"सच बताओ सुजाता, तुम्हें नफ़रत सिर्फ़ रत्नेश से है या समूचे पुरुष वर्ग से?"मेरी बात पर यह आश्चर्य से पलटी, आंखें डबडबा आईं, "तुम्हें भी मुझसे घृणा हो रही है.""नहीं क्रोध आ रहा है. इतनी लंबी ज़िंदगी तुमने काले मोतियों के मंगलसूत्र के सहारे बिता दी. आख़िर तुम्हारा कसूर क्या था? तुमने नए सिरे से ज़िंदगी क्यों नहीं शुरू की?""बस ध्यान ही नहीं रहा. इस मंगलसूत्र को देखती रही, लोग मुझे विवाहित समझते रहे."
उस चार मंज़िली बिल्डिंग की तरफ़ मेरी कई दिनों से नज़र थी. इसका कारण वह महिला थी, जो जाने क्यों पहली ही नज़र में मुझे आकर्षित कर गई थी. उसकी शख़्सियत में ऐसी कोई विशेष बात नहीं थी, जिसके लिए मैं रोज़ उसे निहारती. ढलान की तरफ़ बढ़ती हुई उम्र, पर चाल में एक आत्मविश्वास… निःसंदेह वह छात्रा तो लगती नहीं थी… ज़रूर कहीं नौकरी करती होगी… मैं अक्सर सोचती.
अर्जुन तो १० बजे घर से निकल जाता. मैं दफ़्तर के लिए ११ बजे घर से निकलती थी. वैसे भी अख़बार का दफ़्तर कायदे से १२ बजे से पहले शुरू नहीं होता. हां, तो मैं बात उस युवती की कर रही थी. उसमें ऐसा कुछ विशेष नहीं था, जो मुझे आकर्षित करता. लेकिन उसका रूप, पहनावा उसके घर के वातावरण से तनिक भी मेल न खाता.
जब मेरी बाई रूपा ने यह बताया कि यह महिला अपने माता-पिता के साथ रहती है, तो उसके बारे में जानने के लिए मैं और भी उत्सुक हो गई. हल्के रंग की साड़ी, गले में मंगलसूत्र एवं भरी हुई मांग देखकर उसके सुहागन होने का जो मापदंड मैंने बनाया था, वह अब टूटता सा महसूस हुआ. युवती पिछले २० वर्षों से अपने माता-पिता के साथ रह रही थी.
अचानक एक दिन उस युवती से मुलाक़ात हो गई. कैम्पस के अंदर मिसेज़ राठौड़ के बेटे के जन्मदिन का उत्सव था, उन्होंने सभी को आमंत्रित किया था. हालांकि मैं भीड़ का हिस्सा बनने से सदैव बचना चाहती थी, लेकिन यह निमंत्रण मैंने यह सोचकर स्वीकार कर लिया कि संभवतः वहां वह महिला भी आए.
मिसेज़ राठौड़ के घर अच्छी-ख़ासी रौनक़ थी. वे मुझे महिलाओं की भीड़ में खींच ले गई और सभी से मेरा परिचय करवाने लगीं. अचानक मेरी नज़र उस महिला पर पड़ी. वह सामने पड़े सोफे पर चुपचाप अकेली बैठी थी. होंठों पर हल्की सी मुस्कुराहट थी उसके. मैंने दोबारा उसे पलटकर देखा तो वह खुलकर मुस्कुरा दी. यह मेरे लिए आमंत्रण था. मैं टहलते हुए उसकी तरफ़ बढ़ गई. मुझे पास आया देख उसने मेरा अभिवादन किया, "हेलो… मैं सुजाता हूं… सामनेवाले फ्लैट में."
"जानती हूं, मैं रोहिणी 'डेली इन' अख़बार में."
हम दोनों ही हंस दी. मैंने महसूस किया कि उसकी हंसी में भी एक ख़ामोशी थी.
"आप अकेली ही आई हैं? मेरा मतलब… अंकल-आंटी…" मैंने उत्सुकतावश पूछा,
"नहीं… बाबा की तबियत कुछ नरम थी, सो मां भी रुक गईं. राठौड़ भाभी कहां माननेवाली थीं, सो मुझे ही आना पड़ा. लेकिन आप यहां! आपका समय तो काफ़ी क्रीमती…"
"नहीं… ऐसा कुछ नहीं है. आप भी जॉब करती हैं?" मैंने उसके बारे में कुछ जानने की गरज से पूछा.
