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कहानी- सोच (Short Story- Soch)

"दीदी, आपको क्या गिफ्ट भेजूं." दिव्या के पूछने पर कुछ मौन के साथ अलका की हंसी मिश्रित आवाज़ आई. "मेरी सास को कुछ दिन और अपने घर पर रख ले. चाहे तो हमेशा के लिए. आह। इससे अच्छा और क्या गिफ्ट होगा. सच दिव्या, उनकी गैरमौजूदगी में ये घर, घर लग रहा है, कैदखाना नहीं." जैसे कोई क़ीमती चीज़ छन की आवाज़ से गिरकर टूटी हो, कुछ ऐसे ही जीजी का दिल टूटा था. कमरे में यकायक सन्नाटा छा गया. सब स्तब्ध थे. हतप्रभ..

"पापा-मम्मी, मुझे आप लोगों से कुछ कहना है." रात के ग्यारह बजे बहू दिव्या को अपने कमरे में आया देखकर ब्रजेश और तारा चौंक पड़े.
"क्या हुआ? सब ठीक तो है ना." दिव्या के स्वभाव से मेल ना खाते उसके गंभीर चेहरे को ध्यान से पढ़ते हुए तारा ने पूछा, तो वह उनके पास ही बिस्तर पर बैठ गई. फिर तारा का हाथ अपने हाथ में लेकर बोली, "मम्मी, एक बात कहूं, जब तक बुआजी घर पर हैं, आप लोग मुझसे रोब से बात किया कीजिए और मम्मी आप मेरा हाथ मत बंटाइए, मैं ऑफिस से दो दिनों की छुट्टी ले लेती हूं."
"पर किसलिए?" तारा ने हैरानी से पूछा, तो वह रोनी सी सूरत बनाकर बोली, "मम्मी, बुआजी के सामने मेरा इम्प्रेशन बहुत ख़राब हो गया है, वो मुझे बिल्कुल नकारा बहू मानने लगी हैं." दिव्या ने जिस संजीदगी से ये बात कही, ब्रजेश को हंसी आ गई. किसी तरह अपनी हंसी रोककर बोले, "बिटिया, अपनी बुआ सास की बात दिल पर मत लो और वैसे भी तुम्हारा इम्प्रेशन ख़राब नहीं हुआ है. उल्टा मेरी बड़ी बहन का इम्प्रेशन तुम्हारे सामने ख़राब हुआ है."
"नहीं पापा, आज जो कुछ भी हुआ, वो मुझे ठीक नहीं लगा. हमारे तौर-तरीक़े बुआजी को नापसंद है और रही बात मेरी, तो बुआजी मुझे नकारा और फूहड़ समझती हैं. मम्मी, क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि जब तक बुआजी है, तब तक पूरे घर का काम मैं करूं, आप लोग मुझे आदेश दें और मैं उसका तुरंत पालन करूं." दिव्या की इस अजीबोगरीब मांग के पीछे उसकी मनोदशा तारा समझ रही थी. जब से उनकी बड़ी ननद रमोला जीजी घर आई हैं, तब से घर में कुछ तनाव का माहौल हो गया है. बात-बात पर उसकी तुलना जीजी अपनी बहू अलका से करती हैं, उनकी टोकाटाकी, टीका-टिप्पणी से ब्रजेश-तारा दोनों परेशान हो गए हैं. रमोला जीजी के अनुसार ब्रजेश और तारा ने घर की बहू के सामने अपने पद की गरिमा नहीं रखी. बहू के सामने भी वो अपने छोटे-छोटे काम ख़ुद करते हैं, जो उनको शोभा नहीं देता है.
