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कहानी- तटबंध (Short Story- Tatbandh)

जाने कितनी बिजलियां दौड़ गईं शरीर में एक साथ. उसने मेरे गाल ही नहीं छुए, मेरे वजूद को छू दिया था. उसे तो पता नहीं, पर मुझे आज मेरे होने का एहसास हो गया. सिर्फ़ होने का ही नहीं, बहुत विशिष्ट, अतुलनीय होने का एहसास हो गया था. जाने कितनी देर मेरी अचकचाई आंखें उसकी आंखों में जाने कौन सा अनदेखा, अनजाना सच तलाशती रहीं. उनमें साफ़ लिखा था कि उसने ही नहीं, मैंने भी उसे कहीं बहुत गहरे छू दिया है.

कप में कॉफी और स्नैक्स लेकर वो ड्रॉइंगरूम में आया, तो मेरी नज़र एक बार सिटकिनी लगाकर बंद कर दिए गए दरवाज़े की ओर चली ही गई. वो पहले से ज़्यादा असहज हो गया. सफ़ाई सी देती हुई आवाज़ में बोला, “दरवाज़ा खोलकर नहीं बैठ सकते. खिड़कियां तो खुली ही हैं. हवा को क्रॉस मिल गया तो…” कॉफी पीते हुए वो अपने शहर के मौसम और बहुत सी चीज़ों के बारे में बताकर और जैसे भी बन पड़ा मेरी असहजता कम करने की कोशिश करता रहा. फिर कुछ देर तक हथेली पर दूसरे हाथ का मुक्का ठोकने के बाद अचानक दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया.
“कहां चला गया ये अचानक?” थोड़ी देर मन में संशय, उत्सुकता और भी बहुत से भाव आते-जाते रहे. फिर प्रतीक्षा में बाहर गली में झांका, तो एक सनसनाहट सी पूरे बदन में दौड़ गई. घर, लॉन, चारदीवारी, सड़क सभी की सीमा रेखाओं के अस्तित्व जलधारा में विलीन हो गए थे. बारिश तो कोई मूसलाधार हो नहीं रही थी, फिर इतना पानी? कहीं ये सैलाब हुआ तो? सैलाब..? कहां, कब..? क्या उस नदी ने संयम तोड़ दिया, जो आते समय बस से दिखी थी? जगत की प्यास बुझाने को आकुल, प्रफुल्लित, स्वच्छंद, उत्साहित बहती हुई! पर थी तो अपनी सीमा रेखाओं के भीतर ही. हां, मगर तूफान के आने से पहले तक या हमारे उगले धुएं के गरल को ख़ामोशी से पीता शांत आसमान बौरा गया था, जो उमड़-घुमड़ कर अपनी ऊंचाई त्याग धरती पर गिर जाने को आतुर हो गया था. या फिर ये उस सोते का ही पानी हो. उसने तो यही बताया था. ठीक ही कह रहा होगा, वो तो लोकल है. कितना अद्भुत, लेकिन सुंदर सत्य है. ऊपर से कठोर चट्टानों के भीतर निर्मल नीर की ये तरल धारा प्रवाहित होती रहती है. कभी-कभी कहीं उन्हें फोड़कर बाहर निकल आती है, सूर्य दर्शन करने, सांस लेने और फिर कुछ दूर चलकर उन्हीं पर्वतों के भीतर समा जाती है.


मैं उस अजनबी के घर में अकेली थी जिसके यहां बाहर आए तूफान से बचने के लिए कुछ देर पहले शरण ली थी. दिमाग़ में ये वाक्य आते ही मन ने प्रतिरोध किया. क्या वाक़ई ये अजनबी है? क्या वाक़ई स़िर्फ एक घंटा साथ बिताया है हमने? इस एक घंटे में मुझे सहज करने और सुविधाजनक स्थिति देने के लिए क्या नहीं किया उसने?
हक़ीक़त में तो ऐसा होता नहीं. जिन रिश्तों की डोर में बंधकर बरसों गुज़ारे हैं उनमें आज तक कभी कुछ भी इतना सहज और साधिकार हुआ है क्या? इतना दोस्ताना?
सहसा मुझे लगने लगा था कि मैं इंसान न होकर किसी उपन्यास की पात्र हूं. तभी ज़ोर से बिजली कड़की और मेरी नज़र दीवार पर बने शेल्फ पर अटक गई. कंप्लीट पोयम कलेक्शन ऑफ वर्ड्सवर्थ, मैं फुर्ती से उठकर उस शेल्फ के पास पहुंच गई. तो इसे भी पुस्तकों का शौक़ है? वो भी सारे वही कवि जो मुझे पसंद हैं.


