शाम को सुनील के बहुत ज़ोर देने पर मैं घर जाने को तैयार हुई थी, लेकिन देहरी पर पांव रखते ही ताऊजी की गरजती आवाज़ और ताईजी की अश्रुपूरित लाल सूजी हुई आंखों ने हमें जहां का तहां जड़ कर दिया. जाने क्या-क्या कहते रहे सब लोग. मैं और सुनील सिर झुकाए सुनते रहे, लेकिन ताईजी कुछ न बोलीं.
मैं अस्पताल की विशाल सफ़ेद इमारत के समाने पसरे लॉन पर बिछा हरी घास के मखमली नरम गलीचे पर ढह सी गई. नीम के सघन वृक्ष की शीतल छाया में जून की उस तपती दोपहरी में झुलसे तन-मन को राहत सी मिली. देर तक आंखें मूंदे मैं सुस्ताती रही. इस अवस्था में और ऐसी मन स्थिति में दिल्ली से गाजियाबाद तक का सफ़र उस खटारा बस में करते-करते शरीर के एक-एक जोड़ में टीस उठने लगी थी.
ताऊजी का तार आया था कैंसर प्रस्त ताईजी ज़िंदगी की अंतिम घड़िया गिन रही हैं, चाहो तो आकर देख जाओ. सुबह नौ बजे तार मिला था. पौने नौ बजे सुनील ऑफिस के लिए रवाना हो चुके थे. बदहवास सी बिना कुछ सोचे-समझे मैं तुरत अस्पताल पहुंचने को छटपटा उठी. उसी समय कमरे में ताला लगा कर मैं तुरंत निकल पड़ी. साढ़े नौ वाली बस पकड़ कर हर हाल में ग्यारह बजे तक गाजियाबाद पहुंच ही जाऊंगी. यही सोच कर मैं तेज-तेज कदम बढ़ाती बस स्टॉप पहुंची. किसी तरह धक्का-मुक्की करके बस में एक पांव भर रख सकने लायक जगह बना सकी. धक्के खा-खा कर चलती बस से एक-एक हड्डी कड़कने लगी थी.
पास की सीट पर एक मोटी सी हरियाणवी औरत नाक बहाते चार-पांच साल के बच्चे के साथ पूरी सीट पर पसरी ऊंघ रही थी. मैली-कीचट धोती. जम्पर से दुर्गंध आ रही थी. मेरा मन वितृष्णा से भर गया. अचानक बस के एक ज़ोरदार झटके से उसकी आंख खुल गई. एक बार उसने अपनी उनींदी आंखों से मुझे ऊपर से नीचे तक घूर कर देखा. फिर खिसक कर जगह बनाती हुई बोली, "बैठ जाओ भैणजी."
मैं विवश सी उतनी सी जगह पर किसी तरह से टिक गई. वह कुछ देर तक बस में भरी भीड़ को कोसती रही, फिर अचानक पूछ बैठी, "आप कहां जाओगी भैणजी?"
"गाजियाबाद." मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.
"अच्छा.. अच्छा.. कोई रिश्तेदारी में जाती दोखो हो."
"हूं…" मैं फिर अपने ख़्यालों में खो गई. अम्मा की मौत के बाद ताईजी ने ही मुझे पाला-पोसा था. अम्मा और ताई, जो बचपन की पक्की सहेलियां व चचेरी बहनें थीं ब्याह कर एक ही घर में आने के कारण वह स्नेह और भी प्रगाढ़ हो गया. सम्राल में भी वे जेठानी-देवरानी बन कर नहीं, बल्कि सहेलियों की तरह ही रहती थीं. मेरे जन्म से पांच महीने पहले ही ताईजी ने राजेंद्र भैया को जन्म दिया था. पूरा घर ख़ुश था, लेकिन ताईजी लड़की चाहती थीं. अपने घर मे वे पाच भाइयों की इकलौती बहन थीं. उन्हें उदास देख कर अम्मा ने कहा था, "तुम उदास मत हो जीजी, मेरी बच्ची होगी तो मैं उसे तुम्हे सौंप दूंगी."
अम्मा ने शायद होनी को भांप लिया था. मेरे समय में वे अक्सर बीमार रहा करती थीं और मेरे जन्म के एक हफ़्ते बाद ही मुझे ताईजी की गोद में डाल अम्मा ने आखें मूंद लीं .
अपने पांच महीने के अबोध शिशु को भुला-बिसरा ताई, जो मेरी ही परवरिश में खो गईं शायद अपने बचपन की प्रिय सखी को वे मुझ में तलाश करती थीं और उसके बिछोह का दुख वे मुझे पाकर भुलाना चाहती थीं.
