"कल अमृता का फोन आया था." पापा ने कहा, तो लगा मानो उनके सूखे चेहरे पर अचानक थोड़ा सा गुलाल लग गया हो. मां का नाम लेते हुए उनका चेहरा रक्ताभ हो उठा था. कितनी सहजता से पूजा को पापा के चेहरे पर मां के लिए स्नेह दृष्टिगोचर हो गया था. चकित हो गई पूजा… क्योंकर मां और पापा के स्नेह इतनी स्पष्टता से नज़र आते हैं? बिल्कुल एक से. कोई अंतर नहीं है भावों में.
रात के दो बज रहे थे. ट्रेन अपेक्षाकृत अधिक रफ़्तार से दौड़ रही थी. दोपहर को जब पूजा स्टेशन पहुंची, तो पता चला कि ट्रेन दो घंटे देरी से चल रही है. पूजा को कुडकुड़ाहट सी होने लगी. पापा से मिलने में दो घंटे और विलंब होने जा रहा था.
परन्तु फ़िलहाल जो ट्रेन की रफ़्तार थी, उससे तो यही आभास हो रहा था कि ट्रेन निश्चित समय पर पहुंच जाएगी. वैसे तो पूजा को ट्रेन में सदैव जल्दी नींद आ जाती है, पर आज प्रयास के बावजूद भी नींद आंखों से कोसों दूर भटक रही थी… कदाचित पापा के ही इर्दगिर्द.
अब पापा के दर्शन के बगैर नींद आने की कोई संभावना भी नहीं थी. यदि पापा के सामीप्य में पूजा को सुख मिला, तो जीवन में सहजता आएगी, अन्यथा क्या मां की तरह सदैव एक दुखी जीवन जीने को बाध्य नहीं होना पड़ेगा उसे? आकांक्षा के अनुरूप कुछ मिल न पाने की व्यथा मानव मन को तोड़ती तो है ही, यदि मानव में आत्मविश्वास की किंचित भी कमी हो जाए तो हृदय पर एक ऐसी सख़्त गांठ पड़ जाती है, जिसे खोलते-खोलते आदमी स्वयं टूटने लगता है.
इस वक़्त पूजा की आकांक्षाएं तो आकाश को छू लेने जैसी उत्साहित हैं. वो ख़ुश है. बेहद ख़ुश, क्योंकि आख़िरकार उसने मां को मना ही लिया. बस, एक बार वो पापा के पास जाना चाहती थी. उनके साथ रहना चाहती थी. देखना चाहती थी कि कैसे हैं पापा, जिनके विरह में उसने सदैव मां की आंखों को लबालब देखा था. मां के होंठों से पापा के लिए कभी स्नेह के बोल तो नहीं सुने थे पूजा ने, पर आंखों का गीलापन निश्चित ही पापा के प्रति उनके स्नेह को प्रतिबिंबित करता था. बचपन से पापा के सामीप्य के लिए ललकता रहा था पूजा का मन. किसी भी बच्चे को पापा के आलिंगन में देखते ही उसके बाल मन में कई प्रश्न कुलबुलाया करते थे. जवाब में कभी तो मां की भृकुटियां तन जातीं, तो कभी वो दो बूंद अश्क आंखों से गिर पड़ते.
मां ने पूजा के प्रश्नों को टालकर उसे बहलाना-फुसलाना बड़ी कुशलता से सीख लिया था और पूजा के बाल मन ने भी पापा के वात्सल्य सुख के लिए अपनी स्वाभाविक ललक को अपने ही अंतर में समेटना सीख लिया था.
पर पूजा के युवावस्था में कदम रखते ही मां के साथ उसके अंतरंग संबंधों में गहनता आ गई. मां अब सिर्फ़ मां नहीं, बल्कि एक सखी भी बन गई थी. दोनों की अंतरंगता ने बातों के आदान-प्रदान में उन्मुक्तता ला दी थी और कई बातें जो सालों से हृदय में दबी पड़ी थी, वो बंधनमुक्त हो बाहर निकलने लगी. फलस्वरूप दोनों के जीवन में स्नेह, शांति की ऐसी बयार बहने लगी कि घर का हर कोना मां-बेटी की खिलखिलाहट से गौरवान्वित होने लगा था.
पूजा को जब पहली बार एक युवक ने छेड़ा था, तो मां से उस घटना का ज़िक्र करते-करते लाल हो उठी थी वह और मां ने उसे अंक में भर लिया था.