यहां तक कि उनको ब्रजेश द्वारा दिव्या को 'दिव्या बिटिया' संबोधन भी नहीं सुहाता. आज की घटना के बाद से तो उनका मूड बहुत ही ख़राब है. घर के सदस्य भी असहज महसूस कर रहे हैं. तारा की आंखों के सामने कुछ देर पहले घटी घटना घूम गईं. सब रात को डायनिंग टेबल पर बैठे हंसी-ख़ुशी डिनर कर रहे थे. गपशप के बीच हंसी-मज़ाक भी साथ-साथ चल रहा था. खाना खाने के बाद तारा, जयंत और ब्रजेश अपनी-अपनी जूठी थाली उठाकर खड़े हुए ही थे कि रमोला जीजी हैरानी से उनको देखते हुए दिव्या पर चिल्लाई, "बहू, ये सब क्या है. सास-ससुर अपनी जूठी थाली लिए जा रहे हैं और तुम देख रही हो." उनकी आवाज़ पर दिव्या सहमकर अपनी थाली वहीं छोड़ तारा और ब्रजेश की ओर बढ़ी, तो ब्रजेश ने इशारे से उसे रोक दिया और चुपचाप रसोई की ओर चले गए. थाली रखकर आए, तो देखा दिव्या शर्मिंदा सी रमोला जीजी की जूठी थाली उठा रही थी. ब्रजेश बड़ी शांति से जीजी से बोले, "जीजी, हमारे घर के अपने उसूल हैं. हम सब अपनी-अपनी जूठी थाली स्वयं उठाते हैं. क्यों सौरभ."
"जी पापा, जानती हैं बुआ, अपनी जूठी थाली टेबल से उठाने की ट्रेनिंग पापा की दी हुई है. इसे हम किसी के सामने भी नहीं छोड़ते. आप नाराज़ हो गईं, जबकि लोग तो प्रभावित हो जाते हैं." बोलते हुए सौरभ को दिव्या ने इशारे से चुप कराया, वो रमोला जीजी के तमतमाते चेहरे को देख रही थी. रमोला जीजी ख़ुद को अपमानित महसूस कर रही थीं. छाई चुप्पी से असहज माहौल बदलने की गरज से दिव्या ने अपनी बुआ सास से इधर-उधर की बातों के बीच कहा, "बुआजी, अगली बार आप अलका दीदी को ले आइएगा, बहुत दिन हो गए उनसे मिले हुए, तब हम लोग खूब घूमेंगे, शॉपिंग करेंगे."
"अलका बहू साथ आएगी, तो घर कौन संभालेगा, वैसे भी इस घर में कुछ ऐसी रवायते अपनाई जा रही हैं, जो मेरे गले नहीं उत्तरती." रमोला जीजी के रूखे बोल से तारा और दिव्या ने चुप्पी साध ली, पर ब्रजेश फिर बोल पड़े, "जीजी, आप जिन रवायतों की बात कर रही है, उनको अपनाना सबके बस की बात भी नहीं." इस बात पर जीजी नाराज़ हो गईं. हालांकि दिव्या ने अपनी सरलता से उनको मना लिया, तो जीजी दिव्या को समझाती नज़र आईं, "देख बहू, तेरे सास-ससुर चाहे जो कहें, पर उनको मेज से जूठे बर्तन उठाते देखकर सब तुम्हारी सास के दिए संस्कारों को दोष देंगे. तेरी जेठानी अलका हर चीज़ मुझे हाथ में देती है. मेरी साड़ी तक वो मुझे तह नहीं करने देती है. बड़े-बूढ़ों की इज़्ज़त, मान-सम्मान इन छोटी-छोटी बातों में ही दिखता है."

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"जी, बुआजी…" दिव्या हथियार डालने जैसी मुद्रा में उनकी हां में हां मिलाती रही, रमोला जीजी का व्यवहार स्वीकृत न होते हुए भी तारा शांत थी, क्योंकि वह जानती थी कि रमोला जीजी स्वयं के बनाए जिस किले के भीतर रहती हैं, उसे कोई नहीं भेद सकता.
