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कहानी- सिर्फ़ लिबास बदला है (Short Story- Sirf Libas Badla Hai)

टिफिन हाथ में लेते हुए दिनेशजी पोती की तरफ़ देखकर स्नेह से मुस्कुरा दिए. आज उसकी नई हेयर स्टाइल उन्हें उतनी बुरी नहीं लग रही थी. पोती से तो उन्हें भरपूर स्नेह था, वे बस उसके पहनावे और तौर-तरीक़ों को हज़म नहीं कर पाते थे.

"ये कैसे बाल कटवाकर आ गई है अनाहिता, तुमने उसे मना नहीं किया? बिल्कुल… लग रही है." बीच का शब्द दिनेशजी ने बड़ी चेष्टा से मुंह में ही दबा लिया.
"मैं तब मना करती जब मुझे मालूम होता. मुझे क्या बताकर गई थी या मुझसे पूछकर गई थी. वो तो अपनी मां के साथ जाकर बाल कटवाकर आ गई तब मुझे पता चला." जयश्री ने बताया.
"हां… और तुम ख़ूब प्रसन्नता से उसकी नई हेयर स्टाइल की तारीफ़ कर रही थी." दिनेशजी कुढ़कर बोले.
"तो और क्या करती जब उसने आते ही उछलकर पूछा कि बताओ दादी, मैं कैसी लग रही हूं. मेरी नई हेयर स्टाइल कैसी है, तो कहना ही पड़ा कि अच्छी लग रही है." जयश्री ने बात स्पष्ट की.
"खाक अच्छी लग रही है. लंबे बालों में सीधी चोटी कितनी अच्छी लगती थी और अब… तुम बोल नहीं सकती थी कि ऐसे पागलों जैसे बाल क्यों कटवाए." अबकी बार दिनेशजी अपनी जुबान को रोक नहीं पाए.
"मेरे ऐसा कहने से उसके बाल फिर से पहले जैसे तो नहीं हो जाएंगे. उसे पसंद होंगे तभी तो उसने कटवाए और इतनी ख़ुश हो रही है. अब मैं उसे बुरा बोलकर उसका मन दुखाकर बेवजह संबंधों में दूरी क्यों पैदा करूं? यह तीसरी पीढ़ी के बच्चे हैं. हर पीढ़ी में कुछ न कुछ बदलाव तो आते ही हैं. हमने अपने ज़माने में कुछ न कुछ परंपराएं और रूढ़ियां तोड़ी ही होंगी अपने से पुरानी पीढ़ियों की. हमारे बच्चों ने हमसे अलग कुछ किया और अब उनके बच्चे उनसे अलग कुछ कर रहे हैं. यह बदलाव तो प्रकृति का नियम है, इसे हर पीढ़ी को स्वीकार करना ही पड़ता है." जयश्री ने समझाया.
"ओह! तुमने तो दार्शनिकों की तरह लंबा-चौड़ा भाषण ही दे डाला. बाल तो फिर भी ठीक हैं, उसके तो कपड़े भी दिन-ब-दिन कैसे होते जा रहे हैं. उस दिन गुप्ताजी की पार्टी में ऐसे कपड़े पहनकर गई थी कि मैं तो शर्म से पानी-पानी हो गया. आश्चर्य है, विशाल की अक्ल को क्या हो गया है. बहन के कंधे से जरा सा दुपट्टा ही अगर सरक जाता तो उसकी भर्वे टेढ़ी हो जाती थीं और अब ख़ुद की लड़की ऐसे कपडे पहनती है तब उसे दिखाई नहीं देता." दिनेशजी झल्लाकर बोले.