"बेटी, अब तुम जवान हो गई हो. अब तो ऐसी छुटपुट घटनाएं होती रहेंगी, इसे ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. जब तक कोई बड़ी बात न हो, तब तक बेवजह आक्रोश में आकर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं करनी चाहिए." सुनकर खिलखिलाकर हंस दी थी पूजा, "छी… मां कैसी बातें कर रही हो?"
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"अरे, इसमें छी की क्या बात है? एक युवा ख़ूबसूरत लड़की को देखकर मनचले लड़कों की कुछ का देने की आदत तो आम है." मां मुस्कुराती हुई बोली थी. उसे रोज़ पहली बार मां की आंखों में मुस्कान नज़र आई थी पूजा को. मां भी तो ख़ूबसूरत है. बेहद ख़ूबसूरत. जब हंसती है, तो गालों पर गड्ढे पड़ जाते हैं, जो मां के मासूमियत भरे सौंदर्य को दुगुना कर जाते हैं.
"तुम्हारे जीवन में भी ऐसा अनुभव आया होगा ना मां?" जवाब में मुस्कुराकर रह गई थी अमृता.
"प्लीज़ मां, कुछ बताओ ना."
"क्या बताऊं?" कहते हुए मां के गाल सुर्ख़ हो उठे थे.
"अपनी युवावस्था के बारे में कुछ मज़ेदार बातें बताओ न मां." पूजा ने लड़ियाते हुए मां के गले में बांहें डाल दी.
"वैसे तो ढेर सारी घटनाएं घटी थीं, पर एक घटना जो मेरी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन गई, वही बताती हूं.
एक रईस पिता का आवारा लड़का कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता था. मेरे गालों पर पड़ने वाले गड्ढ़ों को देखकर उसने मेरा नाम 'शर्मिला टैगोर' रख दिया था. हर बार वो इसी नाम से मुझे चिढ़ाया करता था.
मैं यही कोशिश करती कि उसकी बातों की तरफ़ ध्यान न दूं, लेकिन वो था कि बुरी तरह से मेरे पीछे पड़ गया था.
एक दिन जब में प्रैक्टिकल के बाद कॉलेज से निकली, तो पता चला कि बसों की हड़ताल शुरू हो गई है. लिहाज़ा पैदल ही निकल पड़ी.
उस रोज़ उस लड़के को अच्छा अवसर मिल गया. वो अपने स्कूटर से मेरे पीछे आने लगा. मैं उसके दुस्साहस पर दंग थी और भयभीत भी.
"ओ, मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू…" गुनगुनाते हुए कभी मेरे आगे चला जाता, तो कभी पीछे जाता. और मैं रुआंसी हो उठी.
तभी… एक आकर्षक नौजवान, स्कूटर सहित मेरे सामने आ खड़ा हुआ और आदेशात्मक लहज़े में उसने मुझसे स्कूटर पर बैठने को कहा. मैं उस लड़के से इतनी परेशान थी कि बगैर किसी आना-कानी के उसके स्कूटर पर बैठ गई.
उसने मेरा पता पूछा और मुझे घर पहुंचा दिया.
"क्या फिर कभी तुम उनसे मिली थी मां?"
"हां, कई बार. उस घटना के बाद वो मेरा सबसे क़रीबी मित्र बन गया था. हम लगभग रोज़ मिलते थे."
"क्या तुम्हें उनसे प्यार हो गया था मां?"
"हां"
"सच!" उछलते हुए पूजा ने पूछा, "फिर क्या हुआ?"
"शादी…" मां खिलखिलाकर हंसती हुई बोलीं, "वो तुम्हारे पापा ही तो थे." मां की हंसी उस रोज़ थम ही नहीं रही थी.
जब पापा से जुड़ी बातें मां को इतना सुख देती हैं, तो पापा के साथ ने उन्हें कितना सुख दिया होगा, पूजा सोचा करती.
मां की पलकों में सालों से जो गीलापन देखती आई थी पूजा, उसका कारण जाने क्या था? पापा का बिछोह या उससे अधिक कुछ और…
पूजा सब कुछ जान लेना चाहती थी. सच्चाई जानने के उद्देश्य से वो बार-बार मां से पापा का विषय छेड़ देती.
मां ने भी सालों तक पूजा के आगे कभी अपने मन की परतों को उधेड़ा नहीं था, पर अब वो भी जैसे पूजा को अपनी भावनाओं की सहभागी बनाकर अपूर्व सुख पा रही थी. मां ने पूजा को सब कुछ बताया.
