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कहानी- रोलर कोस्टर राइड (Short Story- Roller Coaster Ride)

“ज़िंदगी ऐसी ही है श्रावणी. कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप क्या योजना बना रहे हो. आप जान ही नहीं पाते कि जीवन आपके लिए क्या योजना बना रहा है? जब आपको हार का यक़ीन हो जाता है, तब आप अचानक जीत जाते हैं. जब आपको लोगों की ज़रूरत होती है, लोग आपको छोड़ देते हैं. रोते हुए जब आपके आंसू सूख जाते हैं अचानक आपको एक कंधा मिल जाता है. अक्सर जब हम उम्मीद खो देते हैं और लगता है यह अंत है, तब ऊपर से भगवान मुस्कुराते हैं- शांत रहो यह एक मोड़ है, अंत नहीं. ज़िंदगी एक रोलर कोस्टर राइड है..."

डोरबेल बजी. दरवाज़ा खोलने पर सामने खड़ी लड़की को देखकर एकबारगी तो मैं अचकचा गई. फिर पहचानने पर, “अरे श्रावणी तुम!” कहकर किलक उठी. वह भी हैरत से मुझे ही निहार  रही थी.

“मैडम, आप यहां कैसे?”

“मेरा घर है भई! तुम यहां कैसे?”

“ओह सॉरी! मैं तो दरअसल यहां नारायण शास्त्री टैरो रीडर से मिलने आई थी.” उसने  सामने वाले बंद दरवाज़े की ओर इशारा किया. 

“पता तो यही दिया था मुझे.”

“वे तो पिछले सप्ताह घर खाली कर गए.” मैंने बताया.

“कहां गए? कुछ पता है आपको?”

“नहीं, शायद यह शहर ही छोड़ गए हैं. अरे, तुम अंदर आओ ना. तब से हम यहां गर्मी में खड़े बतिया रहे हैं.”

“आप अकेली रहती हैं?” आंखों से खाली घर टटोलते उसने प्रश्न किया.

“हां, दोनों बच्चे यूएस सेटल हो गए हैं. मुझे भी बुला रहे हैं. मैंने बोला थोड़ा रिटायरमेंट का लुत्फ़  उठा लूं. फिर आऊंगी.” अंदर बुलाकर मैंने उसे ठंडा पानी पिलाया. उसके हाथ में पकड़ी कुंडली की ओर इंगित कर मैंने शरारत से पूछा, “शादी के लिए शास्त्रीजी को कुंडली दिखाने आई थी?”

“अरे नहीं.” वह झेंप गई.

“मैडम, मेरी इंजीनियरिंग पूरी हो गई है. प्लेसमेंट भी हो गया है.” 

“वाह बधाई हो!”

“थैंक्यू, पर मैं समझ नहीं पा रही हूं कि जॉब जॉइन करूं या अपना स्टार्टअप शुरू करूं?

स्टार्टअप के लिए एक मोटी रकम पापा देने को तैयार है. कुछ इन्वेस्टर्स ढूंढ़ने होंगे. पर इधर कुछ नए एंटरप्रीनयोरस को एकदम सड़क पर आता देख हिम्मत टूट रही है. कोई सुरक्षित भविष्य के प्रति आशान्वित कर दे, तो हिम्मत करूं.  परिवार, दोस्तों से ऐसी आशंका शेयर कर रही थी, तो एक कजिन ने शास्त्रीजी के बारे में सुझाया  कि उनकी गणना एकदम सटीक निकलती है.” अचानक उसकी नजर मेरी टेबल पर फैले कार्ड्स पर पड़ी.

“अरे टैरो कार्ड्स! मतलब आप भी टैरो न्यूमरोलॉजी जानती हैं. तो फिर अब तो यह काम आप ही को करना होगा.” उसने जबरन अपनी कुंडली आदि मेरे हाथों में थमा दी. मैं हक्की-बक्की रह गई.

