"क्या बात है शैलजा? क्यों परेशान हो? तुम तो कभी रात में जागती नहीं, फिर?"
"कुछ नहीं बस नींद नहीं आ रही थी." शैलजा जी ने कहा.
"कैसे आएगी? तुम कभी मेरे बगैर सोई हो?" आंखों में एक चमक दिखी शिवांश के.
सुबह छह बजे ही शैलजा जी की नींद खुल गई. बगल में सोते पति शिवांश की ओर देखा जो अभी सो रहे थे. रात की झल्लाहट के निशान या यूं कहें कि चेहरे पर शिकन, नींद में भी दिख रही थे. एक ठंडी आह भर कर शैलजा जी कमरे से निकल कर बाहर आ गईं. दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर एक कप चाय लेकर ड्रॉइंगरूम की खिड़की के पास बैठ गईं और शांत मन से चाय की चुस्कियां ले रही थीं. साथ ही खिड़की से बाहर बगीचे की ओर देख रही थीं, जिससे उनका मन कुछ शांत हो रहा था.
कहते हैं ना कि रात हम जिस विचार के साथ सोते हैं, सुबह भी उसी विचार के साथ उठते हैं. रात की बातों में मन उलझ गया शैलजा जी का. सोचने लगी बात भी क्या थी? कुछ भी तो नहीं. कल रात शिवांश के मित्र की पत्नी सीमा के बारे में बातें हो रही थीं. उनकी दस अच्छी बातों में एक-दो बुरी बातें भी शामिल थीं. तभी शिवांश के मुंह से निकल गया महिलाओं की आदतें ऐसी ही होती हैं. एक स्त्री होने की वजह से शैलजा जी को यह बात बुरी लग गई. उन्होंने थोड़े कड़े आवाज़ में कहा “हर नारी एक जैसी तो होती नहीं. फिर बात स्त्री या मर्द की नहीं, बात इन्सान की होनी चाहिए." फिर दोनों के बीच बहस शुरू हुई जो जाकर झगड़े पर ख़त्म हुई. और दोनों करवट बदल कर सो गए.
अब ऐसा अक्सर होता है. दोनों के बीच बात किसी भी तीसरे को लेकर होती और ख़त्म झगड़े पर होती.
पर शुरू से ऐसा नहीं था.
शैलजा जी पुरानी बातों में खो गईं. शुरू-शुरू में दोनों के बीच कितना प्यार था. शिवांश शैलजा जी की ख़ूबसूरती के दीवाने थे और सुंदर-सुशील शैलजा जी शिवांश जी से बहुत प्यार करती थीं. जब दोनों का ब्याह हुआ तब सारे रिश्तेदार कहते, “कैसी शिव- पार्वती सी दोनों की जोड़ी है. इन दोनों के नाम का अर्थ भी तो शिव-पार्वती ही है. दोनों के बीच का प्रेम भी शाश्वत है.” सुनकर दोनों मुस्कुराते और अपनी निगाहों से एक-दूसरे को निहाल करते.
जीवन चक्र चलता रहा. दो प्यारे बच्चे हुए. दोनों ने पूरे तन-मन से अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया. शिवांश जीवन में संघर्ष रुपी हलाहल को पिते रहे और शैलजा अपने प्यार की गंगा बहा कर उन्हें शीतल करती रही. दोनों बच्चे अपने माता-पिता के प्यार को देखते हुए बड़े हुए. बच्चे भी बहुत प्यारे थे. ऐसा नहीं था कि दोनों के बीच पति-पत्नी वाली तकरार नहीं हुई. तकरार आती और थोड़ी देर बाद ही इनके प्रेम के आगे हार जाती. छोटे-बड़े मनमुटाव भी हो जाती थी और तुरंत ख़त्म भी हो जाती.
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पहली बार दोनों के बीच मतभेद तब हुआ जब बेटी पूजा अपने पसंद के लड़के के साथ विजातीय विवाह करना चाहती थी.
"नहीं मैं विजातीय विवाह नहीं स्वीकार कर सकता." ज़ोर से चीखें शिवांश.
"पर इसमें हर्ज ही क्या है? हमारी बेटी पढ़ी-लिखी है. नौकरी कर रही है. समझदार है. उसे अपना जीवनसाथी चुनने का पूरा हक़ है." शांति से शैलजा जी ने समझाने की कोशिश की.
"और हम उसके दुश्मन है, जो उसके लिए अच्छा लड़का नहीं खोज सकते? शादी मेरी मर्ज़ी से होगी." पहली बार शिवांश ने तेवर कड़े किए थे.
