मनुहरि खिड़की से हटकर बिस्तर पर आ गया. आत्ममुग्धता, विशिष्टता का बोध उसे सुहा नहीं रहा है, बल्कि अस्वाभाविक लग रहा है. स्वांग की तरह. स्वांग. वह ख़ुद को ही ठगते-झुठलाते, ख़ुद से छिपाते हुए नीति से प्रेम कर बैठा है- निहायत रहस्यमय तरीक़े से.
मनुहरि मध्य प्रदेश की पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा पासकर पहले अटेम्प्ट में ही नायब तहसीलदार बन गया. यह उसके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी. उसे ट्रेनिंग पीरियड में सीधी में रहने का आदेश मिला. उसके पिता ख़ुश हुए, “रामराज और मैं सालों एक स्कूल में शिक्षक रहे हैं. सेवानिवृत्त हो रामराज सीधी में रहने लगे हैं. मनु, मैं तुम्हारे साथ चलूंगा. रामराजजी के मकान के पास कुछ बंदोबस्त कर देंगे.”
पिता-पुत्र को देखकर रामराज गुरुजी ख़ुश हो गए, “मैं मनुहरि के लिए कोई और
मकान क्यों तलाशूं? मेरा मकान क्यों नहीं?” “तब लड़का आपके हवाले. मैं निश्चिंत हुआ.” पिताजी बोले.
रामराज गुरुजी अपने आधे कच्चे, आधे पक्के मकान में अपने प्रिय मित्र के पुत्र के लिए स्थान बनाने में उत्साहपूर्वक जुट गए. उत्तर की ओर का आयताकार कमरा, जिसकी खिड़की कच्चे आंगन में, एक दरवाज़ा बाहर, दूसरा बीचवाले कमरे में खुलता था, के बीचवाले द्वार को बंदकर कमरे को अलग-सा बना दिया गया. जल्दी ही उसकी दिनचर्या तय हो गई. वह सुबह बड़ी फुर्सत से उठता. चाय बनाकर इत्मीनान से पीता. फिर आंगन में खुलनेवाली खिड़की से झांकता. आंगन में कुछ काम कर रही दोनों बड़ी लड़कियां नीति और निधि कई बार, बल्कि अक्सर ही एक साथ कह उठतीं, “आ जाइए, बाथरूम खाली है.”
सामूहिक बोलने से वे झेंप जातीं और एक-दूसरे को देखकर हंसती. आंगन पार कर स्नानगृह तक जाते हुए मनुहरि को लगता दोनों लड़कियां उसे देख रही हैं. तैयार होकर वह घर से निकलता और एक भोजनालय में मासिक भुगतान पर खाना खाते हुए ऑफिस चला जाता. उसने निशुल्क आवास स्वीकार कर लिया था, किंतु गुरुजी के दबाव के बावजूद निशुल्क भोजन स्वीकार नहीं किया. शाम को वह कार्यालय से लौटकर सुस्ताता, फिर पुस्तकालय चला जाता. कुछ पुस्तकें इश्यू कराता और रात का खाना खाकर घर वापसी. इस बीच दूधवाला दूध का पैकेट रामराज गुरुजी के घर पर दे जाता. गुरुजी की पत्नी रुक्मणी नीति, निधि या सबसे छोटी लड़की, जिसको छोटी ही पुकारा जाता है, उसे पैकेट थमाती. जब कभी लड़कियों की उंगलियों का स्पर्श हो जाता, उसे अच्छा लगता. फिर वह पुस्तक पढ़ते हुए सो जाता.
वह छुट्टियों में घर गया, तो पूरा परिवार ब्योरा लेने लगा. अम्मा बोलीं, “मनु, रामराज गुरुजी भले हैं, पर ध्यान रहे तुम्हें अपनी लड़कियों के लिए फंसा न लें.” अम्मा की विशेषता है, वे संभावित-असंभावित पर विचार करते हुए अपने मस्तिष्क को सदैव चौकन्ना रखती हैं. पिताजी का आशय भी वही, “मनु, रामराजजी से मेरे अच्छे संबंध रहे हैं. तुम ऐसा आचरण न करना कि उन पर भद्दा प्रभाव पड़े.”
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“तुमने मनु को लड़कियोंवाले घर में रखा ही क्यों? रामराज बड़े चतुर बनते हैं, तभी लड़के को मुफ़्त में रख लिया. आजकल अच्छे लड़के मिलते कहां हैं?”
