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कहानी- स्वयंसिद्धा (Short Story- Swayamsiddha)

भावना प्रकाश

"कई बार हम साधन को ही साध्य बना लेते हैं, रास्ते को ही मंज़िल समझ लेते हैं. बहुत सी लड़कियां आज ये ग़लती कर रही हैं." बाबूजी को इतनी गंभीर बातें करते मैंने कभी नहीं सुना था. मैंने उनकी बातों का अर्थ समझने की कोशिश में अपनी निगाह उन पर गड़ा दी.
"ख़ुद को हर प्रकार से आत्मनिर्भर बनाना एक सुंदर जीवन पाने के लिए चुना गया रास्ता है, मंज़िल नहीं. ख़ुद को पुरुष के बिना जीने में समर्थ साबित करके तुम पुरुष समाज से उपेक्षित होने का बदला ले रही हो, जिसकी कोई ज़रूरत है नहीं…"

खिड़की का शीशा पोंछने के बाद भी बाहर कुछ भी स्पष्ट नहीं दिख रहा था. बस, कोहरे का समुद्र और पेड़ों की छायाकृतियां. अचानक लगा ये कोहरा है या मन का अवसाद घनीभूत हो गया है? कुछ धुंधलके और कुछ छायाकृतियां! क्या यही उपसंहार है एक अथक संघर्षपूर्ण जीवन का? छुट्टी का दिन है और नौकरानी घर का सारा काम करके जा चुकी है. कल मां ने आते ही मुझे बांहों में समेट लिया था. मन में जमे संशय को आशा की तरंगे पिघलाने लगी थीं, लगने लगा था कि शायद एक नए जीवन की शुरुआत हो, जिसमें मैं भी ढेर सारे स्नेह की अधिकारिणी बनूं. लेकिन आज वो भ्रम टूट गया, ये जानते हुए भी कि आज छुट्टी का दिन है और मैं सारा दिन घर में अकेली हूं, मां-बाबूजी सुबह-सुबह बिना बताए रात तक लौटने को कहकर कहीं निकल गए थे, मुझे मेरी तन्हाई के साथ अकेला छोड़कर.
मैंने सोफे पर पीठ टिकाकर आंखें मूंद लीं. दो आंसू आकर ओस की बूंदों की तरह ठहर गए, मैंने उन्हें पोंछने का प्रयास नहीं किया, तो क्या मां-बाबूजी मुझे अकेलेपन की खाई से निकालने नहीं, बल्कि अपने किसी काम से आए हैं? क्या जीवन का इतना लंबा अथक और अनवरत संघर्ष निरर्थक हो गया? मैं अभी भी उनके जीवन में वही स्थान रखती हूं? एक अवांछित, निरर्थक प्राणी? जिस परिचय से लड़ने में सारा जीवन लगा दिया, आज भी वही परिचय भूत की तरह सामने खड़ा है… लड़की! अवांछित! अनुपयोगी! निरर्थक!


होश संभालने के साथ ही अपना ये परिचय मिला था और इस परिचय से शीत युद्ध शुरू हो गया था. छोटे से शहर के अति साधारण परिवार में कुलदीपक के प्रयास में हुआ तीसरा और आख़िरी असफल प्रयत्न मैं. जाने कितनी बार मां को रिश्तेदारों के अनेक अटपटे से सहानुभूति पूर्ण प्रश्नों के उत्तर देते सुना था कि रिद्धि और रिद्धि के होने के बाद एक और असफल प्रयास कतई नहीं करते थे, इसलिए किसी बाबा की शरण ली थी. वर्षों के यश, पूजा-पाठ के बाद पूर्ण आश्वस्त होने के बाद प्रयास किया था, पर हाय रे विधि का विधान!..
