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कहानी- सहजीवन (Short Story- Sahjeevan)

शैलजा यहां मन में ‘सहजीवन’ का भाव लेकर आई थीं. सोचा था, कामकाजी ऋचा को उनके आने से सहारा हो जाएगा, बच्चों की देखभाल और बाइयों के कामकाज पर नज़र रखने में वे ऋचा की सहायता करेंगी, उसकी ज़िम्मेदारियों का बोझ हल्का हो जाएगा और शैलजा को भी दोनों पोतों के बचपन का आनंद और परिवार का सुख मिलेगा.

 
आंगन से बहू ऋचा के झल्लाने की तेज़ आवाज़ें आ रही थीं. आम के पेड़ पर अमरबेल फैल गयी थी. बस डंडे से उसी को खींच-खींच कर अलग करती जा रही ऋचा लगातार ग़ुस्से से बड़बड़ाती जा रही थी.
रसोईघर में सबका खाना बनाती शैलजा ने एक गहरी सांस भरी. वह समझ रही थीं कि यह चिढ़ अमरबेल पर नहीं, बल्कि उनके लिए है. ऋचा उनका ग़ुस्सा बेल पर निकाल रही थी. उन्हें उठाकर बाहर नहीं फेंक सकती इसलिए बेल को फेंककर अपने दिल की भड़ास पूरी कर रही थी.
“ये परजीवी भी हर जगह उग आते हैं बेशर्मों की तरह. अच्छे-भले पेड़ को बर्बाद कर देते हैं. हरा-भरा फलदार पेड़ है, पर ये बस उसका रस चूस कर, उसे सुखाकर, मारकर ही दम लेंगे.” ऋचा के ये शब्द सुनकर शैलजा की आंखों की कोर नमी से भीग गई. बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपनी आंखों में आंसू आने से रोका.
'बेटे के घर में मां परजीवी होती है.' शैलजा के कलेजे में एक हूक उठी, 'और मां अपने ही बेटे की गृहस्थी को चूस कर उसे ख़त्म कर देगी.'
शैलजा को ऋचा की छोटी सोच पर अफ़सोस हुआ. मां अपनी छाती से लगाकर अपना दूध पिलाते हुए कभी भी अपने बच्चे को ‘परजीवी’ नहीं कहती, लेकिन उसी बेटे के घर में अगर दो रोटियां खा ले, तो उसे ‘परजीवी’ घर को बर्बाद करनेवाली कहा जा रहा है. मां के खून और दूध से सींचा जाने वाला बेटा ‘वंश बेल’ होता है, और बेटे के अन्न पर सींची जाने वाली मां ‘अमरबेल’ होती है.
मां और बेटे में शायद यही फ़र्क़ होता है.
आंख की कोर पर छलक आए आंसू को पोंछकर शैलजा सब्ज़ी के लिए मसाला बनाने लगीं. कड़ाही में पिसा हुआ प्याज़-टमाटर डालकर एक-एक कर मसाले डालने लगीं- दालचीनी, जावित्री, तेजपत्ता और पथरचटा.
पथरचटा को हाथ में लिए शैलजा क्षणभर के लिए ठिठक गईं. वनस्पति शास्त्र में इसे लुईकेन कहते हैं. फफूंद और शैवाल के सहजीवन का एक उत्कृष्ट उदाहरण. शैवाल अपना भोजन स्वयं बनाता है, परंतु शुष्क चट्टानों पर उसे पानी उपलब्ध नहीं हो पाता, फफूंद अपने लिये भोजन नहीं बना पाता. अतः दोनों एक-दूसरे के साथ रहते हैं.


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फफूंद वातावरण से नमी अवशोषित करके शैवाल को देता है और उस नमी की मदद से शैवाल अपना भोजन बनाकर फफूंद को देता है. इस तरह अत्यंत शुष्क और दुर्गम परिस्थितियों में भी दोनों एक-दूसरे के सहयोग से जीवित रह लेते हैं.
