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कहानी- सलाइयों पर बुनाई… (Short Story- Salaiyon Par Bunai…)

मां किस स्वेटर की बात कर रही थी उस दिन. वास्तव में ऊन से बुने स्वेटर की या परिवार रूपी स्वेटर के फंदों की. मां परिवार को भी तो ऐसे ही सहेजकर रखती थीं. एक भी रिश्ते का फंदा उन्होंने कभी भी छूटने कहां दिया था. कभी छूटने को हुआ भी तो बहुत जतन से वे उसे वापस अपने परिवार की सलाइयों पर उठा लेती थीं.

काम ख़त्म कर अर्चना घर में अपनी मनपसंद जगह अर्थात अपने छोटे से मगर व्यवस्थित ड्रॉइंगरूम में आकर बैठ गई. घर भर में यही एक कमरा तो ऐसा था, जहां वह कुछ पल चैन से बैठ सकती थी. बाकी जगह तो काम ही हावी रहता है दिमाग़ पर. सोफे से पीठ टिकाकर वह पैर पसार कर बैठ गई. याद आया आज तो पेपर वाला कोई न कोई पत्रिका भी डाल गया होगा. दुनिया भले ही डिजिटल युग की ओर बढ़ रही हो, लेकिन उसे तो आज भी जब तक वह काग़ज़ पर छपी पत्रिका हाथ में लेकर उसके पन्ने पलटते हुए न पढ़े, तब तक मज़ा नहीं आता. बच्चे तो अक्सर उसका मज़ाक उड़ाते हैं कि मां बिजली के युग में लालटेन लिए घूमती है, लेकिन वह तो आज भी छपी पत्रिकाओं की शौकीन है.
पन्ने पलटते हुए वह सरसरी तौर पर पत्रिका देख रही थी कि एक जगह आंखें ठिठक गईं. हाथ से बुने स्वेटरों के फोटो थे. बच्चों के, बड़ों के, किशोर लड़के-लड़कियों के, युवाओं के. साथ ही उन्हें पहने हुए उसी आयु वर्ग के मॉडल भी थे. जाने क्यों अर्चना को वे बड़े भले से लगे. या तो फोटो बहुत पुराने समय के होंगे या हाथ से बने स्वेटर की मॉडलिंग होने से उन्हें ऐसा दिखाया गया होगा. लेकिन कोई चकाचौंध नहीं, ग्लैमर नहीं. एकदम अपने से लगने वाले चेहरे, सरल-सहज.
पत्रिका मेकअप, एक्सेसरीज़, मॉडर्न कपड़ों के ग्लैमरस विज्ञपनों व तड़क-भड़क से भरी हुई थी. उसके बीच ये शांत सरल लोग व हाथ से बुने स्वेटरों के रंगबिरंगी सुंदर नमूने बड़े ही आत्मीय लग रहे थे और आंखों को ठंडक दे रहे थे.
शायद इसलिए भी अर्चना को ऐसा लग रहा था, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से उसका मन भीतर से बहुत अशांत था. ऊपर से साधारण लगने वाली छोटी-छोटी बातें उसके मन को उद्वेलित कर रही थीं. उसके दोनों बच्चों का व्यवहार यूं तो सामान्य बच्चों जैसा ही है और पढ़ने में भी दोनों अव्वल है, लेकिन कुछ ऐसा है, जो अर्चना को परेशान करने लगा है आजकल. दोनों ही किशोरावस्था में प्रवेश कर चुके हैं. बिटिया आरना तेरहवें में और बेटा अद्वित सोलह का हो गया.

