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कहानी- समायोजन (Short Story- Samayojan)

"अम्मा जी दही ठीक है या दूध से लेंगी?" उस समय वह सिर झुकाए थीं. सिर उठाया तो आंखें डबडबाई हुई थीं, "बहू इतना दही तो मैंने महीनों से नहीं देखा, खाऊंगी तो अपच हो जाएगा न." आंसू पोछकर वह मुस्कुरा दीं. मेरा जी धक्क् से हो गया. तो क्या जिस बहू की तारीफ़ करते वह अघाती न थीं, उसने इन्हें भरपेट भोजन भी नहीं दिया? मन करूणा से भर उठा.
मैंने उनका हाथ हौले से सहलाकर कहा, "अम्मा जी, यह घर आपका है. जो मर्ज़ी हो बताइए, बनाने वाली मैं हूं न." उन्होंने हां में सिर हिलाया और धीमे-धीमे चिवड़ा खाने लगी.

दफ़्तर से आकर जब गौरव ने यह सूचना दी कि आज रात की गाड़ी से अम्मा जी हरिद्वार से आ रही हैं तो मेरे तो हाथ-पांव फूल गए. यह क्या विस्फोट कर दिया गौरव ने. न चि‌ट्ठी, न फोन, एकदम से आने का कार्यक्रम बना लिया. गौरव को तैयार होता देख दबी ज़ुबान से कहा, "तुमने पहले क्यों नहीं बताया, न कोई सूचना, न पत्र."
"अपने घर आने के लिए क्या मां को इजाज़त लेनी पड़ेगी."
"मेरा ये मतलब नहीं है," मैं भी झल्ला उठी, "लेकिन इन दो कमरों के मकान में मैं उन्हें कहां ठहराऊंगी. अगले सोमवार से बेटियों की परीक्षाएं शुरू हो जाएंगी. अम्मा जी को तो सुबह उठते ही पूरे आलाप के साथ हरिभजन करने की आदत है. बेटियां पढ़ेंगी क्या."
"बेवकूफ़ी की बातें मत करो रेवती, वह मेरी मां है. बड़े भैया उन्हें ट्रेन में बिठा चुके हैं. वह आ रही हैं तो बस आ रही हैं. कोई टिप्पणी नहीं, यह घर उनका भी है. उनके लिए पहले जगह निकालना, चाहे मुझे बैठक में ही क्यों न सोना पड़े."
वाह रे मातृभक्ता भूल गए वे दिन, जब सारे समय अम्मा जी मेरे पीछे पड़ी रहती थीं.. कुल छह माह ही शादी के बाद हम उनके साथ थे. फिर गौरव के साथ मैं भी मुजफ्फरनगर आ गई थी. उन छह माह में अम्मा जी के साथ मेरा अनुभव अच्छा न था. क्या मिला, क्या नहीं मिला या बड़ी बहू के यहां से क्या मिला था यानी सिर्फ़ मेरे मायके की आलोचना. बातें इतनी तीखी कि सीधे दिल में उतर जाएं. फिर एकाध बार ही वह यहां आई थीं. मैंने भी सिर्फ़ फ़र्ज़ अदायगी ही की थी. वह भी ज़्यादा न बोलतीं. हां, बाहर का कोई आ जाता तो आस-पास ही डोलती रहतीं.

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उन दिनों बड़ी ननद जो आगरा में थी वह भी आ जातीं. १०-१५ दिन बच्चों की पढ़ाई का ख़ूब हर्जा होता. सुबह से ही शंख एवं घंटी बजनी शुरू हो जाती. रामायण भी ज़ोर-ज़ोर से पढ़तीं. इस कारण सबकी नींद जल्दी खुल जाती. बेटियां तो दिनभर अलसाई रहती. मैं भी थोड़ी देर से उठती थी, क्योंकि बेटियों का स्कूल ११ बजे से और गौरव का दफ़्तर १०.३० बजे से रहता था. घर की सारी दिनचर्या उनके आने से उलट-पलट जाती. अब बाबूजी भी नहीं थे, सो तीनों बेटों के पास कुछ दिन रहकर वह अपने दिन बिता रही थीं.