"हमारी बेटी की ख़ुशी जिसमें हो, हमें वह करना चाहिए ना!" शैलजा जी समझा रही थीं. शैलजा जी की समझदारी और बेटी की ज़िद के आगे हार गए शिवांश. बेटी पूजा की शादी उसके पसंद के लड़के से हो गई. वह ख़ुशी-ख़ुशी ससुराल चली गई. बेटा जय भी हॉस्टल चला गया. घर में सिर्फ़ दोनों पति-पत्नी ही बचे. पर उसके बाद एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया या यूं कहें कि समय परिवर्तित होता ही है. शिवांश जी के अहम को चोट लगी. जिसका दर्द दोनों के रिश्तों में फैल गया.
जब एक बार असहमतियों के बीज पनप जाते हैं तो वह बहुत तेजी से फैलते हैं.
अब हर छोटी बात पर असहमतियां होने लगी.
"सुनिए ज़रा एसी कम कर दीजिए ना. मुझे ठंड लग रही है." प्यार से ही कहा था शैलजा ने.
"अरे, तो मुझे गर्मी लग रही है ना. ऐसा करो तुम थोड़ा मोटा कंबल ले लो." सख्ती से कहा शिवांश ने.
"आज तुम ने फिर बैंगन बना दिया? मैं ठीक से खाना नहीं खा पाया. जानती हो मुझे पसंद नहीं."
"पर मुझे तो पसंद है ना. मैं अपने पसंद का खाना नहीं बना सकती. पूरी ज़िंदगी तो बस आप की ही इच्छाओं का ही मान रखा है. ख़ुद को तो भूल ही गई हूं."
"मैंने कब कहा ऐसा करो? जो भी की होगी अपनी मर्ज़ी से की होगी. सब जानते हैं मैं भी सिर्फ़ तुम्हारा मुंह देखकर जीया हूं."
"मेरे लिए नहीं अपने परिवार के लिए. वो तो मैं ही थी जो सब सह कर आपके परिवार को संभाला."
"मैंने भी तुम्हारे मां-बाप का बहुत किया है. दामाद होकर भी बेटे की तरह रहा हूं."
"तो मैंने कौन सा कम किया है. तुम्हारी बहन की शादी में अपने ज़ेवर दे दिए. जो सिर्फ़ मेरा था..."
इस तरह की बातें अब अक्सर होने लगी.
घर का माहौल भारी और बूझा-बूझा रहने लगा. एक चुप्पी सी छा गई.
दोनों या तो एक-दूसरे से बात नहीं करते और अगर करते तो बात जाकर झगड़े पर ख़त्म होती.
शुरू-शुरू में तो एक-दूसरे को सॉरी बोल कर बात ख़त्म कर देते, पर जब यह हमेशा का हो गया तो वह भी बंद हो गया.
दोनों के बीच प्यार की कोई बात नहीं होती. जब भी कोई बात होती तो वह जाकर झगड़े पर ख़त्म होती. ऐसा नहीं था कि दोनों को दुख नहीं होता या अपनी ग़लतियों पर ध्यान नहीं जाता, पर दोनों एक-दूसरे के सामने स्वीकार नहीं करते.
बच्चे भी बीच में आकर सुलह कराने की कोशिश करते पर वो कामयाब नहीं होते.
दोनों के बीच का प्यार कहीं खो गया, पर एक बात थी दोनों को एक दूसरे की फ़िक्र रहती.
एक सुबह शिवांश देर तक सोते रहे, शैलजा जी परेशान हो गईं.
"आपकी तबियत ठीक है ना? इतनी देर तक सो रहे थे?"
"अरे, बस थोड़ा सिर भारी लग रहा है. लगता है वायरल फीवर हो गया है." शैलजा जी भागती हुई किचन में गईं और काढ़ा बना लाई. अपनी कर्तव्यों से दोनों एक-दूसरे का ख़्याल रखते, पर जाने वो कौन सी फांस चुभ गई थी, जो दोनों को सहज नहीं होने दे रही थी.
शैलजा जी जब अपनी बेटी को ख़ुश देखतीं तो अपने फ़ैसले पर गर्व करतीं और शिवांश उन्हें पूरी तरह ग़लत लगते.
शिवांश भी बेटी को ख़ुश देखते तो ख़ुद भी ख़ुश होते और अपने पिता होने पर गर्व करते और अपने समझौते को सही मानते.
पर पति-पत्नी के बीच आई दरार जाने क्यों चौड़ी होती जा रही थी.
एक-दूसरे का ख़्याल भी अब दूर से रखा जाने लगा. बच्चों को माध्यम बना लिया जाता, पर मीठे बोल, अपनापन, नज़दीकियां सब खो चुकी थीं. दोनों के बीच अपनी कोई बात होती नहीं और किसी और की बात होती तो झगड़े पर ख़त्म होती.
