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कहानी- तीसरा बेटा (Short Story- Teesra Beta)

विचारों की रेल पूरी तेज़ी से दौड़ रही थी. तभी फोन की घंटी बजी और रेल वर्तमान के स्टेशन पर आकर रुक गई. उसने देखा, फोन चंडीगढ़ से था. उसने हड़बड़ी में फोन उठाकर हैलो कहा. दूसरी तरफ़ रेणू की देवरानी थी. “दीदी, आप आइए और चिंटू को ले जाइए. मुझसे अब इसकी देखभाल नहीं हो सकेगी. क्या आप आएंगी? बोलिए दीदी…” ख़ुशी के मारे रेणू के मुंह से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी.

 
रेणू के एनजीओ के छोटे-से कमरे में फैलती मटमैली सी रोशनी उस उदास माहौल को और बोझिल बना रही थी. रेणू बार-बार अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल करती और फिर उसे काट देती. यह उसके मन-मस्तिष्क में चल रही कशमकश दिखा रहा था. वह पेन हाथ में उठा उससे सामने पड़े क़ाग़ज पर अपने दिमाग़ में चल रहे चक्करों को बना रही थी. उसे कभी उसके हाथों में छोटे से बच्चे की उंगलियां महसूस होतीं, तो कभी उसकी किलकारियां उसे गुदगुदा जातीं. उसकी कल्पना की छोटी-सी वह छवि उसके ममत्व को बार-बार पुकार रही थी.

तभी उस कल्पनालोक में दरार पड़ी एक आवाज़ से “मां… मां…” यह आवाज़ धीरे-धीरे पास आती जा रही थी. फिर उस आवाज़ ने रेणू को स्पर्श भी किया. “मां…” इस बार रेणू चौंक गई. “मां, आप ठीक हैं ना? मैं कब से आपको आवाज़ दे रही हूं.” रेणू ने ख़ुद को संभालते हुए कहा, “हां प्रीति, बोलो बेटा, मैं बस ऐसे ही अपने विचारों में गुम थी.”

प्रीति ने कहा, “यह कैसी रोशनी में बैठी हो.” इतना कहकर उसने उस उदास रोशनी को बंद कर दिया और कमरे की बंद खिड़कियों को खोल दिया. अब कमरे में ताज़ी हवा बहने लगी, सूरज की चमकती रोशनी कमरे में प्रवेश कर चुकी थी. पर यह चमकती रोशनी और ताज़ी हवा भी रेणू के चेहरे की बोझिलता और बेचैनी नहीं छुपा पाई.

प्रीति ने अपनी मां की ओर रुख़ किया और कहा, “मां, अजय अपने दोस्तों के साथ ग्रुप स्टडी करने गया है, शाम को वापस आएगा और पापा आज दिल्ली गए हैं उन्हें ऑफिस के काम से जाना पड़ा, मैं आपको यही बताने आई थी. शायद उन्हें दो-तीन दिन लग जाएं और हो सकता है कि वे कुछ घंटों के लिए चंडीगढ़ भी जाएं. आप उनसे फोन पर बात कर लेना. शायद चिंटू की तबियत कुछ ख़राब है. मैं कॉलेज जा रही हूं और वहीं से कोचिंग भी जाऊंगी. अब शाम को खाने पर मिलते हैं. बाय मम्मा.” इतना कहकर प्रीति वहां से चली गई.

कॉलेज जाने की जल्दबाज़ी में प्रीति ने सारी बातें एक ही सांस में कह डाली. पर इतनी सारी बातों में रेणू स़िर्फ दो ही शब्द सुन पाई थी चंडीगढ़ और चिंटू. जहां चंडीगढ़ से रेणू के जीवन के तार जुड़े थे, वहीं चिंटू से शायद दिल के. ये दो नाम सुनकर उसकी आंखों से दो आंसू ढुलक गए, जिनमें से एक चंडीगढ़ के लिए था, तो दूसरा शायद चिंटू के लिए.