प्रकृति में दो निर्बल पौधे आपसी सहयोग का इतना बड़ा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, एक-दूसरे का सहारा बनते हैं. बड़े सक्षम वृक्ष भी अपने ऊपर आश्रित बेलों को झटककर फेंक नहीं देते, बल्कि उनका पोषण करते रहते हैं, चाहे वे स्वयं ही क्यों न सूख जाएं, लेकिन हर तरह से सबल-सक्षम मनुष्य अपने स्वार्थ में सबको झटक देता है.
रात में अपने बिस्तर पर जाकर लेटने तक का सारा समय शैलजा पर भारी बीता. ऋचा पूरा दिन किसी न किसी बात से अमरबेल का उदाहरण देकर उन्हें ताना मारती रही. जब ऋचा दोपहर में अपने कमरे में जाकर लेटी तब शैलजा आंगन में पेड़ के पास खड़ी हो गयी. कोने में नुची हुई टूटी-फूटी बेल पड़ी थी. शैलजा को उससे करुणा हो आयी. कहने को अमरबेल है, लेकिन परजीवी कहकर सबकी नफ़रत ही इसके हिस्से आती है, जैसे आजकल शैलजा के हिस्से आ रही है.
हफ़्ते के छह दिन तो ठीक से निकल जाते हैं, क्योंकि ऋचा ऑफिस चली जाती है. सुबह जाने की तैयार में होती है और आने पर थकी होती है, तो कमरे में चली जाती है, इसलिए शैलजा से सामना कम ही होता है, लेकिन छुट्टी वाले दिन शैलजा को बहुत भारी लगते हैं. ऋचा, बच्चे, उनका बेटा अमित सब घर पर रहते हैं. शैलजा को ऋचा के बोलने से उतना दुख नहीं होता, जितना अमित के चुप रहने से होता है. पराए का ताना उतना नहीं चुभता जितना पेट जाये का मौन. अमित की भी मानो इसमें पूरी स्वीकृति है और छुट्टी वाले दिन शैलजा को लगता कि वह बेटे-बहू के वांछित बगीचे में अमरबेल की तरह है.
अनामंत्रित.
अवांछित.
परजीवी.
दो वर्ष पहले अमित के पिता की मृत्यु के बाद शैलजा उज्जैन के अपने पतिगृह में अकेली रह गयी थी. इकलौता बेटा-बहू भोपाल में रहते थे. उज्जैन में घर में तमाम काम वाली लगी हुई थीं. अड़ोस-पड़ोस भी बहुत अच्छा था. सब लोग एक परिवार के सदस्य की तरह रहते थे. शैलजा को पति की यादों के साथ वहां रहने में कोई परेशानी नहीं थी. सबके साथ हंसते-बोलते, एक-दूसरे के सुख-दुख बांटते दिन कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता था.
और यहां… शैलजा आकर अपने पलंग पर लेट गयी. यहां दिन पहाड़ बनकर छाती पर लदा रहता है. नई-नई यहां आयी थी, तो शैलजा अड़ोस-पड़ोस में कभी-कभार उठने-बैठने चली जाती थी. ज़्यादा पंचायत करने की तो उनकी वैसे भी आदत नहीं थी, लेकिन हल्की-फुल्की बातचीत करके मन बहल जाता था.
शैलजा तो उज्जैन छोड़कर यहां आना ही नहीं चाहती थीं, क्योंकि वह जानती थीं कि घर चाहे बेटे का ही क्यों न हो, मगर आजकल के माहौल में वह भी अपना नहीं होता, लेकिन अमित और ऋचा तब बहुत ज़िद्द करके उन्हें साथ ले आए थे. भोपाल आने के बाद जल्दी ही उन्हें बेटे-बहू की मंशा का पता चल गया. अमित उज्जैन का उनका दो मंजिला मकान बेचकर भोपाल में अपने नाम से बड़ा मकान लेना चाहता था.


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सदियों पुरानी घिसी-पिटी चालबाज़ी और स्वार्थ की कहानी शैलजा के साथ भी दोहराई जा रही थी. शैलजा कहने भी किससे जाती? उसके दूरदर्शी पति ने ज़माने के चलन को भांपकर ही शायद पूरा मकान शैलजा के नाम कर देने की समझदारी दिखाई थी. नहीं तो शायद बेटा-बहू उन्हें कबका चलता कर देते.