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वो लगभग घंटे भर बाद लौटा.
“आपका बुक्स कलेक्शन तो गज़ब का है…” मैंने उसे देखते ही कुछ ऐेसे उत्साह में भरकर बोलना शुरू किया जैसे अपने किसी दोस्त के घर खाने पर आई हूं, तभी उसे पानी में तर-बतर देखकर मैं जैसे झटके से वर्तमान में लौटी.
“कुछ दूर पर ही एक टैक्सी स्टैंड है और उससे कुछ दूर पर एक और. हैवी गाड़ियां भी होती हैं उनके पास मगर… काम बना नहीं. सॉरी, मैं आपके लिए कुछ नहीं कर पा रहा. आई मीन मैं समझ सकता हूं कि…” वो कुछ ऐसी लाचारगी से बोला कि मैंने बात काट दी.
“समझते हैं ना? तो फिर अब बस कीजिए. शांत बैठ जाइए. आप इस झंझावात में टैक्सी देखने गए थे? बताया भी नहीं? समझ में नहीं आता कि आप इतने तूफान में निकले क्यों? कुछ हो जाता तो? अब ज़ाइए, पहले बदन सुखाकर कपड़े बदल कर आइए.” मैंने उसे सिर से पांव तक भीगे हुए देखकर इतना साधिकार डांटा कि मुझे ख़ुद अपने लहज़े पर आश्‍चर्य हो आया.
उसने कमरे में बनी लकड़ियां जलाने की जगह पर लकड़ियां जला दी. एक कंबल ख़ुद लेकर एक मुझे देते हुए एक बार ख़ामोश निगाहों से खुली खिड़कियों की ओर देखा जैसे बंद करने की इजाज़त लेना ज़रूरी हो और इजाज़त मिलने की उम्मीद बिल्कुल न हो. मैंने नज़रें बचाकर पुस्तक में गाड़ दीं. मेरी नज़रें पुस्तक पर थीं, पर उसके चेहरे पर आई मुस्कान मैं महसूस कर रही थी, जिसमें लिखा था- इससे क्या होगा, तुम्हें इससे राहत मिलती है तो यही सही. वो एक फर वाला मोटा शॉल और ले आया और मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा- “इसे कान से ओढ़ लीजिए, नहीं तो ठंड लग जाएगी.” लेकिन मैंने कंबल पैरों पर डालकर कहा, “बस, इतना काफ़ी है.”
“आप… यहां… इस पर्यटन स्थल पर अकेले कैसे?” पूछना उसका हक़ बनता था, पर वो एक बार फिर प्रश्‍न करने के लिए शब्द ढूंढ़ने लगा और मैं एक बार फिर ख़ुद में सिमट गई. सोचने के लिए कि उन प्रश्‍नों के क्या उत्तर दूं, जो सभ्यतावश उसने पूछे नहीं हैं, मगर उसके चेहरे पर छपे हैं.
“आप फिक्र न करें. जैसे ही मौसम इतना सुधरेगा कि मेरी छोटी सी कार के चलने योग्य हो जाए, मैं आपको आपके होटल छोड़ आऊंगा.” मेरी आंखों में एक संकोच भरा धन्यवाद उभर आया, तो उसने बात टाल दी,
“आपके फेवरेट पोयट भी वर्ड्सवर्थ हैं शायद.”
“हां, उनकी सारी कविताएं ज़ुबानी याद हैं मुझे.” पन्ने पलटते हुए एक जगह उंगलियां रुक गईं. बेसाख़्ता मेरी ज़ुबान मेरे प्रिय कवि की कविता गुनगुनाने लगी. उसने पैर समेटकर पालथी मार ली, कुशंस गोद में रखकर उन पर कुहनी टिकाकर हथेली पर चेहरा टिका दिया. उसकी आंखों में कौतूहल था, होंठों पर प्रशंसा वाली मुस्कान और मुद्रा में बोलते जाने का अनुग्रह था. और मेरी वाणी को प्रवाह मिल गया. कुछ देर बाद मैंने देखा, उसके चेहरे के भाव शून्य में कुछ ढूंढ़ने लगे थे. मेरी वाणी ठिठक गई.
“मैं अक्सर सोचता हूं कि इन पंक्तियों का मतलब केवल वही नहीं, जो सीधे से हैं. कुछ और भी है, कुछ बहुत गहन जो शायद मेरी समझ में नहीं आता.”
“एक नहीं, कई गहन मतलब हैं, जैसे…” और मेरी वाणी को एक बार फिर गति मिल गई.
“वाह! वाह! क्या ख़ूब!”
वैसे तो बीच-बीच में भी उसके उत्साहित वाक्य मेरा उत्साह बढ़ा रहे थे, पर अंत में वो कूद पड़ा.
“यही तो मुझे लगता था कि कुछ तो है जो मेरी समझ में नहीं आ रहा. आपने इसे इतने सुंदर शब्दों में बताया कि कैसे धन्यवाद करूं? आपको तो अंग्रज़ी की व्याख्याता होना चाहिए था.”
एक शर्मीली मुस्कान खुलकर मेरे होंठों पर खेल गई, “वही तो मैं हूं.”
तभी मुझे लगा कि कमरे में चांदनी छिटक आई है. तो क्या आसमान साफ़ हो गया? बरस चुकी बारिश जितनी बरसनी थी? मैं कौतूहलवश उठकर खिड़की पर आ गई. बाहर का दृश्य मैं अपलक निहारती ही रह गई. कई छोटी-बड़ी पहाड़ियों को गोद में लिए देवदारों से आच्छादित घाटी क्षितिज तक फैली थी. आकाश साफ़ नहीं हुआ था. तीव्र गति से उमड़ते-घुमड़ते बादल आसमान में जाने कहां भागे जा रहे थे. मुझे लगा सामने मेरे मन का ही विस्तार फैला पड़ा है.