बचपन से दो ही साथी थे पढ़ाई का शौक और ख़ुद को उपयोगी साबित करने का जुनून, मगर घर में न पढ़ाई का माहौल था और न ही मार्गदर्शन व साधन. मां को कुछ तो गृहस्थी के बोझ और अपोषित जीवन ने असमय वृद्ध कर दिया था और कुछ तीन बेटियों की उपलब्धता ने आलसी. बेटियों के विवाह की चिंताएं बाबूजी के व्यवहार में कंजूसी और चिड़चिड़ाहट बनकर बस गई थीं. रसोई के काम दीदियों ने सम्हाल लिए थे और मेरे हिस्से आए थे ऊपर के काम, जिनका न कोई समय था, न निश्चितता. उस पर बाबूजी का परिवार प्रेम. परिवार में किसी की शादी हो, कोई उत्सव हो या साल के ज़रूरी त्योहार, हम सब बाबा के आदेश पर ट्रेन में लाद दिए जाते. जितने दिन घर में बीतते, उतने दिन पढ़ाई और स्कूल का क्या होनेवाला है, यह कोई देखने-सुनने को तैयार न था. लड़कियों की पढ़ाई का भी कोई मूल्य होता है क्या? उन्हें तो विवाह के बाज़ार में अच्छा लड़का पाने के लिए सर्टिफिकेट लेना होता है और वो तो मिल ही जाएगा. इस सोच से युद्ध करके जीते बिना पढ़ाई के लिए निश्चित दिनचर्या बनाना तथा स्कूल में नियमित रहना संभव नहीं था और इसके बिना अच्छा परीक्षाफल असंभव. लेकिन असंभव को संभव बनाने का जुझारूपन ही तो मेरे जीवन की पूंजी थी और इसी जुझारूपन ने मुझे, लड़ाका' बना दिया. लड़ाई और विद्रोह जैसे मेरी नियमित दिनचर्या के अंग हो गए थे.
मां और दीदियों से पढ़ाई छोड़कर घर का काम न करने के लिए और बाबूजी से कभी स्कूल के दिनों में 'घर' न जाने के लिए, तो कभी अपनी या दीदियों की ख़्वाहिशों या ज़रूरतों के लिए पैसे निकलवाने के लिए, कई बार मैं जीत भी जाती, पर कई बार मेरी एक न चलती. तभी रितु मैम कक्षा अध्यापिका के रूप में मिली. अति ममतामई और सहयोगी, एक बार जब बाबा के यहां से लौटने पर उन्होंने अनुपस्थित रहने का कारण पूछा, तो आत्मीयता का प्यासा बालमन फूट-फूटकर रो पड़ा. उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और सांत्वना देने के बाद प्यार से समझाया, "जानती हो, तुम्हारे नाम का मतलब क्या है? स्वयं का मतलब है ख़ुद से और सिद्धा का मतलब है सार्थकता सिद्ध करनेवाला. मेरा विश्वास और आशीर्वाद है कि तुम एक दिन अपनी सार्थकता अवश्य सिद्ध करोगी और अपने नाम 'स्वयंसिद्धा' को चरितार्थ करोगी."
मेरे जुझारूपन का प्रतिफल मेरे परीक्षाफल में दिखाई पड़ने लगा, तो उपेक्षाएं सहयोग में बदलने लगीं. मुझे घरेलू कार्यों से छुट्टी मिलने लगी और मां-बाबूजी हमें छोड़कर बाबा के यहां जाने लगे. कभी दीदियों के साथ, तो कभी मैं अकेले घर पर रुक जाती.
हालांकि आसान ये भी नहीं था. अकेले रुकने के दिनों में ख़ुद खाना बनाना, सारा काम करना और अपने भीतर के डर और बाहरी हमले की संभावनाओं से जूझते हुए दिन बीतते. विषम माहौल में अध्ययन की दिनचर्या निश्चित करने का संघर्ष वैसा ही था, जैसे कोई योद्धा युद्ध के बीच अपने हथियार तराशने के लिए समय निकालता है.
