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कहानी- सात समंदर पार से… (Short Story- Saat Samandar Paar Se…)

डॉ. निरुपमा राय

शाम को अपूर्वा के घर में प्रवेश करते ही वहां उपस्थित सगे-संबंधियों की आंखों में भी वही भाव आया, जो अपूर्वा की आंखों में कौंधता था, आश्चर्य मिश्रित. अपूर्वा की तरह वे भी स्तब्ध से रह गए थे. बड़े से हॉल में लोग बैठे थे. पूजा चल रही थी. मंत्रोच्चार हो रहा था और सामने बड़ी सी मेज पर फ्रेम जड़ी और फूलों की माला से सज्जित जो तस्वीर रखी थी. उसे देखकर उन्हें सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गए थे. बेला आश्चर्य से बोल पड़ी थी, "अपूर्वा के पिता तो…"

रोज़ की तरह प्रो, सिद्धार्थ पाठक सुबह की सैर पर निकले ही थे कि उनकी दृष्टि सामनेवाले मकान पर चली गई.
'अरे वाह! लगता है नए किराएदार आए हैं. चलो, सामने का सन्नाटा तो भंग हुआ.' वो प्रसन्न हो उठे थे. उनके बंगले के ठीक सामनेवाले दो मंज़िला मकान का ऊपरी फ्लोर महीनों से खाली पड़ा था. आज वहां चहल-पहल वेखकर उनका मन खिल उठा था. उस घर के मालिक शर्माजी से उनकी अभिन्न मित्रता थी. उनकी असमय मृत्यु के बाद उनका बेटा यह घर बेचकर विदेश में शिफ्ट हो गया था. नीचेवाले फलोर पर नया मकान मालिक रहता था.
सैर से लौटते समय उन्होंने देखा, दो छोटे बच्चे और एक तीस-बतीस साल की स्त्री गेट पर खड़े ट्रक से सामान उतरवा रहे थे, उन्होंने आगे बढ़कर कहा, "हेलो, मैं आपके सामनेवाले घर में रहता हूं. यदि किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो, तो ज़रूर बताइएगा."
वो स्त्री पलटी और उसकी आंखों में आश्चर्य का सागर उमड़ पड़ा, वो अपलक प्रो. सिद्धार्थ को देखती रही, स्तब्ध सी खड़ी रह गई थी. फिर संयत होकर बोली थी, "जी ज़रूर!" भीतर जाते हुए भी उसने बार-बार मुडकर उन्हें देखा था. उनकी समझ में नहीं आ रहा था. ये कैसी प्रतिक्रिया थी..? ऐसा क्या देख लिया उसने, जो यूं स्तब्ध खड़ी रह गई थी? जो भी हो, होता है कभी-कभी ऐसा, उन्होंने सोचा और घर चले आए,
बड़े से बंगले में आजकल वो अकेले ही रह रहे थे. पत्नी बड़े बेटे के पास अमेरिका गई थी. उनके दो बेटे थे, दोनों विदेश में रहते थे. ख़ुश थे, तो वे भी ख़ुश थे. उन्हें ईश्वर से केवल एक शिकायत थी, पत्नी बेला की अस्वस्थता, बेला दमे की मरीज़ थी, फिर भी उसे अपनी परवाह थी ही कहां, "मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जा सकती. मेरे नहीं रहने पर आपकी देखभाल कौन करेगा?" वो मानती ही नहीं थी. लेकिन इस बार किसी तरह अपनी कसम देकर बड़े बेटे के साथ इलाज के लिए अमेरिका भेजा था. सुबह-शाम कामवाली बाई खाना बनाकर, घर की साफ़-सफ़ाई कर देती थी. दिन तो किसी तरह कट ही जाता था. पर शाम से वे मायूस होकर बरामदे में बैठे रहते. रात तो टीवी देखकर कट ही जाती थी. सोचते रहते, जल्दी से बेला स्वस्थ होकर घर लौट आए, फिर यांनी एक साथ शाम गुज़ारेंगे. बेला के हाथ की इलायचीवाली चाय, उसका सानिध्य और क्या चाहिए था उन्हें.
आज भी शाम को कामवाली बाई के जाने के बाद वो बरामदे में बैठे सड़क पर आते-जाते लोगों को निर्निमष दृष्टि से देख रहे थे. सहसा दूष्टि सामनेवाले घर पर चली गई. दोनों बच्चे धमाचौकड़ी मचा रहे थे और उनकी मां? अरे, वो तो उधर ही देख रही है. लो, अब खिड़की पर से हट गई है. फिर से छिपकर देखा. ऐसा क्या देखती है वो मुझमें? वो असहज से भीतर कमरे से चले आए, पर मन में उस स्त्री की आंखें कौंधती रहीं. आश्चर्यभरी स्तब्ध आंखें.
दूसरी सुबह कामवाली ने बताया था कि उसका नाम अपूर्वा है और वो अपने पति विजय और दो बच्ची सुरभि एवं अनामय के साथ इस घर में किराए पर रहने आई है.
विजय इंजीनियर है और अपूर्वा टीचर,
"मैंने वहां भी काम पकड़ लिया है साहब, अच्छी औरत है. पूछ रही थी आपका नाम क्या है? घर में और कौन-कौन है?"
"अच्छा तुमने क्या बताया?"
"वही जो है… बताया साहब प्रोफेसर थे, अब रिटायर हो गए हैं. मैडम अमेरिका गई हैं. दो बेटे हैं, बहुएं हैं. पोते-पोतियां और…"
"बस-बस…" वे हंस पड़े थे. बाई भी मुस्कुराकर अपने काम में लग गई थी.