"हां, न्यू लाइफ इंश्योरेंस में…"
"प्राइवेट… इस तरह की इंश्योरेंस कंपनी की हालत तो काफ़ी खस्ता चल रही है."
"हां, पर हमारी कंपनी की रेपुटेशन काफ़ी अच्छी है." सुजाता की बातों में आत्मविश्वास की झलक थी.
तभी मिसेज़ राठौड़ वहां आ गईं. बैरे से हमारे सामने ठंडा पेय रखवाया, फिर थोड़ी देर बात करती रहीं, "मिसेज़ राव, हमें बहुत अच्छा लगा कि आप आईं. शादी से पहले मैं भी थोड़ा-बहुत लिखती थी, पर अब तो… अच्छा मिसेज़ राव, आपकी शादी को कितना समय हुआ?'
"तीन वर्ष."
"भाईसाहब ने कभी लिखने से रोका नहीं?"
"नहीं… हम शादी से पहले एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित हो गए थे, अब तो यह हमारा पेशा है."
तभी उन्हें किसी ने आवाज़ दी, तो वह 'एक्सक्यूज़ मी' कह उधर चल दीं
"ये महिलाएं अपना भाग्य पुरुष की मानसिकता से जोड़कर क्यों चलती है?" में बोल ही पड़ी.
"शायद यही नियति हो…."
सुजाता के स्वर पर मैं चौंक पड़ी, तो क्या सुजाता भी..? तभी अर्जुन मुझे ढूंढ़ते हुए वहां आए और हम खाना खाकर शीघ्र ही घर लौट गए.
उस दिन के बाद कई दिनों तक मेरी सुजाता से मुलाक़ात नहीं हुई. एक दिन अचानक बारिश शुरू हो गई. मैंने रेनकोट भी नहीं रखा था. तभी सड़क पर सुजाता दिख गई. मैंने उसे देखा, तो स्कूटर रोक दिया.
"आज कोई रिक्शावाला इधर आने को तैयार ही नहीं हुआ." सुजाता बोली.
"बैठिए… मैं भी तो वहीं चल रही हूं…"
उसे उसके फ्लैट के सामने उतारा, तो उसने कहा, "अंदर
आइए, एक-एक प्याला कॉफी हो जाए."
"नहीं सुजाता… बहुत भीग गई हूं, अब चलूंगी."
"कल तो आपका ऑफ रहेगा न?"
"हां"
"मैं आऊंगी…"
"श्योर…" कहकर मैं आगे बढ़ गई.
सच कहूं तो सुजाता से मिलने की चाह मुझे ज़्यादा थी. मैं उसके अतीत का वह टुकड़ा पढ़ना चाहती थी, जिसकी वजह से सुहागन होते हुए भी वह पति के स्थान पर मां एवं पिता के साथ अपना जीवन बिता रही है.
दूसरे दिन मैं देर से सोकर उठी. अर्जुन के जाने के बाद मैं फूलों की कटाई-छंटाई में लग गई. एक ताज़ा समाचार, जिसकी कवर स्टोरी मैंने रात में तैयार की थी, उसे दफ़्तर फ़ोन करके चपरासी को बुलवाकर उसके हाथ भेजा. अब मैं सारे दिन के लिए फ्री थी. उस पल मेरे दिमाग़ से सुजाता निकल चुकी थी. अब मैं शाम तक का समय अपने हिसाब से बिताना चाहती थी. बेगम अख़्तर का कैसेट लगाकर मैं ड्रॉइंगरूम में नीचे पड़े गद्दे पर ही लेट गई. तभी दरवाज़े की घंटी बजी. गीले खुले केश में सुजाता मेरे सामने खड़ी थी.
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उस समय सुजाता का वह रूप मुझे अपने समय की मशहूर अभिनेत्री नूतन की याद दिला गया. हल्के चेक की साड़ी, लंबे बाल, गोल बिंदी, हां एक फ़र्क़ था, गले में मंगलसूत्र भी था सुजाता के और मांग में सिंदूर भी.
"आइए न…" मैंने मुस्कुराकर उसका स्वागत किया.