रात को नींद न आती, तो पढ़ने बैठ जाती और सारी-सारी रात पढ़ा करती. रितु मैम ऐसे दिनों में रोज़ एक बार मेरा हाल ज़रूर पूछतीं. उनकी कक्षा कब की पीछे छूट गई थी, पर पढ़ाई में मार्गदर्शन देने में उन्होंने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा. जब कभी मैं अपनी स्थितियों को लेकर मायूस होती, वो मेरा आत्मबल बढ़ाते हुए कहतीं, "ये विषम परिस्थितियां तुम्हें हर तरह से आत्मनिर्भर बनाने के ईश्वरीय उपकरण हैं. बेटा, अनुभव के आधार पर कह रही हूं कि कई बार महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता अकेले न रह सकने की आत्मनिर्भरता के अभाव में निरर्थक सिद्ध हो जाती है. इन परिस्थितियों को स्वयं को आत्मविश्वास से युक्त पूर्ण व्यक्तित्व बनाने का साधन बनाओ."
दीदी को फल-संरक्षण का कोर्स करने की बेहद इच्छा थी, पर बाबूजी से कहने की हिम्मत न थी. बेटियों के विवाह के लिए जी तोड़ मेहनत करके लाखों जमा करनेवाले बाबूजी से पढ़ाई या अन्य किसी शौक के लिए एक पाई भी निकलवा पाना हमेशा से टेढ़ी खीर थी. उनसे अगर कोई लड़ सकता था, तो वो मैं थी और कई बार लड़कर जीती भी थी, तो मोर्चा शुरू हो गया. आख़िर बाबूजी को फीस देनी पड़ी, पर नतीज़ा ये निकला कि मेरी गणित की कोचिंग के लिए उन्होंने साफ़ मना कर दिया. शुक्र था कि ट्यूशन्स से गणित की कोचिंग की फीस का इंतज़ाम हो गया. पड़ोसी शैल आंटी के पति ज़्यादातर टूर पर रहते थे, बच्चे को स्कूल छोड़ने जाना और बिजली का बिल इत्यादि जमा कराने के छोटे-मोटे काम उनके लिए उतनी ही बड़ी समस्या थे, जितनी मेरे लिए कोचिंग जाने का साधन ढूंढ़ना. ज़रूरतमंदों में अनुबंध आसानी से हो जाते हैं, इसलिए मुझे उनकी पुरानी स्कूटी मिल गई और कोचिंग की समस्या हल हो गई थी. शुरू में दीदियों और मां ने मेरा नाम 'लड़ाका' रखा था, जो समय के साथ बदलकर 'क्रांतिवीर' कर दिया, उन्हें समझ में आ गया था कि मेरी लडाई केवल अपने लिए नहीं थी.
इंटर अच्छे अंकों में उत्तीर्ण कर लिया, पर ये समझ में आ गया था कि न तो मैं इतनी मेधावी हूं कि प्रतियोगी परीक्षाएं बिना किसी कोचिंग के मार्गदर्शन के निकाल सकूं और न ही अपनी रुचि या प्रतिभा को लेकर मेरे मन में कोई स्पष्ट मार्ग है. तो आगे? तभी बड़ी दीदी की शादी में एक चाची आई. वो एक फर्म में कार्यरत थीं. नौकरीवाली होने के कारण परिवार में उनका दबदबा था और उनके ज्ञान और मितभाषिता से मैं प्रभावित भी थी. उन्होंने मुझे साथ ले जाकर प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग में प्रवेश दिलाने और स्नातक प्राइवेट कराने का प्रस्ताव रखा. मां-बाबूजी को भला क्या आपत्ति हो सकती थी? मैं चाची के साथ आई, पर जल्द ही समझ में आ गया कि उन्हें एक विश्वसनीय मैनेजर की ज़रूरत थी, जिसके भरोसे बच्चों और नौकरानी को घर में छोड़ा जा सके. मुझे मेरी ज़िम्मेवारियों सस्नेह समझा दी गईं. हालांकि चाचा-चाची का व्यवहार अतिशय नम्र था और मेरी कोचिंग, पढ़ाई के अन्य ख़चों तथा विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं के फॉर्म आदि का ख़र्चा भी वो सहर्ष उठा रहे थे. उनसे मार्गदर्शन भी मिल रहा था, पर ये सब हाउसकीपर की इस अव्यक्त नौकरी का वेतन है, ये बिन कहे ही बता दिया गया था. इस नौकरी के साथ प्रतियोगिता की पढ़ाई करना कोई हंसी-खेल न था, पर मैंने ज़िंदगी से हंसी-खेल होने की उम्मीद ही कब की थी. एक बार फिर मेरे जुझारूपन ने इन सब के बीच अध्ययन की दिनचर्या सुनिश्चित करने का रास्ता वैसे ही निकाला जैसे पहाड़ी सरिता चट्टानों के बीच से अपना मार्ग निकालती है.