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“आपको याद है मैम, स्कूल डेज़् में आप मेरी सबसे बड़ी मोटीवेटर थीं. मैं अच्छा लिखती थी. आपने मुझे अच्छी वक्ता भी बनने के लिए प्रोत्साहित किया. ज़बरन मेरा नाम वाद-विवाद प्रतियोगिता में लिखवा दिया.

“विनर ना सही, रनर अप बनने से तुम्हें कोई नहीं रोक सकता.” और मैं उस प्रतियोगिता में फर्स्ट रनरअप बनी थी. स्पोर्ट्स में भी मुझे आप ही ने भेजा. “स्कूल क्या श्रावणी, तुम डिस्ट्रिक्ट और स्टेट लेवल पर खेलोगी.” और मैं खेली थी.  आर्ट्स नहीं श्रावणी, तुम साइंस के लिए बनी हो.  तुम्हारा दिमाग़ रटने के लिए नहीं एक्सप्लोर करने के लिए बना है. और देखिए मैं इतनी विख्यात एनआईटी से इंजीनियर बन गई हूं.”

“वह ठीक है श्रावणी! पर मोटिवेट करना और भविष्यवाणी करना दो अलग-अलग चीज़ें हैं. यूं ही नहीं होती हाथ की लकीरों के आगे उंगलियां, रब ने क़िस्मत से पहले मेहनत लिखी होती है.” 

“मैं मेहनत से कहां इंकार कर रही हूं? आप ही ने तो सिखाया है किसी भी सफलता के पीछे 99 प्रतिशत मेहनत और एक प्रतिशत भाग्य होता है. मैं तो उस एक प्रतिशत में आपका सहयोग मांग रही हूं.”

“नहीं. तुम उल्टा कर रही हो. तुम तो उस एक प्रतिशत को ही सब कुछ मानकर आगे बढ़ना, न बढ़ना निर्धारित करना चाह रही हो. मैं तुम्हारे करियर  के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती. न मुझे कोई टैरो...” मेरी बात अधूरी रह गई वह वॉशरूम में घुस चुकी थी. मैं बुरी तरह झुंझला उठी.

‘यह लड़की कभी नहीं सुधरेगी. पहले भी ऐसे ही पूरी बात सुने बिना इधर-उधर हो जाती थी. जितनी मेधावी है, उतनी ही लापरवाह. बच्चों के उनो कार्ड्स को टैरो कार्ड समझ रही है. अरे, पड़ोस के बच्चे यहीं  मेरे साथ बैठकर उनो  खेलते रहते हैं. शाम को फिर आ जाएंगे...’ मेरी सोच को विराम लग गया, क्योंकि वह बाथरूम से बाहर आ रही थी.

“सॉरी, बहुत देर से घर से निकली हुई थी, तो रोक नहीं पाई. कुछ कह रही थी आप?” तभी उसका मोबाइल घनघना उठा. 

“हां भैया! नहीं शास्त्रीजी तो नहीं मिले, पर पहचान की दूसरी टैरो रीडर मिल गई हैं, जिन पर मैं आंख मूंदकर भरोसा कर सकती हूं. क्या पांच मिनट में पहुंच रहे हैं? ठीक है, मैं नीचे आ रही हूं.” उसकी बात ख़त्म हुई, तब तक मेरे अंदर की शिक्षिका जाग गई थी. मैं पूरी तरह उसे समझाने के मूड में आ गई थी.

“श्रावणी देखो, इतनी जल्दी स्टार्टअप खड़ा करना बहुत बड़ी रिस्क लेना है. कुछ सालों बाद इस बारे में सोचा जा सकता है.”

“कितने साल?”

“तीन साल बाद.”

“ठीक है.” उसने मेरे हाथ से अपनी कुंडली खींची और तीर की तरह बाहर निकल गई.