गौरव उन्हें लेने स्टेशन चले गए थे. मैं रसोई में आकर खाने की तैयारी करने लगी. लेकिन मन अम्मा जी के इर्दगिर्द ही घूम रहा था. उनके पूजा-पाठ एवं भोजन में जात-पांत व छुआ-छूत बरतने के कारण कोई बेटा-बहू उन्हें स्थायी रूप से रखने को तैयार न थे. गांव की खेती अधिया पर दे रखी थी. कभी-कभी ही वह गांव जातीं. वह भी किसी बेटे को लेकर. मेरी तो जान सूख रही थी उनके आने के समाचार से. गोल-गोल आंखें नचाकर वह सारा दिन घर का निरीक्षण करती रहतीं. अब न तो चौके में कोई चप्पल पहनकर जा सकता था, न हमारी पसन्द का भोजन पक सकता था और न इनके मित्र व उनके परिबार धड़ल्ले से यहां आ सकते थे.
इनके एक दोस्त अक्सर आते थे. उनकी पत्नी बीमार रहती थी, सो जब आते भोजन करके जाते. एक दिन अम्मा जी ने टोक दिया था, "बहू, यह १० दिन में तीन बार आकर खा चुके. तुम लोग कितनी बार गए हो उनके यहां?"
"असल में उनकी पत्नी अस्वस्थ रहती हैं."
"मुझे तो कहीं से बीमार नहीं लगती. अब भरी हुई देह पर डायटिंग करेगी तो शरीर में ताक़त कहां से आएगी."
पति-पत्नी एवं बच्चों के साथ शहर के एक या दो कमरे वाले मकानों में इतनी जगह कहां होती है कि वह किसी तीसरे को रख सके, चाहे वह अपना कितना ही आत्मीय क्यों न हो, यह सोच मेरी थी. मैंने गौरव के साथ गृहस्थी का एक-एक सामान उसके वेतन से ही जुटाया था. मेरा अधिकांश सामान तो बगैर खोले छोटी ननद की शादी पर दे दिया गया था. हर मां-बाप की तरह मेरे माता-पिता ने भी वर्षों अपनी बेटी के लिए दहेज जोड़ा था, वह इस कारण नहीं कि मेरी ननद को दे दिया जाए. लेकिन मैंने और गौरव ने किसी से कुछ नहीं कहा था. फिर बाबूजी भी न थे. पैसे की दिक़्क़त थी ही, सो मैंने भी संतोष कर लिया.
गौरव के जाने के बाद मुझे फिर ट्यूटर का ध्यान आ गया. नंदी ने आज फिर कहा था कि उसे संस्कृत में दिक़्क़त होती है, कोई मास्टर लगवा दें. हमारे समय में तो बोर्ड में हिन्दी के तीसरे पर्चे में संस्कृत हुआ करती थी. अब तो पांचवें दर्जे से ही संस्कृत पढ़ाई जाती है.
चिंता से मेरा दिमाग़ चकरा गया. डर रही थी कहीं उड़ा रंग देखकर अम्मा जी मुझे बीमार न समझ लें. फिर एक उपदेश- आजकल की लड़कियां आए दिन सिर में दर्द तो कहीं पेट में दर्द.
अम्मा जी को मैंने वास्तव में कभी बीमार नहीं देखा. सोने सा दमकता रंग, पके बाल, सफ़ेद स्वच्छ धोती और पांव में लकड़ी की खड़ाऊनुमा चप्पल. पूजा के बाद माथे पर जो चन्दन का टीका लगता, वह दूसरे दिन नहाने पर ही घुलता. बोली सधी हुई, चाहे वह प्रशंसा में ही खुलती या आलोचना में. बेटियों को भी दादी के आने की सूचना मिल गई. बड़ी तो कुछ नहीं बोली, लेकिन छोटी बिदक गई, "ओह मां, हमारी परीक्षा पास है. दादी के कारण हमारी पढ़ाई का कितना हर्जा होगा. वह सुबह से भजन गाने लगेंगी- उठो श्याम जागो रयन रही थोरी."

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"कोई बात नहीं बेटा, अपने घर के बड़ों के लिए ऐसी बातें नहीं कहते. वह इस घर की सदस्य हैं. जब चाहे आ सकती हैं. तुम लोग कमरा अन्दर से बन्द करके पढ़ना."
