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कहानी- तनु की सहेलियां (Short Story- Tanu Ki Saheliyan)

अगले कई दिन मैं मन ही मन काफ़ी हैरान रही. एक तरफ़ बेटे की अस्वस्थता, बहू की परेशानी और दूसरी तरफ़ इन फैशनेबल तनु की सहेलियों का रात-दिन इस परेशानी में इतना सहारा.

मैंने अपने ग़ुस्से पर नियंत्रण रखते हुए धीरे से कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया. शाश्वत सो रहा था. बाहर से आती हुई आवाज़ों से चिढ़ते हुए मैं आराम करने के लिए शाश्वत के बगल में लेट तो गई, पर ग़ुस्से में मुझे नींद न कभी आई थी, न आज आनेवाली थी. इतने में तनु अंदर आई, आकर मेरे कान में धीरे से फुसफुसाई, "मां, बाहर आइए न, सब आपको बुला रही हैं. आओ न मां." कहते हुए तनु ने जब मेरा हाथ पकड ही लिया, तो मैं कहां मना कर सकती थी, लाड़ली बहू जो है मेरी.
बहू कहां, बेटी ही तो समझते हैं सब उसे मेरी. है ही इतनी प्यारी, जिस दिन से घर में आई है घर-आंगन खिल उठा है मेरा. बेटी न होने का मेरा सारा मलाल ख़त्म हो जाता है, जब वो मुझे मां कहती है. मेरा सारा ग़ुस्सा ख़त्म हो गया था. मैंने कहा, "अच्छा, तुम जाओ. दस मिनट थोड़ा लेटकर आ रही हूं."
तनु, "अच्छा मां." कहते हुए चली गई.
दस मिनट तो चाहिए थे न मुझे अपने मन को पूरी तरह से शांत करने के लिए, बाहर से फिर आवाज़ें आईं, पर अब मुझे उतना ग़ुस्सा नहीं आया, क्योंकि तनु ने मुझे बाहर आने के लिए कहा है, तो अब मुझे जाना ही है.
आज घर में तनु की किटी पार्टी है. तनु की नौ सहेलियां आई हुई हैं. सब हैं तो तनु की उम्र की, मुझे सम्मान भी देती हैं, पर मेरा मूड उनके कपड़े देखकर ख़राब हो जाता है. इतने आधुनिक! कोई वनपीस, कोई स्कर्ट पहनकर आई हुई हैं. कोई इतना टाइट टॉप-जींस, कोई साड़ी पर ब्लाउज़ ऐसा की आंखें झुक जाएं, क्योंकि पीछे तो कुछ है ही नहीं.
मेरी तनु अच्छी है, आधुनिक कपड़े पहनती भी है, तो ऐसे कि अच्छी लगती है. आज भी ढीले से ब्लैक टॉप और जींस में सबसे अच्छी लग रही है. किटी है, इसलिए सब अपने बच्चे या तो स्कूल या घर छोड़कर आई हैं. जिनके बहुत छोटे है, वे साथ लाई हैं. मैं तनु से कई बार कहती भी हूं, "तनु, यहां मुंबई में तेरी सहेलियों को यही मिलता है पहनने के लिए?" वह हंस देती है, "तो क्या हुआ मां, उन्हें अच्छा लगता है, वे ये सब पहनकर ख़ुश होती हैं, इसमें बुरा क्या है? मेरी ये सब सहेलिया बहुत अच्छी हैं." मैं उसे चिढ़ाती हूं, "रहने दे, पहनावे से नहीं लगती." वह मुस्कुराकर रह जाती है.