“इतनी जल्दी कैलकुलेट करके बताने के लिए धन्यवाद मैडम...” उसका उड़ता स्वर मेरे कानों में पड़ा, तो मैं बुरी तरह चौकी. यह लड़की क्या समझ बैठी है? कि मैंने कुंडली देखकर यह सब बताया है. अरे बेवकूफ़ मैंने तो एक अक्षर भी नहीं पढ़ा था उसका!.. मैं सिर पकड़कर बैठ गई. मेरे पास ना तो उसका मोबाइल नंबर था, न पता... मानो जागती आंखों से कोई सपना देखा हो.

साढ़े तीन साल के अंतराल के बाद एक बार फिर वैसे ही डोरबेल बजाकर वह धूमकेतु की तरह जाने कहाँ से प्रकट हो गई.  आश्चर्य, समय के इतने लंबे अंतराल में वह मुझे ना तो किसी मॉल में दिखी, न रेस्तरां में, न फेसबुक पर, न  इंस्टाग्राम पर. मैं सोचती थी दुनिया इतनी बड़ी है कहां से दिखेगी? पर उसे दरवाज़े पर खड़ा पाया तो यक़ीन हुआ कि दुनिया बड़ी होने के साथ-साथ गोल भी तो है. घूम-फिर कर एक दिन उसी जगह तो आनी है.

आज उसके संग उसके पापा भी थे. इस बार भी मैंने उसे उसके चेहरे की मासूमियत की बाबत एक बार में ही पहचान लिया. हालांकि शरीर पहले से ज़्यादा चुस्त और स्मार्ट हो गया था.  लेकिन उसके पापा बेहद ढीले और थके से लग रहे थे. बैठक में आते ही वे सोफे पर ढह से गए.  उनके हाथों में श्रावणी की कुंडली देख मेरा माथा ठनक गया.

“पापा की कुछ समय पूर्व ही बाईपास सर्जरी हुई है.” 

“ओह!” मैंने उन्हें सहारे के लिए एक कुशन और पकड़ा दिया.

“मैंने तो कहा था मैं अकेली ही मैम के यहां हो आऊंगी. डॉक्टर ने ज़्यादा से ज़्यादा रेस्ट और एक्साइटमेंट न लेने को बोला है, पर पापा माने ही नहीं.”

“श्रावणी आपकी बहुत तारीफ़ करती है और विश्‍वास भी बहुत है आप पर. इसलिए आपकी की गई गणनानुसार इसने ठीक तीन साल बाद ही अपना स्टार्टअप खोला. जो अच्छा चल रहा है.  साल भर पूर्व इसकी मां हमें अकेला कर गई.”

“ओह, आई एम सॉरी! श्रावणी, बताया नहीं तुमने कभी. फोन भी नहीं किया.”

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“बेचारी मुसीबतों से उबरे तब ना. पहले नौकरी की भागदौड़, फिर मां की जुदाई, इधर साथ-साथ स्टार्टअप का काम. तभी मुझे हार्ट अटैक, मेरी बाईपास... अब थोड़ा संभला हूं, तो इसके हाथ पीले कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहता हूं. तीन लड़के फाइनल किए हैं हमने मिलकर.  एक घर-परिवार की दृष्टि से बेहतरीन है, एक बहुत  संपन्न है, तो एक श्रावणी को अच्छे से समझनेवाला बंदा है. अपने टैरो न्यूमरोलॉजी के ज्ञान से आप जिस पर भी यस की मुहर लगाएगी हमें मंज़ूर होगा.” कहते हुए उन्होंने हाथ के काग़ज़ मुझे ज़बरन पकड़ा दिए. साथ में रुपयों का एक कवर भी था.

“हड़बडाहट में पिछली बार फीस भी रह गई थी.”  उन्होंने सफ़ाई दी.

“पर म... मैं...”