कमरे में दाख़िल होते ही उसने चारों तरफ़ नजरें दौड़ाईं, हमारे ड्रॉइंगरूम में कुछ ख़ास न था. न बड़ा सोफा, न क़ीमती वॉल पीस. ज़मीन पर मोटा गद्दा, चार कुर्सियां और एक टीवी. डेक पर ग़ज़ल की मधुर धुन बज रही थी.
"कितनी शांति है यहां? और यह आवाज़… आपको भी ग़ज़लों का शौक है?"
"हां स्तरीय ग़ज़लों का… जो दर्द व क़शिश बेग़म अख़्तर की इस ग़ज़ल में है, वह… मैं किसी को क्रिटिसाइज नहीं कर रही, पर…" मैं हंसकर बोली. सुजाता भी हंस पड़ी. मेरे एवं सुजाता के बीच पसरी औपचारिकता की दीवार धीमे-धीमे गिरने लगी थी.
"छुट्टी का सारा दिन आप कैसे बिताती हैं..?" सुजाता ने पूछा.
"बस यूं ही… जैसे आज आप आ गईं…"
"अगर हम 'तुम' से काम चलाएं तो क्या नहीं चलेगा."
"ठीक है." मैं फिर हंस दी.
सुजाता गद्दे पर कुशन का टेक लगाए आंखें मूंदें काफ़ी देर तक ग़ज़ल सुनती रही और में उसे निहारती रही. उसके एक-एक पल में बीते सच को तलाशने की कोशिश करती रही.
"ओह… मैं तो डूब ही गई थी."
"हां, इन ग़ज़लों में डूबकर अक्सर लोग अपना दर्द ही ढूंढ़ते हैं."
"आप तो कहानियां भी लिखती हैं. क्या आदमी के दर्द को आप काग़ज़ पर ईमानदारी से उतार लेती हैं?"
"क्यों नहीं? बशर्ते कहानी में कोई दुराव-छिपाव न हो."
"उस जिंदगी को क्या छिपाना, जो ख़ुद एक नंगी तस्वीर हो…" सुजाता का स्वर कुछ धीमा था.
"सुजाता…" उसे पुकार कर मैं चुप हो गई. मैं जानती थी कि उसका दर्द गले तक आ चुका है, बस उगलना बाकी है.
"रोहिणी, मैं तुम्हें कुछ बताने आई थी. अपने जीवन की कुछ सच्चाई… मुझे लगा, मेरा जीवन, मेरी ज़िंदगी एक कहानी बनकर लोगों के सामने पहुंचे, ताकि फिर कोई और सुजाता न छली जाए. बस में यही चाहती हूं."
फिर सुजाता बोलती गई, और मैं सुनती रही.
"मेरी शादी बाबा ने १९ वें वर्ष में कर दी. कलकत्ता से हमारा परिवार ६० वर्ष पूर्व दिल्ली आ गया था. सीधी- सादी ज़िंदगी थी हमारी. हम दो बहनें थीं और दो भाई. बड़ी होने के नाते मेरी शादी बाबा ने जल्दी कर दी. बाबा ने ख़ूब सारा दहेज दिया. विवाह के बाद जब ससुराल गई, तो सास कुछ बुझी-सी लगी. मुझे देखने रत्नेश की बहन एवं मां आई थी. रत्नेश ने न मुझे देखा था न मैंने रत्नेश को. विवाह के बीच भी रत्नेश ने मुझे देखने का कोई उत्साह न दिखाया था और मैंने इसे उनका संकोच समझ लिया था. पर वहां तो उत्साह नाम की कोई चीज़ ही नहीं थी. सारे नाते-रिश्तेदार विवाह की ताम-झाम से थक कर जल्दी ही सो गए थे शायद, मुझे आश्चर्य हुआ, यह कैसा स्वागत है नई बहू का. पहली रात के बारे में जो कुछ पढ़ा या देखा था, वह टूटता-सा नज़र आया. न कमरे में फूलों की लड़ियां न प्यार की ख़ुशबू."
अचानक बाहर ज़ोर-ज़ोर से बादल गरजने लगे. मैं खिड़की बंद करने के लिए उठी ही थी कि सुजाता ने मुझे रोक दिया.
