"हम महिलाएं ख़ुद ही अपनी बेकद्री करती हैं. प्यार के नाम पर कभी, महानता के चलते हर जगह कम से कम में समझौता कर लेती हैं और फिर समाज और पुरुषों के नाम से रोती हैं कि वह भेदभाव करते हैं…"
"यह क्या बहू यह जली रोटियां क्यों अलग रखी है?" सास ने आश्चर्य से पूछा.
"मेरी ग़लती से जल गई मांजी इन्हें मैं खा लूंगी." बहू ने डरते हुए जवाब दिया.
"ग़लती से जल गई तो क्या हुआ ग़लती तो सबसे हो जाती है और यह कल की सब्ज़ी अलग क्यों रखी तुमने?" सास ने टोका.
"आप लोग ताज़ी सब्ज़ी खा लीजिए. यह मैं खा लूंगी." बहू ने कहा.
"देखो बहू हम स्त्रियां भी इंसान हैं. अगर जली रोटियां तुम खा सकती हो तो घर के बाकी लोग भी खा सकते हैं और कल की सब्ज़ी भी थोड़ी-थोड़ी सबको दो ताकि तुम भी ताजी सब्ज़ी खा सको." सास ने कहा.
फिर गहरी सांस भर कर बोलीं, "हम महिलाएं ख़ुद ही अपनी बेकद्री करती हैं. प्यार के नाम पर कभी, महानता के चलते हर जगह कम से कम में समझौता कर लेती हैं और फिर समाज और पुरुषों के नाम से रोती हैं कि वह भेदभाव करते हैं.
अरे, पहले तुम स्वयं तो अपना सम्मान करना सीखो. अपने लिए अच्छा करो तभी दुनिया तुम्हें बराबरी का दर्जा देगी."
बहू सास के आगे नतमस्तक हो गई. आज उन्होंने उसे स्वाभिमान से जीकर अपने अस्तित्व के प्रति जागरुक होने का मंत्र सिखा दिया था.
- अश्लेषा
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Photo Courtesy: Freepik
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