तारा ने आज अपनी बहू का एक नया रूप देखा, उसने अपने व्यवहार से जिस सुंदर मन का परिचय दिया था, उसे जीजी समझने को तैयार नहीं थी, "मम्मी, क्या सोचने लगीं? मुझे अपनी फजीहत की परवाह नहीं, पर आपके ऊपर कोई दोष आए, ये ठीक नहीं, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ दिन हम उनके अनुसार रह लें?" दिव्या के टोकने पर उस घटना में डूबी तारा चौंकी,
वो कुछ कहती उससे पहले ही ब्रजेश रहस्यमई अंदाज़ में बोले, "बिटिया, ये बड़ा ख़तरनाक प्रयोग है. सोचो, अगर तुम्हारी मम्मी को नई व्यवस्था रास आ गई, तो क्या होगा. ज़िंदगीभर अपनी मम्मी के इशारों पर नाचना होगा." ब्रजेश के मज़ाक पर दिव्या तारा के गले में अपनी गलबहियां डालते हुए लाड़ से बोली, "क्या पापा आप भी, मेरी मम्मी बहुत स्वीट हैं. मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा, इसलिए मैं मम्मी के ख़िलाफ़ किसी को बोलने का कोई मौक़ा नहीं देना चाहती हूं, आप लोग हमारे आदर्श हो, पर बुआजी मेरे या आप लोगों के प्रति कोई बुरा इम्प्रेशन लेकर जाएं, ये ठीक नहीं है." दिव्या के कहने पर तारा प्यार से उसके हाथों को सहलाते हुए बोली, "ये ऊलजलूल ख़्याल तुम्हें क्यों आ रहे हैं? सबके घर की अपनी-अपनी व्यवस्था होती है. तुम नौकरी करती हो, ऐसे में हम अपने छोटे-छोटे कामों के लिए तुम पर आश्रित हो जाएं, तो कुछ दिन तो तुम सहोगी, पर धीरे-धीरे उस बोझ के तले उकताओगी, चिड़चिड़ी हो जाओगी और भई हमें तो अपनी हंसती-मुस्कुराती बिना बनावटवाले स्वभाव की बहू चाहिए. आज तुम अपनी बुआ सास के तानों से डरकर कुछ देर के लिए ही सही पर ढांचे को हिलाओगी, तो तुम्हें परेशानी होगी. तुम असंतुष्ट होगी, तो हम परेशान होंगे. तुम्हारे और सौरभ के रिश्तों पर असर होगा. इतना सारा बदलाव किसी को इम्प्रेस करने के लिए ठीक नहीं." तारा के ये सब कहने के बावजूद दिव्या सोच में डूबी रही, तो ब्रजेश बोले, "जाओ, जाकर सो जाओ. कल तुम्हारा प्रेजेंटेशन है और हां ये मेरा आदेश है." ब्रजेश के कहने के अंदाज़ पर तारा जोर से हंस दी. और समय होता तो दिव्या खिलखिला उठती, पर दिव्या के होंठों पर मुस्कान की एक रेखा भर आ पाई, दिव्या चली गई, तो ब्रजेश कहने लगे, "इन दो दिनों में दीदों ने बेचारी को डरा ही दिया है. बोलो तो मैं जीजी से बात करूं."

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"ना-ना आज बहुत तमाशा हो गया. दो दिन के लिए जीजी आई है, बिना किसी विवाद के हंसी-ख़ुशी समय निकल जाने दो. कल जीजी से तुम माफ़ी मांग लेना, वरना बेवजह बात बढ़ेगी. उनकी बात इस कान से सुनकर दूसरे से निकाल देना बेहतर है. हमारे कहने से ना वो बदलेंगी, ना उनके तानों से किसी को निजात मिलनेवाली है. तानों का जवाब हम तानों से दें ये सही नहीं है." ब्रजेश तारा की बात से सहमत थे. जीजी के आहत होने पर उनको अपराधबोध हुआ. कुछ देर बाद वो सो गए, पर तारा सोच-विचार में डूबी रही. अपनी गरम मिज़ाज ननद के स्वभाव को भली-भांति समझती थी. दो दिनों से जीजी ब्रजेश और तारा को सुना रही है.