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लेकिन जल्द ही हवा के झोंके घुमावदार हो गए और पानी के छींटों के साथ मेरे गाल भिगोने लगे. वो फुर्ती से उठा और मुझे पहले कंबल शॉल की तरह ओढ़ाया, फिर फर वाला शॉल उठाकर मेरे सिर पर डालकर मेरे कानों से घुमाते हुए मुझे उसमें पूरा लपेट दिया. उफ्! ये निःस्वार्थ फिक्र! ऊष्मा की जाने कितनी सिहरनें तन-मन से होती हुई आत्मा में उतरती चली गईं.
अब बारिश निर्द्वंद बरसने लगी थी. बेलगाम! बेफिक्र! मस्त और अल्हड़ किशोरी-सी. हवाओं ने भी लगता था सारे बंधन तोड़ दिए हों.
चर्चा अंग्रेज़ी साहित्य से फूलों, फूलों से समूची प्रकृति, प्रकृति से प्यार और प्यार से ‘प्लेटोनिक लव’ तक पहुंच गई थी.
“प्लेटोनिक लव की अवधारणा बहुत रोमांचित करती है, मगर इसकी सत्यता पर यक़ीन नहीं होता.” मेरा स्वर अचानक उदास हो गया और आंखों में व्यंग्य, अविश्‍वास और निराशा के बादल गहरा गए.
“आपको लगता है इस दुनिया में ऐसा प्यार होता होगा?”
“बिल्कुल, बस उसे पहचानने की नज़र होनी चाहिए! वो तो दुनिया में इस बारिश की तरह बरस रहा है. नदी, निर्झर की तरह बह रहा है. लोग उसे कटोरी में भरने की कोशिश करते हैं, जबकि उसे पाने के लिए सागर जैसा दिल चाहिए. अब हम निर्झर के नीचे कटोरी रख देंगे तो वो भर पाएगी क्या?” उसने कुछ ऐसे विश्‍वास के साथ कहा कि मेरा विवादी मन विद्रोह कर उठा और जैसे मेरे मन पर जमे बरसों के बादल भी बरसने को आतुर हो गए.
और फिर अविनाश के डॉमिनेटिंग स्वभाव के कारण होने वाली घुटन और अपने ढंग से ज़िंदगी न जी पाने की कसमसाहट, भरे-पूरे दिखने वाले जीवन में पसरा खालीपन, बरसों साथ जीने के बावजूद आत्मा का एकाकीपन, मन का एक-एक कमरा कब और कैसे खुलता चला गया, पता ही नहीं चला. वाणी हर उस कोने की उपेक्षित सीलन दिखाने को आतुर हो गई थी जिसे धूप में सुखाने के लिए भी कभी मन के दरवाज़े नहीं खोले थे, किसी के सामने नहीं खोले थे. कोई इस लायक लगा ही नहीं था कभी.
“शादी क्या है? एक समझौता ही तो है. एक जीवन का अधूरापन दूसरे जीवन के अधूरेपन के साथ समझदार समझौता कर लेता है. सोचता है कि प्यार पनप जाएगा लेकिन नहीं, जो जुड़ता नहीं है, वो हमेशा दूसरे का उपयोग करने को तत्पर रहता है और जो टूटने से बचना चाहता है वो ख़ुद को दूसरे के हिसाब से ढालता चला जाता है और ज़िंदगी इस ख़ुशफ़हमी में गुज़ार देता है कि मुक़म्मल जहां तो किसी को नहीं मिलता.”
अचानक एक बौछार के साथ कुछ बर्फ के टुकड़े आए और मेरे गालों और बालों की लटों पर अटक गए. तो मेरी जैसे तंद्रा-सी भंग हुई. मैंने अचकचाकर खिड़की से निगाह हटाकर ख़ुद को देखा. मेरे हाथ शॉल और कंबल से बंधे थे. तभी मेरी निगाह उसकी ओर गई. उसके चेहरे पर वही मुस्कान और बोलते जाने का अनुग्रह-सा था. और वो मेरी ओर हाथ बढ़ा रहा था. तब अचानक ध्यान आया कि मैं ख़ुद से नहीं, उससे बात कर रही हूं. मैं भूल गई कि मुझे हाथ बाहर निकालकर चेहरे से बर्फ पोंछनी है. मैं कहां हूं, किससे बात कर रही हूं, कितना कुछ बोल गई हूं, ये क्या हो गया था मुझे? मेरे चेहरे पर तीव्र गति से भागते बादलों की तरह जाने कितने भाव आने-जाने लगे. मेरी आंखों में दो मोटी बूंदें छलक पड़ीं. उफ्! इतनी ठिठुरती ठंड में ये कौन सी तपिश थी जिसने मेरे हृदय में जमी पीर को वाष्पित कर दिया था? बाहर के तूफान से बचने के लिए ये कौन-सा तूफान मोल ले लिया था मैंने? शायद मेरे भाव मेरे चेहरे पर पढ़ लिए थे उसने और फिर जैसे मेरी असहजता को सहजता में बदलने की ख़ामोश प्रतिबद्धता…