शैलजा जी इन्हीं विचारों में खोईं थी कि मेड आ गई और दिनचर्या शुरू हो गई. शिवांश भी उठ गए थे. मेड ने उन्हें चाय बनाकर दे दिया था. वो चुपचाप अपने कामों में लग गए. ना उन्होंने शैलजा जी से कुछ कहा और ना शैलजा जी ने कुछ बोला. सन्नाटा व्याप्त था.
दोपहर को बेटी पूजा का फोन देखकर मुस्कुराई शैलजा जी.
"मम्मी, आज पापा से फिर झगड़ा हुआ क्या?"
"नहीं तो!" झूठ बोलने की असफल कोशिश की शैलजा जी ने.
"क्यों झूठ बोल रही हैं मम्मी? आपकी आवाज बता रही हैं?"
जिस तरह एक मां अपनी बेटी की आवाज़ सुनकर समझ जाती है कि उसकी बेटी कैसी है उसी तरह एक बेटी भी समझ जाती है कि उसकी मां कैसी है?
"आपको मुझसे कुछ भी छिपाने की ज़रूरत नहीं है. मुझे पता है कि क्या हुआ होगा? आपके और पापा के बीच कोई प्रॉब्लम तो है नहीं जिसे सॉल्व किया जाए. बस किसी बात पर आप सहमत नहीं हुई होंगी और आप दोनों के बीच झगड़े हो गए होंगे."
"हां ऐसा ही कुछ हुआ है." मुस्कुरा उठी शैलजा जी. बोलीं, "क्या करूं मुझसे ग़लत बात बर्दाश्त ही नहीं होती और मैं उलझ पड़ती हूं तेरे पापा से. कितनी भी कोशिश करू बात बिगड़ ही जाती है. समझ ही नहीं आ रहा क्या करूं? जिससे शांति रहे और सुकून से जी सकें."
"यही तो आपको तलाश करना है मम्मी. जो पापा आपकी हर बात मान जाते थे, वो आज आपसे क्यों असहमत होने लगे? आपको पता है मैं अपने पति से आपके और पापा के रिश्ते को आइडल बताती हूं! मैंने आप दोनों को प्यार से एक साथ जीवन जीते देखा है. आप दोनों के प्यार को देखकर ही तो मुझे प्यार पर भरोसा हुआ है. आपकी समझदारी ही मेरे जीवन का आधार रहा है. अपने माता-पिता के बीच प्रेम देखना हर बच्चे का सौभाग्य होता है. जीवन पर भरोसा होता है. अब जब आप दोनों को एक-दूसरे की ज़्यादा ज़रूरत है तो आप एक-दूसरे से दूर हो रहे हैं. क्यों?
ये सही नहीं है मम्मी.
मुझे आप पर पूरा भरोसा है आप ज़रूर तलाश लेंगी अपने खोए हुए उन पलों को. आप उन्हें खोजिए मम्मी.""तुम्हें क्या लगता है मैंने कोशिश नहीं की होगी? पर जाने तुम्हारे पापा को क्या हो गया है? कुछ समझते ही नहीं. मैं तो थक गई हूं." खीजते हुए जवाब दिया शैलजा जी ने.
"मेरी मम्मी कभी हार नहीं सकती. प्लीज़ मम्मी, ख़ुद के लिए, अपने बच्चों के लिए. आपको सब ठीक करना ही होगा. आप तो मेरी प्रेरणा हैं. मैं हमेशा अपने पति से आपके और पापा के रिश्ते का उदाहरण देती हूं, मैंने आप के हेल्दी रिलेशनशिप को देखा है. मैं जानती हूं आप सब ठीक कर लेंगी. एक बार कोशिश तो कीजिए."
"अच्छा चलो मैं फोन रखती हूं." कहकर शैलजा जी ने फोन रख दिया.
बहुत ही शांत और गंभीर हो कर अपनी बेटी की बातों को सोचने लगी.
यह तो सच है कि हम जिस भी दिशा में अपने कदम बढ़ाते हैं फिर उधर ही बढ़ते चले जाते हैं. जब एक बार असहमतियों की तरफ़ बढ़े तो फिर बढ़ते ही चले गए. हम दोनो ख़ुद को एक-दूसरे से बेहतर साबित करने की कोशिश में लग गए, जिससे हमारा टकराव शुरू हो गया. प्रेम तो एक-दूसरे के प्रति समर्पण से आता है, जो हमने खो दिया और अपने-अपने अहम को संभालने में लग गए.
