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कहानी- सेेेेंध (Short Story- Sendh)

लेकिन आज इतने बरसों बाद मुझे यह संबंधों का विश्‍लेषण करने की क्या सूझी? कहीं मांजी की तरह आज मैं भी ख़ुद को घर में अलग-थलग सा महसूस तो नहीं कर रही हूं? क्या मैं भी मांजी औैर अमित के रिश्तों के बीच ऐसी ही एक दीवार बन गई हूं जैसा मयंकजी को पूर्वी और अपने रिश्ते के बीच महसूस कर रही हूं. नहीं, नहीं… मैंने ऐसा कुछ ग़लत नहीं किया… मैं तो जो कुछ भी कह या कर रही थी वह अमित के भले के लिए ही कर रही थी.

सेल्समेन के डार्क पिंक कलर की साड़ी खोलते ही मेरी बांछें खिल गई थीं. यह मेरा और पूर्वी का फेवरेट कलर था. इतनी देर से साड़ियां उलटते-पलटते हम उकता से गए थे. मयंकजी तो कब से मोबाइल पर व्यस्त हो गए थे. मैंने उम्मीद से पूर्वी की ओर देखा. लेकिन उसकी प्रतिक्रिया ने न केवल मुझे हैरान किया, वरन थोड़ी तकलीफ़ भी पहुंचाई.

“नहीं भाभी, मयंक को ऐसे गॉडी कलर्स पसंद नहीं है. यह लेवेंडर कलर कैसा रहेगा? क्यों मयंक, देखो यह कैसी लग रही है?” पूर्वी ने बड़ी उत्सुकता से साड़ी का पल्लू खुद पर लपेटते हुए मयंक की प्रतिक्रिया जाननी चाही.

“अच्छी लग रही हो. वैसे भाभी से पूछो न? वे बेहतर समझती हैं.”

मुझे थोड़ी उम्मीद बंधी, पर पूर्वी ने तब तक साड़ी पैक करने का ऑर्डर दे दिया था. मैंने किसी तरह ख़ुद को सहज किया. बाहर आते ही चाट के ठेले पर नज़र पड़ते ही मैं फिर सब कुछ बिसरा बैठी. मैं और पूर्वी जब भी बाज़ार आते थे, इस ठेले पर चाट खाए बिना नहीं लौटते थे.
मैंने पूर्वी को उधर खींचना चाहा, तो वह एकदम बिदक गई.
“आज नहीं भाभी. मयंक साथ है. इस तरह उसके सामने सड़क पर खड़े होकर चाट खाना चीप नहीं लगेगा? वह छोटी-छोटी चीज़ों पर भी बहुत ग़ौर करता है.”
इसके बाद मैं पूरे रास्ते कुछ नहीं बोली थी. पूरे रास्ते ही क्यों घर आने के बादभी मैं चुप्पी ही साधे रही. दिल अनायास ही बहुत कुछ सोचने-विचारने को मजबूर हो गया था. विगत के स्मरण के साथ-साथ रिश्तों की परतें भी उधड़ने लगी थीं. पूर्वी मेरी इकलौती छोटी ननद है. दोनों को ही अपने जीवन में हमेशा बहन की कमी खलती रही थी. इसलिए ननद-भाभी का रिश्ता जल्दी ही दो बहनों के प्यारे से रिश्ते में तब्दील हो गया था. मैं उसे छोटी बहन सा प्यार देती थी. वह जब चाहे बेरोक-टोक मेरे कमरे में आ जाती. मेरी किसी भी चीज़ का बिना पूछे इस्तेमाल कर लेती और मैं उसके इस अधिकारभाव पर वारी-वारी जाती. हमारी पसंद-नापसंद भी काफ़ी कुछ मिलती-जुलती थी. यदि किसी बात पर भिन्नता भी होती, तो टकराव जैसी नौबत कभी नहीं आ पाती थी, लेकिन न जाने क्यों मांजी के संग मेरे संबंध कभी इतने सहज नहीं हो पाए थे. संभवतः जनरेशन गैप ही इसकी मुख्य वजह रही हो. मैंने सुना था, अमित अपनी मां के बहुत क़रीब हैै. बिल्कुल ‘ममाज़ बॉय’ की तरह. लेकिन मुझे शायद यह विशेषण नहीं सुहाया था. मैंने कभी भी जान-बूझकर दोनों के बीच नहीं आना चाहा. पर शायद अनजाने ही मैं दोनों के बीच आती चली गई थी.