रेणू अनाथ बच्चों का एक एनजीओ चलाती थी. 50 वर्षीया इस प्रौढ़ा के शरीर पर अभी भी उम्र हावी नहीं हुई थी. चेहरे पर तेज था, गोरा रंग कुछ-कुछ दूध से मिलता-जुलता था. पतली-पतली उंगलियां जिनमें उसने अपने परिवार की कमान को कस के पकड़ा हुआ था. आंखें सर्वसाधारण थीं, पर इन साधारण आंखों की विशेषता थी कि ये उन चीज़ों को भी देख लेती थीं, जो सामान्य तौर पर किसी को दिखाई नहीं देतीं. उसकी कर्णशक्ति भी गजब की थी, उसे वे बातें और भावनाएं भी सुनाई देती थीं जो कभी कही भी नहीं जातीं. रेणू का क़द औसत से कुछ कम ही था, पर उसके कर्मों ने उसे सबसे ऊंचा कर दिया. शायद उसके इसी व्यक्तित्व की करनी का फल वह आज भोग रही थी.

परिवार में सबकी और सबसे लाड़ली थी रेणू. सास-ससुर, देवर-देवरानी और उसके अपने दो बच्चे. बेटी से तो आप सब मिल ही चुके हैं और 15 साल का एक बेटा भी है अजय. सबको उसने एक सूत्र में जोड़ रखा था बिल्कुल किसी माला की तरह. उसका परिवार उसके ख़ून में जीवन की भांति दौड़ता था… या शायद आज भी दौड़ता है. पर फिर सवाल यह उठता है कि अगर रेणू को अपने परिवार से इतना प्यार था, तो वह आख़िर सबसे दूर यहां मुंबई में क्यों रह रही थी? और यह चिंटू कौन था जिसका ज़िक्र भी उसे बेचैन कर जाता था.

अपना एनजीओ बंद करके दोपहर एक बजे रेणू घर पहुंची. घर का ताला खोला, तो बड़े से दीवानखाने में एक भयानक सन्नाटा उसका इंतज़ार कर रहा था. कम से कम आज तो वह इसका सामना करने को तैयार नहीं थी, इसलिए उस सन्नाटे और टेबल पर रखे खाने को नज़रअंदाज़ करके सीधे अपने कमरे में चली गई. कमरे में पहुंचकर उसने डायरी हाथ में ली और बिस्तर पर तकिया लगाकर बैठ गई. उसने अपना सिर पीछे की ओर एक तरफ़ ढुलका दिया और आंखें बंद कर लीं. कोई तो चिंता थी, जो उसे खाए जा रही थी.

चीं…चीं…चीं… इस आवाज़ से रेणू के विचारों की नींद टूटी. रेणू ने ढूंढ़ना शुरू किया कि अवाज़ कहां से आ रही है. फिर उसने कमरे की बंद खिड़की खोली और देखा कि कुछ महीने पहले एक चिड़िया ने खिड़की के पास जो घोंसला बनाया था, उसमें तीन छोटे-छोटे बच्चे चहक रहे थे और मां अपनी चोंच से उन तीनों को खाना खिला रही थी. उसके उस घास-फूंस से बने घोंसले में बच्चों के आराम का पूरा ध्यान रखा गया था. वह सोच रही थी कि ‘देखो, यह नन्हीं चिड़िया भी जानती है कि बच्चे जब तक खुले आसमान में उड़ना नहीं सीख जाते, तब तक उन्हें देखभाल की ज़रूरत होती है.’

अब रेणू के सब्र का बांध पूरी तरह से टूट चुका था. वह वहीं खिड़की के नीचे अपनी डायरी को सीने से लगाए फूटफूटकर रोने लगी. पिछले पांच सालों से मन के किसी बांध में जकड़ कर रखे ये आंसू बाढ़ की तरह बहने लगे और इस बाढ़ में गोते खाती एक छोटी-सी नाव रेणू को उसकी पीड़ा के स्रोत के पास ले गई. ये वो जगह थी जहां से उसने अपने रिश्तों को संभाला, सहेजा, हर वो काम किया जो रिश्तों के पौधे को बड़ा वृक्ष बना दे. वो सोच रही थी कि ‘आख़िर मुझसे कहां ग़लती हो गई, किस मोड़ पर मैं चूक गई. ऐसी परिस्थितियां क्यों हो गईं कि मेरा अपना चिंटू टीबी जैसी बीमारी से जूझ रहा है और मैं वहां जा भी नहीं सकती. जिस बच्चे की बड़ी मां-बड़ी मां कहते ज़ुबान नहीं थकती थी वह मुझसे मिलना भी नहीं चाहता. क्यों भगवान क्यों..?