चार साल बाद जब बैंक में क्लर्क बनकर उनका घर छोड़कर आई, तो लगा खुले आकाश में सांस ली है. अब मैं न केवल हर तरह से आत्मनिर्भर थी, बल्कि श्रम की अभ्यस्त भी थी. अपनी सार्थकता प्रमाणित करने के गर्व भरे मन के साथ पहला वेतन लेकर घर पहुंची, तो यहां रिद्धि दीदी को देखकर पहली कमाई का आनंद विषाद में बदल गया. सूजे हुए मुंह और हाथ-पैरों पर अत्याचारों के निशान, गोद में सहमी हुई बेटी, आभास तो उनसे पहले मिलने पर भी होता था कि वो दुखी हैं, पर अब की तो… सिद्धि दीदी की हालत कुछ ख़ास अच्छी नहीं थी, जाने कितने लड़कों से रिजेक्ट होने के बाद बमुश्किल इस बार उनकी शादी तय होनेवाली थी कि बात लेन-देन पर अटक गई थी.
"आपने मेरी शादी के लिए भी तो जोड़ा है, वो पैसे मिलाकर शादी कर दीजिए और मेरी चिंता छोड़ दीजिए, मैं स्वयंसिद्धा हूं, अपना इंतज़ाम ख़ुद कर सकती हूं."


पूर्ण आत्मविश्वास के साथ मैंने बात ख़त्म की और साथ ही रिद्धि दीदी को अपने साथ ले जाने का फ़ैसला भी सुना दिया. दीदियों की नज़रों में उस दिन उनसे आठ वर्ष छोटी बहन अचानक उनसे बड़ी हो गई थी.
सिद्धि दीदी का ब्याह हो गया और रिद्धि दीदी की अपनी
शर्तों- बच्ची की कस्टडी, दहेज में दिए गए कैश और सामान की वापसी के साथ तलाक़ मिल गया. तलाक़ दिलाने और उनका अपना फल-संरक्षण का व्यवसाय स्थापित करवाने का संघर्ष मेरा था, तो इन उपलब्धियों पर आत्मसंतोष भी शायद मुझे ही सबसे अधिक मिला था. हमारे प्रसन्न और आत्मसम्मान युक्त जीवन मुझे मेरी उपयोगिता का बोध कराते और मुझे लगता कि हमने समाज से चल रही जंग जीत ली है. शुरू में हमसे सहानुभूति जतानेवाले लोग अब हमसे घनिष्ठता बढ़ाने के इच्छुक रहने लगे थे और बात-बात पर विधि का विधान कहकर ठंडी सांस छोड़नेवाली मां ख़ुद को भाग्यशाली घोषित करने लगी थीं.
मां की तबीयत अक्सर ख़राब रहने लगी थी और काम करने की आदत छूट चुकी थी, उन्हें एक बेटी की कमी हमेशा खलती थी. मैं डिपार्टमेंटल परीक्षाएं उत्तीर्ण करते हुए रीजनल मैनेजर बन गई और मेरी नौकरी हर कुछ समय पर स्थानांतरण की तरह हो गई, तो मां को दीदी को अपने पास बुलाने का बहाना मिल गया. दीदी और उसकी बेटी चली गई, तो पता चला कि सारे सुख-वैभव और आत्मनिर्भरता होने के बावजूद अकेलेपन की खलिश क्या होती है. अब नज़र ने परिचितों और दोस्तों को उस नज़र से परखना शुरू किया, तो किसी को अपनी आकांक्षाओं पर खरा नहीं पाया. किसी में कुछ कमी थी और किसी में कुछ, तो किसी को मुझमें कमी दिखती थी. कुछ दिनों की दोस्ती के बाद मेरा सबसे किसी न किसी बात पर टकराव या असहमति हो ही जाती. इसी तरह समय मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसलता रहा. बहुत किस्म के खट्टे अनुभवों के बाद राहुल से मुलाक़ात हुई, जो जल्द ही दोस्ती, फिर आकर्षण और फिर प्यार में बदल गई. मैं शुरू से जानती थी कि वो शादीशुदा है और उसका अपनी पत्नी से तलाक़ के लिए मुक़दमा चल रहा है. मगर वो फाइनल हियरिंग के बाद जब मेरे पास आया, तो उसका चेहरा देखकर धक्का लगा.
