"… क्यों ऐसा हो जाता है जब तक अपनी कमी पता चलती है इतनी देर क्यों हो जाती है? घर भले ही थोड़ा बिखर जाए, पर अब लगता है बच्चे तो हों आसपास, बहुत याद आते हैं तीनों." दी की आंखें लगातार बरस रही थीं.
"वनजा, यह साफ़-सुथरा घर आज मुझे बहुत खाली लगता है." मैं क्या कहती, मेरी आंखें भी भीग चली थीं.
सात साल बाद मैं आस्था और जय के साथ पानीपत जा रही थी. इन सात सालों में एक-दो बार मैं अकेली तो आई हूं, पर इस बार दोनों की छट्टियां थीं, तो मैं ही ज़बर्दस्ती दोनों को साथ लाई थी. दोनों किसी भी तरह आने के लिए तैयार नहीं थे, पर मैं ही जिद पर अड़ी रही. मुंबई से किसी भी रिश्तेदार के घर जाने को तैयार ही नहीं होते. धीरे-धीरे सबसे कटते जा रहे हैं. इस बार शैलजा दी की तबीयत काफ़ी दिन से ख़राब चल रही है. मां ने भी कहा था कि छुट्टियों में ज़रूर आ जाऊं. मुझसे बारह साल बड़ी है शैलजा दी. दो बेटे विनय व अजय और बेटी तन्वी तीनों के विवाह के बाद दी और जीजाजी घर में अकेले ही रहते हैं. विनय विदेश में कार्यरत है, अजय बैंगलुरू में और तन्वी जयपुर में है. जीजाजी का बिज़नेस सालों से पानीपत में ही जमा है, इसलिए उनका तो कहीं और रहना असंभव ही है. तीनों बच्चे यदाकदा अपनी सुविधानुसार उनके पास आते-जाते रहते हैं.
मां सहारनपुर में रहती है. शैलजा दी की अस्वस्थता के चलते यही उनके पास आती रहती हैं. बस, इतना सा मायका है मेरा, मां और शैलजा दी, पिता रहे नहीं, भाई है नहीं. कई बार हिम्मत करके पानीपत जाने का मन बना तो लेती हूं, पर कभी ख़ुश होकर नहीं लौटी मैं. हर बार यही लगता रहा है कि किसी अपने के घर नहीं, किसी सख़्त वार्डन के कड़े अनुशासन और नियमों में रहकर लौटी हूं, सात साल पहले आस्था और जय मेरे साथ गए थे, दोनों ने उसके बाद जाने के नाम से ही हाथ जोड़ लिए.
उनका कहना था, "मौसी का घर है या किसी प्रिंसिपल का? कुछ छू नहीं सकते, अपने मर्ज़ी से उठ-बैठ नहीं सकते. हमें तो बख़्श देना मां. आप अकेली ही जाना." बच्चों की इसमें ग़लती है भी नहीं. एक नशा सा है साफ़-सुथरे घर का. विनय व अजय को भी मैंने घर में खुलकर मस्ती करते कभी नहीं देखा था. ये तो आज्ञाकारी, सीधे बच्चे ही रहे और आंख मूंदकर दी के निर्देशों का पालन करते रहे.
कभी मस्ती का मूड होता, तो उसका कमरा देखने लायक होता, बेतरतीब किताबें, उल्टा-सीधा बिस्तर… दी चिढ़-चिढ़कर घर सिर पर उठा लेतीं. मुझे आस्था और जय का स्कूल के बाद का अपने ड्रॉइंगरूम का हाल याद आता, तो हंसी आ जाती. एक बार दी मेरे पास मुंबई आई हुई थीं. आस्था-जय स्कूल से लौटे, तो उन्होंने अपना बैग डायनिंग टेबल पर रखा. सोफे पर बैठकर शूज़ उतारे और "थक गए…" कहते वहीं पसर गए. मैंने कहा, "हाथ-मुंह धो लो, लंच के लिए मौसी वेट कर रही हैं."