"नहीं रोहिणी, रहने दो, अच्छी लग रही है यह गरज. उस दिन भी ऐसी ही गरज भरी बारिश हो रही थी. रत्नेश काफ़ी देर बाद कमरे में आए थे. मैं पलंग से उठने का प्रयास करने लगी, पर रत्नेश ने रोक दिया, "बैठी रहो." वह मुझसे कुछ दूर बैठ गए. उनका शरीर हल्का-हल्का कांप रहा था. काफ़ी देर वह शांत बैठे रहे.
मैं नई-नवेली भला पहले कैसे बोलती? पर मन ही मन यह ज़रूर सोच रही थी कि रत्नेश शायद नर्वस हो रहे हैं. वह धीमे से बोले, "आजकल मेरा कुछ परहेज़ चल रहा है इसलिए…" और करवट बदल कर सो गए. मेरी समझ में कुछ नहीं आया. यह कैसी सुहागरात है? पति से यह कैसा प्रथम मिलन है? यह कैसा परहेज़ है, जो पत्नी की मांग तो भर सकता है, परंतु उसके हाथ तक को स्पर्श नहीं कर सकता? क्या शारीरिक संपर्क ही सुहागरात की आधारशिला है? क्या रत्नेश मुझसे बात भी नहीं कर सकते थे? पल भर में ही कई सवालों ने मुझे घेर लिया.
दूसरे दिन भी उनका वही रवैया रहा. सासू मां मुझे दूसरे दिन काफ़ी ध्यान से देखती रहीं, रत्नेश दिनभर मुझे नज़र नहीं आए. रात में भी मजबूरी में ही कमरे में आए.
ससुर का लोहे का व्यवसाय था. एक बहन ब्याहनी थी, मुझे लगा, घर में ज़रूर कोई विशेष खिचड़ी पक रही है, जिससे मुझे दूर रखा जा रहा है. ससुर को घर से कुछ लेना-देना नहीं था. सास आकर दो-चार मिनट बैठकर बेटी की शादी का रोना रो जाती. मुझसे यह कहलवाने का प्रयास किया जाता कि दहेज़ का सारा सामान ननद को दे दूं. लगभग १५ दिनों बाद एक दिन मैंने हिम्मत करके रत्नेश से पूछ ही लिया, "यह किस तरह का परहेज़ बताया है डॉक्टर ने आपको?"
रत्नेश पहले तो चौंके, फिर संभलकर बोले, "बस २-४. दिन की बात और है."
एक शाम वह मेरे लिए गजरा लेकर आए. प्यार भरी बातें भी कीं मुझसे, फिर पलंग पर लेट गए. उनके हाथ धीरे-धीरे मेरे शरीर पर चलने लगे, "तुम अपने जेवर कहां रखती हो?" मुझे क़रीब खींचकर रत्नेश ने पूछा.
"यहीं आलमारी में." मैं प्रेम के प्रथम स्पर्श में डूबी थी.
"कल मां के साथ जाकर लॉकर में रख आना." कहकर वह उठे और गुसलखाने में चले गए. मैं उनके लौटने का इंतज़ार करती रही. रत्नेश का क्षणिक स्पर्श मुझमें उत्तेजना जगा गया था. काफ़ी देर हो गई, रत्नेश नहीं लौटे तो मुझे चिंता होने लगी कि कहीं रत्नेश गुसलखाने में गिर तो नहीं गए. मैं झटके से उठी और गुसलखाने तक पहुंच गई. रत्नेश का उस पल का रूप देखकर में शर्म एवं अपमान से गढ़ गई. कमर से अप्राकृतिक पुरुषत्व की बेल्ट बांध वह सामने खड़े थे. मैं मुंह छुपाकर भाग आई. अब मुझे समझ में आ गया कि रत्नेश मुझसे दूरी क्यों बनाए रखते हैं? यह शादी उन लोगों ने मात्र पैसे एवं दहेज के लिए की थी. एक युवती की इच्छा-आकांक्षाओं को रौंदा था उनके परिवार ने.