बाबूजी ने तो मुझे कभी छुआ तक नहीं. हां, ताऊजी ज़रूर कभी-कभार मुझे दुलरा देते और भूले-भटके एकाध फ्रॉक भी ले ही आते थे.
उस पूरे घर में ताई जी मेरे लिए एक ऐसा विटप थीं जिसकी सघन छाया में मैं पूर्णत सुरक्षित थी. घर भर की ज़िम्मेदारियां सहज ही अपने ऊपर ओढ़ लेने की प्रवृत्ति ने उन्हें पति और बच्चों से बहुत दूर कर दिया था, लेकिन मैं नितात उनकी अपनी थी. शायद इसलिए कि हम दोनों के मन की प्यास एक ही थी और वह एक-दूसरे से ही बुझती भी थी.
फिर वह दिन दादी, बाबूजी, ताऊजी सभी से लड़-झगड़ कर ताईजी ने मुझे कॉलेज में दाख़िल करा दिया था. सभी ने उनका घोर विरोध किया था. दादी ने तो यहां तक कह दिया था, "देखना एक दिन यह लड़की सारे घर की नाक कटवाएगी."
लेकिन ताईजी का वह दृढ विश्वस मैं ख़ुद भी नहीं समझ पा रही- कहां, क्या कमी रह गई थी ताईजी का दृढ़ विश्वास खंडित करते समय मैं कुछ न सोच सकी थी. बस, मैं यही जानती थी कि मेरी तृष्णा का अंत सुनील को पाने पर ही होगा और यह भी कि यह संबंध घरवालों को फूटी आंख न सुहाएगा. जाति-पाति के मामले में ताईजी बहुत कट्टर थीं, वे इस मोर्चे पर ज़रूर हार जाएंगी और मैंने चुपचाप सुनील से कोर्ट मैरिज कर ली.
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शाम को सुनील के बहुत ज़ोर देने पर मैं घर जाने को तैयार हुई थी, लेकिन देहरी पर पांव रखते ही ताऊजी की गरजती आवाज़ और ताईजी की अश्रुपूरित लाल सूजी हुई आंखों ने हमें जहां का तहां जड़ कर दिया. जाने क्या-क्या कहते रहे सब लोग. मैं और सुनील सिर झुकाए सुनते रहे, लेकिन ताईजी कुछ न बोलीं. मैं उनके पांव छूने झुकी तो वह एकदम फूट पड़ी, "हमसे क्या ग़लती हो गई जूही, जो तुमने ज़िंदगी का इतना बड़ा फ़ैसला किया और और हमसे पूछा भी नहीं?" वे तेजी से भीतर पलट गई और भड़ाक् से दरवाज़ा बंद कर दिया फिर हम वहां न रुक सके.
सुनील ने दिल्ली में काम ढूंढ़ लिया और अपने एक दोस्त के यहां एक कमरा किराए पर लेकर रहने लगे.
बहुत दिनों तक ताईजी की उलाहना देती लाल-लाल आंखें मेरे मन में टीस जगाती रही. मैंने चोरी-छिपे दो पत्र भी लिखे, लेकिन कोई जवाब नहीं आया. हफ़्तों बेसब्री से इंतज़ार करने के बाद मैं फूट-फूट कर रो पड़ी थी. क्या
सचमुच मेरा अपराध इतना बड़ा था कि ताईजी भी मुझे क्षमा न कर सकीं?
सुनील के प्यार के सहारे धीरे-धीरे मै भी सब कुछ भुला कर अपनी गृहस्थी में रम गई. प्रेम का प्रथम पुष्प मेरी कोख में कुलबुलाने लगा था. मैं आने वाले नन्हे मेहमान के सपनों में खोई सब कुछ भूल भी चुकी थी कि अचानक यह तार.
बस एक धक्का खाकर रुक गई.
मैं चौंक कर जाग सी पड़ी और बस से उतर कर पैदल ही अस्पताल की तरफ़ चल पड़ी.
पता चला, मिलने का समय बारह बजे से है. उफ़ अभी तो पूरा एक घण्टा पड़ा है. मैं गेट से आने-जाने वालों को देखती हुई समय काटने लगी. ध्यान अटक कर फिर ताई जी पर चला गया. ताईजी इतनी कठोर हो गईं कि अपनी बीमारी की ख़बर तक न भिजवा सकीं.
एक बार यह भी न जानना चाहा कि बचपन की सखी की जिस धरोहर को वे पाल-पोस रही थी वह सुरक्षित हाथों में है या नहीं. ज़िंदा है या मर गई. मेरा मन भर आया जी चाहा अभी ताईजी के पास पहुंच कर ख़ूब लड़ूं.
