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कहानी- सीता आज भी निर्वासित है… (Short Story- Sita Aaj Bhi Nirvasit Hai…)

"क्या तुम मुझसे नाराज़ हो?" भीतर बहुत कुछ पिघल सा रहा था. मस्तिष्क की सुन्न नसें एक साथ तड़कने लगी थीं. पीड़ा और सुख की मिलीजुली अनुभूति के साथ वह सिर्फ़ सजल आंखों से सुजय को निहार रही थी.

पूरे दो वर्षों के बाद सुजय घर आए थे. सुधा ने कनखियों से उन्हें ऊपर से नीचे तक निहारा था. कहने को उनके पास कुछ नहीं था, लेकिन सुधा को पता चल गया था. उन पर उसका अब कोई अधिकार नहीं है. सुजय ने उसका कंधा ज़ोर से हिलाया, "क्या तुम मुझसे नाराज़ हो?" भीतर बहुत कुछ पिघल सा रहा था. मस्तिष्क की सुन्न नसें एक साथ तड़कने लगी थीं. पीड़ा और सुख की मिलीजुली अनुभूति के साथ वह सिर्फ़ सजल आंखों से सुजय को निहार रही थी.
सुजय ने एक बार फिर अनुरोध भरे शब्दों में कहा, "सुधा, अपनी ज़िद्द छोड़ दो. तुम्हारे शादी न करने के फ़ैसले से मां-पिताजी कितने दुखी हैं. एक बार अपने फ़ैसले को बदलकर देखो दुनिया बहुत ख़ूबसूरत नज़र आएगी. इतने सालों के स्वप्निल सपनों को साकार करने का यही तो सुनहरा अवसर है. क्यों तुम अंतहीन सोचों के सहारे जीवन की दिशा बदल रही हो?"
"सुजय, जिसे तुम अंतहीन समझते हो, वो अपने आप में हज़ारों तरह की असंभावनाएं छिपाए बैठी है. इन असंभावनाओं की श्रृंखला कब टूटेगी, इसका ज्ञान न तुम्हें है और न मुझे. सुजय, मैं सिर्फ़ नाम की सुधा हूं, उपेक्षा और निंदा का विष पीना ही मेरी नियति है. इस नियति का ढाल मैं तुम्हें नहीं बनाना चाहती…" कहते-कहते सुधा फफककर रो पड़ी.


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सुजय चले गए. जिस उम्मीद की आख़िरी लौ वो आंधियों से बचाकर लाए थे, वो लौ भी अब बुझ चुकी थी.
सुधा ने बड़ी मुश्किल से ख़ुद को संयत किया था. वो जानती है स्मृतियों का ताना-बाना उसे कभी नहीं छोड़ेगा. कमरे के एकांत में टिक-टिक करती घड़ी उसे उसकी नीरवता से अवगत कराने लगी. अतीत का बीता हुआ एक-एक पल जीवंत हो उठा.
सुजय से उसकी पहली मुलाक़ात दीदी की शादी में हुई थी. पहले तो वह सुजय को पहचानी ही नहीं, लेकिन बाद में पता तला कि वह दीदी के छोटे देवर हैं. देवर का पद हो और वह पीछे हट जाए. उसने भी शादी में सुजय को जी भर के सताया. सुधा का आकर्षण सुजय की आंखों में कुछ यूं छाया कि वह दीवानों की तरह सुधा के आगे-पीछे घूमने लगा था.
शादी की मधुर स्मृतियां संजोए दीदी विदा हो गई. विदाई के वक़्त सुजय ने उससे शरारती अंदाज़ में कहा था, "अरे, आप रोती क्यों हैं? आप भी क्यों नहीं चलतीं, वैसे भी हम 'एक पर एक मुफ़्त' ले जाने में विश्वास करते हैं." सुधा खिलखिलाकर हंस पड़ी.
इस बीच सुजय का अक्सर कोई-न-कोई बहाना बनाकर घर आना, मां को थोड़ा अजीब सा लगा. मां सुधा के मन को कुरेदती हुई बोली, "सोचती हूं तुम्हारी शादी सुजय से कर दूं, दोनों बहनें एक ही घर में रहोगी, तो मुझे भी ख़ुशी होगी."


सुधा शरमाकर कमरे में चली आई थी. सुजय के कानों तक भी यह ख़बर उड़ती हुई पहुंची थी, बस फिर क्या था, जिन सपनों को दोनों ने दिल के बंद दरवाज़े में संजोया था, वो सपने अब उन्मुक्त रूप से उड़ान भरने लगे. सुजय के पापा-मम्मी ने भी इस रिश्ते को हरी झंडी दिखा दी.
सुमन दीदी को पहला बच्चा होने वाला था, डॉक्टर ने डिलीवरी तक टोटल बेड रेस्ट बताया था, इसलिए वह मायके आ गई. सुधा सुबह से शाम तक दीदी के आगे-पीछे तीमारदारी में जुटी रहती. देखते ही देखते नौ महीने कब बीत गए पता ही नहीं चला. बच्चे के नामकरण पर सुमन दीदी के ससुराल से आनेवाले लोगों ने सुधा की मुक्त कंठ से प्रशंसा की. दीदी की सास आह्लादित होकर बोली थी, "भई, हमने तो सुधा को अपनी छोटी बहू स्वीकार कर लिया है. सुबह से बिटिया अकेले ही काम में लगी है, लेकिन चेहरे पर शिकन तक नहीं. सच सुधा बिटिया हीरा है हीरा."