पिताजी को उलाहना दे अम्मा मनुहरि से कहने लगीं, “मनु, हम तो परेशान हैं. रोज़ ही कोई न कोई तुम्हारे ब्याह की बात लेकर चला आता है. हम चाय-पानी देते-देते थक रहे हैं.”
आगे का हाल मनुहरि की बहन दीप्ति ने कहा, “हां भैया, अभी एक दिन पीएससी के मेंबर अपनी लड़की का प्रस्ताव लेकर आए थे. लाखों की शादी होगी और तुम अगली बार पीएससी में बैठो, तो फर्स्ट कैटेगरी पक्की है. और तुम्हारे कॉलेज के प्रोफेसर आते ही बोले, ‘आपका लड़का मांगने आए हैं और रीवा के वे जो सबसे बड़े वकील हैं…”
पिताजी बोले, “इतने बड़े-बड़े लोगों को मना करते नहीं बनता और तुम अभी शादी के लिए तैयार नहीं.”
“पहले दीप्ति और ताप्ति की शादी होगी पिताजी, मैं कह चुका हूं.”
मनुहरि को ख़ुद पर गर्व हो आया. वह कितना ख़ास है. ‘अम्मा गुरुजी की लड़कियों को लेकर बेकार चिंता कर रही हैं. रामराज गुरुजी का औसत स्तर है. उनके संदर्भ में वह सोचेगा ही नहीं. यहां तो आदर्श स्थापना का भी मौक़ा नहीं है, जब लोग कहें लड़के ने मामूली घर की लड़की से विवाह कर उदाहरण प्रस्तुत किया है. लोग तो कहेंगे, लड़का इश्क़ में पड़ गया, शादी करनी पड़ेगी.’
वर्जनाएं मनुष्य को लुभाती हैं. अम्मा ने रामराज गुरुजी की लड़कियों से सावधान न किया होता, तो शायद मनुहरि का ध्यान प्रयत्नपूर्वक लड़कियों की ओर न जाता. उसे लड़कियों की उपस्थिति का बोध अनायास होने लगा. वह मोहग्रस्त नहीं है, किंतु लड़कियों की बातों में वह कहीं होगा, यह विचार उसे अधीर करने लगा.
आंगन पार कर स्नानगृह की ओर जाते हुए उसने सतर्कता बरती तथापि उसका ध्यान सायास लड़कियों की ओर चला गया. उसकी नज़र लड़कियों पर पड़ने से पहले छत पर चढ़े मुनगा तोड़ रहे गुरुजी पर पड़ी. गुरुजी ज़ोर से बोले, “मनुहरि, पिताजी ठीक हैं न?”
“पिताजी आप को याद कर रहे थे.”
“अच्छा-अच्छा. तुमने मुनगे की कढ़ी खाई है? और मसलहा? नीति बहुत बढ़िया बनाती है.”
मनुहरि चौकस हुआ, लड़की के गुणधर्म बताए जाने लगे.
इधर आंगन में खड़ी रुक्मणी ने आदतन कहा, “मुनगा बहुत बढ़िया क्यों न हो, आपके गुरुजी को सब्ज़ी लाने का झंझट जो नहीं करना पड़ता. मनुहरि इनका बस चले, तो हम लोगों को दोनों व़क्त मुनगा खाना पड़े.” वह मुस्कुरा दिया. दोनों लड़कियों का मुस्कुराना भी लक्ष्य किया.
गुरुजी पत्नी की वक्रोक्ति न सुन पाए, “आज छुट्टी है न. तो होटल में क्यों खाओगे? दोपहर का भोजन मेरे साथ करोगे.”
“आप परेशान न हों.” रुक्मणी तत्परता से बोल पड़ी, “मनुहरि, तुमको लेकर हम परेशान नहीं होते.”
खाना खाते हुए मनुहरि को लगा इस स्वप्नविहीन घर में कुछ नहीं है, किंतु कुछ पारंपरिक नियम और तरी़के हैं. पीढ़े पर रखी भरी हुई थाली भव्य जान पड़ती है. रुक्मणी चाची आग्रह से खिला रही हैं. छोटी मुस्तैदी से परोस रही है. नीति-निधि रसोई से गरम-गरम फुलके भेज रही हैं.
मनुहरि ने रसोई की आहट सुनी.
