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कहानी: रिश्तों की कसक‌ (Short Story- Rishton Ki Kasak)

Lucky Rajiv
लकी राजीव

मालिनी ने बिना झिझके कहा, “आप उस दिन अपनी फैंटेसी बता रहे थे ना. यही सब तो था ना उसमें.. बॉन फायर, आप और मैं साथ…” कहते हुए मालिनी की आवाज़ कांपने लगी थी. समीर ने अपना चेहरा मालिनी के एकदम पास लाते हुए कहा, “तुम ये सब क्यों कर रही हो? मुझे ख़ुशी देने के लिए?”
मालिनी ने आंखें खोलकर समीर की आंखों में झांका, वही गहरी आंखें, उनमें तैरते लाल डोरे… आग से एक अंगारा उछल कर मालिनी के पास आ गिरा.

“वैसे अवैध संबंध का मतलब क्या होता है मैम?” स्टाफ रूम की दूसरी टेबल से आया पहला सवाल… मालिनी ने पलटकर देखा. हाथ में पेन फंसाए हुए समीर सर उसकी ओर एकटक देख रहे थे!
“अवैध संबंध… मतलब ऐसे ही किसी के साथ… बिना शादी…”
मालिनी ने अटककर बताया. समीर सर उठकर उसकी टेबल तक आ गए थे. कुर्सी खींचकर वहां बैठने की बजाय कुर्सी पर हाथ टिकाए खड़े रहे.
“शादी के बाद बने संबंध वैध होते हैं, ऐसा कह रही हैं आप? चाहे उनमें प्यार हो न हो!”
“समझ लीजिए सर, यही…”
स्कूल के नियम-क़ानून से बंधे, एक-दूसरे को सर, मैम कहते दोनों टीचर अपनी बात खुलकर रख ही नहीं पा रहे थे. आख़िर समीर ने झिझक का पर्दा उठा दिया, “मेरे हिसाब से तो वो हर संबंध अवैध है, जिसमें दो लोग पास तो हों, लेकिन साथ न हों.”
पूरा स्टाफ रूम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया था. कहने को तो बस सात आठ लोग ही थे उस समय, जिनमें से स़िर्फ मालिनी ने इस बात पर तालियां नहीं बजाई थीं.
“एक्सक्यूज़ मी.” कहते हुए मालिनी वहां से उठ खड़ी हुई थी.
पीछे सुनाई पड़ती तालियां मालिनी की हार पर समीर को मिलने वाली शाबाशी की तरह सुनाई दे रही थीं.
दिसंबर तीन हफ़्ते पार कर चुका था, चौथा हफ़्ता विंटर वेकेशन लेकर आया था और लगभग पूरा बोर्डिंग स्कूल खाली करवा चुका था. बच्चे घर जा चुके थे. बस कुल जमा आठ रेजिडेंशियल टीचर्स थे, जो बाकी बचे हुए दिन साथ बिताने वाले थे. बिल्कुल इसी तरह, जैसे आज का बीता था.
नहीं.. आज की तरह तो बिल्कुल भी नहीं.
अपने क्वार्टर में आते ही मालिनी ने सिर हिलाकर आज के दिन की, आज सुबह की बहस की उपस्थिति नकारनी चाही थी. क्या चुभा था सुबह वाली बहस में? उसकी बात समीर सर ने काट दी थी, ये? या फिर अपनी थ्योरी सुनाते समय जिस तरह समीर सर ने उसको देखा था, वो? या फिर वो यादें ज़्यादा नुकीली होकर चुभी थीं, जो इस थ्योरी के साथ ही ज़ेहन में ताज़ा हो गई थीं. पति की वो शिकायत, जो हर दिन सुनाई देती थी…

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“मालिनी.. तुम बोरिंग हो यार! तुम्हारा कभी भी मन नहीं करता? हमेशा मैं ही पहल करूं, ऐसा क्यों है? मूवीज़ में देखो न… कैसे सिड्यूस करती हैं हस्बैंड को कि बेचारा ऑफिस से आते ही बेचैन हो जाता है.”
आशीष की ऐसी बातें कभी-कभी नहीं, अक्सर घर में गूंजती रहती थीं.
“मूवीज़ की बात मत करो आशीष. मूवी में तो पति प्यार भी करता है बहुत. तुम तो सीधे मुंह बात भी नहीं करते.”