"हमने बच्चों की खातिर तय किया है कि हम तलाक़ नहीं लेंगे," उसने बिना किसी भूमिका के कहा. बहुत देर तक हम दोनों मौन बैठे रहे, फिर मैं उठने लगी, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया.
"क्या तुम मेरे साथ लिव-इन रिलेशनशिप में…" मैंने वितृष्णा से उसका हाथ झटक दिया.
वो चला गया और मेरा खालीपन एक कचोट बनकर दिल में धंसता चला गया, इस धक्के से दिल कुछ ऐसा टूटा कि शादी के नाम से चिढ़ हो गई. कुछ दिन मन बहुत अनमना सा रहा, फिर धीरे-धीरे मैंने अकेले ख़ुश रहना सीख लिया, अपनी अर्जित आर्थिक सम्पन्नता और सामाजिक सम्मान से अकेलेपन को भरना सीख लिया. मां से फोन पर बात होती, तो वो रोज़ एक ही बात पूछती, "शादी कब करोगी?" और एक दिन मैने उनसे कह ही दिया, "मुझे शादी नहीं करनी, अगर मेरे एकाकीपन की ही चिंता है, तो तुम लोग ही आ जाओ."
और मां-बाबूजी आ गए थे. पर वो गए कहां? अतीत की लहरों में खोए कब शाम हो गई थी, पता ही नहीं चला. इतने में घंटी बजी. दरवाज़ा खोला, तो मां-बाबूजी को खड़े पाया, वे बहुत थके हुए से थे, पर उनके चेहरों पर उत्साह था. बाबूजी ने अंदर आते ही पैटिस और पेस्ट्री का पैकेट मेरी ओर बढ़ा दिया, "तुझे बहुत पसंद है न?" मेरा मुंह आश्चर्य से खुला रह गया,. पनीर पैटिस और पेस्ट्री पर होनेवाले अपव्यय के लिए बाबूजी से जाने कितनी बार झड़प हुई थी मेरी.
मैं चाय बनाकर लाई, तो बाबूजी टैब पर कुछ कर रहे थे. "आपने टैब सीख लिया बाबूजी?" मैंने उत्साह से पूछा. "जिसकी बेटी इतनी लायक हो कि अपने बाबूजी को टैब ख़रीदकर दे सकती हो, वो टैब सीख भी नहीं सकता क्या?" बाबूजी के चेहरे पर प्रसन्नता थी. बाबूजी और मेरी तारीफ़? मेरा मुंह आश्चर्य से खुला रह गया, "तू चाय पी ले, फिर दिखाता हूं कि मैंने टैब का क्या-क्या उपयोग सीखा है."
चाय पीने के बाद मैंने बाबूजी का टैब पर किया काम देखा.
"विभिन्न मेट्रिमोनियल से छांटकर लगभग पांच लड़कों का पूरा परिचय डाउनलोड किया हुआ था. मैंने इन सबसे ई-कंवर्सेशन किया है. अपने तरीक़ों से क्रॉस चेक भी किया है. इनमें किसी धोखाधड़ी की संभावना नहीं है. तेरा बायोडेटा और फोटो इन्हें पसंद है. और देख ये लड़का, ये इसी शहर में है. उसी से मिलने गए थे हम. बड़े अच्छे लोग है, बड़ी आत्मीयता से मिले…"
बाबूजी अपनी लय में बोलते जा रहे थे और मेरा पारा चढ़ता जा रहा था.