“आपकी विस्तारित आंखों में ओस की पहली बूंद सा तारल्य है, स्निग्ध होंठों पर दुनिया की सबसे सुंदर मुस्कान. चेहरे पर बालपन-सी कौतूहल भरी मासूमियत और पूरे व्यक्तित्व में उन्मुक्त पंछियों सी सहजता है बिल्कुल वर्ड्स्वर्थ की नायिका की तरह प्यारी-सी, सहज, सरल, निर्भय, निर्द्वंद और निश्छल! आपसे मिलने से पहले मैं भी कई समीक्षकों की तरह यही सोचता था कि वर्ड्सवर्थ की प्रेयसी या नायिका वास्तविकता न होकर स़िर्फ उनकी कल्पना थी, मगर आपको देखा तो यक़ीन आ गया कि कोरी कल्पना नहीं है वो सम्मोहक सौंदर्य.
और मेरा मानना है कि आपके शरीर का ये सौंदर्य आपके ख़ूबसूरत मन का ही प्रतिबिंब है. जी में तो आता है कि आपको छूकर देख लूं, आप हैं भी या…” उसने अपनी उसी सम्मोहक मुस्कान के साथ एकटक मुझे देखते हुए दो क़दम आगे बढ़कर उंगलियों के पिछले हिस्से में मेरा स्कार्फ पकड़कर उससे ही बहुत हौले से मेरे गालों और बालों से बर्फ़ पोंछ दी.
जाने कितनी बिजलियां दौड़ गईं शरीर में एक साथ. उसने मेरे गाल ही नहीं छुए, मेरे वजूद को छू दिया था. उसे तो पता नहीं, पर मुझे आज मेरे होने का एहसास हो गया. सिर्फ़ होने का ही नहीं, बहुत विशिष्ट, अतुलनीय होने का एहसास हो गया था. जाने कितनी देर मेरी अचकचाई आंखें उसकी आंखों में जाने कौन सा अनदेखा, अनजाना सच तलाशती रहीं. उनमें साफ़ लिखा था कि उसने ही नहीं, मैंने भी उसे कहीं बहुत गहरे छू दिया है.