"तुम लोग अब सास-ससुर बन गए हो. ज़रा पदानुसार व्यवहार करो. ये क्या सही है कि बहू-बेटे के बीच बैठकर हंसी-मज़ाक करके हम अपने प्रभाव को कम करें." तारा उनको समझा ही नहीं पाती कि नौकरीपेशा बहू-बेटे के साथ शाम की चाय और गपशप और रात के खाने के बीच हुए हंसी-मज़ाक के क्या मायने हैं. उसकी आंखों के सामने रमोला जीजी के घर बिताया वह दिन याद आया, जब उनकी बहू अलका रसोई में व्यस्त थी और वो जीजी के साथ खाना खा रही थी. खाना खाने के बाद आदतानुसार तारा ने अपनी प्लेट स्वयं उठा ली, तो जीजी ग़ुस्से में बोलीं, "तुम मेरी बहू की आदत मत बिगाड़ो. ये बर्तन यहीं रहने दो, वो आकर ले जाएगी." जूठी प्लेट वह वहीं छुड़वाकर उठ गई, जूठे बर्तन उठाकर ले जाती हुई अलका को रमोला जीजी ने यूं गर्व से देखा, मानो वहां पड़ी जूठी थाली उठाकर अलका ने उनका मान-सम्मान बचा लिया हो. पूरा दिन रुककर तारा ने देखा किस तरह अलका उनके इर्दगिर्द घूमती रहती है. अलका पर निर्भर होती जा रहीं जीजी. इन दिनों गठिया, डायबिटीज़, अस्थमा, स्पॉण्डिलाइटिस इन सबकी मरीज़ होती जा रही थीं. जीजी के बारे में सोचते-सोचते तारा की आंख लग गई.
दूसरे दिन सुबह सब अपनी दिनचर्या में लगे थे. दिव्या नाश्ते की तैयारी कर रही थी, तभी जीजी की बहू अलका का फोन आया. आज उसका जन्मदिन था. इस अवसर पर वह अपनी सास से आशीर्वाद लेना चाहती थी. जीजी के साथ घर के सभी सदस्यों ने बारी-बारी से अलका को मुबारकबाद दी. रमोला जीजी बड़ी ख़ुश थीं. दिव्या भी बधाई देना चाहती थी, पर उसके हाथ आटे में सने थे. इसलिए सौरभ ने फोन स्पीकर पर कर दिया. "दीदी, आपको क्या गिफ्ट भेजूं." दिव्या के पूछने पर कुछ मौन के साथ अलका की हंसी मिश्रित आवाज़ आई. "मेरी सास को कुछ दिन और अपने घर पर रख ले. चाहे तो हमेशा के लिए. आह। इससे अच्छा और क्या गिफ्ट होगा. सच दिव्या, उनकी गैरमौजूदगी में ये घर, घर लग रहा है, कैदखाना नहीं." जैसे कोई क़ीमती चीज़ छन की आवाज़ से गिरकर टूटी हो, कुछ ऐसे ही जीजी का दिल टूटा था. कमरे में यकायक सन्नाटा छा गया. सब स्तब्ध थे. हतप्रभ.. सौरभ ने जल्दी से स्पीकर बंद कर दिया था. दिव्या आटे सने हाथ से रिसीवर लेने दौड़ी. "अलका दीदी, मैं ऑफिस के लिए निकल रही हूं, बाद में बात करती हूं." कहते हुए उसने फोन काट दिया. सन्न और शर्मिंदा खड़े दिव्या और सौरभ बुआ से आंखें मिलाने की स्थिति में नहीं थे. ये क्या कह दिया अलका भाभी ने, ऐसी उम्मीद नहीं थी उनसे.
जीजी आकाश से परकटी चिड़िया की भांति चुपचाप अपने कमरे में पड़ गईं. रमोला जीजी किस छलावे में जी रही है इसका एहसास अब तक उनको हो गया था. कुछ देर बाद ब्रजेश और तारा उनके पास गए, तो जीजी की आंखों में नमी देखकर उनको बहुत बुरा लगा. तारा ने उनको गले लगाते हुए कहा, "बच्चे हैं, मस्ती में कुछ भी कह देते हैं भूल जाइए आप."