लेकिन आज इतने बरसों बाद मुझे यह संबंधों का विश्‍लेषण करने की क्या सूझी? कहीं मांजी की तरह आज मैं भी ख़ुद को घर में अलग-थलग सा महसूस तो नहीं कर रही हूं? क्या मैं भी मांजी औैर अमित के रिश्तों के बीच ऐसी ही एक दीवार बन गई हूं जैसा मयंकजी को पूर्वी और अपने रिश्ते के बीच महसूस कर रही हूं. नहीं, नहीं… मैंने ऐसा कुछ ग़लत नहीं किया… मैं तो जो कुछ भी कह या कर रही थी वह अमित के भले के लिए ही कर रही थी. अपना पत्नी धर्म निबाह रही थी… तो फिर पूर्वी क्या ग़लत कर रही है? वह भी तो अपने मंगेतर की पसंद-नापसंद का ख़्याल ही तो रख रही है. तो इसमें क्या गुनाह कर रही है?.. मैंने कब कहा पूर्वी कुछ गुनाह कर रही है… तो फिर तुम इतना हर्ट क्यों महसूस कर रही हो?

मेरे अंदर की औरत मुझसे खुलकर तर्क-वितर्क करने पर आमादा हो गई थी और मैं उसका सामना करने में ख़ुद को बेहद असहाय महसूस कर रही थी. उसने मुझे कठघरे में खड़ा कर बार-बार एक ही प्रश्‍न पर विचार करने पर मजबूर कर दिया था. नए रिश्ते बनाने की चाह में हम जाने-अनजाने पुराने रिश्तों में सेंध क्यों लगाते जाते हैं?

कितने अरमानों से मांजी मुझे इस घर में बहू बनाकर लाई थीं. इकलौते बेटे की इकलौती बहू के लिए उन्होंने कपड़ों, गहनों और दूसरी सुख-सुविधाओं का अंबार लगा दिया था. पूर्वी तब हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रही थी. भाई की शादी में मेहमान की तरह आई और लौट गई थी. अकेला घर मुझे काटने को दौैड़ता था. अमित ने शादी के दौरान काफ़ी छुट्टियां ले ली थीं. तो अब उसकी भरपाई में लग गए थे. उनकी लंबी अनुपस्थिति में मैं बोर हो जाती थी. मांजी मेरे लिए घर में सम्मान की वस्तु थीं, मन बहलाव की नहीं. मैं उनसे कुछ भी शेयर नहीं कर पाती थी. अंदर की घुटन ने मुझे थोड़ा चिड़चिड़ा बना दिया था. ऐसे में जब अमित देर रात गए घर लौटते तो मांजी का उन पर अत्यधिक लाड़-दुलार बरसाना मेरे ग़ुस्से और चिड़चिड़ाहट की आग में घी का काम करता. मैं चाहती अमित सीधे मेरे पास आए. अपने देरी से आने की सफाई दें, मुझे मनाएं. पर मांजी तो उनके इंतज़ार में गलियारे में ही चहलकदमी कर रही होतीं थीं. अमित के आते ही उन्हें गरम-गरम खाना खिलाने के लिए वे रसोई की ओर दौड़ पड़तीं. अमित मुझे बहलाएं, प्यार जताएं तब तक उनकी पुकार आरंभ हो जाती, "बेटा, पहले गरम-गरम खाना खा ले. भूख लग रही होगी. बहू को भी ले आ. देख, तेरी पसंद की सब्ज़ी बनाई है मैंने."
और तब मजबूरन मुझे हमारा रूठने-मनाने का सिलसिला वहीं समाप्त कर अमित के साथ खाने की टेबल पर पहुंचना पड़ता. गरिष्ठ भोजन कर अमित तो एक तृप्ति भरी डकार लेकर जम्हाई लेते बेडरूम में लौट जाते. मैं टेबल समेटकर कमरे में पहुंचती तो वे खर्राटे ले रहे होते थे. अंदर की भड़ास बाहर न निकल पाने के कारण घुटन के बवंडर के रूप में एकत्रित होती जा रही थी. कभी तो लगता एकदम विस्फोट ही न हो जाए. मांजी के दिल में मेरे लिए कोई द्वेष नहीं था. वे मुझे बेटी के समान प्यार करती थीं. पर शायद युवावस्था से ओढ़े वैधव्य ने उन्हें पति पत्नी के संबंधों को समझने की अनुभवी दृष्टि और समझ देने में कंजूसी कर दी थी. उनकी इस अनुभवहीनता से मुझे पहले खिसियाहट और फिर खीज उत्पन्न होने लगी.