कोलाहल सुन कर मेरी तंद्रा भंग हुई. देखा पूरा लॉन मिलने-जुलने वालों की भौड़ से भर गया. में घुंधलाई आंखें पोंछने के लिए दूसरी तरफ़ घूम गई, जहां पीले सुनहरे फूलों में लदा अमलतास का एक वृक्ष कुछ झुका-ठिठका सा खड़ा था मानो लोगों की कानाफूसियां सुनने का प्रयत्न कर रहा हो.
गेट खुल गया था. मिलने वालों का तांता लगा हुआ था. मैं वार्ड नं. बेड नं. आदि पूछती तेज-तेज कदमों से कमरे तक पहुंची. देखा ताईजी बेड पर पड़ी चुपचाप छत को ताक रही थीं. मैं उनके पलंग के पास जा कर खड़ी हो गई. ताईजी की हालत देख कर जी भर आया. गुलाब के फूल सा खिला रहने वाला चेहरा मुरझा कर काला पड़ गया था. गोरे-गोरे चिकने हाथों की जगह दो सूखे ठूंठ से रह गए थे. दो साल के भीतर इतना बदलाव.
मुझे देखते ही ताईजी के होंठों पर मुस्कराहट दौड़ गई,
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"जूही… तू आ गई मुनिया?"
रोकते-रोकते भी आंखें बरस पड़ीं. ताईजी के सीने से लग कर मैं देर तक रोती रही. मेरे बालों पर हाथ फेरती ताईजी निःशब्द आंसू बहाती रहीं. मन का आवेग कम होने पर मैं रूंधे गले बोली, "तुम्हारी यह हालत हो गई और मुझे ख़बर तक नहीं दी. मैं क्या इतनी बेगानी हो गई थी?"
"लड़कियां तो होती ही हैं बेगानी. फिर तुम तो पहले ही बेगानी हो गई थीं. तुमने एक बार भी न सोचा मुन्नी कि उन लोगों के बीच हम हमेशा तुम्हारे लिए ही लड़ते थे तो किसी विश्वास पर ही न, पर… पर तुमने तो हमारा वह विश्वास ही तोड़ दिया… हम तो मुंह दिखाने काबिल न रहे… जिस जूही को हमने अपने बच्चों से बढ़ कर माना… पाला-पोसा, उसी ने हम पर ज़रा विश्वास न किया… जानती हो, तुम्हारे जाने के बाद हम पर क्या बीती?"
ताई फफकती-सिसकती कहे जा रही थीं, "वही बाबूजी जो यह भी नहीं जानते कि उनकी बेटी की शक्ल कैसी है, कहते हैं, 'अपनी बेटी होती तो देखता कैसे ऐसा क़दम उठाने देतीं…" ताई का कंठ रूंघ गया, "और वे दादी, जो उठते-बैठते तुम्हें कोसती थीं, कहतीं, 'अरे, अपनी लड़की होती तो क्या ऐसे खाली हाथ जाने देती. उस बिन मां की बच्ची को बिगाड़ कर अपना घर भर रही है."
मैं स्तब्ध सुनती जा रही थी, "हमें तुम्हारी सब चिट्ठियां मिल गई थीं बिटिया, लेकिन हमने अपने दिल पर पत्थर रख लिया था. अगर ये लोग तुम्हारा पता पा जाते तो हमारे साथ-साथ तुम्हारी ज़िंदगी भी दूभर कर देते."
मैं अब अपने को रोक न सकी, "ताई. तुम्हारे साथ इतना बीता और तुमने मुझे एक बार ख़बर भी न दी. इतनी नाराज़ थीं मुझसे?"
ताई ने मेरा सिर सहलाते हुए रूंधे कंठ से कहा, "नहीं जूही हम तुमसे कभी नाराज़ नहीं रहे. हमारे मन में सदा यही कामना रही कि तुम जहां भी रहो सुखी रहो. हम तो चले जाते पर तुम्हें ख़बर न देते, लेकिन क्या करें हमारा भगवान गवाह है, हमने सदा तुम्हें अपनी बेटी ही माना है. तुमसे मिले बिना प्राण आसानी से न छूटते इसीलिए तुम्हारे जाऊजी को हमने अपनी कसम देकर तार करवाया."
मैं फूट-फूट कर रो पड़ी. ताई ने मेरी पीठ सहलाते हुए कहा, "ना, रोओ मत मुन्नी. तुम्हारी तबियत ख़राब हो जाएगी. बिटिया, क्या करें बच्चे को पालते समय मां-पिता क्या-क्या सोचते हैं, यह तुम नहीं समझ पाओगी. बस एक बात हम तुमसे ज़रुर कहेंगे, तुम्हें पालने में हमसे जो कमी रह गई हो, वह तुम मत रहने देना, वरना बहुत दुख होता है बिटिया… बहुत दुख होता है…"
सीने में चुभते शूल की पीड़ा को दबाती मैं भाग खड़ी हुई.
- पूर्वा श्रीवास्तव
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