“मैंने सुना है इन फूलों पर पवित्र आत्माएं रहती हैं.”
“सुना तो यह भी है कि इस फूल को यहां से दूर ले जाकर लगाने की सभी कोशिशें बेकार गईं. यह केवल इसी जगह पर उगती हैं.” नील ने अपना चेहरा बिल्कुल मेरे ऊपर लाकर कहा, तो मेरी आंखें अपने आप बंद हो गईं.
एक अजनबी की तरह, हम मिलते, पास होकर भी, एक दूरी पर खड़े. मैं चुपचाप उसकी ओर देख लेती, वो भी कभी मुस्कुराकर मेरी ओर देख लेता. वो कभी किसी रात मेरे सिरहाने की खुली खिड़की में से होकर मेरे सपनों में आ जाता या कभी सवेरे सूरज की पहली किरण पर बैठकर मेरी पलकों को छेड़ जाता. और जब कभी सांझ में, मेरी खुली केशों की चांदनी को देखता, तब मेरे कमरे के कोने में लगे हुए आईने में आकर बैठ जाता. मेरा अतीत, कभी-कभी, मेरे वर्तमान से मिलने आता है.
आज सुबह भी जब अपने छोटे से चेहरे को हाथ के बुने रंगीन पहाड़ी ऊन के स्कार्फ से कसकर बांधा और फिर झिझकते हुए कुहरे से धुंधले पड़ गए दर्पण को साफ़ किया, वो एक पल को मुस्कुरा दिया. वो आया और चला गया. मैंने देखा, सामने एक ऊंघता हुआ, गंभीरता के बोझ से झुका हुआ, मेरा आज.
पचास साल का हो जाना बूढ़ा नहीं करता, पचास बार यह बात याद दिलाया जाना, कर देता है. जन्मदिन, अब मेरी उम्र में एक और वर्ष जोड़कर चला जाता है. शुभकामनाओं के फोन कॉल में शुभकामनाओं से अधिक बढ़ती उम्र और उसके साथ आने वाली परेशानियों की बातें होती. कुछ इक्का-दुक्का सहेलियों का अगर भूले-भटके फोन आ भी जाता तो उसमें बधाई संदेश के बाद पहला सवाल, “तुझे मेनापॉज़ हुआ?” ही होता. मेरा नकारात्मक उत्तर उन्हें ईर्ष्या से भर देता. मेनापॉज़ को लेकर स्त्री आज भी असहज है. जिस बात पर गंभीरता से चर्चा की जानी चाहिए, उस पर बात करने से भी कतराती हैं. जैसे मेनापॉज़ वह दैत्य है, जो उनसे उनका वुमन्सहुड ले लेगा.
यह सब सोचते हुए मैं अपनी वही एक-एक नीरस क्रिया दुहराती चली गई, जो कॉलेज जाने से पहले पिछले बीस वर्षों से दुहराती चली आई हूं. पहले अपनी सूती काली साड़ी को कुछ ऊंची कर बांधा, फिर पूरे बांह की क़लमकारी ब्लाउज़ के ऊपर काले रंग का ही पहाड़ी ऊन का कार्डिगन पहन लिया. मैंने अपने बदन को अनेक परतों के नीचे छिपा लिया. जैसे फरवरी की गुलाबी ठंड को ओढ़कर वो फिर चला आएगा, और उसकी एक छुअन मेरे मुखौटे को उतार फेंकेगी.
पचास की होकर भी पचास का न दिखना, डिग्री कॉलेज में संस्कृत के प्रोफेसर के लिए ठीक नहीं. पहाड़ ठंडे और चुप होते हैं, लेकिन यहां के लोग बोलना जानते हैं. यूं भी इस गरीब देश में एक ही बात प्रचुरता में पाई जाती है, वह भी मुफ़्त सलाह. मैंने कुर्सी पर बैठकर अपने मोज़े पहने और जूतों के फीते बांधकर अपने क्वार्टर से निकलकर कॉलेज की तरफ़ चल दी.