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अभी तक तो दोनों आपस में लड़ते-झगड़ते थे, तो वह उतनी गंभीरता से नहीं लेती थी. भाई-बहन में नोकझोंक तो चलती ही रहती है, किंतु अब कुछ दिनों से दोनों के व्यवहार में अजीब सा रूखापन और दूरी महसूस होने लगी है. स्नेह का जो एक स्वाभाविक स्रोता दोनों के मध्य अपने रिश्ते को लेकर बहता रहता था वो सूखने लगा है. दोनों जैसे अपने खोल में सिमटना चाहते हैं. उन्हें 'साथ' की बजाय व्यक्तिगत 'निजता' की अधिक चाहत है और यह चाहत लॉकडॉउन से अधिक ही बढ़ गई थी. धैर्य तो जैसे उनमें रहा ही नहीं. एडजस्ट करना उनके स्वभाव में ही नहीं. यह मेरा है की भावना दिन-ब-दिन प्रबल होती जा रही है. मिल-बांट कर ख़ुशियां मनाने की बजाय बस अपनी मुट्ठी में सब भरना चाहते हैं और मुठ्ठी में न आ पाएं, तो झल्ला जाते हैं, चिड़चिड़ाने लगते हैं. अब तो उन्हें कमरा ही नहीं बाथरूम भी व्यक्तिगत चाहिए, मजाल है कि कोई भी उनके बाथरूम का उपयोग कर ले.
अर्चना कभी-कभी बहुत परेशान हो जाती है. यही वृत्ति भीतर घर कर गई और स्थायी बनी रही, तो आगे जाकर समाज में कैसे निबाह कर पाएंगे. अनुपम से कहा, तो वे हंसकर बात को उड़ा देते हैं कि अरे बच्चे हैं अभी, इतना तनाव मत लो. बड़े होकर सबके साथ निभाना आ जाता है. मगर अर्चना को अब चिंता होने लगी है. संस्कारों और व्यवहार की नींव इसी उम्र में मज़बूत होती है. जो बीज इस उम्र की कोमल मिट्टी में पड़ गए, वही पल्लवित होकर व्यक्तित्व का वृक्ष बनेंगे. यदि अभी से इतना आत्मकेंद्रित व स्वार्थी हो गए, तो आगे किसी भी रिश्ते को कैसे निभा पाएंगे. आख़िर क्या कारण है इस तरह के व्यवहार का?..
अभी कुछ दिनों पहले की बात है आरना ने अद्वित का साबुन इस्तेमाल कर लिया. कितना हंगामा किया था अद्वित ने. साबुन ही उठाकर फेंक दिया आरना पर की अब मुझे नहीं इस्तेमाल करना तू ही कर. मानो आरना के साबुन लगा लेने से साबुन संक्रमित हो गया हो. और आरना, वो भी क्या कम है. एक रबर तक तो अपने भाई को देती नहीं है.
अर्चना ने पुनः उन बुनाई के नमूनों की ओर देखा. कैसी मासूम, निर्मल मुस्कान थी उन बच्चों की. अर्चना की मां हर साल स्वेटर बुनती थीं. हमेशा उनके हाथों में सलाइयां और ऊन के गोले रहते. अर्चना के घर में दादाजी से लेकर उसके छोटे बहन-भाई तक किसी ने रेडीमेड स्वेटर कभी नहीं पहने. मां तो दूर-पास के रिश्तेदारों, पड़ोसियों तक के लिए स्वेटर बना देती थीं. बेल-बूटों से सजे वे स्वेटर मां की ममता की ऊष्मा से भरे होते. जब भी अर्चना पूछती, "मां तुम उकता नहीं जाती हर समय सलाइयों और ऊन में उलझी रहकर."
तब मां मुस्कुराकर कहतीं, "अच्छा है बुनाई के नमूनों में उलझी रहती हूं, तो दूसरी फ़ालतू की चिंताओं पर ध्यान नहीं जाता."
"तुम्हे बुनाई करना इतना क्यों पसन्द है?" अर्चना पूछती.
"एक पंथ दो काज. एक तो समय का अच्छा सदुपयोग हो जाता है, दूसरे डिज़ाइन पर ध्यान केंद्रित करने से धैर्य भी बढ़ता है. और जब तुम सब मेरे बुने स्वेटर पहनकर घूमते हो, तो एक संतुष्टि मिलती है कि मेरे स्नेह की डोरियों से बंधे हुए हो. यह मात्र स्वेटर नहीं है, यह तो स्नेह की सलाइयों पर बुने गए रिश्ते है बिटिया, जो जीवन को धैर्य सिखाकर सबके साथ की गर्माहट से परिवार को जोड़े रखते हैं." मां प्यार से समझाती.