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वे सोच में पड़ गए थे. दो बच्चों की शिक्षिका मां. बुद्धिमान भी होगी. फिर इस तरह मुझे देखने का क्या अर्थ हो सकता है. वो भी छिपकर एकटक निहारना.
सात दिनों बाद उनकी पत्नी बेला वापस आ रही थी. वे बेहद प्रसन्न थे, कौन कहता है उम्र हो जाने पर प्रेम की उमंग अठखेलियों नहीं करतीं. उनके अंतर्मन में अपनी अर्धांगिनी की प्रतीक्षा बलवती हो रही थी. अनायस वो बेला को याद कर मुस्कुरा उठे थे. जिस प्रणय बंधन में वे पैंतीस वर्ष पहले बंधे थे, वो जीवन के झंझावतों में भी कभी ढीला नहीं पड़ा था. जहां वो कमज़ोर पड़े, वहां बेला चट्टान की तरह अडिग खड़ी रह गई थी और जब भी बेला कमज़ोर पड़ी थी, उनके मज़बूत कंधे उसकी ताक़त बन गए थे.
"साहब, मै़ जा रही हूं, खाना हॉटकेस में रख दिया है, जल्दी  खा लेना." बाई ने जाते-जाते कहा तो वो सोच से उबरे, अनायास ही दृष्टि सामनेवाली खिड़की की तरफ़ उठ गई. लगा जैसे अभी तुरंत किसी ने वहां का परदा छोड़ा हो. आश्चर्य से भरी यूं ख़ूबसूरत आंखें मानों पलभर में उनके चेहरे पर कुछ तलाशती पर्दे के पीछे हो गई थीं. फिर तो मार्निंग वॉक के समय, अपूर्वा के स्कूल आते-जाते समय या बच्चों के साथ खेलते-बोलते समय दोनों की दृष्टि अनायास मिल जाती और वो यूं मिश्रित भावनाओं का शिकार हो जाते. एक मन कहता होता है किसी-किसी की गहरी दृष्टि से देखने की आदत. उसे भी होगी, लेकिन तुरंत दूसरा विचार उठता, नहीं, कोई बात ज़रूर है, पर क्या?.. एक सुबह सैर से लौटते समय अपूर्वा सामने पड़ गई थी.
"प्रणाम!" उसने कहा तो उन्होंने भी हाथ जोड़ दिए थे.
"आप फिलोसॉफी के प्रोफेसर है ना! मैं संस्कृत पढ़ाती हूं आपकी पत्नी कब आ रही हैं?" उसने पूछा, तो वो बोले, "इसी हफ़्ते. आप उनसे मिलकर ख़ुश होगी."