छोटी अपनी अल्हड़ता और लापरवाही में तेज़ बोलती है, “अब नहीं ले रहे हैं.” नीति का अस्फुट स्वर, “कह, एक लेना पड़ेगा.” छोटी फुलका ले आई, “एक तो लेना ही पड़ेगा.” उसने ले लिया. एक फुलका और के बहाने नीति फतह पाना चाहती है. गुरुजी कहने लगे, “बेटा, कभी फुर्सत में छोटी को गणित पढ़ा दिया करो. इसकी गणित कमज़ोर है.” “पढ़ा दूंगा. गणित आज भी मेरा प्रिय विषय है.”
छोटी बीच का द्वार खोलकर मनुहरि के कमरे में आ जाती. जब तक पढ़ती, द्वार खुला रहता. खुले द्वार से उधर की गतिविधि का आभास मिलता. नीति और निधि उधर से गुजरतीं, तो मनुहरि को लगता उसे देखने के लिए दोनों इधर-उधर हो रही हैं. हां, उसका तो अनुमान, बल्कि धारणा है कि वह इस परिवार के लिए आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है. उसकी उपस्थिति ज़बर्दस्त परिवर्तन की तरह है.
तो इस स्वप्नविहीन घर में कच्चे रूप में एक सपना जन्म ले रहा है, जो इन्हें किसी मुक़ाम तक नहीं पहुंचाएगा.
“फिर गड़बड़. भैया आन्सर नहीं निकल रहा.” छोटी पस्त थी. मनुहरि ने चौंककर कॉपी पर ध्यान केंद्रित किया, “छोटी तुमने ग़लती दोहराई है. बीजगणित बहुत सरल है, बस तुम्हें चिह्नों पर ध्यान देना होगा.” “यहीं तो गड़बड़ा जाती हूं.” फिर मनुहरि ने आंगन की खिड़की से सुना. छोटी बता रही थी, “दीदी, मुझे तो
मालूम ही नहीं था कि गणित इंट्रेस्टिंग हो सकता है. मैं गणित समूह लूंगी यह पक्का रहा. पीईटी में बैठूंगी. यह भी पक्का रहा.”
नीति और निधि ने हाथ के संकेत से छोटी को धीमे बोलने को कहा. फिर छोटी ने क्या बताया, लड़कियों ने क्या पूछा, वह सुन न सका. अनुमान पुष्ट हुआ, लड़कियां उससे संबद्ध-असंबद्ध जानना चाहती हैं.
मनुहरि अनायास सोचने लगा, यदि चयन की स्थिति बने, तो नीति उपयुक्त होगी या निधि? क्या नीति?, क्यों?, पता नहीं. निधि क्यों नहीं? पता नहीं. लेकिन इस तरह की बेवकूफ़ी भरी बातें क्यों सोचनी चाहिए, जबकि सर्वश्रेष्ठ प्रस्तावों की सूची लंबी है.
मनुहरि ने पुस्तक उठाई और बिस्तर पर अधलेटा होकर पढ़ने लगा. देखा पृष्ठ चौरासी का ऊपरी कोना मुड़ा हुआ है. उसे ध्यान आया पुस्तक कई बार दूसरे स्थान पर रखी मिलती है. क्या उसके जाने के बाद लड़कियां उसके कमरे में आती हैं? पुस्तक पढ़ती हैं? कमरे में नीति आती है या निधि? या दोनों? गुरुजी और छोटी दोपहर में स्कूल में रहते हैं. चाची सो जाती होंगी और लड़कियां कमरे में दाख़िल हो जाती होंगी. लड़कियां कुछ संकेत सम्प्रेषित करना चाहती हैं?
उसके अनुमान को सत्यापित करने के लिए ही पढ़ते समय छोटी अप्रत्याशित रूप से कह बैठी, “भैया, आप मानस का हंस वापस कर आए? नीति दीदी पूरा पढ़ नहीं पाईं.”
“मैं नहीं जानता था तुम्हारी दीदी पुस्तकें पढ़ती हैं. मैं फिर ले आऊंगा.”
मनुहरि दूसरे दिन शाम को पुस्तक लेकर लौटा, तो दूध का पैकेट नीति ने पकड़ाया.
“मानस का हंस, छोटी ने बताया आप पढ़ नहीं पाई थीं.” वह नहीं समझ सका, उसे स्थिति का खुलासा करना चाहिए था या नहीं.