मालिनी के ऐसे जवाब भी घर की आबोहवा में फैले रहते. आशीष बांहें फैलाकर सरेंडर कर देता, “कम ऑन यार! वाइफ हस्बैंड में यही तो होता है प्यार… आओ ना प्लीज़…”
इस निमंत्रण को स्वीकारने के कई कारण मालिनी के पास होते. कभी लगता शादी इसी का तो नाम है, कभी लगता शायद इसी तरह पास-पास होने से, एक दिन साथ भी हो जाएंगे…
ग़लती मालिनी की ही थी. रात की नज़दीकी, सुबह तक भला कैसे टिकती? सुबह तक तो रात ख़ुद भी नहीं टिक पाती!
“तुम पढ़ी-लिखी होकर भी अनपढ़ औरत हो. पता है दिमाग़ कहां है? अब मैं समझूं, टेंशन होने पर तुम घुटने में दवा क्यों लगाती हो?”
सुबह होते ही आता ऐसा एक घटिया डायलॉग.. और रात होते ही फिर वही प्यार-मनुहार… मालिनी को अब जाकर समझ आया था, रात के काले और दिन के उजले होने का मतलब. दिन में सब कुछ साफ़ था, असली.. रात में सब कुछ ढका हुआ, स्याह, नकली.
“एक स्कूल टीचर की वेकेंसी है, सोच रही हूं अप्लाई कर दूं.”
एक दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर मालिनी ने जूस का ग्लास थमाते हुए, डरते हुए कहा था. आशीष ने बिना कोई ख़ास रिएक्शन दिए हुए कहा था, “मत सोचो! बेबी प्लान करते हैं. घर में सब पूछ रहे हैं.”
मालिनी कटकर रह गई थी. इतना नाटक किसलिए? घर में झूठ बोलते रहो, लेकिन अपनी पत्नी से भी नाटक? बेबी के बारे में सोचते हुए एक साल हो गया. मालिनी की सारी रिपोर्ट्स ठीक आईं. आशीष ने टेस्ट करवाए ही नहीं, क्यों नहीं करवाए?
“तुमने घर में बताया नहीं कि हम लोग काफ़ी दिनों से ट्राई कर रहे हैं.”
“क्या बताता मैं… कि तुम बच्चा नहीं कर पा रही हो?”
“मैं नहीं कर पा रही हूं? मेरी तो सारी रिपोर्ट्स सही आई हैं. तुमने तो टेस्ट तक नहीं करवाया.”
“मेरे टेस्ट करवाने से क्या होगा? प्रॉब्लम तुममें है. जिस तरह बिना मन के तुम एक प्रोसेस की तरह सब निपटाती हो, वैसे नहीं होंगे बच्चे. लाश की तरह पड़ी रहती हो बेड पर.”
आशीष ने जूस की ग्लास वहीं ज़मीन पर दे मारी थी, कांच की किर्चें कहां-कहां नहीं फैलीं. ज़मीन पर, पायदान पर, चप्पल पर… रिश्ते पर, मन पर…
उसके बाद आए दिन कुछ न कुछ टूटा. कभी कप, कभी प्लेट, कभी टीवी रिमोट, कभी मोबाइल फोन, फिर एक दिन मालिनी का हाथ!
“पापा, मुझे आकर ले जाइए.”
मालिनी ने सौ नंबर मिलाने की बजाय मायके का नंबर मिला दिया. ये ग़लती उससे उस दिन हुई थी, जिसका एहसास एक हफ़्ते बाद हुआ था. पापा ने मायके की भीड़भाड़ से बचते हुए छत पर ले जाकर मालिनी को समझाया था, “बेटा, आशीष का फोन आया था. वो बहुत शर्मिंदा है. कल लेने आ रहा है. ख़ुश होकर जाओ अपने घर.”
मालिनी ने एक नज़र अपने टूटे हाथ पर लगे प्लास्टर की ओर देखा था, दूसरी नज़र से पापा की आंखों में फैली बेबसी को.
“अपने घर जाऊंगी पापा, जल्दी जाऊंगी… एक बोर्डिंग स्कूल में रेजिडेंशियल टीचर के लिए अप्लाई किया था. रिटन एग़्जाम क्वॉलिफाई कर लिया है. इंटरव्यू में भी हो जाएगा.”
पापा ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला था, शायद कहा भी था. मालिनी तुरंत सीढ़ियों की ओर बढ़ आई थी.
एक के बाद एक सारे मकान छूट रहे थे. वो सब जो पहले घर लगते थे. फिर यहां बोर्डिंग स्कूल आते ही जो क्वार्टर मिला, वो ही सही मायने में घर लगा.

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आते ही पहला काम किया था, आशीष को तलाक़ का नोटिस भिजवाना और दूसरा काम किया था, पापा को मैसेज करना- “पापा, आप चिंता मत कीजिएगा. आज मैं अपने घर आ गई हूं, ख़ुश होकर.”
