दीप्तिजी की बात पर वह घड़ी की ओर देखती हुई चिंतित हो बैठ गई. सुबह के लिए सब्ज़ी काटकर रखनी है, ऑफिस के लिए साड़ी प्रेस करनी है, पापाजी को दवा देनी हैं... रात देर से सोई तो सुबह भी नींद नहीं खुलेगी... ऐसी तमाम बातें उसके दिमाग़ में घूमने लगीं.
"सुमन जाओ जाकर तैयार हो जाओ, मेहमान आते ही होंगें, बाकी का काम हम देख लेंगे." निहारिकाजी के कहते ही, "जी मां.'' कहती हुई सुमन अपने कमरे की ओर चल दी.
तैयार होते वक़्त वह सोचने लगी- 'कितना अंतर है उसके और उसकी सहेली सुदीप्ता के ससुरालवालों में. उसके घरवाले कितने सहयोगी हैं और सुदीप्ता के घर वाले मजाल है जो किसी काम में उसका हाथ बंटा दें, और रसोई तो जैसे बस सुदीप्ता के लिए ही बनी है.' यह सब सोचती हुई वह तैयार हो गई.
सुमन ने आज शाम खाने पर अपनी ऑफिसवाली ख़ास सहेली सुदीप्ता को सपरिवार आमंत्रित किया था. इसलिए घर के सभी लोग काम पर लगे थे. सुमन की सास निहारिकाजी सलाद काटने लगीं. ससुरजी डायनिंग पर रखे अनावश्यक समान हटाने लगे. पति मुकुल ने नया डायनिंग सैट निकाला तो सुमन का बेटा फटाफट उसे साफ़ करने में अपने पापा की मदद करने लगा. बने-बनाए गर्म खाने पर हरा धनिया डाला जा चुका था. सोफे के कवर वगैरह सब बदले जा चुके थे. और यहां सुमन भी तैयार होकर आ गई थी, तभी डोर बेल बजी.
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टिंग... टिंग... सुमन के पति मुकुल ने दरवाजा खोलते ही बड़ी गर्मजोशी से सबका स्वागत किया. हल्की बातचीत के बात खाना परोसा गया. सुमन की सास और मुकुल ने सबको खाना परोसा.
''सुमन तुम तो बहुत अच्छा खाना बनाती हो, इतना स्वादिष्ट कड़ाही पनीर तो मैंने पहली बार खाया है.'' सुदीप्ता की सास दीप्तिजी खाने की तारीफ़ क़रती हुई बोलीं तो सुमन मुस्कुराकर बोली, ''शुक्रिया आंटी, लेकिन यह कड़ाही पनीर मैंने नहीं, बल्कि मेरे पति मुकुल ने बनाया है."
यह सुनकर दीप्तिजी को आश्चर्य हुआ, क्योंकि उनके यहां तो आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. मेहमान चाहे किसी के भी हों, खाना तो सुदीप्ता ही बनाती और परोसती है.
खाना होने के बाद सुमन और सुदीप्ता अपनी बातों में लग गईं और वहां निहारिकाजी, दीप्तिजी को अपना नया घर दिखाने लगीं.
''दीप्तिजी, यह देखिए, हमारा मंदिर और यह रही हमारी किचन...''
दीप्तिजी किचन की ओर देखती हुईं बोलीं, ''आपका नया घर तो सच में बहुत ख़ूबसूरत है, पर यह किचन में 'सबकी रसोई' लिखा हुआ क्यों टंगा है?''
निहारिका जी, ''क्योंकि हमारे घर की रसोई सबकी रसोई है.''
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दीप्तिजी, ''हमारे यहां तो रसोई सिर्फ़ घर की महिला की ही होती है.''
निहारिकाजी, ''बहनजी! जब आज की बहू-बेटियां मेहनत करके बाहर की दुनिया अपने नाम लिख रही हैं तो क्या हम उनका सहयोग करते हुए घर के कुछ काम अपने नाम नहीं लिख सकते हैं?''
दीप्तिजी कुछ सोच में पड़ गईं. तभी सुदीप्ता बोली, ''मांजी, अब चलें. रात हो रही है. सुबह ऑफिस भी जाना है.''
दीप्तिजी, ''चलते हैं बहू. ज़रा दो घड़ी ओर बैठ लें.'' दीप्तिजी की बात पर वह घड़ी की ओर देखती हुई चिंतित हो बैठ गई. सुबह के लिए सब्ज़ी काटकर रखनी है, ऑफिस के लिए साड़ी प्रेस करनी है, पापाजी को दवा देनी हैं... रात देर से सोई तो सुबह भी नींद नहीं खुलेगी... ऐसी तमाम बातें उसके दिमाग़ में घूमने लगीं. दरअसल, स्त्रियां ऐसी ही होतीं हैं. रसोई से निकलकर भी वे मानसिक तौर पर रसोई में ही रहती हैं.
"दूध फ्रिज में रखा था न? बाहर पड़ी सब्ज़ियां ख़राब तो नहीं हुई होंगीं? कहीं गैस चालू तो नहीं छोड़ आई? आज शाम क्या पकाना है? कल सुबह का नाश्ता क्या बनाओगी?'' इस तरह के सवाल हर पल उसके साथ होते हैं.
कुछ ऐसे ही सवालों ने सुदीप्ता को भी परेशान कर रखा था. तभी वह कुछ देर बाद फिर से दीप्तिजी से बोली, ''अब चलें मांजी.''
दीप्तिजी, ''अच्छा, चलो चलते हैं.''
कुछ ही देर में सुदीप्ता परिवार सहित घर आ गई, आते ही वह हाथ धोकर जैसे ही सबके लिए रात का दूध गर्म करने को रसोई की ओर बढ़ी वैसे ही दीप्तिजी ने उसे रोकते हुए कहा, ''जाओ, पहले साड़ी बदल लो, तब तक मैं सबके लिए दूध गर्म कर देती हूं.''
सुदीप्ता यह सब देखकर आश्चर्य से भर उठी. उसके बाद जब वह साड़ी बदलकर अपने रूम से बाहर निकली तो उसने देखा की सुबह की सब्ज़ी उसके पति अतुल काट रहे हैं और उसके ससुरजी भी अपनी दवा ले चुके हैं. वह कुछ कहती इसके पहले किचन की दीवार पर लटके कुछ अक्षरों ने सब ज़ाहिर कर दिया. जो दीप्तिजी निहारिकाजी से मांग कर लाई थीं, जिस पर लिखा था- 'सबकी रसोई'.
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