पता नहीं छोटी उसे समय से खाना देती होगी या नहीं, पता नहीं उसके परहेज़ का ख़्याल रखा जाता है या नहीं. मन करता है, उसके ग़ुस्से को नज़रअंदाज़ करके सीधे चिंटू के पास पहुंच जाऊं और कमज़ोरी से हो रहे पैरों के दर्द को दबाकर कम कर दूं, उसका सिर अपनी गोद में लूं, उसे परियों की जादुई दुनिया की कहानियां सुनाऊं, जिससे वो अपना दर्द भूल जाए. उसे स्वाद वाला खाना बनाकर खिलाऊं, जिससे वो दवाइयों की कड़वाहट भुला सके. ओह चिंटू! तुमने अपनी बड़ी मां को इतना दूर क्यों कर दिया? संबंधों में कड़वाहट ना आए इसलिए पांच साल पहले मैंने अपना घर छोड़ दिया था, फिर भी ये दूरियां क्यों? मैं यह तो कभी भी नहीं चाहती थी.’

रेणू ने जैसे अब अपने विचारों से ही बात करनी शुरू कर दी.

'मुझे आज भी वह एक साल पहले का दुःस्वप्न-सा दिन याद है जब मुझे छोटी का फोन आया कि दीदी चिंटू को डॉक्टर ने टीबी की बीमारी बताई है. कहते हैं, साल दो साल इलाज चलेगा. सुनते ही जैसे मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई. छह साल के बच्चे को टीबी जैसी बीमारी कैसे हो गई? फिर छोटी अपने बाकी दो बच्चों को संभालते हुए उसका ख़्याल कैसे रख पाएगी. बस, यही सब सोचकर तो मैं एक साल पहले साढ़े पांच साल बाद चंडीगढ़ गई थी.

मैं चिंटू को साढ़े पांच साल बाद मिल रही थी और उसके भाई लव, कुश को तो मैंने देखा ही नहीं था. कैसा भयावह दृश्य था वह, दूध जैसा स़फेद चिंटू कोयले-सा काला हो गया था. बचपन में कोई उसे उठा ना पाए इतना मोटा था, पर आज उसकी चमड़ी उसकी हड्डियों से चिपकी हुई थी. टीबी ने उसका शरीर खा लिया था. किसी छोटे से बच्चे की ऐसी दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी. इतने सालों के बाद शायद उसने मुझे पहचाना भी नहीं था, उसकी अजनबी नज़रों से मुझे यह पता चला. हाय! कितना प्यार, कितना ममत्व ले गई थी मैं उसे देने के लिए, पर उसकी अजनबी आंखों ने मुझे सौ कोस दूर कर दिया था. मुझे आज भी याद है कि मैं फिर भी उसकी देखभाल करती रही. चिंटू जब भी अपनी मां को आवाज़ देता मैं अगले ही पल वहां होती. उसकी दवाइयां, उसका खाना-पीना सब कुछ मैं ही देखती थी. वह भी मुझे बड़े प्यार-से बड़ी मां कहता था. पर न जानें क्यों महीनेभर बाद चिंटू का रवैया मेरी तरफ़ बदल गया. शायद यही वह मोड़ था, जहां मैंने ग़लती कर दी. मैं अपनी ममता, अपने प्यार को बेबांध उस पर उड़ेलती रही, जिसे वह नहीं समझ पाया. उसे वह प्यार बोझ लगने लगा और उसने मुझसे कहा कि मैं वहां से चली जाऊं. जब से मैं आई हूं, तब से उसकी मां उसका ख़्याल नहीं रख पाती. उसने मुझसे कहा कि उसकी मां ही उसका ख़्याल रखेगी. आज इस बात को भी एक साल हो गया, लेकिन चिंटू ने मुझसे बात भी नहीं की...'

विचारों की रेल पूरी तेज़ी से दौड़ रही थी. तभी फोन की घंटी बजी और रेल वर्तमान के स्टेशन पर आकर रुक गई. उसने देखा, फोन चंडीगढ़ से था. उसने हड़बड़ी में फोन उठाकर हेलो कहा. दूसरी तरफ़ रेणू की देवरानी थी.