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मैं माया भार्गव, बासठ वर्षीया रिटायर्ड टीचर, हर साल तीन-चार महीने के लिए रुड़की से मुंबई ज़रूर आती हूं, रुड़की में मैं अकेली रहती हूं, वहां मेरा घर है, मेरा फ्रेंड सर्कल है, मेरा मन वहीं लगता है. सारी उम्र वहीं तो बिताई है. वहां घर के कामों के लिए राधा है, पर यहां अपने इकलौते बेटे मनोज, बहू तनु और पोते शाश्वत के बुलावे पर आना पड़ता है. तनु सुशिक्षित हाउसवाइफ है. शाश्वत की अच्छी तरह से देखभाल करने के लिए तनु ने जॉब करने की सोची ही नहीं. मुझे उसकी यह बात बहुत पसंद आई थी, क्योंकि मनोज तो वैसे ही अक्सर टूर पर रहता है, वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ा अधिकारी है.
"आंटी, आइए न", अरे यह तो तनु की किसी सहेली की आवाज़ है, मेरी तंद्रा भंग हुई. मैं धीरे से दरवाज़ा बंद कर तनु की आधुनिक सहेलियों में जाकर बैठ गई, हर साल आते रहने से मैं उसकी सभी सहेलियों को अच्छी तरह से जानती हूं. सीमा ने कहा, "आंटी, आप कहां थीं, आइए, हमारे साथ हाउजी गेम खेलिए." मैंने सीमा पर नज़र डाली, घुटनों तक स्कर्ट पहने, ऊपर स्लीवलेस टॉप, मैंने सोचा दस साल के बेटे की मां है. समझती क्या है अपने आपको!
मैंने प्रत्यक्षतः कहा, "नहीं, नहीं, तुम लोग खेलो, मैं ऐसे ही बैठूंगी." नीला बोली, "आटी, फिर आप नंबर बोल दीजिए, हम लोग खेल लेंगी." मैं हाउजी के नबर बोलने लगी. अपना नंबर कटने पर सब ख़ूब ख़ुश हो रही थीं. मैंने सोचा, इस बीस रुपए के प्राइज़ के लिए इतना ख़ुश होने की बात होती है क्या? कितना बचपना है!
मैं नंबर बोलती रही. अपना पूरा हाउस जीतने पर रेखा जिसने हद से ज़्यादा स्टाइलिश ब्लाउज़ पहना हुआ था, जिसे देखकर मुझे आज सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा आया था, उठकर डांस करने लगी. कविता और अंजलि भी उसका साथ देने खड़ी हो गई, तो मैं भी मुस्कुरा ही दी, क्योंकि तनु मुझे ही देख रही थी.
इसके बाद स्नैक्स का दौर चला. तनु की फ़रमाइश पर मैंने दही वड़े बनाए थे, जिन्हें उसकी सहेलियों ने बहुत शौक से खाया. शाश्वत की आवाज़ आई, तो मैं उसे देखने चली गई, जितने दिन मुंबई रहती हूं, अपनी तरफ़ से तनु का हर काम में हाथ बंटाती हूं. बेचारी हर काम ख़ुद ही तो करती है. उसे भी कभी कुछ आराम हो जाए. हम दोनों को लोग सास-बहू कम, मां-बेटी ही समझते हैं. तनु के माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका है. एक भाई है, जो विदेश में सपरिवार बस गया है.
तनु की सब सहेलियां चली गईं, तो हम दोनों ने मिलकर सारा सामान समेटा मनोज तो टूर पर गया हुआ था. डिनर के लिए बहुत सी चीज़ें बची ही थी. हम सास-बहू जो भी हो, ख़ुश होकर खा लेती हैं. तनु फिर शाश्वत का होमवर्क करवाने बैठ गई.

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बारिश का मौसम था, इसलिए बाहर टहलने जाने की बजाय मैं घर में ही इधर-उधर टहलते हुए तनु की सहेलियों के बारे में सोचने लगी. अच्छा हुआ तनु सबसे अलग है, सिंपल सी है. नीता, अंजलि, रेखा तो बाप रे..! ऐसी बहुएं आ जातीं, तो मेरी उनसे एक दिन न बनती. कई बार सोचती हूं कि मैं छोटे शहर से हूं शायद, इसलिए कही मेरी सोच छोटी, तो नहीं है. पर शहर की तनु की इन सहेलियों के कपड़े मुझे नहीं जंचते, पर इस उम्र में तो वे बदलने से रही. मनोज टूर से कल आनेवाला था.
अगली शाम हम पर क़यामत बनकर आई. मनोज जिस टैक्सी से आ रहा था उसका भयंकर एक्सीडेंट हो गया. मुंबई की बारिश और ट्रैफिक, फिर यह हादसा. मनोज के साथ जो उसका कलीग अनिल भी था, उसे भी चोटें लगी थीं, पर जब टैक्सी एक खंबे से टकराई, तो ड्राइवर और मनोज ही बुरी तरह ज़ख़्मी हुए थे. मनोज का सिर फट गया था. अनिल ही लोगों की सहायता से ड्राइवर और मनोज को हॉस्पिटल ले गया था.
फोन पर यह ख़बर सुनकर हमारे पैरों से जैसे ज़मीन ही खिसक गई थी. शाश्वत अंजलि को सौंपकर जब हम दोनों बदहवास हॉस्पिटल के लिए निकली, तो नीता ने अपनी कार निकाल ली. पीछे-पीछे तनु की बाकी सहेलियां भी हॉस्पिटल पहुंच गई थीं. हमारे आंसू रुक ही नहीं रहे थे. मनोज आईसीयू में था. उसका सिर फट गया था. दस टांकें लगे थे. पैरों में भी चोटें थीं. कंधे की हड्डी भी टूट गई थी. इतने में मनोज के और सहयोगी भी पहुंच गए थे, वो रात सब पर बड़ी भारी गुज़री.
तनु ने अपनी सहेलियों को घर वापस भेज दिया था. हम भी घर से चालीस मिनट की दूरी पर स्थित हॉस्पिटल में थे, पर घर जाने का मतलब ही नहीं उठता था. अंजलि का फोन आ गया था, "शाश्वत को मैं देख लूंगी, तुम चिंता मत करना." जब मनोज को रूम में शिफ्ट किया गया, हमारी आंखों से आंसू बह चले. पट्टियों में लिपटे मनोज को देखकर दिल की धड़कन बंद सी होती लगी. वह दवाइयों के असर में सोया हुआ था. डॉक्टर ने कहा था कि मनोज कम से कम एक हफ़्ता एडमिट रहेगा.
दूसरे दिन सुबह ही सीमा आ गई. इतने सादे कपड़ों में कि मैं उसे पहचान ही न पाई. कहने लगी, "आंटी, आप मेरे साथ घर चलो. गाड़ी लाई हूं. शाश्वत को तो अंजलि ने तैयार करके स्कूल भी भेज दिया है. आप नहा-धोकर कुछ खाकर वापस आ जाना, फिर मैं तनु को ले जाऊंगी, थोडी देर ये फिर शाश्वत के साथ रह लेगी. शाश्वत को समझा दिया है कि पापा बीमार हैं. सब उनके पास है."
रात को मैं ही शाश्वत के पास रुक गई, उसे स्कूल भेजने के समय अंजलि सुबह-सुबह टिफिन लेकर आ गई. बोली, "शाश्वत, यह तुम्हारा टिफिन, आंटी, यह आपके लिए नाश्ता, आप इसे भेजकर तैयार हो जाइए, आपको हॉस्पिटल छोड़ आती हूं."