नीति की बरौनियां झपक गईं. जैसे चोरी पकड़ी गई हो, “हम लोगों को पुस्तकें नहीं मिल पातीं, इसलिए ये…”
“पढ़ लिया करें, पुस्तकें आनंद देती हैं.”
“मृत्युंजय मिल सकती है?”
पुस्तकों का मामला उलझा न दे. ऊंहूं. यह तब तक नहीं होगा, जब तक वह स्वयं इस परिवार में इन्वॉल्व न हो. यदि कहें, तो इस परिवार से उसका इन्वॉल्वमेेंट बस इतना भर है कि कई बार पीने का पानी चुक जाता है और उसे मांगना पड़ता है.
आज ही शाम को एक मित्र आ गया. घड़ा खाली. मनुहरि बाहरवाले दरवाज़े से निकलकर गुरुजी के अहाते में पहुंचा. वह अपने कार्य प्रयोजन से बीचवाले द्वार को प्रयोग नहीं करता है. निधि अहाते में थी.
“चाची नहीं हैं? पीने का पानी ख़त्म हो गया है.”
“आप चलिए, मैं लाती हूं.” निधि स्टील की बाल्टी में पानी लिए हुए बीचवाला द्वार खोलकर आ गई.
मनुहरि ने उसके हाथ से बाल्टी ली, घड़े में पानी डाला, बाल्टी वापस कर दी. निधि द्वार उढ़काकर चली गई.
मित्र बोला, “उधर वो चुप, इधर तुम चुप. तुम लोग आपस में बोलते-चालते नहीं हो या इशारों-इशारों में…”
“यह कला मुझे नहीं आती.”
“पटा लो.”
“यह कला भी मुझे नहीं आती.”
“उन लोगों को आती होगी. सजातीय, कुलीन, प्रशासनिक अधिकारी… ऐसे लड़के को कोई नहीं छोड़ता.”
“मैं हाथ नहीं आनेवाला.”
मनुहरि मित्र के साथ ही बाहर चला गया. फिर रात्रि भोजन के बाद लौटा. घर में बिजली नहीं थी. असहनीय गर्मी और बिजली का जब तब मुकर जाना. आहट पाकर रामराज गुरुजी ने छत से नीचे झांका, “ऊपर चले आओ मनुहरि.”
“आया चाचाजी.”
मनुहरि को छत का खुलापन अच्छा लगा. गुरुजी बोले, “आओ बेटा, यह छत हमारे लिए एक नियामत है.”
“बिल्कुल.” मनुहरि निवाड़ की खटिया पर बैठ गया.
बात शायद शादी-ब्याह की चल रही थी, क्योंकि गुरुजी उसी तारतम्य में कहने लगे, “मनुहरि, तुम लोग दीप्ति के लिए लड़का तलाश रहे हो न? है एक लड़का फूड इंस्पेक्टर है. मैंने नीति की बात चलाई थी, किंतु हमारा और लड़केवालों का गोत्र एक है. विवाह नहीं हो सकता. दीप्ति के लिए चर्चा की जा सकती है.”
“प्रस्ताव अच्छा है.” कहते हुए मनुहरि ने अनायास नीति को ताका. वैवाहिक चर्चा पर यह कैसा महसूस कर रही है? अंधेरे में उसकी दशा न जान सका, किंतु लक्ष्य किया वह उसे ही देख रही थी और अब आंखें झुका ली हैं. क्या नीति उसके प्रति मृदुभाव रखती है?
गुरुजी बोले, “हां, मुझे लगता है सुयोग बैठेगा.”
बिजली आ गई. मनुहरि अपने कमरे में चला आया. यदि दीप्ति का विवाह यहां तय हो जाता है, तो इस परिवार का एक उपकार और हो जाएगा. क्या यह परिवार दबाव बना रहा है? उसे घेर रहा है? गुरुजी नीति या निधि का प्रस्ताव रख दें, तो स्पष्टतः मना करना कठिन होगा. कैसी व्यूह रचना है? यदि इनसे मुक्त होकर कहीं अलग रहना चाहे, तो गुरुजी को क्या कारण बताएगा कि आप नीति या निधि को मेरे सिर थोपें, इससे बेहतर है मैं अपना प्रबंध कहीं और कर लूं. ओह…
मनुहरि पुस्तक पढ़ रहा था, तभी बीच के द्वार को किसी ने खटखटाया. गुरुजी अस्वस्थ हैं, उन्हें कोई परेशानी तो…? उसने तत्परता से द्वार खोला.