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टीचर्स क्वार्टर्स में जो मकान मुझे मिला, उसकी स्थिति के कारण उसे ‘बूढ़ा मकान’ बुलाया जाता है. पहले ही दिन उस विचित्र मकान की स्थिति ने मेरा मन मोह लिया. सबसे अंतिम में खड़ा, घने पेड़ों से घिरा, बेरंग और जंग पड़े लोहे के गेट वाला. कभी-कभी दूर के एक शिव मंदिर की मधुर घंटों की आवाज़ पहाड़ों को चीरती हुई कानों को इतनी आत्मीयता से छूती, जैसे किसी प्रिय की सांसे हों.
अपनी सोच में डूबी हुई मैं, कॉलेज के गेट पर पहुंचने ही वाली थी कि बादलों की माला के मोती टूटकर बिखर गए और भीगे आसमान ने धरती को भी भिगो दिया. तभी मेरे पीछे से एक आवाज़ आई.
“कहीं अटका पड़ा है सावन शायद, रेगिस्तान को भिगोने, बसंत चला आया…”
छाता खोलते मेरे हाथ अभी संभल पाते कि मेरे कांपते हाथों को उसने अपनी गीली हथेलियों में बंद किया और छाते को थोड़ा सा अपने ऊपर भी कर लिया. मैंने चौंककर देखा तो वही थी. दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से है और प्राचीन ग्रंथों पर शोध कर रही है. पता नहीं किसने इसे मेरे बारे में बता दिया और ये यहां चली आई. प्रिंसिपल का आदेश है तो टाल भी नहीं सकती.
मुझे ये लड़की बिल्कुल पसंद नहीं. कम बोलने वाली हूं, तो शायद इसका अधिक बोलना चुभता है. मैं, मुस्कुराती हूं, हंसती तो शायद कभी नहीं और ये एक बार हंसना शुरू कर दे, तो चुप ही नहीं होती. इसका रूप जैसे किसी ने बड़ी मेहनत से काले चमकदार पत्थर को तराश कर बनाया हो. बस, यहीं, यहीं ठहर जाती हूं. यह रंग और यह स्वभाव उसे मेरे सामने ले आता, जिसे हर पल मैं धकेलती रहती हूं, मेरा अतीत. तो क्या इसलिए मुझे विभावरी पसंद नहीं. उसे देख मुझे मेरे अतीत के लौट आने का डर सताता रहता है. मैं चाहती हूं, वो चली जाए, फिर कभी न लौटने के लिए.
हमारी नज़रें मिलीं और वो खीं-खीं करके बेशर्मी से हंस पड़ी. मेरा अंग-अंग उसकी बेशर्मी पर ग़ुस्से से थरथरा उठा. मैं कुछ कहती कि वो बोल पड़ी, “कहते हैं, डायन की आंखों में यदि देख लिया, तो फिर वो पीछा नहीं छोड़ती!” न जाने किस शक्ति के वश में आकर मैंने अपनी नज़रें झुका ली और वो बेशर्म फिर हंस पड़ी. एकदम बच्ची सी दूधिया हंसी से शराबोर होती मैं उसके साथ चल पड़ी.”
संसार में कुछ लोग ऐसे होते, जो दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते है, लेकिन, दूसरों के चरित्र को दबाते नहीं, बल्कि और उभार देते हैं. विभावरी भी कुछ ऐसी ही लगी मुझे. हालांकि मैं उससे दूर रहने का ही प्रयास करती.
पानी बरसकर रुक गया. हवा के पंख लगाकर बादलों ने उड़ना शुरू कर दिया. पेड़ों की पत्तियों को छूकर गिरती पानी की बूंदें, अभी भी बारिश के होने का भ्रम दे रही थीं. तभी मेरे स्टाफ रूम में कई रंगीन चिड़ियां एक साथ घुस आईं. आपस में चुहल करती वे प्रोफेसर्स तो बिल्कुल नहीं लग रही थीं. उनके बीच इंद्रधनुष के रंगों वाली शिफॉन की साड़ी में खड़ी विभावरी, नीलकंठ पक्षी लग रही थी. उस पक्षी का विचार आते ही मैं कांप गई. आज इस नाम को न जाने कितने वर्षों बाद लिया, नील… बिना एक भी पल रुके मैं वहां से निलकने को हुई कि विभावरी सामने आ गई.
बोली, “रैना मैम, चलिए आज आपको पढ़ते हैं.” और मेरे जवाब का इंतज़ार किए बिना उसने दूसरों को इशारा कर दिया. वे सभी झिझकती हुई मेरे पास आ गईं. लेकिन मुझे वहां नहीं रुकना था, नहीं रुकी.
