आज़ादी और एकांत में निशी ने उस आनंद और शांति का अनुभव किया, जिसकी वह तीन वर्षों से प्रतीक्षा कर रही थी. वे एक-दूसरे को सटे बातें करते रहे और हल्की-फुल्की छेड़छाड़ का आनंद लेते रहे.
"दीपक मैं न कहती थी… घर में क्या रखा है?.."
न चाहते हुए भी झगड़ा हो गया था किन्तु आसाधारण बात यह थी कि निशी ने घर छोड देने की धमकी दी थी. दीपक दिनभर दफ़्तर में बैठा यही सोचता रहा कि वह स्थिति पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार कौन है? वह अपनी पत्नी को भी दोषी नहीं कह सकता था. निशी उसे बहुत चाहती थी, परंतु जिस वातावरण में वह आई थी, उसमें वह ढल नहीं पाई. वह बिल्कुल अलग वातावरण की पली हुई थी. उसने एक आज़ाद पक्षी की भांति खुली हवा में सांस ली थी. इसलिए प्रायः उसे एक संयुक्त परिवार की पाबंदिया और लाज-लज्जा के तकाज़े कुछ पसंद न थे. वह काल्पनिक जीवन पसंद करती थी और चाहती थी कि विवाहित जीवन के पहले कुछ वर्ष तो रंगीन वातावरण और काल्पनिक पृष्ठभूमि में बसर हो. यही कारण था कि उसे घर में घुटन लगती थी. जहां कई बार उसके लिए खुल कर सांस लेना कठिन हो जाता था. वह कहा करती थी, यह भी क्या जीवन है, जहां हर पग फूंक-फूक कर रखा जाए और हर कार्य पर लाज का पहरा हो.
खाना बनाओ, सारे परिवार के लिए मेज पर लगाओ और सबके साथ मिल कर खाओं. एक दूसरे का मुंह देखते रहो. व्यवहार को देखते रहो और कई बार पेट भरने की अपेक्षा मुंह में कड़वाहट लेकर खाने की मेज से उठ जाओ. जबकि उसकी इच्छा यह होती थी कि वह किसी अंधेरे महकते वातावरण में दीपक के कंधे पर सिर रखे, हंसती-मुस्कुराती रहे, छेड़छाड़ करती रहे और खाने के यह पल घंटों में बदलते जाएं.
इन इच्छाओं ने ही झगड़ों और छोटी-छोटी तकलीफ़ों को जन्म दिया था.
यहां तक कि अब उसे घरेलू जीवन से और घर के खाने से ही चिड़ हो गयी थी और इसी चिड के कारण उसे परिवार के लोगों में भी दोष दिखायी देने लगे थे. इसलिए निशी का प्रयास यही रहता कि वह अधिक से अधिक समय घर के वातावरण से बाहर ही व्यतीत करे.
दीपक ने कुछ अलग से वातावरण में जन्म लिया था. घर ही उसका जीवन था. परंतु निशी के अगाध प्यार, दिल को लूट लेनेवाली अदाओं और जीवन के बारे में उसके नए विचारों के सामने वह झुकने लगा था. वह न केवल निशी के विचारों से प्रभावित हो जाता, बल्कि अब उसे निशी के विचारों में गहराई भी नज़र आने लगी थी.
सच ही तो है. जो वस्तु घर से बाहर होटल-रेस्तरां में कहीं अच्छी और कहीं अच्छे वातावरण में मिलती है और हम उसे प्राप्त भी कर सकते हैं तो यह आवश्यक नहीं कि उसे बनाने के लिए घर में समय नष्ट किया जाए, उंगलियां जलाई जाएं और अधपकी व ज़्यादा पकी चीज़ें जैसे-तैसे निगली जाए.
दीपक यह भी जानता था कि चाहे सुबह निशी का मूड़ कितना ही बिगड़ा हुआ हो फिर भी जब वह लौट कर घर आएगा तो हंसती-मुस्कुराती अधखिले गुलाब सी निशी उसे उसकी प्रतीक्षा करती मिलेगी. यही सोच कर उसने अपने मन में निशी के ख़िलाफ़ उठ रही लहरों को निकाल दिया और यह तय कर लिया कि वह घर लौटते ही निशी को कहीं घूमाने ले जाएगा.
उसका अनुमान शत-प्रतिशन सही था. निशी के चेहरे पर सुबह के झगड़े और कड़वाहट का निशान तक नहीं था. वह द्वार पर खड़ी थी वहां से वह दीपक को प्यार से कमरे में ले आयी. तब दीपक ने स्वयं ही सुझाव दिया, "निशी इस इलाके में एक बहुत ही बढ़िया रेस्तरां खुला है. बहुत लोग उसके वातावरण और खाने की बहुत प्रशंसा कर रहे हैं. आज रात का खाना वहीं खाएंगे."
नए ढंग के इस रेस्तरां का बड़े-बड़े वृक्षों से घिरा हुआ बगीचा रोशनी और ख़ुशबू से महक रहा था. बीच में एक फव्वारे से प्रकार की किरणों में धुनी हुई पानी की फुहारे ऊपर उठ रही थीं. खुले वायुमंडल में संगीत की जादूगरी फैली हुई थी. चारों ओर आज़ाद वातावरण में सांस ले रहे लोग गप्पें लड़ा रहे थे.
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निशी और दीपक रेस्तरां के विशेष कमरे जहां लाल रंग की कालीन बिछी हुई थी में आकर भारी सोफे में धंस गए. कमरे का अंधेरा वातावरण निधि के लिबास और बालों की सुगंध से और भी महक उठा था.
आज़ादी और एकांत में निशी ने उस आनंद और शांति का अनुभव किया, जिसकी वह तीन वर्षों से प्रतीक्षा कर रही थी. वे एक-दूसरे को सटे बातें करते रहे और हल्की-फुल्की छेड़छाड़ का आनंद लेते रहे.
"दीपक मैं न कहती थी... घर में क्या रखा है?.." निशी दीपक को प्यार से छूकर फूलों का गजरा उसके गाल पर फेरते हुए बोली.
इतने में रेस्तरां का वेटर झुक कर उन के सामने खाने की मेन्यू रख गया. उन दोनों ने मेज पर रखी टार्च उठाकर मेन्यू देखी. पहली पंक्ति के नीचे सुर्ख़ लकीर डालकर लिखा था- यहां घर जैसे वातावरण में घर जैसा खाना मिलता है.
- एम. के. महताब
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