११ वर्षीया नेहा एवं ९ वर्षीया नंदी सातवीं एवं पाचवीं कक्षा में थी. पढ़ने में तेज थीं, पर इधर नेहा एवं नंदी को संस्कृत की समस्या ने घेर लिया था. उनके नंबर जब कम आने लगे तो हम किसी ट्यूटर को ढूंढ़ने लगे. स्कूल में भी संस्कृत ठीक से नहीं पढ़ाई जाती.
गौरव जब अम्मा जी को लेकर लौटे, तब तक मैने खाना बना लिया था. एक टीन का बक्सा, छोटा होल्डाल एवं बड़ा झोला यही सामान था उनका. सात घंटे की अकेली यात्रा से थकी अम्मा जी के लिए गरम पानी रखकर मैंने उन्हे हाथ-मुंह धोने को कहा तो वह तुरन्त तैयार हो गईं. तरोताज़ा होकर स्वच्छ कपड़ों में जब वह बाहर निकलीं, मैने गरमा-गरम हलुआ उनके सामने रख दिया. गौरव ने एक बार सुस्कुरा कर मुझे देखा, फिर ख़ुद कपड़े बदलने चल दिए. इस बार अम्मा जी पूरे दो साल बाद आई थीं. इसके पूर्व एक वर्ष वह हरिद्वार बड़े जेठ के पास थीं. वह धार्मिक स्थल उन्हें ज़्यादा पसंद आ गया था और उनका इरादा वहीं बस जाने का था. पर जाने क्या बात हो गई, जो वह वापस आ गई थीं. नाश्ते के बीच ही उन्होंने बेटियों को बुलाकर प्यार किया. दोनों के लिए वे‌ बड़ी सुन्दर दो पेन लाई थीं. मेरे लिए शिफॉन की एक साडी, रंग हल्का था. मैं समझ गई किसी ने यह साड़ी उन्हें दी होगी, उसे मेरे लिए उन्होंने रख लिया.
अम्मा जी के ठहरने का प्रबन्ध मैंने अपने कमरे में कर दिया. बैठक में एक तख्त पड़ा था, उस पर गौरव का बिस्तर लगाकर हम ख़ुद कालीन पर सो गए. अम्मा जी ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. वहां जो वह लेटी तो गहरी नींद में सो गईं. ऐसा लग रहा था जाने कितनी रातों से सोई नहीं हैं. रात में मैं गई तो देखा, कम्बल नीचे पड़ा था. कम्बल उठाकर उन्हें ओढ़ाया तो वह सिकुड़ गईं. इस समय उनके चेहरे पर ऐसी मासूमियत थी कि वह कोई शिशु नज़र आ रही थीं. वैधव्य की तपिश चेहरे पर फैल चुकी थी, पर स्व की गरिमा से वह भरी हुई थीं.
रात में गौरव ने धीमे से कहा, "अम्मा के आने से यदि थोड़ा कष्ट भी हो तो उठा लेना, वह तो पका फल हैं कब गिर जाए. अपने व्यवहार से उन्हें निराश न करना." मैं कुछ न बोली, जाने क्यों जो उथल-पुथल सुबह से मची थी, इस समय नहीं थी मस्तिष्क पर कोई तनाव भी न था.
लेकिन सुबह अम्मा जी के शंखनाद से नींद खुल गई. ज़ोर-ज़ोर से मंत्रोच्चारण कर रही थी. मैंने कान पर तकिया रख लिया. घड़ी पांच बजा रही थी. घर भर का सोना हराम हो गया था. मैंने बहुत प्रयास किया कि सो लूं पर सफलता न मिली,
सुबह बेटियों का मुंह अलग फूला था, "मां, ट्यूटर का प्रबन्ध हो गया?"
"पापा ढूंढ़ रहे हैं बेटा, तब तक गाइड से काम चलाओ."