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अर्चना को याद आया जब भी मां को पता चलता कि कोई फंदा छूट गया है, तो मां तुरंत उसे उठा लेती. यदि कुछ फंदे बुन चुकी होती थी, तो उन्हें उतारकर छूटे फंदे तक आकर उसे उठाती. कई बार किसी से बातें करते हुए अगर वे दो-चार सलाइयां भी बुन लेती थीं, तब भी उतना स्वेटर उधेड़कर गिरे फंदे को उठाकर तभी आगे बढ़ती.
अर्चना कहती, "छूट गया तो जाने दो न. उसे वहीं टांका लगा कर सिल देना. इतनी मेहनत क्यों करती हो उधेड़कर दुबारा सिलने की."
तब मां हंसकर उसके सिर पर हाथ फेरकर कहती, "कोई बात नहीं बिट्टो. एक बार मेहनत पड़ गई, तो क्या हुआ. स्वेटर हमेशा के लिए मज़बूत तो बन जाएगा. सालों साल चलेगा. लेकिन यदि कोई फंदा छूट गया, तो हमेशा वहां से उधेड़ने का डर बना रहता है. साथ ही डिज़ाइन भी फंदा कम हो जाने से गड़बड़ा जाएगा. एक बात हमेशा याद रखना स्वेटर सालों साल चलाना है, तो कभी गड़बड़ी मत करना. किसी फंदे को छूटने मत देना. चाहे थोड़ी ज़्यादा मेहनत लगे."
मां किस स्वेटर की बात कर रही थी उस दिन. वास्तव में ऊन से बुने स्वेटर की या परिवार रूपी स्वेटर के फंदों की. मां परिवार को भी तो ऐसे ही सहेजकर रखती थीं. एक भी रिश्ते का फंदा उन्होंने कभी भी छूटने कहां दिया था. कभी छूटने को हुआ भी तो बहुत जतन से वे उसे वापस अपने परिवार की सलाइयों पर उठा लेती थीं. कभी किसी सदस्य को आत्मकेंद्रित नहीं होने दिया उन्होंने. कभी स्वार्थ को रिश्तों पर हावी नहीं होने दिया. कितने धैर्य से वे उन सबको आपस में सामंजस्य से रहने को संस्कारित करती.
विद्रोह तो उन भाई-बहनों में भी होता था, परंतु मां ने सदा धैर्य रखा. कभी किसी को अपने खोल में नहीं छुपने दिया. भले ही कठोर होना पड़ा, पर हमेशा सबके बीच हर वस्तु का बराबर बंटवारा किया. एकाधिकार की अनुचित भावना को कभी पनपने नहीं दिया. घर की प्रत्येक वस्तु पर सबका समान अधिकार. जो भी घर में आता सब में बराबर बंटता. किसी की भी अनुचित मांग को मां ने कभी स्वीकार नहीं किया.
अर्चना ने पत्रिका बंद कर दी. वह चूक गई. जब अद्वित किसी वस्तु को आरना को नहीं देता था, तो बजाय उसको समझाने और बहन के साथ बांटने को कहने के वह आरना के लिए दूसरी वस्तु लाकर मामला शांत कर देती. अर्चना में धैर्य नहीं था. अद्वित ने आरना के साथ कमरा शेयर नहीं किया, तो उसने कमरे में दीवार बनाकर दो कमरे अलग कर दिए दोनों के. परिवार में किसी से ज़रा अनबन हुई कि वह उस रिश्ते से ही मुंह मोड़ लेती. बच्चों ने भी यही देखा, बस अपना स्वार्थ और आराम.
अर्चना ने कभी स्वेटर नहीं बुना. उसमें मां जैसा धैर्य नहीं था. उसने कभी छूटे हुए फंदों को जतन से नहीं उठाया. तभी उसके बच्चों के व्यवहार का नमूना गड़बड़ा रहा है. बड़े से संयुक्त परिवार से फंदे उतरते गए और आज सगे भाई-बहनों के फंदे भी अलग होने की राह पर है. यदि ऐसा ही रहा, तो ये आगे चलकर अपने-अपने जीवनसाथी से भी निभा नहीं पाएंगे.

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नहीं, इससे पहले अर्चना को कुछ करना होगा. स्नेह की सलाइयों पर रिश्तों के फंदे चढ़ाकर विश्वास की ऊन से उन्हें बुनना होगा. भले ही थोड़ी मेहनत लगे, लेकिन बच्चों को सामंजस्य, एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करना सिखाना होगा. उन्हें स्वार्थ और आत्मकेंद्रित खोल से निकालना होगा.
अर्चना ने पुनः पत्रिका में देखा. हर स्वेटर के नमूने में उसे अपनी मां मुस्कुराती हुई नज़र आ रही थी.

Dr. Vinita Rahurikar
विनीता राहुरीकर

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Photo Courtesy: Freepik

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