शनिवार की सांझ, मैं सारा दिन स्केच करती रही. फिर न जाने क्या हुआ, अधूरा स्केच वहीं छोड़ बाहर बरामदे में निकल आई. चांद निकल आया है. चारों ओर फैली पूर्णिमा दूधिया रोशनी से अछूता मेरा मकान, नींद से बोझिल ऊंघ रहा. दूर कहीं से लता की आवाज़ पत्तों से छनकर आ रही, “रैना बीती जाए… श्याम न आए… उफ़! आज क्या सभी मुझे मिलकर अतीत की बांहों में डाल ही देंगे. जब पहली बार देखा, उसकी रैगिंग हो रही थी. अक्सर ऐसी घटनाओं को देखकर आगे बढ़ जाया करती, पर उस दिन नहीं बढ़ पाई. उस सांवले चेहरे की निर्मलता ने मेरे कदमों को पहले बांधा और फिर उसकी दिशा में मोड़ दिया. मेरे कहने पर रैगिंग कर रहे ग्रुप ने उसे छोड़ दिया. कॉलेज के वाइज़ प्रिंसिपल की बेटी होने का इतना तो फ़ायदा मिलता ही है. मैं थोड़ा आगे बढ़ी, तो लगा कि कोई पीछे चल रहा. देखा तो वही था.
“क्या है?”
“जी… धन्यवाद…” उसके स्वर के कंपन से मुझे अपनी रुखाई पर ग़ुुस्सा आ गया.
“कोई बात नहीं.” मैंने हंसकर कहा, तो जैसे तेज़ हवा से उड़ते उसके कमज़ोर मन पर किसी ने पेपरवेट रख दिया. पीछे से चलकर बिल्कुल सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, “बात तो है. जब चुप रहकर निकला जा सकता था, आप नहीं गईं. आप डरी नहीं!”
तब मुझे समझ आया कि जनाब मुझे भी अपनी तरह फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट समझ रहे थे. मैं थोड़ा आगे बढ़ी और उसकी आंखों में झांककर कहा, “डरना क्यों? इस कॉलेज के वाइज़ प्रिंसिपल की बेटी सेकंड ईयर में जो है.”
“अच्छा तो आप वाइज़ प्रिंसिपल सर की बेटी को जानती हैं…” उसने यह बात इतनी गंभीरता से कही कि मैं चाहकर भी अपनी हंसी नहीं रोक पाई.
मुझे यूं हंसता देख वह न चौंका और न मुझे रोका, बस अपलक देखता रहा. बाद में सब बातें जानकर भी इतना ही बोला, “भूल तो आपकी ही है मैम, जो बात फर्स्ट पर्सन में कहनी थी, आपने थर्ड में कही.”
नील आया, तो हिंदी पढ़ने और शीघ्र ही अपनी प्रज्ञा से सूर्य बन पूरे कॉलेज में चमकने भी लगा. लेकिन कब और कैसे मेरा साया बन गया, यह न उसे पता चला, न मुझे. एक साल जूनियर और विषय अलग होने के बावजूद पता नहीं कैसे लगभग मेरे हर ब्रेक में वो मेरे पास होता. उसके हाथ में सदा एक डायरी होती, जिसमें वो कुछ न कुछ लिखता रहता. न कभी उसने प्रपोज़ किया और न मैंने हां कहा. लेकिन हमारा रिश्ता निकट बैठ जाने की सहजता से शुरू होकर, बांहों में भर लेने से होता हुआ मेरे पोस्ट ग्रैज्युवेशन के फाइनल ईयर के समाप्त होते तक अंतरंग हो गया.
कॉलेज का हिंदी और संस्कृत विभाग मणिपुर की ट्रिप पर जाने वाला था. हम भी गए. वहां भविष्य की योजनाएं बनाईं और लौटने के बाद साथ देखे गए भविष्य को वर्तमान ने आग लगा दिया.
बारिश से भीगी शामें मुझे उदास कर जाती हैं. लौटकर सोफे पर बैठी और थोड़ी देर में ही पलकें भारी होने लगी कि तभी दरवाज़े पर तेज़ दस्तक हुई. मैंने उठकर दरवाज़ा खोला और सामने भीगी विभावरी को देखकर चौंक गई. मेरे भीतर बुलाने की राह भी उसने नहीं देखी, ख़ुद ही अंदर आ गई और बोली, “मैम, कॉफी बना लेते हैं.”