उस दिन के बाद से अतीत में घुसकर कभी नही झांका. वो अलग बात थी कि हर दिन बीता हुआ कोई पल आकर मन का दरवाज़ा खटखटाता ज़रूर रहा. मालिनी वो दस्तक अनसुनी करती रही, लेकिन आज हुई वो स्टाफ रूम वाली घटना… जैसे सारी खिड़कियां खोलकर बीते पलों को खींचकर भीतर ले आई थी.
वही सब सोचते हुए शाम घिर आई थी. सारी लाइट्स बंद थीं… सब कुछ काला, घना काला. इसी बीच किसी ने दरवाज़ा भी खटखटाया. मालिनी चुपचाप उसी तरह बेड पर लेटी रही. होगी कोई टीचर. मेस में चलकर चाय पीने के लिए बुलाने आई होगी. मालिनी ने फोन भी साइलेंट पर कर दिया. फोन भी तो मनमौजी है. जब चाहो कोई फोन कर ले, तब बजता ही नहीं और जब सन्नाटा ओढ़े लेटे रहो, तब लगातार फोन आते हैं, एक के बाद एक…
शाम की ठंडक रात तक पहुंचते-पहुंचते दुगुनी हो गई थी. मालिनी ने पैर से छूते हुए कंबल ढूंढ़ा, बेड पर था ही नहीं. किसी तरह उठकर बाहर कमरे तक आई, तब लगा कोई फिर से दरवाज़ा खटखटा रहा था.
“हां शांता, बोलो…”
“मैडम आपको सब बुला रहे हैं खाना खाने के लिए. शाम की चाय पर भी आप नहीं आईं, मैं आई थी बुलाने.”
खाना? इस समय? मालिनी ने आंख मिचमिचाते हुए घड़ी देखी, साढ़े आठ? ये कब बज गया?
“तुम चलो, मैं आती हूं, बस पांच मिनट में.” हुलिया ठीक करके मेस तक पहुंचते-पहुंचते पौने नौ हो ही गए थे. कुल दो लोग बचे थे वहां, प्रीति और गिरीश, जिनसे बात करते समय प्रीति मैम और गिरीश सर कहना पड़ता था. वैसे ये रूल भी ठीक है इस बोर्डिंग स्कूल का, एक लिहाज़ है जो बना रहता है.
“आइए मालिनी मैम, आपने तो हम लोगों को डरा ही दिया था. फोन नहीं उठा रही थीं, डोरबेल बंद थीी. शांता कितने बार बुलाने गई. इस बार दरवाज़ा नहीं खुलता, तो पुलिस को बुला लेते.” गिरीश ने चिढ़ाते हुए कहा, मालिनी चिढ़ ही गई.
“पुलिस को क्यों बुलाते आप गिरीश सर? अपने घर में आराम से सोना कोई क्राइम है क्या?”
सुधीर ने मुस्कुराते हुए कोने में इशारा किया, “अरे, मैं नहीं बुलाने वाला था. उधर देखिए, उनकी हालत ख़राब हो रही थी. वही बार-बार भेज रहे थे शांता को.”
गिरीश के इशारा करते ही प्रीति भी हंसने लगी थी. मालिनी ने मुड़कर देखा, कोने में बैठे समीर खाना खाते हुए झेंप गए, “मुझे लगा कि आपकी तबीयत तो नहीं बिगड़ गई कहीं?”
“आपको ऐसा लगा, तो डॉक्टर भेजने के लिए सोचते. पुलिस क्यों बुलाने वाले थे?” मालिनी ने कड़वाहट शब्दों में लपेटकर फेंक दी थी. सुबह वाली बात अब तक ताज़ा थी, मालिनी और गिरीश के बीच भी. पूरे स्टाफ के बीच भी! गिरीश और प्रीति बहाने से उठ खड़े हुए थे, थाली लिए मालिनी को झक मारकर वहीं बैठना पड़ा था.
“क्या मैं यहां बैठ सकता हूं मैम?”
समीर ने लगभग बैठते हुए पूछा था. मालिनी बिना उनकी ओर देखे चुपचाप खाती रही. कसैला मन खाने को बेस्वाद साबित कर चुका था.
“मालिनी मैम, आप सुबह वाली बात पर नाराज़ हैं?”
“नहीं, आप अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र हैं सर.”
“फिर आपके चेहरे पर ग़ुस्सा किस बात को लेकर है?”