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"नहीं तारा, अलका से पूछूंगी कि ऐसा क्यों कहा उसने." "जीजी, आप ऐसी ग़लती मत कीजिएगा. जो हुआ उस पर पर्दा पड़े रहने दीजिए, उसी में समझदारी है. बस, ऐसा क्यों कहा, उसे समझने का प्रयास कीजिए." तारा के कहते ही ब्रजेश अपनी बहन की मनोदशा को समझते हुए बोले, "जीजी, दूसरों के दोष देखना सबसे सरल है, पर वो ऐसा क्यों है, हम उसके लिए क्या कर सकते हैं. एक-दूसरे के प्रति वास्तविक अपनेपन की उत्पत्ति के लिए क्या संभावनाएं हैं? नहीं हैं, तो किस प्रकार पैदा की जा सकती हैं? इन सबके बारे में विचार करो. अच्छा है, जो अलका की मज़ाक में कही बात आप दोनों के रिश्ते को एक बार फिर सिरे से देखने का मौक़ा दे रही है."
"पर ब्रजेश, अलका ख़ुद ही तो मेरे आगे-पीछे दौड़ती है."
"वो शायद इसलिए कि उसे लगता है कि इस निरर्थक सम्मान से आप ख़ुश होंगी. हो सकता है कि शुरू-शुरू में आपको ख़ुश करके वह भी संतुष्ट और ख़ुश हुई होगी. समयकाल लंबा हुआ, तो वही सेवा बोझ लगने लगी. ऐसे में समझदारी इसी में है कि दूसरों पर बोझ उतना ही डाला जाए, जितना सहनीय और व्यावहारिक हो. साथ ही आपको ये भी समझना चाहिए कि अपने जूठे बर्तन उठाकर रखने से कोई छोटा नहीं बनता है. हम ख़ुद पर निर्भर हैं, किसी और पर नहीं, ऐसी सोच निःसंदेह हमें सम्मान ही दिलाएगी अपनी नज़र में भी और दूसरों की नज़र में भी. सोचो जीजी, जब कभी अलका बाहर जाती होगी, तो घर वापस आकर आपके छोड़े जूठे बर्तन मेज़ पर रखे देख क्या सोचती होगी, बेशक उसे उन बर्तनों को रसोई में पहुंचाने में मिनटभर लगता होगा, पर वो मिनट आपकी सोच को दर्शाकर उसके मन में आपके प्रति रोष जगा जाता होगा." ब्रजेश की बात को रमोला जीजी ने बड़े ध्यान से सुना, फिर ठंडी सांस लेकर बोलीं, "उसे तकलीफ़ थी, तो कह देती. न करती मेरा कोई काम. कहना आसान है, जो हुआ भूल जाओ, पर जब-जब उसे देखूंगी, तब-तब क्या उसके फोन पर कहे शब्द और वो हंसी, उसकी मेरे प्रति सोच मुझे दुख नहीं पहुंचाएगी, तेरी बहू दिव्या को देख, कल मुझे नाराज़ देखकर कैसे मुझे बहलाने मेरे पास आ गई. क्या-क्या नहीं कहा उसको मैंने, ये सोचकर मुझे दुख नहीं होगा." जीजी पछतावे से बोलीं, तो दिव्या की आवाज़ आई, "आप दुखी होंगी तो हमें बुरा लगेगा. तो क्या हुआ अगर आपने कुछ कह दिया तो. क्या मैं आपकी बेटी नहीं. आपने जो ठीक समझा, मुझे भी सिखाने की कोशिश की. विश्वास कीजिए अलका भाभी ने भी मस्ती में वो बात कही. अब भूल भी जाइए ना. आज मैं आपको शॉपिंग पर ले चलूंगी, आप भाभी के लिए प्यारी सी साड़ी ले लीजिएगा."
"हूं." रमोला जीजी उसे स्नेह से देखते आगे बोलीं, "उस दिन तूने नीले रंग का एक सूट पहना था ना, वैसा ही अलका के लिए भी ख़रीद लाना मेरी तरफ़ से." रमोला जीजी के कहते ही ब्रजेश ने कहा, "वाह। जीजी, ये हुई ना बात." तारा और दिव्या मुस्करा पड़े. दिव्या मुस्कराती हुई धीमे से बोली, "वाह! अलका भाभी इस बार आपके जन्मदिन पर ऐसा उपहार मिलेगा, जिसे आप हमेशा के लिए सहेजकर रखना चाहेंगी."
- मीनू त्रिपाठी

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