बाद में सास ने ही बताया कि बचपन से कुसंगति का शिकार होकर रत्नेश कम उम्र से ही स्त्री संगत के योग्य नहीं रह गए थे. काफ़ी इलाज हुआ, पर व्यर्थ. घरवालों ने सोचा, शादी के बाद शायद रत्नेश ठीक हो जाएं. हां, यह सच है रोहिणी कि ऐसे केस में पत्नी को विश्वास में लेकर यदि पति प्रयास करे, तो वह धीरे-धीरे पूर्ण पुरुष हो जाता है. पर रत्नेश ने न तो दृढ़ इच्छाशक्ति से इस बीमारी का सामना किया, न मुझे विश्वास में लिया. उस दिन के बाद से मैं रत्नेश को क्षमा नहीं कर पाई, क्योंकि उसने पति-पत्नी के रिश्ते को सिर्फ़ शारीरिक स्तर पर परखा था.
मैं लौट आई, तब से बाबा-मां के साथ हूं, सारे भाई अपने-अपने परिवार में ख़ुश हैं. बहन-बहनोई दुबई में हैं."
"तुमने फिर कोई प्रयास नहीं किया?"
"नहीं रोहिणी, अब मुझे पुरुष जाति से ही वितृष्णा हो गई है."
"सच पूछो रोहिणी तो अब मुझे रत्नेश से भी नफ़रत नहीं है, बल्कि दया आती है उस पर, शायद पुरुष के अहं ने उसे सच बनाने से रोक दिया था."
"तुम क्या अब भी उसके साथ हो.. मेरा मतलब है पत्नी हो?"
"शायद… मैंने उसे तलाक़ नहीं दिया है."
"और वह… क्या तुम दोनों अब भी मिलते हो?"
"कैसी बात करती हो रोहिणी? मैं तो सालों से ये भी नहीं जानती कि वह कहां, किस हाल में है?"
"तब जब मन और शरीर उससे विमुख हो चुका है, तो फिर तुम्हारे गले में यह मंगलसूत्र क्यों?" मेरे करारे प्रश्न से सुजाता चौंक पड़ी. फिर बोली, "पता नहीं, कभी उतारने का ख़्याल ही नहीं आया. मां तो मुझसे व्रत भी करवाती रही. मैंने भी कभी विरोध नहीं किया. इसे ही नियति मान लिया." मैं चुप रही. सुजाता उठी और जाते-जाते बोली, "यह कहानी तुम ज़रूर लिखना… चलती हूं."
"सच बताओ सुजाता, तुम्हें नफ़रत सिर्फ़ रत्नेश से है या समूचे पुरुष वर्ग से?"
मेरी बात पर यह आश्चर्य से पलटी, आंखें डबडबा आईं, "तुम्हें भी मुझसे घृणा हो रही है."
"नहीं क्रोध आ रहा है. इतनी लंबी ज़िंदगी तुमने काले मोतियों के मंगलसूत्र के सहारे बिता दी. आख़िर तुम्हारा कसूर क्या था? तुमने नए सिरे से ज़िंदगी क्यों नहीं शुरू की?"
"बस ध्यान ही नहीं रहा. इस मंगलसूत्र को देखती रही, लोग मुझे विवाहित समझते रहे."
"सुजाता…" मैंने उसके दोनों कंधे थामकर सीधे उसकी आंखों में झांका. "ज़िंदगी से भागकर नहीं, लड़कर जीयो, ज़िंदगी का जो हिस्सा बीत गया, वह एक दुखद सपना था, ऐसे सपनों को भुला देते हैं. तुम ख़ुद अपने लिए जीयो, अपनी ज़िंदगी का निर्णय तुम्हारा अपना है, सिर्फ़ तुम्हारा. तुम मन एवं तन दोनों से पवित्र हो. फिर अपने लिए यह घृणा कैसी? यह मंगलसूत्र उतार दो सुजाता, रिश्तों के शव ढोए नहीं जाते, दफ़ना या जला दिए जाते हैं, ज़िंदगी में रंग भरो.. अपने लिए."
सुजाता चली गई. दो दिन तक वह मुझे नहीं दिखी. तीसरे दिन वह मुझे नज़र आई, हल्की रंगीन साड़ी, ढीला जूड़ा, छोटी-सी बिंदी, हां, गले में मंगलसूत्र और मांग में सिन्दूर नहीं था. में मुस्कुरा दी और सुजाता की यह कहानी लिखने बैठ गई. मैं जानती हूं सुजाता की कहानी अभी अधूरी लगेगी, लेकिन इतना विश्वास है मुझे कि उसकी ज़िंदगी में अब इंद्रधनुषी रंग ज़रूर खिलेंगे.
- साधना राकेश
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