शैलजा ने उज्जैन का मकान अपने जीते जी बेचने से साफ़ मना कर दिया, तभी से बेटे-बहू का रवैया उनके प्रति पूरी तरह बदल गया. ऋचा का मुंह मनमाने और अपमानित करने के ढंग से खुलने लगा और अमित ने चुप्पी साध ली.
एक दिन ऋचा ने उन पर आरोप लगा दिया कि वे अड़ोस-पड़ोस में बेटे-बहू की चुगली करने जाती हैं. बस, तब से आहत होकर उन्होंने किसी से बात करना भी छोड़ दिया. उन्होंने काम में अपने आप को व्यस्त कर लिया. सुबह पांच बजे उठकर दोनों बच्चों के लिए टिफिन बनाना, बेटे-बहू का नाश्ता, फिर लंच, बच्चों के स्कूल से लौटते ही उनका खाना-पीना और फिर रात का खाना. वे थककर चूर हो जातीं, पर उफ तक नहीं करतीं.
शैलजा यहां मन में ‘सहजीवन’ का भाव लेकर आई थीं. सोचा था, कामकाजी ऋचा को उनके आने से सहारा हो जाएगा, बच्चों की देखभाल और बाइयों के कामकाज पर नज़र रखने में वे ऋचा की सहायता करेंगी, उसकी ज़िम्मेदारियों का बोझ हल्का हो जाएगा और शैलजा को भी दोनों पोतों के बचपन का आनंद और परिवार का सुख मिलेगा.
लेकिन ऋचा ने बाइयों को हटाकर उन्हें बाई बना दिया, इस पर भी उन्हें ‘परजीवी’ की संज्ञा दे दी. अब और अपमान सहना उनके बस में नहीं रहा. इससे पहले कि बेटा-बहू उन्हें किसी दिन चले जाने को कहें, वो अपना मान रखकर ख़ुद ही जल्दी यहां से चली जाएंगी.
सुबह ही उन्होंने दोनों को अपने निर्णय से अवगत करा दिया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया, मानो उन्हें मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो. तीसरे ही दिन अमित उन्हें इंटरसिटी पर बिठा आया. उससे इतना भी नहीं बना कि उन्हें घर तक पहुंचा देता, पर अब शैलजा को उससे कर्त्तव्यपरायणता की कोई उम्मीद भी नहीं बची थी.
बेटे की गृहस्थी और जीवन परिपूर्ण था, उसे न भोजन की आवश्यकता थी, न वातावरण से प्राप्ति की. ‘सहजीवन’ तो दो ज़रूरतमंदों के बीच होता है. सक्षम के ऊपर तो बस न चाहते हुए भी आश्रित ही बन जाना पड़ता है.
ट्रेन चल दी और पीछे छूटते हुए शहर के साथ शैलजा ने पिछली कड़वी बातों को भी छोड़ दिया.
स्टेशन पर कुली से सामान ऑटो में रखवाकर वो अपने घर पहुंच गयीं. घर को देखते ही अपनेपन के एहसास ने शैलजा को भिगो दिया. ताला-कुण्डी खोलने की आवाज़ आते ही आस-पास से सब लोग आ गए. शैलजा को देखते ही सब अत्यंत प्रसन्न हो गए. कोई दौड़कर पीने का पानी ले आया, कोई चाय, तो कोई अपने घर से खाने की थाली परोसकर ले आया. सबकी ख़ुशी छलक पड़ती थी. ऊपर वाले हिस्से में शैलजा ने किराएदार रखे थे. वे दोनों भी अपने बेटे को लेकर आ गए. जब शैलजा भोपाल गयी थीं, तब उनका बेटा मनु छह माह का था. अब वह ढाई साल का हो गया है. आते ही उसकी मां ने बताया कि यह दादी हैं, बस मनु ‘ताता-ताती’ करके उनकी गोद में चढ़ गया.
रात मनु की मां ने ही उनके बिस्तर पर धुली हुई चादर लगा दी, तकिये का लिहाफ बदल दिया, ओढ़ने की धुली चादर रख दी. शैलजा की आंखें भीग आयीं. वहां वह हफ़्तों ऋचा को कहती रहती कि चादर और तकिये के लिहाफ बदल दे, लेकिन वे बदले नहीं जाते थे. मनु रात में कहानी सुनते हुए उनके पास ही सो गया. उसे छाती से चिपटाकर शैलजा को लगा जैसे वो बरसों बाद चैन की नींद सोई हैं.