पापा की नौकरी, पूजा का जन्म, मुंबई की एक चाल में उनके द्वारा बिताए गए दिन, पापा का फ्लैट ख़रीदना. यही सब कुछ मां की बातचीत का विषय हुआ करता था. लेकिन ये सारे वार्तालाप मां-पापा के उस अलगाव के कारण को बेपर्दा नहीं कर पाए.
अंततः पूजा को एक रोज़ बड़े साहस के साथ मां से पूछना पड़ा था, "मां, मैं कई बार सोचती हूं, आप और पापा अलग क्यों हो गए?"
पूछते ही धक्का सा लगा मां को… जैसे उन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं था कि पूजा उनसे यह प्रश्न करेगी. कुछ देर वो चुपचाप पूजा के चेहरे को निहारती रहीं, फिर धीरे से उठकर पूरे कमरे में चहलकदमी करते हुए बोली, "मैं काफ़ी दिनों से तुम्हारे इस प्रश्न की प्रतीक्षा कर रही थी, पर विश्वास नहीं था कि तुम इतनी जल्दी पूछोगी. बेटी, तुम्हारे पापा और मेरे अलग होने के कारण के बारे में मैंने कभी किसी से कोई बातचीत नहीं की. इसकी एक बहुत बड़ी वजह यह थी कि मैं किसी को भी अपने दर्द का सहभागी बनाने की इच्छुक नहीं थी. मैं अपना दर्द सिर्फ़ तुमसे बांटना चाहती थी, सिर्फ़ तुमसे… तुम छोटी थीं, इसीलिए तुमसे कभी कोई चर्चा नहीं की. लेकिन अब तुम्हें अपनी व्यथा बता सकती हूं." कहते-कहते रुक गई मां, गालों तक फैल गए आंसुओं को उन्होंने आंचल से पोंछ लिया और बोलीं, "बेटी, तुम्हारे पापा से विवाह मैंने अपनी मर्ज़ी से किया था. अपने घरवालों के विरोध के बावजूद मैंने विवाह किया, तो सिर्फ़ इसलिए कि तुम्हारे पापा पर अटूट विश्वास और प्यार था मुझे. उनके साथ जीवन बिताना ही मेरे लिए संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि बन गई थी.
शादी के बाद तो मैं उनके प्रति बेहद कंजूस भी हो गई थी. मैं अपने घर को अपने हाथों से सजाना चाहती थी. नौकरी नहीं की, क्योंकि यदि नौकरी करती तो एक नौकरानी रखनी पड़ती, लेकिन मैं अपनी गृहस्थी में अपने अलावा किसी और को शामिल नहीं करना चाहती थी. कोई और स्त्री तुम्हारे पापा के कपड़े धोए, उन्हें इस्तरी करे यह मुझे मंज़ूर नहीं था. मैं स्वार्थी प्रवृत्ति की कभी नहीं रही बेटी, लेकिन तुम्हारे पापा के मामले में मैं कोई समझौता नहीं कर पाती थी.
मैं उनके प्यार को पूर्णरूपेण पा लेना चाहती थी. यही कारण था कि मैं उन्हें किसी के साथ बांटना नहीं चाहती थी, लेकिन मैं हार गई थी पूजा… जब पता चला कि तुम्हारे पापा की ज़िंदगी में कोई और औरत…" मां बिलख पड़ी. पूजा ने उन्हें थाम लिया. ढाढ़स बंधाया.
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कुछ देर चुप रहने के बाद मां पुनः बोली, "तुम्हारे पापा उस दूसरी औरत से भी शादी करना चाहते थे. उन्होंने मुझे बताया था कि वो उसे छोड़ नहीं सकते, क्योंकि वो स्त्री गर्भवती थी."
"क्या..?" चौंक गई पूजा.
"हां, उनका कहना था कि वो धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन जाएंगे, ताकि दो पत्नियों को जायज़ तरीक़े से रख सकें." पूजा चकित सी ताकती रह गई मां को.
"पापा ऐसे… छी…" वो तड़प उठी.
"लेकिन मैंने उन्हें धर्म परिवर्तन का अवसर नहीं दिया और उनसे उसी दिन, उसी पल से अलग हो गई. क़ानूनी तौर पर भी तलाक़ में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा, इसलिए शायद वो बड़ी आसानी से उस दूसरी औरत के पति बन गए.