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"विशाल को सब दिखाई देता है. उस दिन अनाहिता के कपड़े उसे भी बुरे लगे थे, ख़ासतौर पर इसलिए भी कि वो पार्टी आपके सम्मान में दी गई थी. उसका भी मन था कि अनाहिता शालीन कपड़ों में वहां जाए, पर जवान होती बेटी को खुलकर मना नहीं कर पाया और कुछ नहीं." जयश्री ने स्पष्ट किया.
विशाल के मन में अपने प्रति सम्मान देखकर दिनेशजी थोड़ा नरम पड़े, लेकिन फिर भी अपने दिल की भड़ास निकालने से चूके नहीं.
"क्यों? अपनी बहन को तो तुरंत टोक देता था. एक दिन बाहर जाते हुए उसने ज़िद करके नीता से सिर्फ़ इसलिए सूट बदलवाया था कि उसकी बांहें ज़रा छोटी थी."
"भाई-बहन बराबरी के होते हैं, हर विषय पर खुलकर बातें कर सकते हैं. उनके बीच कोई परदा नहीं होता, लेकिन बाप अपनी बेटी से हर बात खुलकर नहीं कह सकता, बाद में जब हम शर्माजी के यहां गए थे, तब उसने बहू से कहकर अनाहिता को शालीन सा सूट ही पहनवाया था कि नहीं." जयश्री बोली.
"फिर भी उसे अनाहिता को थोड़ा अनुशासन में तो रखना ही चाहिए. दिन-ब-दिन अपनी मर्ज़ी की मालकिन बनती जा रही है. बहन पर इतनी सख्ती रखता था और बेटी को इतनी ढील दे रखी है." दिनेशजी अब भी भुनभुना रहे थे.
"भाई और पिता में यही फ़र्क़ होता है. भाई सख़्त हो सकता है, पिता नहीं. आप भी तो अपनी बहन पर कितनी सख्ती करते थे. बेचारी आज भी आपके सामने कितनी डरी-डरी रहती है, लेकिन नीता पर क्या आप उतने कठोर हो पाते थे. अपनी बहन को आपने उसकी मर्ज़ी से शादी नहीं करने दी, मगर अपनी बेटी के आगे आप कितनी आसानी से झुक गए थे." जयश्री ने याद दिलाया,
दिनेशजी ने बेचैनी से पहलू बदला, "बात क्या थी और तुम कहां ले गई. नीता हमेशा शालीन ढंग से मर्यादा में रहा करती थी, मगर अनाहिता…"
"ये आजकल की पीढ़ी है. इनका पहनावा ऐसा ही हो गया है. यही आजकल का फैशन और चलन है. अनाहिता भी अपने दौर के हिसाब से ही रह रही है. अच्छा यही है कि हम ही ख़ुद बदलते दौर के साथ सामंजस्य स्थापित करना सीख जाएं, तो पीढ़ियों के बीच व्यर्थ की टकराहट नहीं होगी और आप इस विषय पर ज़्यादा मत सोचिए, अनाहिता का लिबास और रहने का ढंग भले ही आधुनिक हो, मगर उसमें संस्कार आपके ही हैं. वह मन की बुरी नहीं है." जयश्री ने उन्हें सांत्वना दी.
सुबह की चाय हो चुकी थी. जयश्री खाली प्याले उठाकर रसोई में जाते हुए कह गई, "अब जल्दी तैयार हो जाइए, नहीं तो कॉलेज के लिए देर हो जाएगी."