"शादी, शादी, शादी!" आख़िर मैंने बात काट दी, "क्यों मैं अपने द्वारा अर्जित उपलब्धियों का, अपने सुख-वैभव का भोग करके अकेले ख़ुश नहीं रह सकती? इतना कुछ पाकर भी अगर जीवन एक पुरुष के साथ का मोहताज है, तो ऐसे सशक्तिकरण से फ़ायदा? और फिन आप लोग मेरे अकेलेपन के साथी क्यों नहीं बन सकते?"
"और अगर इतनी शिक्षा और व्यावहारिक आत्मनिर्भरता के बावजूद मन एक धक्के से दुखी पूर्वाग्रह पाल ले और समाज की ग़लतियों की सज़ाक्ष ख़ुद को देने लगे, तो ऐसी शिक्षा का फ़ायदा?" बाबूजी ने आंखें मुझ पर गड़ा दीं..
"तुम ठीक कहती हो बेटा, तुमने अपने नाम को चरितार्थ कर दिया है. तुम्हारा जीवन पुरुष के साथ का मोहताज कतई नहीं है." बाबूजी का स्वर हमेशा की तरह ऊंचा न होकर शांत था और मां ने मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया था. उनकी आंखों में पूरी बात सुन लेने का अनुरोध था. उनकी स्नेहिल तरलता ने मेरे ग़ुस्से की आग पर जैसे पानी डाल दिया. मैं सुनने लगी.
"लेकिन बेटा, मोहताज होने में और ज़रूरतमंद होने में फ़र्क़ है. सच इतना एकपक्षीय नहीं होता. तुम पुरुष के साथ के बिना भी जी सकती हो, ये तुम्हारी काबिलीयत है, जो सच है. लेकिन एक जीवनसाथी के साथ तुम अधिक ख़ुशी से जीवन व्यतीत करोगी, ये उस सच का दूसरा पहलू है."
"बेटा, अगर बात तुम्हारे एकाकीपन को भरने की है, तो हम हमेशा तुम्हारे साथ हैं, पर हम कितने दिनों के हैं? हमारी मृत्यु के बाद अकेलेपन का तीर वैसे ही कलेजे में धंस जाएगा, जैसे रिद्धि के मेरे पास आने के बाद… मैंने रिद्धि को ये सोचकर तुझसे अलग किया था कि तू इस बात को ख़ुद ही समझ ले."
मैं आज मां-बाबूजी का एक नया ही रूप देख रही थी. वो मेरे बारे में भी सोचते रहे थे?
"कई बार हम साधन को ही साध्य बना लेते हैं, रास्ते को ही मंज़िल समझ लेते हैं. बहुत सी लड़कियां आज ये ग़लती कर रही हैं." बाबूजी को इतनी गंभीर बातें करते मैंने कभी नहीं सुना था. मैंने उनकी बातों का अर्थ समझने की कोशिश में अपनी निगाह उन पर गड़ा दी.
"ख़ुद को हर प्रकार से आत्मनिर्भर बनाना एक सुंदर जीवन पाने के लिए चुना गया रास्ता है, मंज़िल नहीं. ख़ुद को पुरुष के बिना जीने में समर्थ साबित करके तुम पुरुष समाज से उपेक्षित होने का बदला ले रही हो, जिसकी कोई ज़रूरत है नहीं. मैं ये कतई नहीं कह रहा कि शादी ज़रूरी है, मैं बस इतना कह रहा हूं कि अब क्रांति की तुम्हारे जीवन में आवश्यकता नहीं है मेरी क्रांतिवीरा."
मां-बाबूजी की आंखों में अपने लिए चिंता देखकर मेरी आंखों से ख़ुशी के आंसू बह निकले. ठीक ही तो कह रहे थे वे, मैं ख़ुद को एक सशक्त और महत्वपूर्ण व्यक्ति प्रमाणित कर चुकी थी. अब समय जंग का नहीं, जंग से अर्जित सुखों के उपभोग का था. मैंने बाबूजी के हाथों से टैब ले लिया.

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