अतिथि का स्वयं ही मेज़बान बन जाना चुभा. मन तो किया कि मना कर दूं, पर करती तो तब जब वो पूछती. वो तो मेरी रसोई में यूं घुस गई जैसे वर्षों से यहीं रहती आई हो और बना भी लाई. कॉफी का पहला घूंट भरते ही उसके स्वाद के प्रभाव में मेरा क्रोध अंतर्ध्यान हो गया और मुंह से निकला, “तुम कॉफी अच्छी बनाती हो विभावरी.”
“और आप पेंटिंग!” उसकी इस बात ने मुझे चौंका दिया. क्योंकि यहां कोई नहीं जानता कि मैं पेंटिंग करती हूं, इसलिए तुरंत पूछा, “तुम्हें किसने बताया कि मैं पेंटिंग करती हूं.”
“आपकी पेंटिंग ने.”
“अच्छा, कहां देख ली मेरी बनाई पेंटिंग?”
“सामने की दीवार पर टंगी तो है. आपकी बनाई वो लड़की जिसे देख ऐसा लग रहा जैसे बहुत देर चलकर थक गई और घास पर बैठ सुस्ता रही है.”
“पर ये कैसे जाना कि वो पेंटिंग मैंने बनाई है? वहां कोई नाम तो लिखा नहीं.”
मेरी इस बात पर वह मेरे सामने से उठी और पेंटिंग के नीचे बाईं तरफ़ बने एक छोटे से गुलाबी फूल जिसे अक्सर लोग अनदेखा कर देते हैं, पर हाथ रखकर बोली, “है तो आपका नाम, शिरुई लिली.” मुझे जैसे किसी ने वहां से उठाकर मेरे अतीत में फेंक दिया. वहां, जहां मैं और नील बैठे थे, मणिपुर के शिरुई हिल पर इन्हीं गुलाबी फूलों के बीच. और वो कह रहा था, “जानती हो रैना, छाया पसंद करने वाले इन फूलों का रंग गुलाबी लगता तो है पर माइक्रोस्कोप से देखने पर इनमें सात रंग दिखाई देते हैं.”
मैंने हंसकर कहा था, “फिर तो इनका रंग इंद्रधनुषी हुआ.” उसने मुझे बांहों में भरकर चूम लिया. मैं लजाकर फूलों पर ही लेट गई. और आसमान की ओर देखते हुए बोली, “मैंने सुना है इन फूलों पर पवित्र आत्माएं रहती हैं.”
“सुना तो यह भी है कि इस फूल को यहां से दूर ले जाकर लगाने की सभी कोशिशें बेकार गईं. यह केवल इसी जगह पर उगती हैं.” नील ने अपना चेहरा बिल्कुल मेरे ऊपर लाकर कहा, तो मेरी आंखें अपने आप बंद हो गईं. जब मेरी बंद आंखों को चूमकर उसने कहा, “तुम्हारी तरह इस फूल को भी अपने ऊपर किसी तरह का बंधन, स्वीकार नहीं.” तब मेरे कांपते होंठों ने जवाब दिया, “अगर मैं हूं शिरुई लिली, तो तुम हो शिरुई हिल, जिससे बिछड़कर शिरुई मर जाएगी.” तब वो मेरे कानों में फुसफुसाया था, “मेरी शिरुई लिली… तुम.”
“मैम… मैम…” अतीत से लौटकर आई, तो देखा विभावरी मेरे चेहरे पर पानी के छींटें डाल रही है. मैं शायद बेहोश हो गई थी. हमारी दृष्टि मिली और मैंने पूछ ही लिया, “इतना तो जान ही गई हूं कि रैना के जीवन में विभावरी यूं ही नहीं आई है! कौन हो तुम?”
उसने कांपते कंठ से ऐसे, “नील और… व वसु की बेटी…” कहा जैसे वर्षो के प्रयास के बाद भी बोल नहीं पा रही होे. शरीर में जैसे बिजली का करंट दौड़ा और मैं उठ बैठी. नहीं जानती ऐसा नील का नाम सुनने के कारण हुआ या उसका नाम किसी और के साथ सुनने के कारण. उसके बचपन की दोस्त वसु, अब उसकी पत्नी है.