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सुबह उठने की आहट लगते ही मनु की मां चाय ले आयी. इससे पहले कि वो गैस सिलेंडर की चिंता करतीं एक पड़ोसी पहले ही अपना भरा हुआ सिलेंडर रखकर गैस चूल्हा शुरू कर गए. शाम होने तक तो उनका रसोईघर और फ्रिज सारे ज़रूरी सामान से भर चुका था. घर में ऐसी रौनक हो गयी कि लगा ही नहीं कि वे यहां से कभी गयी भी थीं.
दूसरे दिन उनकी पुरानी महरी काम पर वापस आ गयी. शैलजा को वापस आया देख महरी इतनी ख़ुश हुई जैसे उसकी मां आ गयी हो. जीवन सुचारू रूप से सबके साथ हंसते-बोलते चलने लगा. नन्हा मनु दिन भर ‘दादी-दादी’ करता आगे-पीछे घूमता रहता. उसकी मां और पिता भी बेटे-बहू जैसा आदर देते शैलजा को. मनु की मां तो उनके आने से बहुत ख़ुश थी, क्योंकि मनु की देखभाल अब परिपक्व व अनुभवी हाथों में हो रही थी.
एक दिन दोपहर में महरी अपनी बेटी को लेकर आयी और बोली, “मांजी, यह मेरी बेटी है. मैं और इसके पिता काम पर चले जाते हैं, तो यह अपने बड़े भाई के साथ घर पर रहती थी, लेकिन अब इसका भाई भी काम पर जाने लगा है. इसे मैं घर पर नहीं छोड़ सकती. लड़की जात है, डर लगा रहता है. अगर मैं इसे दिन भर के लिये आपके पास छोड़ सकूं तो निश्‍चिंत होकर काम कर सकूंगी. अगर आपको कोई ऐतराज़ न हो तो बड़ी मेहरबानी होगी. मांजी, मेरी बेटी आपकी छत्रछाया में सुरक्षित रहेगी.” महरी ने हाथ जोड़कर विनती की.
शैलजा को भला क्या ऐतराज़ होता. सीधी-सादी सी सोलह-सत्रह साल की लक्ष्मी अगले ही दिन से शैलजा के पास आने लगी. मना करने पर भी वह घर के चार काम ख़ुशी से कर देती. चाय बनाना, कपड़े सुखाना, उन्हें तह करके रखना, रसोईघर की साफ़-सफाई करना. शैलजा उसे पौराणिक कहानियां सुनाती तो वह बड़ी दिलचस्पी और ख़ुशी से सुनती. धीरे-धीरे और भी ऐसी लड़कियां शैलजा के पास आ गयीं. शैलजा उन्हें कढ़ाई-बुनाई, सिलाई सिखातीं. दिन भर घर उनकी चहचहाट से गूंजता रहता. मनु भी इतनी सारी ‘दीदियों’ को पाकर प्रसन्न था.
शैलजा का परिवार अब काफ़ी बड़ा हो गया था. लड़कियों के चहकते और उनके माता-पिता के संतुष्ट व निश्‍चिंत चेहरे देखकर शैलजा की आत्मा को अपार संतोष मिलता. आजकल के ज़माने में लड़की की सुरक्षा से बढ़कर और क्या तसल्ली होगी और शैलजा वही पुण्य का काम कर रही थी. अपने भरे-पूरे सुखी परिवार को देखकर उन्होंने संतोषभरी गहरी सांस ली. जिसे आपकी ज़रूरत न हो उसके लिए कितना भी करो, कितने भी अच्छे ढंग से रहो, पर आप रहोगे सबकी नज़र में परजीवी ही, लेकिन किसी का सहारा बनना जीवन को एक अलग ही सार्थकता, एक उद्देश्य, एक दिव्य संतोष प्रदान करता है. शैलजा का जीवन अब सही मायने में ‘सहजीवन’ के भाव से परिपूर्ण था.

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