"मां यह दादी तो सुबह-सुबह बहुत शोर करती हैं." कहते-कहते नंदी गौरव को आता देख चुप लगा गई, तभी अम्मा जी भी आ गईं. मेज पर नाश्ता लग चुका था. नाश्ता अम्मा जी के कारण मैंने शाकाहारी ही बनाया था. देखते ही वह बोलीं, "यह क्या बहू, नाश्ते में अंडा नहीं है. ठंड भी शुरू हो गई है, बच्चियों को रोज खाने में अंडा दिया करो."
मुझे और आश्चर्य तब हुआ, जब वह स्वयं कुर्सी पर बैठकर नाश्ता करने लगीं. अब तक तो वह चौके में ज़मीन पर ही बैठ कर, पीढ़ा लगाकर खाती-पीती थीं.
नाश्ता करके झोले से एक पुरानी बुनाई निकाल कर वह धूप में बैठकर बुनने लगीं. बेटियां स्कूल चली गईं और गौरव दफ़्तर. मैं घर समेटने लगी.
इस बीच अम्मा जी एक बार भी अन्दर नहीं आईं. कई बार तो उनकी उपस्थिति से मैं अनजान रही. दोपहर में उन्हें भोजन के लिए बुलाने गई तो आकर चुपचाप बिना कोई मीन-मेख निकाले खा भी लिया. मुझे उनके व्यवहार में महान परिवर्तन दिख रहा था. गौरव से भी वह धीमे-धीमे न बतियाकर हम सबके सामने बात करतीं. पास-पड़ोस में न जातीं. कोई मिलने आता और उन्हें पूछता तो थोड़ी देर को आकर बैठ जातीं. मुझे लगता यह परिवर्तन या तो अस्थायी है या हरिद्वार से अम्मा जी कोई गहरी चोट लेकर लौटी हैं.
रात में उन्होंने कमरे में सोने को मना कर दिया, "अरी बच्चियों के कमरे में ही एक चारपाई डाल दे."
"पर उनके पढ़ने से आपको परेशानी होगी." मैंने कहा.
"कुछ नहीं होगा. मुझे आदत है उजाले में सोने की."
फिर मैंने भी ज़्यादा ज़िद नहीं की.
शनिवार को नाश्ते में मैं सबको चिवड़ा-दही देती थी. सबके साथ मैंने अम्मा जी के लिए बड़े कटोरे में चिवड़ा-दही भिगोकर उनके सामने रखा और पूछा, "अम्मा जी दही ठीक है या दूध से लेंगी?" उस समय वह सिर झुकाए थीं. सिर उठाया तो आंखें डबडबाई हुई थीं, "बहू इतना दही तो मैंने महीनों से नहीं देखा, खाऊंगी तो अपच हो जाएगा न." आंसू पोछकर वह मुस्कुरा दीं. मेरा जी धक्क् से हो गया. तो क्या जिस बहू की तारीफ़ करते वह अघाती न थीं, उसने इन्हें भरपेट भोजन भी नहीं दिया? मन करूणा से भर उठा.
मैंने उनका हाथ हौले से सहलाकर कहा, "अम्मा जी, यह घर आपका है. जो मर्ज़ी हो बताइए, बनाने वाली मैं हूं न." उन्होंने हां में सिर हिलाया और धीमे-धीमे चिवड़ा खाने लगी.

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शाम को बेटियों ने हंगामा कर दिया. नेहा ने कहा, "मेरा संस्कृत का ज्ञान बिल्कुल कम है. हम क्या करें?" गौरव या मुझे, किसी को भी संस्कृत नहीं आती थी. मैंने गौख से पण्डित जी से पूछने को कहा तो वह बोले, "उन्हें सिर्फ़ श्लोक याद होगा. वह भी विशेष आयोजन के." तभी कुछ दूर बैठी अम्मा जी ने नंदी एवं नेहा को पास बुलाकर कहा, "ज़रा अपनी किताब तो ला. देखें कितना कठिन है यह विषय, शायद मैं ही पढ़ा लूं."
"आप दादी?" नन्दी अविश्वास से बोली, "संस्कृत से हिंदी और अंग्रेज़ी का अनुवाद भी करना होगा, आपसे नहीं होगा."
"ला दे तो. अंग्रेज़ी में अनुवाद तू कर लेना. मैं उसकी हिन्दी बता दूंगी."