ख़ुद को संयत कर मैंने कहा, “मणिपुर से लौटते ही मैंने पापा को नील के बारे में बताया. यह भी कि हम सगाई करना चाहते हैं. नील पसंद था पापा को. कौन नहीं करता उसे पसंद!”
“नियति…” विभावरी ने कहा, तो मैंने उसे चौंककर देखा. उसने अपनी बात पूरी की, “नियति नहीं पसंद करती पापा को शायद.. तभी इससे पहले कि आपके बारे में वे किसी को बताते मेरी मम्मी का सच सामने आ गया और उन्हें मेरी मम्मी से शादी करनी पड़ी.”
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“मतलब..? मुझे कुछ समझ नहीं आया.”
वह अपने बाएं हाथ से अपनी गर्दन को हल्का-हल्का दबाते हुए बड़ी कठिनता से बोली, “मम्मी के कुछ न्यूड फोटो मोहल्ले में सर्क्यलेट हो गए थे. वह किसी शादी में गई थीं, जहां के चेंजिंग रूम में एक फोटोग्राफर ने छुपकर वो फोटो ले लीं. बाद में वो पकड़ा गया. लेकिन तब तक लगभग सभी को पता चल गया. आप तो हमारे समाज को जानती ही हैं. बात छुपाने के लिए मम्मी पर उसी क्रिमिनल फोटोग्राफर से शादी करने का दबाव डाला जाने लगा. मम्मी तो शायद अपनी जान ही दे देती और मैं कभी जन्म नहीं लेती अगर…”
“अगर नील ने शादी का प्रस्ताव न रखा होता…” मैंने विभावरी की बात को पूरा किया और उसे गले लगाते हुए कहा, “फिर तो जो हुआ अच्छा हुआ, दुनिया तुम्हारे बिना थोड़ी कम सुंदर है.” मेरी इस बात पर वह हंसी तो ज़रूर, लेकिन अभी भी जैसे कुछ रह गया हो.
कुछ सोचकर मैंने पूछा, “इतने सालों बाद नील ने तुम्हें यहां क्यों भेजा है?”
उसने धीरे से जवाब दिया, “मुझे पापा ने नहीं, मम्मी ने भेजा है.”
“क्यों?”
“आप तो जानती होंगी कि पापा डायरी लिखते थे…”
थे, इस शब्द ने जैसे मुझे पहाड़ से नीचे धकेल दिया. विभावरी संभाल न लेती, तो मैं भूमि पर तेज़ गिरती. मुझे पानी पिलाते, आंसू पोंछते वो बताते गई कि कैसे नील ने परिवार और वसु के सामने मुझे भुला दिया.. यहां तक कि मेरे मन में भी अपने लिए क्रोध भर गया. लेकिन अपनी डायरी में न केवल मुझे याद करता रहा, बल्कि कल्पनाओं में मुझसे प्रेम भी किया. लंबी चिट्ठियां, कविताएं.
लेकिन, शिरुई फूल के बिना शिरुई हिल धीरे-धीरे बंजर होने लगा. कब तक स्मृतियां उसे हरा रखतीं. और एक दिन वह वास्तव में मर गया. दुनिया ने कारण बताया हार्ट फैल्यर. वैसे सही तो ये कारण भी है. जाते-जाते उसने इन डायरियों को मुझे देने का अनुरोध वसु से किया. और अब वह इन्हें प्रकाशित कराना चाहती है. इसी सहमति के लिए विभावरी मुझे खोजते हुए यहां आई.
“क्या मैं पहले एक बार उन्हें पढ़ सकती…उन अक्षरों को छू लेती…” मैंने झिझकते हुए कहा, तो विभावरी बोली, “किताब की प्रूफ रीडिंग आप ही करेंगी और उसका कवर पेज भी आपको ही बनाना है.” इस पर मैं कुछ नहीं कह पाई, निचले होंठ को दांतों से दबा लिया.
उसने मेरी आंखों के जंगल में एक जलप्रपात देखा, तो उसके पानी को अपनी मुट्ठी में भरते हुए बोली, “पापा कहते थे, विभावरी एक तारों वाली रैना है…”
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