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उफ्! क्या कर डाला है मैंने अपने मन को अनावृत्त करके? मुझे लगा मेरी आंखें किसी आसन्न ख़तरे से सहम गई हैं, फिर लगा नहीं, वो किसी किशोरी की भांति प्रथम प्रणय के प्रथम स्पर्श के भार से झुक गई हैं. मैं अपने गालों पर दहकते अंगारे महसूस कर रही थी, पर नहीं जानती थी कि वो भय से आरक्त थे या लज्जा से.
उसके बाद ख़ामोशी इतनी मुखर हो गई कि उसे शांत करने के लिए कुछ बोलना ज़रूरी हो गया.
“सुबह सात बजे की बस है मेरी.” बड़ी मुश्किल से मेरे मुंह से कुछ निकला.
“मेरा ख़्याल है आप कुछ देर सो लें. मैं रजाई ला देता हूं.” उसने इतनी तत्परता से उत्तर दिया कि मुझे लगा ये ख़ामोश नज़दीकियां उसे भी मेरे जितना ही डरा रही थीं. लेटते ही मेरी पलकें झपकने लगीं.
सुबह बाहर निकली, तो आकाश की तरह धरती भी धुली-पुछी साफ़ और ख़ूबसूरत दिख रही थी. मैंने देखा सारी सीमा रेखाएं अपनी जगह थीं. मन आश्‍चर्यचकित-सा सोच रहा था, “कल कहां से आया था इतना सारा पानी और आज कहां चला गया?”
“आपकी बस एक जलस्रोत पर रुकेगी. वहां उतरकर उसे देखिएगा ज़रूर, बहुत सुंदर है.” उसने मुझे बस में बैठाते हुए कहा. न जाने कितने वाक्य मेरे मन में घूमते जा रहे थे-
थैंक यू फॉर ऑल!
सॉरी फॉर इनकंवीनियंस!
आप बहुत अच्छे इंसान हैं…
मगर ज़ुबान को जैसे ताला लग गया था. उसे ये बताने के लिए मेरे पास  शब्द कहां थे कि क्यों इस रिश्ते को दोस्ती का नाम नहीं देकर आगे नहीं बढ़ा सकती. कहने का साहस नहीं था? कि ख़ुद से डरती हूं. कंडक्टर ने सीटी बजाई तो भावों को शब्दों में ढाल न पाने की बेबसी में मैंने अपने हाथ खिड़की से बाहर निकालकर उसके दोनों हाथ थाम लिए. मैंने देखा उसकी आंखों में मोती से चमकने लगे थे, जिनमें मेरा प्रतिबिंब था. फिर लगा उसकी आंखें आकाश बन गई हैं या फिर समंदर जिसके विस्तार की कल्पना भी नहीं की जा सकती. लगा मैंने जो कुछ भी नहीं कहा उसने सब सुन लिया है. हमारी आंखें एक-दूसरे की आंखो में एकटक देख रही थीं. लगा जैसे आसपास कुछ भी नहीं था. व़क्त ठहर सा गया था. जैसे फूलों पर मंडराती तितली या हवा में हिलता गुलाब सब स्थिर हो गए थे या मेरे और उसके अलावा इस ब्रह्मांड में और कोई है ही नहीं.


और हमारे छूटना न चाहने वाले हाथ धीरे-धीरे छूटते गए. जैसे नदी अपने तटबंधों में बंधी बहती ही चली जाती है. बस चलने के बाद पनीली दृष्टि अपनी हथेलियों पर पड़ीं, तो देखा उन पर एक काग़ज़ का टुकड़ा रखा था. उसमें एक फोन नंबर और मेल आईडी थी. लिखा था, अगर जीवन में कभी भी किसी भी चीज़ के लिए आपको लगे कि मैं आपके काम आ सकता हूं तो झिझकिएगा मत…
अब मेरी आंखें अंबर बन गईं. सदियों से जमती गई बूंदें उमड़ पड़ीं. मैं भले ही कुछ न कह पाई थी, पर उसने कुछ न कहकर भी एक पंक्ति में सब कुछ कह दिया था. प्लेटोनिक लव मेरे मन की छोटी सी कटोरी में निर्झर बनकर बरस गया था. भले ही मुझमें उसे थामकर रखने की पात्रता नहीं थी, पर उसके कभी इस जीवन में आए होने का एहसास भी कम सुखद न था. एक अमूल्य निधि पाकर खो दी थी या खोकर पा ली थी, कह नहीं सकती. तभी जलस्रोत आ गया. मैं उतरकर उसे देखने लगी. नयन ठहर से गए. कितनी ख़ूबसूरत धारा थी. वो ठीक कह रहा था. न नदी ने संयम तोड़ा था, न आसमान बौराया था. पर्वतों के भीतर युगों से बह रही जलधारा चट्टान फोड़कर सूर्यदर्शन को निकली थी और अब बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ वापस उन्हीं अंध गुफाओं में समाती चली जा रही थी. अपनी नियति के सामने नतमस्तक सी, सहज! निरंतर गतिशील! मौन!

भावना प्रकाश

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Photo Courtesy: Freepik

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