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वैसे भी अब बहू-बेटे का उठकर नीचे आने का समय हो गया था. रिश्तों की डोर बहुत नाज़ुक होती है, ज़रा से खिंचाव से भी टूटने का अंदेशा बना रहता है. किसी भी तरह की अप्रिय बात का उनके कान में जाना ठीक नहीं था. परिवार को साथ लेकर बहुत संभलकर चलना पड़ता है. दस बजे तक दिनेशजी कॉलेज के लिए निकल जाते थे. यूं तो ये रिटायर हो चुके थे, फिर भी उन्होंने पढ़ाना नहीं छोड़ा था. इसी बहाने अपने विषय के संपर्क में भी बने रहते थे और घर से बाहर निकलकर मित्रों से मिलना-जुलना भी हो जाता था.
विशाल भी ऑफिस चला गया. अनाहिता सी.ए. की तैयारी कर रही थी. वो ज़्यादातर समय अपने कमरे में पढ़ती रहती थी. सी.ए. के साथ ही उसने इस साल बी. कॉम. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करके द्वितीय वर्ष में प्रवेश लिया था. शाम को उसकी कोचिंग होती थी, जाते समय बहू उसे छोड़ देती थी और आते समय विशाल ले आता था.
उस दिन रात में अचानक फोन आया कि बहू के पिताजी की तबीयत बहुत ख़राब हो गई है. अस्पताल में एडमिट किया है. बहू सुनंदा रुआंसी हो गई. जयश्री ने उसे सांत्वना दी. दूसरे दिन सुबह ही जयश्री ने खाना तैयार करके रख दिया और विशाल, सुनंदा, जयश्री कार से बहू के मायके रवाना हो गए, दस बजे दिनेशजी ने खाना खाने के लिए किचन में प्रवेश किया. अभी वे थाली, कटोरी निकाल ही रहे थे कि बर्तनों की खटपट सुनकर अनाहिता दौड़ी आई.
"आप बैठिए दादाजी, मैं परोस देती हूं." कहकर उसने खाना गरम किया और थाली लगा दी. दिनेशजी को आश्चर्य हुआ. उन्होंने उसे कभी पानी का एक ग्लास तक उठाकर रखते हुए नहीं देखा था. दिनेशजी का खाना ख़त्म होने तक अनाहिता नहीं बैठी रही और जब जो लगा करीने से परोसती रही. जब कॉलेज जाने लगे तो अनाहिता ने मां और दादी की तरह ही उन्हें छोटा सा टिफिन पकड़ा दिया. दोपहर तीन बजे भूख लगने पर वे कॉलेज में सब्ज़ी-रोटी खा लिया करते थे. कैंटीन के समोसे, कचौड़ी खाने की उनकी आदत नहीं थी. टिफिन
हाथ में लेते हुए दिनेशजी पोती की तरफ़ देखकर स्नेह से मुस्कुरा दिए. आज उसकी नई हेयर स्टाइल उन्हें उतनी बुरी नहीं लग रही थी. पोती से तो उन्हें भरपूर स्नेह था, वे बस उसके पहनावे और तौर-तरीक़ों को हज़म नहीं कर पाते थे.
अनाहिता को संभलकर रहने की हिदायत देकर वे कॉलेज चले गए. आज उन्हें उसे कोचिंग छोड़ने भी जाना था और लेने भी. विशाल को लौटने में शायद देर रात हो जाए, दिनेशजी साढ़े तीन बजे घर लौटे तो हाथ-पैर टूट रहे थे. सिर भी बहुत दर्द कर रहा था. कॉलेज में ही अचानक तबीयत ख़राब लगने लगी थी. अब अनाहिता को छोड़ने जाने के नाम से ही जान पर बन रही थी, आठ किलोमीटर जाना और वापस आना, सोलह किलोमीटर गाड़ी चलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी, पर अनाहिता किसी भी क़ीमत पर अपनी कोचिंग मिस नहीं करती थी. एक बार सुनंदा की गाड़ी ऐन वक़्त पर पंक्चर हो गई थी तब आसमान सिर पर उठा लिया था उसने. आख़िर पड़ोस से गाड़ी मांगकर उसे छोड़ने जाना पड़ा. अनाहिता बैग लेकर आई तो सोफे पर सुस्त बैठे दादाजी को देखकर चौंक गई, "क्या हुआ दादाजी, आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या?"

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"नहीं तो, ठीक है, चलो." दिनेशजी उठते हुए बोले.
"आपको तो तेज बुखार है दादाजी, आप आराम कीजिए. अनाहिता उनका हाथ छूकर बोली.
"लेकिन तुम्हारी कोचिंग?" दिनेशजी बोले.
"आज का कोर्स मैं अपनी सहेली से पूछ लूंगी. आप अंदर जाकर आराम कीजिए, मैं आपके लिए चाय बनाकर लाती हूं." अनाहिता ने उन्हें अंदर जाकर पलंग पर लिटाया, उनसे पूछकर उन्हें दवाई दी और गरम-गरम चाय बना दी. दिनेशजी चाय पीकर लेट गए. थोड़ी देर में दवाई का असर हुआ तो उन्हें नींद आ गई.
शाम को जयश्री का फोन आया कि वे लोग आज नहीं निकल पाएंगे, कल सुबह निकलेंगे, क्योंकि सुनंदा का भाई अभी तक वहां पहुंच नहीं पाया है, तो विशाल का यहां रुकना ज़रूरी है. अनाहिता ने दादी से पूछकर और नाप-तौलकर दादाजी के लिए खिचड़ी बनाई. दिनेशजी को लग रहा था कि इससे पहले उन्होंने ऐसी स्वादिष्ट खिचड़ी कभी नहीं खाई थी.
रात में एक और बार दवाई लेकर वो सो गए. रात में ढाई-तीन बजे उनकी नींद खुली तो उन्होंने देखा, अनाहिता स्टडी टेबल पर बैठी पढ़ाई कर रही है. उनका मन पोती के लिए अपार स्नेह में भर आया, जयश्री ठीक ही कहती है, आज की पीढ़ी का सिर्फ़ लिबास बदला है, लेकिन अंदर पुराने संस्कार अभी भी बरक़रार हैं. हमें ही थोड़ा धैर्य और सामंजस्य से काम लेना चाहिए. अनाहिता पर स्नेहभरी दृष्टि डालकर दिनेशजी संतुष्ट भाव से मुस्कुरा दिए.

Dr. Vinita Rahurikar
विनीता राहुरीकर

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