“पापा, आपकी  दवा का टाइम हो गया है. गाड़ी में हमारा टिफिन, दवा आदि रखा है. हम खा-पी कर आते हैं. तब तक आप आराम से देख लें. चलो पापा.” दोनों मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में छोड़ चले गए. मन हो रहा था चिल्ला पडूं कि ना तो मुझे न्यूमरोलॉजी आती है और ना मैं इसमें विश्‍वास करती हूं. शादी ज़िंदगी का अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील पहलू है. जिसके बारे में पर्याप्त सोच-विचार और पर्याप्त मेलजोल के बाद ही निर्णय लिया जाना चाहिए. तभी बेटे का फोन आ गया, “मम्मा, बहुत टालमटोल हो चुकी. अब आप यहां आने की तैयारी कर लो. थोड़े दिनों में वीजा लग जाएगा.”

“अरे, हर कोई ऑर्डर ही देता रहेगा या कोई मेरी इच्छा भी पूछेगा?” मैं चिल्ला पड़ी थी.

“क्या हुआ मम्मा? काम डाउन! सब ठीक तो है? किसकी बात कर रही हैं?”

“नहीं कुछ नहीं. मैं तैयारी करती हूं.” ठंडी-ठंडी सांसें लेते-छोड़ते मैं दिमाग़ ठंडा ही कर रही थी कि बाप-बेटी आ धमके.

“तो फिर क्या निर्णय लिया आपने?”

 “मैम, आपका काम थोड़ा आसान कर देती हूं.  मैंने अपने दिमाग़ में तीनों लड़कों का 1-2-3 नंबर फिक्स कर लिया है. आप बस मेरे लिए उपयुक्त नंबर बता देे.” श्रावणी बोली.

मैंने अपना सिर पकड़ लिया.

“इतने मनन-चिंतन की आवश्यकता नहीं है. तीनों लड़के क़ाबिल हैं. आप जो नंबर बताएंगी, उसी से कर देंगे. अच्छा एक नंबर कैसा लगता है आपको?” उसके पापा बोले.

“मुझे क्या मालूम कौन है एक नंबर? और कैसा है?” मैं झल्ला उठी. फिर तुरंत शर्मिंदगी भी महसूस की.

“अरे, नहीं... नहीं... मेरा मतलब लड़के से नहीं है. एक नंबर आपको कैसा लगता है?”

“जी, एक नंबर मतलब सर्वश्रेष्ठ. जैसे श्रावणी रही है पढ़ाई में एक नंबर, खेलकूद में एक नंबर, वाद-विवाद में एक नंबर...” 

“बस तो फिर एक नंबर फाइनल! चल श्रावणी, मैडम ने बता दिया.” बाप बेटी एक बार फिर मुझे भौचक्का छोड़ चलते बने. पर इस बार जाने से पूर्व श्रावणी ने मेरा पता, फोन नंबर सब ले लिया.  “शादी का कार्ड भेजेंगे, ज़रूर आइएगा.”

बड़े बेटे के पास न्यूयॉर्क में मेरा अच्छा समय व्यतीत हो रहा था. हां कभी-कभी भारत की स्मृति मन भारी कर देती. मन में लौटने की हूक सी उठती. ऐसे में एक दिन श्रावणी का कॉल आ गया. मैं उसकी शादी में नहीं जा पाई थी. उसके रोते हुए स्वर ने मुझे हिला दिया. 

“मैडम, एक बार फिर आपकी शरण में हूं. कार्तिक, मेरे पति को ब्रेन कैंसर डिटेक्ट हुआ है.  हम इलाज के लिए न्यूयॉर्क जा रहे हैं. उनकी कुंडली व्हाट्सएप की है. उनका ऑपरेशन कितना सफल रहेगा? प्लीज़ बताइएगा.”

“श्रावणी, बेटी रो मत. मैं न्यूयार्क ही हूं अपने बेटे के पास! हम मिलते हैं. भगवान पर भरोसा रखो.  सब अच्छा होगा.” मैं हॉस्पिटल उससे मिलने गई. उसके पति ऑपरेशन थिएटर में थे. वह मेरे सीने से लग फफक पड़ी.