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"रहने दो बेटा, मैं ऑटो से चली जाऊंगी."
"नहीं आंटी, आपको ऑटो के झटकों से कमरदर्द होता है न?” मैं उसका मुंह देखती रह गई.
अगले कई दिन मैं मन ही मन काफ़ी हैरान रही. एक तरफ़ बेटे की अस्वस्थता, बहू की परेशानी और दूसरी तरफ़ इन फैशनेबल तनु की सहेलियों का रात-दिन इस परेशानी में इतना सहारा. मनोज को दर्द तो बहुत था, पर अब चिंता की कोई बात नहीं थी. पूरी तरह स्वस्थ होने में तो कई दिन लगनेवाले थे. हम जितने दिन हॉस्पिटल में रहे, उतने दिन अंजलि ने ही घर की साफ़-सफ़ाई मेड से करवाई. उसके पास हमारे घर की चाबी हमेशा ही रहती थी. हमारा खाना-पीना इतने दिन तनु की सहेलियों ने ही संभाल रखा था. हम घर आने पर बनाना भी चाहती, तो पहले से ही बना तैयार मिलता था. मनोज को जिस दिन घर लाए, उस दिन तो सबके पति भी साथ आए, वैसे तो सब हॉस्पिटल में आते-जाते ही रहे थे. धीरे-धीरे जीवन सामान्य रूप से चलने लगा था. सब कुछ पहले जैसा हो रहा था, बदली थी तो एक चीज़, मेरी सोच!
पिछले दिनों मनोज की अस्वस्थता में डूबकर भी तनु की सहेलियों से अपना ध्यान नहीं हटा पाई थी. रात-दिन उसकी एक-एक सहेली को समझा था, जाना था, कितनी अच्छी थीं सब. मैं नासमझ उनके बाहरी परिवेश को देख उनकी आंतरिक ख़ूबियों को नज़रअंदाज़ करती आ रही थी. सबके परिवार-बच्चे थे, घर के काम थे. उन्होंने हमारे लिए जो किया था, क्या में कभी भूल पाऊंगी? मैं तो आजीवन इनकी ऋणी रहूंगी. मेरी तनु को उनका इतना प्यार इतना साथ मिला, वरना यहां हमारा था ही कौन? वे सब न होती, तो कैसे कटते ये दिन. हम अकेली सास-बहू क्या-क्या कर लेतीं और सबसे बड़ी बात, जिस पर मैं हैरान थी और अब मुस्कुरा भी रही थी, वह यह कि अब मेरा ध्यान इन सबके कपड़ों पर जाता ही नहीं था. मुझे तो उनके चेहरे पर छाया प्यार और सहयोग ही दिखता था.
इसमें क्या बुरा हो गया अगर कुछ देर के लिए घर के हज़ारों काम भूलकर सब अपनी मर्ज़ी से थोड़ी सज-संवरकर ख़ुश हो लेती हैं. उनके आधुनिक पहनावे से उनके आंतरिक गुण तो ख़त्म नहीं हो जाते न? उनका प्यार, उनका कोमल स्वभाव, रात-दिन का सहयोग… ये गुण तो उनके आधुनिक पहनावे पर हावी ही रहेंगे ना!
और याद आया उस दिन, जो दस-बीस रुपए की हाउजी जीतने पर ख़ुश हो रही थीं, वह बात तो यही सिद्ध करती है न कि उनके अंदर एक बच्चे सा उत्साह है. खेल कोई भी हो, जीतने का मज़ा हर उम्र में आता है. मुझे उन सब पर प्यार आ रहा था, मुझे मुस्कुराते देख तनु ने पूछ ही लिया, "मां, क्या सोचकर मुस्कुरा रही हैं?"
"मनोज ठीक हो जाए, तो अपनी इन सब सहेलियों को बुलाकर एक पार्टी दे देना, मैं उनकी पसंद की सब चीज़ें बनाऊंगी." हमेशा की तरह मेरे मन की बात समझकर, "हमारी प्यारी मां" कहते हुए तनु मेरे गले लग गई.
- पूनम अहमद

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