नेहा एवं नन्दी बुझे मन से किताब ले आईं. अम्मा भी थोड़ी देर उसे पलटती रहीं, मैं चिंतित वहां से हट गई. "समय व्यर्थ कर रही हैं अम्मा जी. अरे तुम किसी ट्यूटर का प्रबंध करो न."
"क्यों... हो सकता है अम्मा पढ़ा ही लें."
"क्यों मज़ाक करते हो. इस समय संस्कृत के मास्टरों का कितना अभाव है. जो मिलते हैं वह पैसा कितना मांगते हैं. अम्मा, भला कैसे पढ़ा लेंगी."
"आज देख लो." कहकर गौरव टीवी देखने लगे.
दूसरे दिन नन्दी स्कूल न गई. रात देर तक दादी से पढ़ती रही थी, दूसरे दिन भी जल्दी ही पढ़ने बैठ गई. नेहा का नंबर शाम को आया. रात एक बजे तक अम्मा जी पढ़ाती रहीं. बेटियां संतुष्ट नज़र आ रही थीं. मैं डर रही थी, कहीं ग़लत समझा दिया तो सारे नंबर कट जाएंगे. गणित की तरह ही संस्कृत में भी नंबर मिलता है. दोपहर में गौरव का फोन आया, "बड़ी मुश्किल से एक ट्यूटर का प्रबंध हुआ है, पर ५०० रुपए लेगा." पर अम्मा जी ने यह कह कर मना कर दिया कि कल से पेपर है. अब अगले सत्र में रखना.
सुबह नींद खुली. अम्मा के शंखनाद से. उफ़ रात में भी नहीं सोईं तब भी आज जग गई. पर जब घड़ी देखी तो ८ बजे थे. मुझे झटका लगा. इतने वर्षों में पहली बार अम्मा जी का पूजा का समय बदल गया था, नियम से ठीक ५ बजे पूजा करने वाली अम्मा जी ने नियम परिवर्तन कैसे कर लिया, नन्दी एवं नेहा कॉपियों ठीक कर रही थी. मैंने आश्चर्य से पूछा, "तुम सब सोई नहीं आज?"


"सोई थीं, पर सुबह ६ बजे उठ गई थीं. दादी पढ़ा रही थीं हमें, आज हिन्दी का पेपर है न. दादी ने बहुत अच्छा पढ़ाया."
"और मां" नन्दी बोली, "दादी ने इतने अच्छे तरीक़े से हमें समझाया है कि मुझे उम्मीद है संस्कृत में मेरे पूरे नंबर आएंगे."
अम्मा जी में मैंने हमेशा दोष तलाशा था. उनके अन्दर विद्या का यह अनमोल रत्न भी छुपा है, मैं इससे अनजान थी. हम एम.ए. करके भी बेटियों को पढ़ाने में असमर्थ थे, जबकि अपने ज़माने की थोड़ा-बहुत पढ़ी अम्मा जी हिन्दी एवं संस्कृत आराम से पढ़ा रही थीं.
रात को गौरव ने सुना तो कहा, "हां, मां ने अपने विवाह के बाद शास्त्री की परीक्षा व्यक्तिगत रूप से पास की थी. उनकी इस उपलब्धि को न किसी ने आंका, न जाना, वैसे यदि मां इस उम्र में पूजा रोककर बेटियों को पढ़ा सकती हैं तो अब मैं भी गणित नियम से पढ़ा दिया करूंगा."
अम्मा जी धीरे-धीरे और बदलती गईं. पूजा का समय भी बेटियों की पढ़ाई के हिसाब से आगे-पीछे खिसकता रहा. हरिद्वार का वह ज़िक्र भी न करतीं. मैं समझ गई थी, वह वहां से गहरी चोट लेकर आई हैं. अब वह शिकायतों का पुलिंदा न खोलतीं. खाली वक़्त में बच्चियों के पास बैठतीं या कोई पुस्तक पढ़तीं. मुझे प्रतीत भी न होता कि यह वही अम्मा जी हैं जिनके आने के समाचार ने मुझे दहला दिया था. मैंने सोचा, अब अम्मा जी को मैं कहीं न जाने दूंगी. यह निर्णय अब सिर्फ़ मेरा था.
- साधना राकेश

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