“धीरज रखो. मैं तो ख़ुद दो दिनों से अपराधबोध से मर रही हूं. मैंने ही तो एक नंबर पर सहमति दी थी. अब ख़ुद पर ग़ुस्सा आ रहा है. क्यों नहीं खुल कर बोल पाई कि ना मुझे टैरो-न्यूमरोलॉजी आती है, न इसमें विश्‍वास है."

“वे कार्ड्स साधारण... उनो कार्ड थे.” श्रावणी शांत थी.

“क्या तुम्हें पता था?” मैं अविश्‍वास से उसे घूर रही थी.

“हां, यह सच है कि उस दिन आपके घर आना एक इत्तेफ़ाक था. किंतु उसके बाद आपसे अपनी हर बात पर स्वीकृति की मुहर लगवाना योजनाबद्ध था.”

“क्यों?” मैं थोड़ा रोष में आ गई थी.

"बचपन से दिमाग़ में एक मनोग्रन्थि बन गई थी कि आप मेरे लिए जो सही बताएंगी, वही सही सिद्ध होगा. उस दिन अचानक आपसे मिली, तो वही मनोग्रन्थि फिर सक्रिय हो गई. मैं ख़ुुद स्टार्टअप के लिए समय चाहती थी, ताकि एक रकम और अनुभव जुटा सकूं. उस पर किसी तरह आपकी हां करवा लेने पर मुझे तुष्टि मिली और मनोबल बढ़ गया. दूसरी बार पापा को साथ लाना आप पर मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ाना था. अपराधबोध आपको नहीं मुझे होना चाहिए और है भी. क्योंकि कार्तिक मेरे पति, वो एक नंबरवाला लड़का नहीं है. मन में मैंने कार्तिक को तीन नंबर पर रखा था. उससे अच्छी  कंपैटेबलिटी होने के कारण मैं उसे चाहने लगी थी. आपसे किसी तरह तीन नंबर के लिए हां करवाती. उससे पूर्व पापा ने जोश में एक नंबर के लिए हां करवा ली, जिसे मैंने चतुराई से मन ही मन बदल दिया. उसी की सज़ा भुगत रही हूं.”

“पर कार्तिक तुम्हें पसंद था, तो मुझसे पूछने की ज़रूरत ही कहां थी?”

“बताया ना, मेरी मनोग्रन्थि! आपकी हां-ना  पर अटूट अंधविश्‍वास!” श्रावणी फिर से रोने लगी थी. मुझे उस पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया.

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“ज़िंदगी ऐसी ही है श्रावणी. कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप क्या योजना बना रहे हो. आप जान ही नहीं पाते कि जीवन आपके लिए क्या योजना बना रहा है? जब आपको हार का यक़ीन हो जाता है, तब आप अचानक जीत जाते हैं. जब आपको लोगों की ज़रूरत होती है, लोग आपको छोड़ देते हैं. रोते हुए जब आपके आंसू सूख जाते हैं अचानक आपको एक कंधा मिल जाता है. अक्सर जब हम उम्मीद खो देते हैं और लगता है यह अंत है, तब ऊपर से भगवान मुस्कुराते हैं- शांत रहो यह एक मोड़ है, अंत नहीं. ज़िंदगी एक रोलर कोस्टर राइड है. वह राइड जो एक न एक दिन समाप्त होनी ही है. इसमें कभी हंसी है, कभी रुदन, कभी भय, तो कभी रोमांच...”

मेरी बात अधूरी रह गई, क्योंकि ओटी का गेट खुला और डॉक्टर ने आकर बताया कि ऑपरेशन सफल रहा. रोती हुई श्रावणी के चेहरे पर हंसी खिल उठी, जिसने मुझे भी हंसा दिया.

संगीता माथुर

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Photo Courtesy: Freepik

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