"ज़रूर!" वो मुस्कुराकर गहरी स्निग्ध दृष्टि उन पर डालती चली गई थी.
दोपहर में अपूर्ण ने बाई के हाथों खाना भिजवा दिया था. वो फिर सोच में पड़ गए थे. एक हफ़्ते की छोटी सी मुलाकात से कोई इतना क़रीब तो नहीं आ जाता कि साधिकार खाना भेजने लगे, वैसे है क्या-क्या? उन्होंने तुरंत टिफिन खोल दिया बेसन की कढ़ी, भरवां भिंडी, परवल की सूखी सब्ज़ी, सत्तू के परांठे, चना दाल, मूंगफली, दही व नारियल की मिक्स चटनी और गुलाब जामुन…
"वाह!" उन्होंने प्रेम से खाना खाकर टिफिन भिजवा दिया था, न जाने क्यों बरसों बाद उन्हें अपनी मां का स्मरण भी आया था. बेला जिस दिन आनेवाली थी, वे बेहद ख़ुश थे. पर मन एक नई उड़ान पर था. कितनी सुंदर है अपूर्वा देखो तो देखते रह जाओ, पर वो मुझमें ऐसा क्या पाती है, जो मंत्रमुग्ध सी देखती रह जाती है. कितना स्नेहभरा अपनापन कौंधता रहता है उसकी आंखों में! क्या ये कोई पुरानी छात्रा है? या फिर किसी ऐसे परिवार से जुड़ी है, जो हमारे परिवार के क़रीब हो. नहीं, ऐसा होता, तो स्पष्ट कहती, फिर इसके मन में क्या चल रहा है? न चाहते हुए भी उन्होंने बाल कलर किए, सुंदर सा सिल्क का कुर्ता-पायजामा निकालकर पहना और हाथ की छड़ी कमरे के एक कोने में टिकाकर सुबह की सैर पर चल पड़े.
"प्रणाम प्रोफेसर साहब! इतनी सुबह नहा-धोकर सैर पर निकले हैं." अपूर्वा का पति विजय घर की गेट पर खड़ा था, उसने पूछ लिया.
"हां, मैं तो पूजा-पाठ करके सैर पर जाता हूं." वो हंस पड़े थे.
"अपूर्वा आपके बारे में बात करती रहती है. किसी चीज़ की दिक़्क़त हो, तो बताइएगा, आंटी अभी बाहर है न?" विजय ने कहा, वो फिर सोच में पड़ गए थे. विजय सामान्य नैन-नक्श का युवक था. शायद अपूर्वा मेरे शानदार व्यक्तित्व की कायल हो गई है. वो सोच रहे थे. उन्हें सदा से अपने सुंदर व्यक्तित्व के लिए प्रशंसा मिलती रही है.
"बिल्कुल फिल्मी हीरो जैसे लगते हैं आप…" ये वाक्य वो सैकड़ों बार सुन चुके हैं. अपूर्वा की स्निग्ध दृष्टि और मुस्कान जैसे उनकी आत्मा पर छा गई थी. बेला के आने तक अपूर्वा रोज़ कुछ न कुछ बनाकर भेजती रही थी. एक शाम अनामय को भेजकर उसने उन्हें घर पर भी बुलाया था. मनुहारपूर्वक पूछा था, "आपको खाने में क्या-क्या पसंद है? मुझे बताइए, आपको खिलाकर मुझे बहुत ख़ुशी होगी."