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दीदी के कानों में पहली बार यह ख़बर पहुंची कि उसकी सास सुधा को घर की छोटी बहू बनाना चाहती है और उसकी बहुत बड़ी प्रशंसक है. शनैः शनैः सुमन दीदी का बर्ताव सुधा के प्रति उपेक्षित होने लगा था. सुधा की छोटी-से-छोटी हरकत को अब वह शक की निगाह से देखने लगी थीं.
एक दिन तो उन्होंने हद ही कर दी.
"सुधा, कल शाम को तुम इनसे इतना हंस-हंसकर क्या बात कर रही थी? मुझे यह बिल्कुल पसंद नहीं. अभी सुजय को फांस कर चैन नहीं मिला, जो इन पर भी डोरे डालने लगी."
"दीदी!" अप्रत्याशित सा लगा था दीदी का यह आचरण सुधा को, वह चीख सी पड़ी थी.
सुबह उसने सुमन दीदी को मां से कहते सुना था, "मां, तुम सुधा की शादी आख़िर एक ही घर में कैसे कर सकती हो? और भी लड़के हैं, तुम किसी और से क्यों नहीं कर देतीं इसकी शादी."
"कैसी बात करती हो सुमन? एक ही घर में तुम दोनों रहोगी, तो मुझे इस बात की ख़ुशी होगी कि तुम दोनों सुख से हो."
"नहीं मां, मैं जानती हूं तुम सुधा की शादी मेरे घर में करके उस घर में मुझे उपेक्षित करवाना चाहती हो. तुम जानती हो कि सुधा काम-धाम में मुझसे तेज है. सबका दिल जीत लेगी और मैं, मैं एक सूखे पत्ते सा यहां-वहां डोलती रहूंगी. अभी शादी नहीं हुई है, तो यह हाल है कि सभी उसकी प्रशंसा के पुल बांधते नहीं थकते. शादी के बाद…"
"बेटी, ऐसा कुछ नहीं है. अपने अंदर की कुंठा को मन से निकाल दो. ऐसा नहीं है कि मैंने तुम्हें कुछ सिखाया ही नहीं. हां, यह और बात है कि तुमको घर के काम-काज में दिलचस्पी ही नहीं थी. अभी भी वक़्त बीता नहीं है. 'जब जागो तब सवेरा' तुम सुधा से बनाना-खिलाना सीख लेना. बिटिया सीखने की कोई उम्र थोड़े ही होती है."
मां की बात सुनकर सुमन दीदी पैर पटकती अंदर चली गईं. मां ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया, वो इसे महज़ एक नारी सुलभ ईर्ष्या ही समझती रहीं. कुछ दिनों बाद बहुत ही उत्साह के साथ पापा दीदी की ससुराल गए, तो उन्हें पता चला कि सुजय की शादी अन्यत्र तय हो गई है. शादी कहां तय हुई है पापा ने यह जानने का प्रयास नहीं किया. वे चुपचाप निराश होकर घर वापस आ गए थे.


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महीने भर बाद सुजय का छोटा भाई आया था. उसे देखकर अनायास ही सुधा फूट पड़ी. पहले तो वह मौन दर्शक बना सब चुपचाप सुनता रहा, फिर थोड़ा ठहर कर बोला, "हमारे घरवाले तो इस रिश्ते के लिए पूरी तरह से तैयार थे. भाभी से भी उनकी राय पूछी गई, तो भाभी ने कहा कि 'वैसे तो सुधा मेरी बहन है. मैं यह कभी न कहती, लेकिन यह घर मेरा भी है, इसलिए मैं स्पष्ट कर दूं कि सुधा अच्छी लड़की नहीं है. पुरुषों के प्रति वह बहुत ही संवेदनशील है. इस घर के लिए वह उपयुक्त नहीं है. उसका आचरण मर्यादित नहीं है." और भी न जाने क्या-क्या वह कहता रहा. सुधा को सब कुछ अविश्वसनीय सा लग रहा था. भरी आंखों से वह बस देखती व सुनती रही.
दीदी की एक छोटी सी कुंठा कि सुधा उनसे ज़्यादा योग्य और कुशाग्र बुद्धि की थी, इतना बड़ा अनिष्ट कर जाएगा उसने सपने में भी नहीं सोचा था.
"देखती हूं सुमन और कितना गिरती है. यदि वह नीचता पर आमादा है, तो मैं भी उसे दिखा दूंगी कि नीचता कैसे की जाती है." मां अनाप-शनाप बड़बड़ाती हुई धम्म से बैठ गईं.
"अपनी कमी छिपाने के लिए अपनी छोटी बहन को कलंकित करनेवाली बेटी भगवान किसी दुश्मन को भी न दे. मैं भी जब तक उससे इस नीचता का बदला न ले लूं, चैन से नहीं बैठूंगी."
"बस करो मां, अंधे कूप में चीखने से क्या होता है? जो अधिकार मुझे सरलता से नहीं मिला, उसके लिए हाय-तौबा करने की क्या ज़रूरत है? जाने दो. जो हुआ, वो ठीक ही हुआ, कम-से-कम मेरे मन की लालसा तो समाप्त हो गई. कहते हैं न मां, अपने हारे हार है अपने जीते जीत. मैं जानती हूं, पापा जानते हैं, तुम जानती हो कि मैं निर्दोष हूं. मैंने कभी भी सुजय को पाने के लिए कोई चाल नहीं चली और न ही कोई तिकड़म लड़ाया. फिर दीदी के प्रतिवाद करने से क्या हो जाता है. मां रिश्तों की बुनावट बड़ी जटिल होती है. इस जटिलता से हमेशा बचना चाहिए, वरना स्थिति ढाक के तीन पात वाली होती है." मां मौन भाव से सुधा को सुनती रही. भीतर तक कहीं दिल के कोने से स्वर निकला, सीता आज भी निर्वासित होती है.

- प्रीति पाण्डेय 'रसिका'

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