“क्या बात है चाची?”
“निधि अपनी सहेली की शादी में गई है. अब तक नहीं लौटी. रात बहुत हो गई है, जी घबरा रहा है.” चाची चिंतित थी.
“मैं ले आता हूं. पता बताइए.” उसने बाइक स्टार्ट की और चल पड़ा. क्या एकांत उपलब्ध कराया जा रहा है? पूरी तैयारी- नीति या निधि वह जिसमें चाहे रुचि ले.
उसे देख निधि की दुविधा दूर हुई, “अच्छा हुआ आप आ गए. यहां कोई खाली नहीं है, जो मुझे घर छोड़े. मैं परेशान थी.” “आइए.” वह पीछे बैठी निधि के स्पर्श को महसूस करता रहा.
निधि कहने लगी, “मैं भी पीएससी देना चाहती हूं, पर बाबूजी कहते हैं यह कठिन परीक्षा है. आप टॉपर रहे हैं, जब आप ही फर्स्ट कैटेगरी में नहीं आ सके तो… नहीं मेरा मतलब मैं तो ऐवरेज ही हूं. हिम्मत नहीं कर पाती.”
यह बेवकूफ़ लड़की इस एकांत में याद दिला रही है कि मैं पूरी तरह सफल नहीं हूं. गुरुजी आप सोचते हैं कि मैं इस मूढ़मति से अनुराग रखूं, तो यह न होगा.
तनिख तल्ख होकर बोला, “अब चयन प्रणाली निष्पक्ष नहीं रही और आप कॉम्पटीशन से घबराती क्यों हैं? चयन होगा, नहीं होगा, कोशिश की जानी चाहिए.”
“आपसे मुझे हौसला मिला.”
घर पहुंचा तो रुक्मणी चाची दरवाज़े पर मिल गईं. “मनु, तुम्हारा बड़ा सहारा है. तुम्हें तकलीफ़ हुई.”
“फिर तो मैं भी आप लोगों को तकलीफ़ दे रहा हूं.”
“नहीं, नहीं. तुम्हारे आ जाने से अच्छा लगने लगा है.”
कोई दो दिन को आ जाए, तो लोगों को अड़चन होती है, लेकिन यह परिवार उसे निशुल्क रखकर आनंद पा रहा है. स्पष्टतः इस घर में एक सपना पल रहा है. प्रत्येक सदस्य, हां छोटी भी अपने स्तर पर कोशिश कर रही है, सपना पूरा हो.
छोटी पढ़ने आई. मनुहरि के बिस्तर पर दो- तीन बर्थडे कार्ड रखे हुए थे. छोटी ने उठा लिए, “कल आपका बर्थडे है?”
“हां, कार्ड मेरे मित्रों ने भेजे हैं.”
“आप बर्थडे सेलिब्रेट नहीं करते?”
“यहां अकेले क्या करूंगा.”
दूसरे दिन सायंकाल कार्यालय से लौटा, तो रुक्मणी ने पुकार लिया, “छोटी ने बताया आज तुम्हारा जन्मदिन है. हाथ-मुंह धोकर आ जाओ. मुंह मीठा कराना है.”
“जी.” वह हाथ मुंह धोकर पहुंच गया. चाची ने नीति को आवाज़ दी, “नीति, लाओ, क्या ला रही हो?”
नीति तश्तरियों में गुलगुले, हलुवा, कटलेट लिए आ पहुंची, “जन्मदिन शुभ हो.” “धन्यवाद, आप लोगों ने मेरा जन्मदिन याद रखा, मुझे अच्छा लगा.” नीति वहीं बैठ गई, “गुनाहों का देवता मिल जाएगी?”
“आपने नहीं प़ढ़ी?”
“बहुत पहले पढ़ी थी.”
गुनाहों का देवता पढ़ चुकी है, पुनः पढ़ना चाहती है. क्या बनना चाहती है? बिनती या सुधा? इस क़िताब के बहाने कोई संदेश तो नहीं देना चाहती? अभी कल ही तो आंगन में कपड़े सुखाते हुए गा रही थी, ‘जोगी हम तो लुट गए तेरे प्यार में, जाने तुझको ख़बर कब होगी.. प्रेम सम्प्रेषण.’
“खाइए न.”
“हां-हां.” पाकशाला निधि और छोटी संभाले हुई थी. उन्होंने रुक्मणी को भी वहीं बुला लिया.