जानती हो पूजा, तुम्हारे पाप बेहद आकर्षक तो हैं ही, बेहद बुद्धिमान और संवेदनशील इंसान भी हैं. उनके प्रति लड़कियों के झुकाव को मैंने पहले भी कई बार महसूस किया था, लेकिन उन्होंने सदैव मेरे ही प्यार का दम भरा, कितने खोखले सिद्ध हो गए वो सारे वायदे…"
"मां, फिर कभी पापा से मिलने की इच्छा नहीं हुई?"
"हुई थी… अब भी होती है, क्योंकि मैंने उन्हें सदैव प्यार किया है. लेकिन क्या फ़ायदा? अब न तो उन पर मेरा कोई हक़ है, न उनके घर पर, वो अब किसी और के हैं."
पूजा को मां की आंतरिक व्यथा का पूर्ण पता होने के बाद भी न जाने क्यों पापा से मिलने की इच्छा हो आई. मां से तो पापा का क़ानूनन संबंध विच्छेद हो चुका था, पर पिता पुत्री के रक्त संबंध को नकारा जाए, ऐसा कोई क़ानून कहां?
"मां, पापा ने कभी मुझसे मिलने का प्रयास नहीं किया?"
"नहीं अदालत में उन्होंने कह दिया था कि वो स्वेच्छा से बच्ची को मां के सुपुर्द कर रहे हैं. वो बच्ची की मां की इच्छा के बगैर कभी बच्ची से मिलने का प्रयास भी नहीं करेंगे.
लेकिन तुम्हारे पापा आज भी तुम्हारे बारे में जानने के लिए मुझे फोन करते हैं."
पूजा अपने पिता, नई मां और भाई-बहनों से मिल लेना चाहती थी, पर जब उसने पहली बार पापा से मिलने की इच्छा व्यक्त की, तो मां जैसे तहस-नहस हो गई थीं. दर्द और क्रोध का मिलाजुला भाव उनके कोमल चेहरे को वीभत्स बना रहा था.
"मेरा अपमान क्या तेरा अपमान नहीं है पूजा? आज तूने वही कह दिया, जिसका मुझे सदैव भय लगा रहता था."
पूजा सहम सी गई थी, लेकिन मन-ही-मन अपने निर्णय पर अटल भी थी कि वो पापा से मिलकर ही दम लेगी, और अंततः उसने समझा दिया मां को कि पापा से मिले बगैर सही मायने में वो मां के दर्द की साझीदार नहीं बन सकती.
बेमन से ही सही, पर पूजा के निर्णय के आगे मां को झुकना पड़ा. शायद उन्हें यह शंका हो आई थी कि बार-बार युवा बेटी का विरोध करने से वो विद्रोही न हो जाए.
मां ने स्वीकृति दिल से भले न दी हो, लेकिन पूजा को अपनी जीत पर अपार हर्ष था और उसका ये हर्ष ही वो कारण था, जो नींद को भी पूजा पर हावी नहीं होने दे रहा था. थरथराते कदमों से पूजा ने जन्मस्थली मुंबई के स्टेशन पर पैर रखा और अपने को सहज दिखाने का प्रयास करते हुए अगल-बगल ताकते हुए वो इस अंजान शहर के स्टेशन से निकलने का मार्ग तलाश ही रही थी कि किसी ने माथे पर हाथ फेरा.
चौंककर मुड़ी पूजा. भरी-भरी आंखों से अपलक निहार रहा था कोई उसे. आंखों का गीलापन वैसा ही था, जैसा मां की आंखों में हुआ करता है. स्नेह भरे उन अश्कों में मुस्कुराहट और ममत्व दोनों का समावेश कहीं यही…
"पूजा हो ना?" उन्होंने पूछा और 'हां' कहने के पूर्व ही उन्होंने पूजा को अंक में भर लिया.
पूजा का मन भर आया और वह महसूस कर रही थी कि जिस हृदय से वो लगी हुई है, वो जैसे उसका अपना ही हृदय हो… भर्रा आया हृदय, चीत्कार कर रोने का आकांक्षी हृदय…
"आप पापा..?" पूजा ने पापा की आंखों में झांकते हुए पूछा, तो उन्होंने पलकों को झपकाकर स्वीकृति दी और पूजा पुनः उनके आलिंगन में क़ैद हो गई. एक बार नहीं, कई बार पूजा ने पापा की छाती को चूम लिया, परंतु बचपन से आज तक जिस अभाव को उसने झेला था, उसकी प्रतिपूर्ति पलभर में कहां संभव थी.