अब शैलजा जी को अपनी कमियां समझ आने लगी थीं. अगर शिवांश के अहम को ठेस लगी थी तो उन पर प्यार का मरहम लगाना था, पर वह अपनी तर्क शक्ति से ख़ुद को श्रेष्ठ साबित करने लग गईं. पुरुष का अहम तो प्रबल होता ही है. स्त्री को सहनशक्ति रखनी होती है. दोनों दो व्यक्तित्व के इंसान हैं तो विचारों में समानता कहां होगी. ज़िंदगी को देखने का नज़रिया दोनों का अलग होगा. दोनों को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए.
पहले तो ऐसा था ही क्योंकि दोनों के बीच प्यार था और प्यार इन सब विकारों से ऊपर होता है. समय के साथ हम दोनों के बीच का प्यार कहीं खो गया, हमें उसे ही ढूंढ़ना है.
शैलजा जी ने तलाश तो कर ली, पर उन्हें अमल कैसे करें! इसी ऊहापोह में थीं.
शाम को शिवांश आए. कपड़े बदल कर चुपचाप चाय पीने लगे. शैलजा जी को समझ ही नहीं आ रहा था क्या बोले. थोड़ी देर बाद शिवांश टीवी पर न्यूज़ देखने लगे. शैलजा जी क़रीब जा कर बोलीं, "लाइए आपका सिर दबा दूं."
"पर सिर तो दुख नहीं रहा." हैरानी से शिवांश जी ने शैलजा जी को देखा.
"अच्छा! फिर पास ही बैठ जाती हूं." दोनों चुपचाप एक-दूसरे के पास बैठे रहे. कहने के लिए कुछ भी नहीं था या बहुत कुछ कहना था जो दोनों कह नहीं पा रहे थे.
रात का खाना खाते हुए शैलजा जी ने कहा, "ऐसा करते हैं कहीं घूमने चलते हैं. एक ही तरह के माहौल में रहते हुए उब सी गई हूं."
"पर हम जहां भी जाएंगे, हमारे फिर झगड़े होंगे. तो कहीं और जा कर झगड़ा करने से बेहतर है हम यहीं रह कर झगड़ा करें." शिवांश जी ने उत्तर दिया.
शैलजा जी उदास हो गईं. उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था सब कैसे ठीक करें.
रात शिवांश जी के सो जाने के बाद भी शैलजा जी को नींद नहीं आ रही थी. लगातार करवटें बदलने के बाद बाहर बरामदे में आ कर बैठ गईं. तभी अपने कंधे पर शिवांश जी की हथेली महसूस हुई.
"क्या बात है शैलजा? क्यों परेशान हो? तुम तो कभी रात में जागती नहीं, फिर?"
"कुछ नहीं बस नींद नहीं आ रही थी." शैलजा जी ने कहा.
"कैसे आएगी? तुम कभी मेरे बगैर सोई हो?" आंखों में एक चमक दिखी शिवांश के. "मैं जानता हूं तुम सब कुछ ठीक करने की कोशिश कर रही हो. मैं शाम को घर आया तभी मुझे मेरी पुरानी शैलजा दिख गई थी. मैं तो बस तुम्हारे कहने का इंतज़ार कर रहा था. पर तुम कह नहीं पाई और तमाम बहाने ढूंढ़ती रही, जिसकी ज़रूरत नहीं थी. मैं तुम्हारा पति हूं बस मेरी बांहों में आना था, पर तुम आ ना सकी. जानती हो क्यों? तुमने मेरे और अपने बीच श्रेष्ठ होने की लकीर खींच ली. जो नहीं होना चाहिए था. मैं यह नहीं कहता कि मैंने ग़लतियां नहीं की, पर इन सब के ऊपर एक सच यह है कि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं और तुम्हें परेशान नहीं देख सकता. इसलिए तुम्हारे पास चला आया.
सारे लड़ाई-झगड़े, असहमतियों के ऊपर सिर्फ एक चीज़ है जो है प्रेम.
प्यार के आगे सब हार जाते हैं और हमें इसे ही बचाना है. जाने क्यों यह छोटा सा काम हम क्यों नहीं कर पाए? हम दूर जाने के सैकड़ों कारण देखें, पर पास आने का एक छोटा सा प्रयास नहीं किया, जिसका दोषी मैं भी हूं. अगर हम अपनी ख़ुशियों का रास्ता तलाशते तो हमें ज़रूर मिल जाता."
शैलजा जी शिवांश के सीने से लग गईं.
शैलजा जी की तलाश पूरी हो गई थी.
सुबह जब सो कर उठीं तो पति शिवांश की तरफ़ देखा जो अभी तक सो रहे थे. उनके चेहरे पर एक मुस्कुराहट और इत्मीनान था.

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