मालिनी इस सवाल का जवाब देते हुए रुक गई! क्या थी असली वजह? ये कि बिन बुलाए मेहमान की तरह वो उस बोल्ड चर्चा में कूद पड़े थे या फिर उनका जवाब मालिनी का अतीत कुरेद कर घाव को फिर से मवाद से भर गया था… या फिर कोई तीसरा कारण भी था? शायद वही थी असली वजह… जो अब भी उन दोनों के बीच मौजूद थी.
मालिनी एक अजीब सा खिंचाव महसूस करती थी. समीर को देखना, उनसे बातें करना… सब कुछ एक उजड़े पेड़ पर नई पत्तियों के आने जैसा लगता था. समीर उसका ध्यान कुछ इस तरह रखते जैसे उसके मन पर लिखा फ्रैजाइल उनको दिखता रहता हो, फिर उस स्टूडेंट का सुसाइड केस, मालिनी के साथ हर कदम पर खड़े समीर को सबने देखा था. रिश्ता कीमती था… लेकिन कुछ और भी था, जो मालिनी को बर्दाश्त ही नहीं हो पाता था. समीर का जब तब मालिनी की सुंदरता को लेकर टिप्पणी करना. अक्सर ऊपर से नीचे तक घूरते रहना और कभी-कभी आंखों में अजीब से लाल डोरे लिए मालिनी की आंखों में देखना. मालिनी इतनी असहज हो उठती थी, जैसे सबके सामने उसके कपड़े उतार दिए गए हों.
“एक्सक्यूज़ मी.” कहकर मालिनी अपनी प्लेट लेकर उठ खड़ी हुई.
“आपने नाराज़ होने की वजह नहीं बताई मालिनी मैम.”
उस खाली मेस में समीर की आवाज़ गूंज गई. मालिनी ने झूठ बोलने के लिए वजह नंबर एक चुनी, “हम टीचर्स अपनी बातों में उस समय किसी और को शामिल नहीं करना चाह रहे थे, ख़ासकरकिसी मेल टीचर को… आपका अचानक बोल पड़ना, अच्छा नहीं लगा.”
उनको एक वजह थमाकर मालिनी तुरंत अपने क्वार्टर वापस आ गई थी. उसको समीर की आंखें चुभती रहीं अपनी पीठ पर… मेस से बाहर निकलते हुए भी, घर आकर बिस्तर पर लेटते हुए भी.
मालिनी ने अपने मन को टटोला, रुकना चाहिए था ना थोड़ी देर और वहीं मेस में… कोई नहीं था, थोड़ी देर और साथ व़़क्त बीतता. लेकिन क्या पता फिर वही सब शुरू हो जाता. समीर की वही बातें शुरू हो जातीं, जिन बातों में बेहद खुलापन था… हालांकि ये शब्द किसी और टीचर ने उनको दिया था. मालिनी ने इसको किसी और तरह से परिभाषित किया था, “समीर सर कितनी घटिया बातें करते हैं.”

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मालिनी को बिस्तर पर लेटते ही उनकी बातें याद आने भी लगी थीं. सर्दियां शुरू होते ही क्या बोले थे, “ये बेस्ट मौसम है… आ गले लग जा टाइप.” उनके इस मज़ाक पर कुछ टीचर्स ठहाका मारकर हंस पड़े थे. कुछ झेंपते हुए मुस्कुरा दिए थे. मालिनी इन दोनों श्रेणियों में नहीं थी. उसको इस तरह की किसी बात पर हंसी कैसे आती, जिस बात पर उसके जीवन में टूटन आनी शुरू हुई. उसके पति की सारी शिकायतें यहीं से तो शुरू हुई थीं, “कोई इंटरेस्ट नहीं तुमको… कितनी बोरिंग हो…कोई तमीज नहीं है, कैसे कब क्या करना है, बेवकूफ़ औरत.”
बात बिस्तर से शुरू होकर, दिमाग़ तक जाती थी. कभी अक्ल नापी जाती थी, कभी शक्ल में कमी बताई जाती थी. हर बात की जड़ में यही सवाल था. हर लड़ाई का यही एक कारण था.
“तुमको ये सब अच्छा नहीं लगता क्या?”
मालिनी ने हर कोशिश की. हर उपाय, टोटका, नुस्ख़ा. सब कुछ अपनाया. फलाना बाबा की जड़ी-बूटी से लेकर, दीदी के गिफ्ट दिए हुए पिंक गाउन तक सब कुछ आज़माया तो गया ही था, लेकिन बात बनी ही नहीं.
मालिनी एक बार फिर बेचैन होने लगी थी. हर आदमी एक ही कसौटी पर तौलना जानता है क्या? पति ने तो बीमार तक कह दिया था, “आपकी बेटी को कुछ प्रॉब्लम है, दिखाइए कहीं. शादी लायक़ नहीं थी ये. इलाज करवाइए.”