दोनों की आंखों से बहते अविरल आंसुओं की धार ने जब हृदय की व्यथा को किंचित कम कर दिया, तो थोड़ी-सी राहत हुई. पापा ने पूजा का सामान उठा लिया और कर्तव्यविमूढ़ सी पूजा सोचने लगी कि सच कहा करती थी मां, पापा आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे.
"चलो बेटी… कितने सालों के बाद अपने पापा के पास आई हो."
"लेकिन पापा, आपको कैसे पता चला कि मैं आ रही हूं?" चकित सी पूजा ने पापा के हाथों में हाथ डालते हुए पूछा.
"कल अमृता का फोन आया था." पापा ने कहा, तो लगा मानो उनके सूखे चेहरे पर अचानक थोड़ा सा गुलाल लग गया हो. मां का नाम लेते हुए उनका चेहरा रक्ताभ हो उठा था. कितनी सहजता से पूजा को पापा के चेहरे पर मां के लिए स्नेह दृष्टिगोचर हो गया था. चकित हो गई पूजा… क्योंकर मां और पापा के स्नेह इतनी स्पष्टता से नज़र आते हैं? बिल्कुल एक से. कोई अंतर नहीं है भावों में.
"मां क्या कह रही थीं?"
"कुछ खास नहीं.," बड़े प्यार भरे अंदाज़ में मुस्कुराते हुए पापा बोले, "बस, तुम्हारे आने की सूचना दी. तुम इतने बड़े शहर में पहली बार अकेली आ रही हो… शायद इसी वजह से वो घबरा रही थी और सचमुच यह डरने की बात ही तो है. तुम्हारे आने की सूचना से मैं बेहद ख़ुश था, लेकिन फिर भी लगा कि तुम्हें यहां अकेली भेजने का निर्णय लेकर अमृता ने अच्छा नहीं किया. मान लो, मैं घर पर न होता तो?" सामान को टैक्सी में रखते हुए पापा ने पूछा था.
"तो क्या, छोटी मां तो रहती..." अनायास ही बोल गई पूजा, बगैर कुछ सोचे समझे और पापा का चेहरा मासूमियत से भर गया. तत्काल ही अपनी ग़लती का एहसास हो गया पूजा को. लगा जैसे पापा में थोड़ी सी शर्मिन्दगी आ गई है. कदाचित युवा बेटी के सामने अपनी दूसरी पत्नी के संबंध में ज़िक्र करने में उन्हें झिझक सी हो रही थी. विषय बदलने के उद्देश्य में वो फिर पूछ बैठी, "पापा, आपने मुझे पहचाना कैसे?"
"मैंने भी अमृता से यही पूछा था कि अपनी बेटी को पहचानूंगा कैसे? और अमृता ने बताया था कि तुमने लाल रंग का सलवार कुर्ता पहना है, जिस पर पीले फूल हैं, तुम्हारे दुपट्टे का रंग पीला है. तुम्हारे हाथ में सफ़ेद पर्स और भूरे रंग का एयर बैग होगा. बस, पहचान लिया." पापा का घर आ गया. चार मंज़िली बिल्डंग में पापा का फ्लैट दूसरी मंज़िल पर था… छोटा-सा. यही तो वह फ्लैट है, जिसका ज़िक्र करते हुए मां की आंखों से अपेक्षाकृत दो-चार बूंदें अश्क आ ही जाया करते थे. इसी फ्लैट में पूजा ने जन्म लिया था, फिर भी कितनी अपरिचित सी लग रही थी यह जगह, पापा सामान सामने के कमरे में रखकर अंदर चले गए.
पूजा ने पूरे घर का चक्कर लगा लिया, पर कोई और नज़र नहीं आया, पास के कमरे में भी किसी महिला या बच्चे के कपड़े नहीं दिखे. सिर्फ़ बिस्तर पर पापा के बेतरतीबी से फैले कपड़े थे. दीवार पर मां की एक तस्वीर लगी थी. छोटी मां की कोई तस्वीर कहीं नज़र नहीं आ रही थी. न ऐसी कोई वस्तु जिससे आभास हो कि पापा के अलावा भी कोई यहां रहता है. तो क्या छोटी मां भी छोड़ गई पापा को? ढेर सारे प्रश्न कुलबुलाने लगे पूजा के मन में.
"पूजा… चलो बेटी तुम हाथ-मुंह धो आओ, फिर नाश्ता करेंगे और फिर ढेर सारी बातें भी तो करनी हैं तुमसे. नहाना-धोना बाद में होता रहेगा, ठीक है ना..." उल्लासित स्वर में पापा ने कहा तो पूजा पापा की आंखों को निहारती रह गई, जहां वैसे ही अश्क मुस्कुरा रहे थे, जैसे मां भी आंखों में मुस्कुराया करते थे.