तभी दी ने कहा, "लंच तो बाद में भी हो जाएगा. चलो, तुम लोग पहले अपना सामान संभालो." पता नहीं दी को क्यों इंसान के सुख-आराम से ज़्यादा घर के निर्जीव सामानों को ज़्यादा व्यवस्थित देखने की आदत है. कई रिश्तेदार उनके घर जाने के नाम से मुंह बनाते हैं. कई बार तो मां ही परेशान हो जाती हैं.
टैक्सी ड्राइवर ने एक झटके से गाड़ी रोकी, तो मैं वर्तमान में लौटी. वह उतकर किसी से फोन पर बात कर रहा था. मैं आस्था और जय को देखकर मुस्कुराई, तो आस्था ने कहा, "यह आपने अच्छा नहीं किया मां. हमें साथ लाकर हमारी छुट्टियों में ही हमें सज़ा दे दी."
जय भी शुरू हो गया, "मम्मी, पिछली बार तो मैं बुरी तरह परेशान हो गया था. शुक्र है, तीन दिन ही रहना है. फिर तो नानी के पास चले जाएंगे बस, यही अच्छा है कि इस बार एक हफ़्ते का प्रोग्राम है. पिछली बार तो पंद्रह दिनों का पनिशमेंट था यहां रहने का. अभी गेट खुलते ही फ़रमान ज़ारी हो जाएगा, 'सफर के शूज़ हैं. बाहर ही रखना, पहले नहा-धो लो बाथरूम के ही स्लीपर पहनकर जाना, गीला टॉवेल तार पर सुखा देना… अरे, फ्लाइट से दो घंटे में पहुंच गए है. सुबह नहाकर ही चले थे ना, कितने गंदे हो गए होंगे हम…" उसका भुनभुनाना जारी रहा, तो मुझे हंसी आ गई, पर मैंने डपटा, "चुप रहो ख़बरदार जो मेरी बहन का मज़ाक उड़ाया."
"काश! पापा भी आते, वे हमारी परेशानी तो समझते. आप तो बस, चुपचाप मुस्कुराती रहेंगी."
"अच्छा हुआ अनिल नहीं आए. अभी तो दो हो. फिर तीनों मेरी बहन के साफ़-सुथरे घर पर कमेंट करते रहते." टैक्सी ड्राइवर आ गया, तो हम तीनों चुप हो गए.
दी गेट पर ही खड़ी हमारा इंतज़ार कर रही थीं. जीजाजी भी तैयार दिखाई दिए. जय ने दोनों के पैर छुए. दी ने हम तीनों को गले लगा लिया. शुरुआती कुशलक्षेम के बाद थोड़ी देर बैठकर जीजाजी ऑफिस निकल गए. आस्था और जय अपने शूज़ बाहर ही निकालने लगे, तो दी ने जब कहा, "रहने दो बच्चों, आ जाओ." तो हैरत का एक झटका लगा हम तीनों को. जय ने कहा, "मौसी, शूज़ गंदे हैं, हम सफ़र से आए है ना, फ़र्श गंदा हो जाएगा."
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"कोई बात नहीं बेटा, फिर साफ़ हो जाएगा." हम तीनों एक-दूसरे का मुंह ही देखते रह गए. हम तीनों फ्रेश होकर अपना-अपना बैग संभाल ही रहे थे कि दी ने कहा, "क्या कर रहे ही अभी से, आराम करो कोई जल्दी नहीं है. पड़ा रहने दो." आस्था ने मुझे इशारा किया, यह मौसी को क्या हो गया है.
घर में काम करने वाली राधाबाई के साथ मिलकर दी ने हमें बहुत प्यार से खिलाया-पिलाया. उसके बाद तो मैंने उनमें जो परिवर्तन देखे, मेरे लिए अचरज की बात थी. दी तो ऐसी कभी नहीं थी. न कोई रोक-टोक, न साफ़-सफ़ाई की सनक. बच्चे तो रोक-टोक ख़त्म होते ही मस्ती के मूड में आ गए थे. जय ने विनय के कमरे में अपना अड्डा जमा लिया था. जीजाजी सुबह-शाम हम सबके साथ भरसक समय बिताते. कुल मिलाकर सब अच्छा तो लग रहा था, पर दी की आंखों में कुछ था, जो मेरा मन दूषित कर रहा था. कुछ था उनके व्यवहार में जो मुझे कहीं छू रहा था.
