. इस रैंक पर उसे प्रशासनिक सेवा में तो अवसर नहीं मिलेगा, पर अभी वह प्रयास करेगी.
शाम को वह एकैडमी गई और अपने मेंटर को अपने हाथ से मिठाई खिलाई. मिठाई खाते हुए मेंटर ने कहा, “अगले साल तुम्हें और भी अच्छा रैंक पाना है.”
“बिल्कुल सर, आपका आशीर्वाद मेरे साथ है, तो मैं ज़रूर यह कर दिखाऊंगी." उदया ने नम्रतापूर्वक कहा.
घर आकर उसने पहला काम यह किया कि उस पेपर के टूकड़े की फ्रेमिंग करवा ली, जिस पर लिखा था,‌ “सिपाही सिविल सर्विस में आकर क्या काम करेगी?”

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इंडियन पोस्टल सर्विस में ज्वाइन करते वक़्त उसने उस फ्रेम को उठाया. उसे देखकर बोली, “इंस्पेक्टर सर, इस बार न सही अगली बार आपकी सिपाही सिविल सर्विसेज ज्वाइन करेगी और क्या करेगी यह आप टीवी और पेपर से जान पाएंगे. तब तक के लिए, थैंक्यू फॉर हयूमिलेशन, इट रियली इंस्पायर्ड मी.” उसने उस फ्रेम को अपने बैग में रख लिया.  

विनय कुमार पाठक

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Photo Courtesy: Freepik

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