"पापा, आप यहां अकेले?"
"हां, अभी तो अकेला हूं, पर थोड़ी देर बाद एक बूढी अम्मा आएगी, मेरे लिए खाना बनाएगी, मेरे कपड़े साफ़ करेगी और फिर चली जाएगी."
"पापा, छोटी मां..?"
"नाश्ता कर लो बेटा, फिर इत्मिनान में बातें करेंगे."
"नहीं पापा… बताइए मुझे… छोटी मां?"
"पूजा, तुम्हारी सिर्फ़ एक ही मां है अमृता."
"ऐसा कैसे हो सकता है पापा? मां ने मुझे सब कुछ बताया है. क्या मां ने जो कुछ कहा वो ग़लत था?"
"नहीं बेटा… वो सब सत्य ही था, पर जिसे तुम अपनी छोटी मां का संबोधन दे रही हो, वो तुम्हारी मां बनने के पहले ही इस दुनिया से चली गई. एक सड़क दुर्घटना में उसका निधन हो गया."
"पापा… यह आप क्या कह रहे हैं?”
"हां बेटी, यही सच है, जानती हो पूजा, वो तुम्हारी मां बनना भी नहीं चाहती थी, लेकिन मेरी ही ज़िद थी. मैं अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहता था. उसका नाम नंदिता था. मैंने नंदिता को कभी प्यार नहीं किया, यह नहीं कहूंगा, क्योंकि मित्रता बगैर स्नेह के संभव नहीं. दरअसल, मुझसे ग़लती हुई थी. बस एक बार, मैं हमारी मित्रता के बीच खींची लक्ष्मण रेखा को लांघ गया. लेकिन मैंने अपनी ग़लती स्वीकार कर ली थी और मैं अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहता था, लेकिन अवसर नहीं मिला."
"पापा, आप तो मां से बात करते रहते हैं ना, क्या आपने कभी उन्हें यह नहीं बताया कि छोटी मां नहीं रहीं?"
"नहीं पूजा, मैं इतना स्वार्थी नहीं हो पाया. नंदिता की मौत की बात कहकर अमृता द्वारा दी गई सज़ा को कम करवा लेता, तो स्वयं अपनी ही नज़रों में गिर जाता. सोचता था कभी-न-कभी सज़ा पूरी होगी ही."
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पूजा अपलक देखती रह गई. पापा ने ग़लती तो की थी, पर छोटी सी. किसी का क़त्ल ती नहीं किया था उन्होंने, फिर सज़ा इतनी लंबी कैसे? सालों साल अकेलेपन को भोगने की सज़ा, आजीवन कारावास से कम तो नहीं. अच्छा हुआ जो वो आ गई, अन्यथा मां-पापा के बीच की दीवार कभी न गिरती. न मां कभी कोई स्पष्टीकरण मांगती, न पापा कुछ कहते.
पूजा उठ गई, "पापा नाश्ता बाद में करेंगे, पहले मां को फोन पर सच्चाई बता दूं."
"पूजा, इतनी जल्दी भी क्या है बेटी. पहले नाश्ता तो कर लो."
"बहुत देर हो गई है पापा. अब और देर नहीं."
"लेकिन पूजा…"
"आपकी सज़ा ख़त्म हो गई है पापा. जानते हैं, आज भी मां वैसे ही हैं. आप देख लीजिएगा वो एक फोन पर ही भागी चली आएंगी."
पूजा तेज़ी से फोन की तरफ़ बढ़ी. मां को यह बताने की ग़लती तो शायद छोटी सी थी, पर पापा की सज़ा लंबी हो गई. बहुत लंबी. मां ने भी तो सज़ा भुगती थी, पापा को ना समझ पाने की सज़ा. पर मां के पास काम से कम पूजा स्वयं तो थी, लेकिन पापा... उनके पास तो सिर्फ़ उनकी तन्हाइयां थीं.
पर अब सज़ा का अंत हो गया था और अंत तो होना ही था. काली अंधेरी रात चाहे कितनी ही लंबी क्यों न हो, सूरज के आने के बाद उसे समाप्त होना ही पड़ता है. पूजा मां और पापा के लिए सूरज ही तो थी, सबेरे का सूरज…
- निर्मला सुरेंद्रन
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