यहां आकर इतनी बेचैन तो मैं कभी नहीं हुई थी. तब भी नहीं, जब सुबह से रात तक घर को साफ़-सुथरा रखने के निर्देश मिलते रहते थे. मुझे मां के पास भी जाना था, जो भी कुछ था जाने से पहले दी से जानना था. अनिल को भी बच्चों ने अकेले में दी के बदले व्यवहार की सूचना दे दी थी.
जाने से पहले रात को डिनर के बाद आस्था और जय ड्रॉइंगरूम में टीवी देख रहे थे. जीजाजी थोड़ा टहलने गए थे. दी बच्चों के कमरे में थी. मुझे लगा कि देख रही होंगी कि बच्चों ने कमरे में कितना सामान फैलाया है. मैंने सोचा, जाकर कमरा ठीक कर देती हूं और दी से बात भी कर लेती हूं. दी चुपबाप बेड पर बैठी हुई थी. उनकी पीठ थी मेरी तरफ़, सामने जय की बुक बेड पर ही रखी हुई थी. मैं झुककर बुक उठाने लगी, तो दी ने बेहद उदास स्वर में कहा, "रहने दे वनजा, अभी बच्चों को फिर ज़रूरत पड़ेगी."
"मुझे पता है वनजा, तुझे क्या पूछना है." मैं चुप रही, तो दी ने ख़ुद ही अपना दिल मेरे सामने खोल कर रख दिया, "तीनों अपनी राह चले गए वनजा. उनकी अब अपनी दुनिया है. तीनों को याद करते-करते पूरा दिन बीत जाता है." दी की आंखें बरसने लगीं, तो मेरा दिल भी उदास आंसुओं में डूबता चला गया.
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"कमरे में फैला हुआ उनका सामान याद आता है. बिस्तर की एक-एक सिलवट याद आती है. दिल चाहता है तीनों फिर आकर अपना सामान हर जगह फैला दें और अब मैं उन्हें कुछ न कहूं. मैने अपने बच्चों को घर के सहज वातावरण से दूर रखा है. बेचारे शायद मेरे स्वभाव के कारण कभी खुलकर जी नहीं पाए. उनके घर जाती हूं. देखती हूं कि तीनों अपने बच्चों को उन बातों के लिए भूलकर भी नहीं टोकते, जिनमें उनका बचपन शायद दबा रह गया.
विनय ने तो कहा भी, "मां, मेरे बच्चे जैसे भी रहे, मैं उन्हें कुछ नहीं कहूंगा, आख़िर घर है, किसी सख़्त वार्डन का हॉस्टल थोडे ही है, न कोई शोरूम है."
मुझे धक्का सा लगा था. यह क्या हो गया मुझसे. आज यह साफ़-सुथरा घर मुझे चिढ़ाता सा लगता है. लगता है कोई बच्चा आए, सामान फैलाए, घर थोड़ा बिखेर दें, नहीं तो सच में किसी शोरूम की तरह जहां कोई चीज़ रख देती हूं, वहीं रखी रह जाती है. इधर से उधर कोई कुछ हिलाने वाला नहीं है अब. क्यों ऐसा हो जाता है जब तक अपनी कमी पता चलती है इतनी देर क्यों हो जाती है? घर भले ही थोड़ा बिखर जाए, पर अब लगता है बच्चे तो हों आसपास, बहुत याद आते हैं तीनों." दी की आंखें लगातार बरस रही थीं.
"वनजा, यह साफ़-सुथरा घर आज मुझे बहुत खाली लगता है." मैं क्या कहती, मेरी आंखें भी भीग चली थीं. बस, एक ख़्याल ही आया. एक बार जाने के बाद वक़्त कभी नहीं लौटता. बस, यादें रह जाती हैं. दरवाज़ें पर चुपचाप खड़े आस्था और जय की आंखें भी नम हो गई थीं.
- पूनम अहमद
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