गरिष्ठ भोजन और शारीरिक श्रम के अभाव में अमित की तोंद निकलने लगी थी.
एक शाम मुझे रसोई में सब्ज़ियां स्टीम करते देख मांजी पूछ बैठी, "ये उबली सब्ज़ियां कौन खाएगा बहू? तुम?"

“हम तीनों खाएंगें मांजी. आप देख ही रही हैं अमित का कैसे पेट निकल रहा है.
एक्सरसाइज़ और वॉक भी नहीं करते. मुझे तो आरंभ से ही शाम को स्टीम्ड या बेक्ड वेजीटेबल खाना पसंद रहा है. इससे पेट सही रहता है और नींद भी अच्छी आती है. आपकी सेहत के लिए भी अच्छी रहेगी.”

मांजी के हावभाव बता रहे थे कि उन्हें मेरा सुझाव हजम नहीं हो रहा, पर वे शांत रहीं. शायद उन्हें अमित से अपने पक्ष में किसी सकारात्मक प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी. पर डायनिंग टेबल पर अमित को भी मेरे तर्कों से सहमत होते देख वे ज़रा मायूस हो गई थीं. शाम के खाने की ज़िम्मेदारी मैंने ओढ़ी तो मुझे अपने कंधे मज़बूत और हौंसले बुलंद होते लगे. मांजी के हर काम में मुझे अब नुस्ख नज़र आने लगा था. मैंने शनैः शनैः घर की साज-सज्जा बदली. खाने के तौर-तरीके बदले. अमित का ड्रेसिंग स्टाइल बदला. मेरा रवैया भांप मांजी ने धीरे-धीरे ख़ुद ही गृहस्थी से कन्नी काटना आरंभ कर दिया था. ऐसे ही समय पूर्वी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर घर लौट आई थी. घर के बदले रंग-ढंग का उसने स्वागत ही किया था. फिर मुझसे बड़ी बहन सा प्यार-दुलार पाकर वह पूरी तरह मेरी ही टीम की सदस्या हो गई थी.
मांजी को अलग-थलग पड़ा देख अमित को ज़रूर कभी-कभी बुरा लगता था. वे कभी मांजी को टीवी देखने के बहाने लॉबी में सबके साथ खींच लाते. तो कभी पिज्ज़ा, चाइनीज़ खिलाने साथ बैठा लेते. पर सबको असहज पाकर मांजी ख़ुद ही थोड़ी देर बाद उठकर या तो अपने कमरे में चली जातीं या रसोई में जाकर दलिया बनाने लग जातीं. तब मैं भी रसोई में पहुंच जाती. “मांजी आप बाहर चलिए. दलिया मैं बनाए देती हूं.”
“नहीं बहू, मुझे भी हाथ-पांव हिलाने का थोड़ा तो मौक़ा दो. अमित से पूछो उसके लिए भी बना दूं? उसे यह चाइनीज़ वगैरह कम ही रूचता है.”
“नहीं मांजी, उनके लिए रहने ही दीजिए. अभी फिर ढेर सारा घी डाल लेंगे. वैसे ही उनका कॉलेस्ट्रॉल इस बार काफ़ी हाई आया है.”
मांजी अपना-सा मुंह लेकर रह गई थीं. मांजी को हर्ट करने का मेरा इरादा कभी भी नहीं रहा था. पर आज विगत की वे बातें याद करके मन बार-बार भारी हुआ जा रहा था. बाहर किसी के आने की आहट हुई, तो मैंने ख़ुद को संभाला. पूर्वी और मयंकजी थे. कल मयंकजी को लौट जाना था और अभी वे बाहर घूमने जा रहे थे.
“भाभी तैयार हो जाइए. पन्द्रह-बीस मिनट में निकलना है.” मयंकजी ने आग्रह किया, तो मैं चौंक उठी.
“मैं?.. मैं तो चल ही नहीं रही. वो तो कल पूर्वी को साड़ी लेनी थी, इसलिए साथ हो ली थी.” मैंने सफ़ाई दी.