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"मैं खाने के मामले में बेहद लालची हूं, मुझे सब कुछ पसंद है." वे ज़ोर से हंस पड़े थे.
"हां, मैं जानती थी." वो भी मुस्कुरा पड़ी थी. खाना खाते समय वो हर डिश की तारीफ़ करते जा रहे थे और अपूर्वा की आंखें गीली होती जा रही थीं. वो कई बार छिपाकर आंसू पोंछ रही थी. घर लौटते समय वे सोच रहे थे, मुझमें ऐसा क्या है, जो कभी उसे हतप्रभ करता है, कभी आनंदित, तो कभी रुला देता है?
दूसरे दिन बेला के आने पर अपूर्वा पहली बार उनके घर आई. कुछ ही क्षणों में दोनों घुल-मिलकर बातें कर रही थीं.
"तुम्हारे मायके में कौन-कौन है?" बेला के पूछने पर उसने बताया, "मैं अपने मम्मी-पापा की इकलौती संतान हूं. मेरे जन्म के दो महीने बाद ही मेरी मां..!"
"ओह!" बेला ने सहानुभूतिपूर्वक कहा, तो अपूर्वा बोल पड़ी, "पापा ने मां-पिता बनकर पाला है मुझे. पिछले साल एक कार एक्सीडेंट में…" वो अनायास बिलख पड़ी थी.
"अरे, रो मत बेटी, ईश्वर की मर्ज़ी के आगे किसकी चली है?" बेला ने उसे गले से लगाते हुए कहा, तो वो उनसे लिपटकर बोली, "पता है आंटी… बचपन में पापा जब भी कहीं जाने लगते मैं रो पड़ती. कई बार मुझे बुखार हो जाता. तब वो कहते कि मैं कहीं भी जाता हूं, तो बस तुझ पर ही मेरा ध्यान लगा रहता है बिटिया. अरे, मैं तो सात समंदर पार से भी तेरे पास लौट आऊंगा. उन्होंने मुझे इतना स्नेह, इतना अपनापन दिया है कि आज भी वो प्रतिक्षण मेरी आत्मा में जीवंत हैं.
बचपन में वे एक गाना बार-बार गुनगुनाती रहती- सात समंदर पार से… गुड़ियों के बाज़ार से… अच्छी-सी गुड़िया लाना… गुड़िया चाहे मत लाना, पापा जल्दी आ जाना… उफ़! उनका इस तरह अचानक चले जाना, मुझे कई खंडों में तोड़ता है आंटी."
अपूर्वा के जाने के बाद बेला ने प्रो. सिद्धार्थ से कहा, "कितनी संस्कारी लड़की है. पिता के दिए संस्कार बार-बार झलक उठते हैं. इसे देखकर बार-बार एहसास हुआ, काश हमारी भी एक बेटी होती. बेटियां जीवन का अनमोल धन होती हैं."
"हां" प्रो. साहब गहन चिंतन में थे. उन्हें कई प्रश्नों के उत्तर की तलाश थी, आाख़िर क्यों और क्या ढूंढ़ती हैं अपूर्वा की आंखें उनमें? आज भी जाते-जाते उसने कितनी स्नेह भरी दृष्टि से उन्हें देखा था.
एक हफ़्ते के बाद एक सुबह अपूर्वा उनके घर आकर शाम को आने का निमंत्रण दे गई, "आप सब को आना होगा. आज पापा की बरसी है."
शाम को अपूर्वा के घर में प्रवेश करते ही वहां उपस्थित सगे-संबंधियों की आंखों में भी वही भाव आया, जो अपूर्वा की आंखों में कौंधता था, आश्चर्य मिश्रित. अपूर्वा की तरह वे भी स्तब्ध से रह गए थे. बड़े से हॉल में लोग बैठे थे. पूजा चल रही थी. मंत्रोच्चार हो रहा था और सामने बड़ी सी मेज पर फ्रेम जड़ी और फूलों की माला से सज्जित जो तस्वीर रखी थी. उसे देखकर उन्हें सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गए थे. बेला आश्चर्य से बोल पड़ी थी, "अपूर्वा के पिता तो…"
"आइए ना." विजय ने आदर से उन्हें बिठाया और अपूर्वा को बुलाने भीतर चला गया. प्रो. सिद्धार्थ सोच रहे थे, ओह, इसीलिए अपूर्वा मुझे देखकर… और मैं? पता नहीं पुरुष की सोच इतनी एकांगी क्यों होती है? कहां ये लड़की पितृतुल्य समझ रही थी. कहां मैं… हे भगवान! अजीब सी मनःस्थिति में खड़े वो शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे.
"आ गए आप?" अपूर्वा ने पहली बार उनके पांव छूकर कहा, तो बेला ख़ुशी से बोली, "तुम्हारे पिता तो…."
"हां, मैं कई बार इन्हें बताना चाहती थी कि आप मेरे स्वर्गीय पिता की प्रतिमूर्ति हैं, पर संकोच के कारण बता नहीं पाई. न जाने आप क्या समझ लें, मैं…" वो रो पड़ी थी.
"रो मत बेटी!" बेला ने आगे बढ़कर उसे बांहों में भर लिया था. अपूर्वा के मन का गुबार आंसुओं के साथ बहा जा रहा था.
"बचपन में एक दिन भी पापा के बिना रह नहीं पाती थी. उनके जाने के बाद रोज़ उन्हें ही दोष देती थी. कहते थे सात समंदर पार से भी लौट आऊंगा, जब भी पुकारोगी, तो क्यों नहीं लौटते पापा… क्यों झूठ बोलते रहे अपनी बेटी से? यथार्थ यही था कि वो सात समंदर क्या, इस दुनिया के भी पार चले गए थे, पर मेरी आत्मा इस सत्य को स्वीकार ही नहीं करती थी कि की मुझे छोड़कर जा सकते है. फिर इस घर में आई, तो इन्हें देखकर विश्वास हो गया कि पापा वापस लौट आए हैं." वो हिचकियों के साथ रो रही थी.

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"अरे बिटिया तू तो भाग्यशाली है, तुझे तो पापा के साथ मां भी मिल गई." बेला ने कहा, तो अपूर्वा मुस्कुराकर बैली, "चलिए खाना लग गया है."
प्रो. सिद्धार्थ पाठक भावविह्वल से खड़े थे. हे ईश्वर तेरा लाख-लाख धन्यवाद! इस उम्र में तूने जीवन का सबसे प्यारा रिश्ता देकर सबसे बड़ी कमी को पूरा कर‌ दिया.
"चलिए न अंकल!" अपूर्वा ने मनुहारपूर्वक कहा, तो वो बोले, "मैं एक शर्त पर खाना खाऊंगा."
"शर्त!" सब चौंक पड़े थे.
"हां! अभी से अपूर्वा मुझे पापा कहेगी, अंकल नहीं." वो मुस्कुराकर बोल पड़े थे.
"पापा!" अपूर्वा का आह्‌लाद से भरा स्वर फूटा.
"हां मेरी बिटिया!" उन्होंने भावविभोर होकर उसके सिर पर हाथ रख दिया था.
"अरे, तब तो आप हमारे नानाजी हो गए ना?" अनामय चहक उठा था.
"हां, ये नाना और मैं नानी मां!" बेला ने दोनों बच्चों को गले लगा लिया था. अपूर्वा के अधरों पर तृप्ति की असीम मुस्कान कौंध रही थी. नए मधुर रिश्तों में बंधकर ज़िंदगी खिलखिला सी उठी थी.

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