“दीदी, आप आइए और चिंटू को ले जाइए. मुझसे अब इसकी देखभाल नहीं हो सकेगी. क्या आप आएंगी? बोलिए दीदी…” ख़ुशी के मारे रेणू के मुंह से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी. उसने कंपकंपाती आवाज़ में हामी भरी. वह बहुत ख़ुश थी. अपनी पीड़ा भरी यादों को उसने वहीं प्लेटफॉर्म पर छोड़ा और सीधे चंडीगढ़ की रेल पकड़ ली.

शायद रेणू का चिंटू से जुड़ाव कुछ अलग ही था. पता नहीं क्यों, पर उसकी फिक्र ने रेणू को आधा कर दिया था. रेणू रेल से भी तेज़ दौड़ना चाहती थी. उसने ख़ुद से ही प्रण किया कि वह अब उसे लेकर आएगी और स्वस्थ कर देगी. अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखाएगी. इन सारे विचारों को अपने बक्से में बंद करके वह स्टेशन पर उतरी. उसके पति अमन उसे लेने आए थे. घर पहुंची तो देखा कि किसी बागीचे सा चहकता उसका घर वीरान पड़ा है. ना तो उसके स्वागत के लिए कोई आया और ना ही मिलने. शाम 4 बजे सब चाय पर एक साथ मिले. वहां पर बातों का सिलसिला शुरू हुआ.

रेणू ने चिंटू से कहा, “क्यों चिंटू, चलोगे ना मेरे साथ? हम कल ही निकल जाएंगे. फिर हम ख़ूब सारी आइस्क्रीम खाएंगे, घूमेंगे और दीदी-भैया के साथ ख़ूब गप्पे मारेंगे.” रेणू की रिश्‍वतों पर चिंटू चिढ़कर बोला, “मुझे पता है, आप इसलिए आए हो ना, ताकि आप मुझे अपनी मां से अलग कर दो. पिछली बार भी आप इसलिए आए थे.”

रेणू ने लपककर कहा, “नहीं मेरे बच्चे, ऐसा नहीं है. लव, कुश भी तो हैं ना, मां तीनों का ख़्याल नहीं रख पााएगी, इसलिए…” रेणू ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया, जिसे उसने झिड़क दिया और कहा, “रख लेगी मेरी मां मेरा ख़्याल, आप उसकी चिंता छोड़ दो. आप मेरी मां के बारे में ऐसा कैसे कह सकती हैं.” अब चिंटू की आवाज़ कुछ ऊंची हो गई थी.

“आपको इतनी फिक्र क्यों हो रही है. जब मेरी बीमारी मेरी मां को इतना परेशान नहीं कर रही, तो आप क्यों मेरे और मेरी मां के बीच आ रहे हो. मैं जीऊं या मरूं इससे आपको क्या?” इस बात पर रेणू के मुंह से वह बात निकल ही गई जिसे उसने इतने सालों से अपने दिल में दफ़न कर रखा था. इस बार रेणू की आवाज़ भी कुछ ऊंची ही थी उसने कहा, “मुझे फ़र्क़ पड़ता है चिंटू, क्योंकि मैं ही तेरी मां हूं, तेरी सगी मां और तू मेरा बेटा… मेरा प्यारा बेटा… मेरा तीसरा बेटा, जिसे मैं ऐसे तड़पते नहीं देख सकती.” पथराई नज़रों से चिंटू एक बार अपनी मां को देखता और फिर अपनी बड़ी मां को. रिश्तों की ये उलझन उसकी समझ से बाहर थी.

रेणू निढ़ाल ज़मीन पर बैठ गई थी जैसे कोई कुली स्टेशन पर सामान उतारने के बाद थककर बैठ जाता है. जब सबको सुध आई, तो चिंटू दौड़ता हुआ अपनी मां से लिपट गया और कहने लगा, “मां, बड़ी मां झूठ कह रही हैं ना, आप ही मेरी मां हो ना. मैं जानता हूं, बड़ी मां बच्चा पकड़ने वाली गंदी औरत हैं ना, जिसकी कहानी आपने मुझे सुनाई थी. मैं कहीं नहीं जाऊंगा. मां… कुछ तो बोलो. मां, मैं आपके बिना कैसे रहूंगा?” रेणू की देवरानी पत्थर की मूरत बनी खड़ी थी. रेणू ने देखा कि एक छोटे से बच्चे की आंखों से उसकी मां के लिए उसका विश्‍वास खोता जा रहा है. उसकी जीने की उम्मीद उससे छूटती जा रही है. मां शब्द कितना विशाल है यह उस दिन समझ में आया उसे.