“आप पूर्वी की भाभी ही नहीं, अच्छी सहेली भी हैं. इसलिए साथ जाने का तो आपका हक़ बनता है. मैंने अमित भैया को फोन कर दिया है. वे डायरेक्ट पहुंच जाएंगे. मैं तो मांजी को भी ले जाना चाहता था, पर पता चला उनकी कोई बहन उनसे मिलने आ रही हैं.”
“हां, सरला मौसी आने वाली हैं.” मैंने पुष्टि की.
“ठीक है, उनके लिए पैक करवाकर ले आएगें.”
“मम्मी बाहर का नहीं खातीं. पर उनकी चिंता मत करो. वे दस आदमियों का खाना अकेले बनाने की कूूवत रखती हैं. अपना भी ख़ुद ही मैनेज करना पसंद करती हैं.” पूर्वी बोली.
“मैं लौटकर उनके लिए कुछ गरम बना दूंगी.’ मैंने सभी को आश्‍वस्त किया और फटाफट तैयार हो गई. मयंकजी को ड्रेस भी दिलवानी थी. इसलिए हम पहले रेमण्ड्स शोरूम पर पहुंच गए. मैंने उनके लिए ब्लू स्ट्राइप्स वाली शर्ट पसंद की, तो पूर्वी बोल पड़ी, ‘मयंक को चेक्स पसंद है.”
“अरे नहीं भाभी, यही ठीक है. पूर्वी तुम भी ना! अरे यार, कभी-कभी अपनों की पसंद का पहनने में भी मज़ा आता हैै.”
मैंने तब तक चेक्स वाली शर्ट्स निकलवा दी थीं. पर मयंकजी की आत्मीयता और बड़े दिल ने मुझे अंदर तक छू लिया था.
“ठीक है, यह ले लेता हूं, पर कलर आपकी पसंद का ही लूंगा.” और मयंकजी ने बिना देखे परखे ब्लू शर्ट उठा ली. मैं एक बार फिर से उनकी सरलता और विनम्रता देखकर अभिभूत हो गई थी. ठीक समय पर हम रेस्तरां पहुंच गए थे. अमित हमारा इंतज़ार कर रहे थे. मयंकजी की पसंद से वाकिफ़ उन्होंने चाइनीज़ ऑर्डर कर दिया था. खाना ख़त्म हुआ, तो मयंकजी बोल उठे, "अब एक डिश मैं ऑर्डर करूंगा और सभी को खानी होगी." उन्होंने मिली-जुली चाट ऑर्डर की. मैं और पूर्वी आंखों ही आंखों में समझ रहे थे कि यह ऑर्डर किसके लिए है? ख़ैर, सभी ने जमकर चाट का लुत्फ़ उठाया और बेहद ख़ुशनुमा मूड में घर लौटे. रास्ते में मैंने पूर्वी की चुटकी ली थी, “तेरे मियां ने तो तेरा ही नहीं हम सबका दिल जीत लिया है.”
घर पहुंचे तो सरला मौसी आकर जा चुकी थीं.
“मांजी, हम सब तो चाइनीज़ खाकर आए हैं. आपके लिए क्या बनाऊं?” मैंने आगे बढ़कर पूछा.
“तुम लोग आराम करो. मैं अपने लिए दलिया बनाऊंगी.”
रसोई से बाहर निकलते-निकलते मुझे कुछ ख़्याल आया. मैं लौटी. “थोड़ा ज़्यादा बना दीजिएगा मांजी. अमित भी ले लेंगे. उन्होंने होटल में सबके साथ ज़रा-सा ही खाया था.”
“हां, हां क्यों नहीं?’ मांजी एकदम उत्साहित हो उठी थीं.
‘फिर तो वेजीटेबल दलिया बना लेती हॅूं. अमित को बहुत पसंद है… और तू चिंता मत कर, घी कम डालूंगी.” वे फुर्ती से सब्ज़ियां निकालने लगी थीं.
“लाइए, मैं काट देती हूं.”
“अरे तू जा, फ्रेश हो. यह तो पूरा मैं ही बनाऊंगी.”
मांजी तेज़-तेज़ हाथ चलाते सब्ज़ियां काटने लगी थीं. मैं कटती सब्ज़ियों के साथ जुड़ते रिश्तों को महसूस कर परितृप्त हुई जा रही थीं.

- संगीता माथुुुुर

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