रचना रची जा रही है. योजनाबद्ध तरी़के से नीति को अकेला छोड़ा जा रहा है कि लड़का पटाओ. वह स्पष्ट कहेगा, आप लोगों के बहुत उपकार हैं, पर मैं आपके इस महाजनी प्रस्ताव की निंदा करता हूं. मैं मानता हूं, प्रत्येक माता-पिता अपनी लड़की का मंगल चाहते हैं और प्रत्येक लड़की की कुछ कामनाएं होती हैं, पर मैं प्रस्तुत नहीं हूं.
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रामराज गुरुजी के द्वारा बताए गए फूड इन्स्पेक्टर लड़के के साथ दीप्ति के विवाह की तिथि निकल आई. मनुहरि छुट्टी लेकर घर चला गया. गुरुजी ने कहा था विवाह में पहुंचेंगे. नहीं पहुंचे. मनुहरि वापस लौटा, तो गुरुजी ने उसे शुभ समाचार दिया, “मनुहरि, आयोजन अच्छा रहा न? मैं पहुंच न सका. उन्हीं दिनों नीति को देखने लड़केवाले आ गए. वे लड़की देखने के इरादे से आए थे, पर उन्हें नीति इतनी भा गई कि यहीं के बाज़ार से साड़ी, अंगूठी ख़रीदकर रिश्ता पक्का कर गए. लड़का ग्रामीण बैंक में शाखा प्रबंधक है. इसी व्यस्तता में मैं नहीं पहुंच सका.”
मनुहरि के लिए सूचना अप्रत्याशित थी. तो उसे हथियाने का इन्होंने विचार नहीं किया? यह परिवार उससे प्रभावित नहीं है? इन लोगों को उसका एक भी गुण दिखाई नहीं दिया? तो…? ये लोग उसके प्रति इतने निर्लिप्त कैसे रह सकते हैं? कैसे? मनुहरि को लगा ठीक इसी क्षण वह पूरी तरह अयोग्य, अकर्मण्य, अक्षम साबित हुआ है. इस लायक भी नहीं है कि किसी मामूली परिवार की मामूली लड़की के दिल में अपने लिए ललक जगा सके. लगा ये लोग उसे अनदेखा कर रहे हैं, बल्कि उपेक्षित… अपमानित, खारिज ही कर दिया है. वह कुछ कहने की स्थिति में नहीं था. पूरी तरह आहत होकर कमरे में चला आया. बहुत से दृश्य उसके सामने आए… निःशुल्क आवास व्यवस्था, मुनगे की कढ़ी, गुलगुले, हलुवा, गुनाहों का देवता. स्नेह, सहयोग, सौहार्द्र, सदाशयता. इनकी भलमनसाहत किसी फलप्राप्ति के लिए नहीं, बल्कि उस आदमीयत के लिए थी, जो इनके दिलों में, संस्कारों में है? उसे दम घुटता जान पड़ा. उसने खुली हवा का स्पर्श पाने के लिए आंगन में खुलनेवाली खिड़की खोल दी.
सामने नीति थी. हौज के पास हाथ-पैर धो रही थी. इसके मन में क्या कभी भी तमन्ना नहीं जागी मुझे पाने की? मैं कभी भी इसका काम्य नहीं रहा? नीति आंगन की डोरी में सूख रहा तौलिया निकालने के लिए मुड़ी और उसकी दृष्टि मनुहरि पर पड़ गई.
“आ जाइए. बाथरूम खाली है.” इसका सरोकार बस इतना ही रहा है- बाथरूम खाली है? “आं… हां… नहीं… विवाह की शुभकामनाएं.”
“धन्यवाद.” नीति पूरी तरह सहज स्वाभाविक दिखी. कोई पछतावा नहीं, पीड़ा नहीं, खेद नहीं.
मनुहरि खिड़की से हटकर बिस्तर पर आ गया. आत्ममुग्धता, विशिष्टता का बोध उसे सुहा नहीं रहा है, बल्कि अस्वाभाविक लग रहा है. स्वांग की तरह. स्वांग. वह ख़ुद को ही ठगते-झुठलाते, ख़ुद से छिपाते हुए नीति से प्रेम कर बैठा है- निहायत रहस्यमय तरीक़े से. और इस रहस्य को ठीक उस क्षण समझ पा रहा है, जब समझने का कोई अर्थ नहीं बचा.
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