रेणू ने अपनी देवरानी का हाथ पकड़ा और उसे अलग कमरे में ले गई और दरवाज़ा बंद कर दिया. रेणू ने कहा, “छोटी, आख़िर क्यों तुम चिंटू की देखभाल नहीं करना चाहती.” छोटी ने कहा, “मुझसे अब नहीं होगा, मेरे भी तो अपने बच्चे हैं.” रेणू बोली, “जब समाज ने तुम्हें बांझ कहा, तो इसी बच्चे ने तुम्हारा कलंक दूर किया. तुम्हारी गोद भर जाए, तुम्हें संतान सुख मिले इसलिए मैंने अपने दिल का टुकड़ा काटकर तुम्हें दे दिया. तुम्हें मां चिंटू ने बनाया, उसके आने के बाद तुम्हारी गोद हरी हुई. इस सबके बावजूद आज मैं उसे लेकर चली ही जाती, पर आज मुझे उसमें तुम्हारी झलक दिखी. तुम्हें याद है छोटी, जब चिंटू का जन्म हुआ था और मैंने उसे तुम्हें दे दिया था. तुम उसे अपने सीने से लगाकर रखती थी. मेरा आसपास रहना भी तुम्हें गवारा ना होता. उस समय तुमने मुझसे कहा था कि दीदी, आप मेरे और मेरे बेटे के बीच आ रही हैं और मैंने चिंटू और तुम्हारे लिए यह घर ही छोड़ दिया था. आज तुम्हारे बेटे ने मुझसे कहा कि आप मेरे और मेरी मां के बीच आ रही हैं. आज वो मेरा नहीं तुम्हारा बेटा बन गया है. उसने पहला निवाला तुम्हारे हाथ से खाया है. उसमें तुम्हारे संस्कार हैं मेरे नहीं. उसे टीबी मारेगा या नहीं मुझे नहीं पता, पर आज अगर मैं उसे ले गई तो उसका मरना तय है.”

छोटी रेणू से लिपट गई और आंसुओं से भीग गई, “दीदी, मुझे माफ़ कर दो. मैं इतनी अंधी कैसे हो गई कि मुझे मेरे अपने बेटे का प्यार दिखाई नहीं दिया. ऐसा करके मैंने उसके प्यार और आपके त्याग दोनों को अपमानित किया है. मैं मां हूं और मां का काम सिर्फ़ ममता लुटाना होता है, जो मैं भूल गई.” रेणू ने कहा, “चलो, अब आंसू पोंछो और बाहर चलो.” छोटी ने पूछा, “दीदी, अब आप क्या करेंगी?” रेणू के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई. उसने कहा, “मैं..? मैं वही करूंगी जो मैंने पांच साल पहले किया था.”

वह बाहर आई. चिंटू अभी भी डरा हुआ था. रेणू उसके पास गई, तो वह दो क़दम पीछे हट गया. रेणू ने उसका हाथ पकड़ा और कहा, “मैं तो मज़ाक कर रही थी. मैं तो यह देखने आई थी कि आप अपनी मम्मी से प्यार करते हो या नहीं. यही तुम्हारी मां है और मैं तुम्हारी बड़ी मां. एक और बात, मैं बच्चा पकड़ने वाली औरत नहीं हूं.” पूरा कमरा ठहाकों से भर गया. रेणू छोटी के पास आई और कहा, “छोटी, अपना तीसरा बेटा आज फिर से एक बार तुम्हें सौंपकर जा रही हूं, तुम उसकी सगी मां बन जाओ बस यही आशा है.” इतना कहकर रेणू मुड़ी, चिंटू के सिर पर हाथ रखा और घर से बाहर निकलने लगी. उस समय भी उसके काले चश्मे के नीचे से दो आंसू ढुलक गए. एक तो चंडीगढ़ के लिए था और दूसरा अब आप शायद जानते हैं किसके लिए था.

- विजया कठाले निबंधे

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