बस वही बात जो अटकी, तो फिर वहीं अटक कर रह गई थी. ठीक वहीं अटकी रही, मन के एक कोने में. शारीरिक संबंधों के नाम से ही उलझन होने लगी. उनको लेकर किसी भी मज़ाक से घिन आनी शुरू हो गई और अगर कोई इन सबका हिमायती बन जाए, तो फिर उस इंसान से चिढ़ होने लगी. इसी बीच स्कूल में आए इस नए टीचर से परिचय हुआ, जिनको इस टॉपिक के अलावा किसी और बात में कोई इंटरेस्ट ही नहीं था. जब भी कोई ऐसी चर्चा छिड़ती, मालिनी के लिए एक-एक पल काटना मुश्किल होने लगता था. इन सबसे बेख़बर समीर की बातें उसी तरह चलती रहती थीं और साथ चलते थे बाकी टीचर्स के ठहाके.
“तो पति जैसे ही मॉर्निंग वॉक से वापस लौटा, उसने देखा कि पत्नी तो किसी के साथ…”
अपने ही किसी जोक पर ख़ुद ही लोटपोट होते समीर सर को देखकर मालिनी बड़ी तेज खिसिया गई थी. अपना सामान स्टाफ रूम से उठाकर, बाहर धूप में आकर काम करने लगी थी.
“आई एम फीलिंग ऑफेंडेड…” समीर ने बगल वाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा था, मालिनी ने चौंककर देखा.
“अब मैंने ऐसा क्या कह दिया?”
“आप अंदर आ रही थीं, मुझे वहां देखकर आप बाहर आकर बैठ गईं.”
“ऐसा कुछ नहीं है सर, मुझे धूप में बैठना अच्छा लगता है.”
मालिनी को लगा बात बढ़ाने से अच्छा है, टालकर बात ख़त्म की जाए और यह कुर्सी इनसे खाली करवाई जाए.
समीर थोड़ा और डटकर बैठ गए थे, “खुलकर बात करें मालिनी मैम? हमको यहीं साथ में काम करना है, इसी स्कूल में… लंबे समय तक…”
मालिनी ने हाथ में लिया पेन, टेबल पर रख दिया था, “एक्चुअली मुझे बहुत ज़्यादा हंसी-मज़ाक चलता नहीं… मतलब, आप समझ रहे होंगे.”
“नहीं, मैं नहीं समझ रहा हूं.” समीर ने जिस तरह मालिनी के चेहरे पर नज़रें गड़ाए हुए यह बात कही थी, मालिनी के लिए समझाना थोड़ा और मुश्किल हो गया था.
“मतलब वो नॉन वेज जोक्स… वही सब बातें, कंफर्टेबल फील नहीं करती हूं.”
समीर ने एक पल ठहरकर कहा था, “कोई ख़ास वजह है क्या?”
मालिनी के कान तपकर लाल हो गए थे, “नहीं, कोई वजह नहीं, बस पसंद नहीं.”
समीर ने कुर्सी से उठते हुए बारूद में तीली छुआ दी थी, “नापसंद होने की तो वजह ज़रूर होती है. ढूंढ़कररखिएगा, पूछूंगा फिर कभी…”
हर बीतते दिन के साथ आनेवाला अगला दिन थोड़ा और छोटा होता गया, रात लंबी होती गई. सर्दियां थोड़ी और रूखी होती गईं. होंठ खुरदुरे, नाक लाल और मन थोड़ा और बेस्वाद होता गया.
समीर की निगाहें मालिनी के चेहरे पर पता नहीं क्या ढूंढ़ती रहतीं? मालिनी वो सब कुछ छुपाती रहती… जो ढूंढ़ा गया वो भी, जो नहीं ढूंढ़ा गया वो भी.
“ट्रुथ और डेयर.” उस रात खाना खाने के बाद समीर ने ही सुझाव दिया.
सभी टीचर्स ने तालियां बजाकर सहमति जताई, मालिनी ने शॉल थोड़ा और कसकर लपेट लिया.
“मैं नहीं खेलूंगी. ये बच्चों वाला खेल है.”
समीर ने टेबल पर बोतल घुमाते हुए कहा, “बिल्कुल नहीं… सच बोलना और हिम्मत दिखाना, हर उम्र के लिए चैलेंज है.”
घूमती बोतल बारी-बारी सबके सामने रुकी. प्रीति ने अपने बचपन का कोई राज़ बताया, मालिनी ने ढेर सारी हरी मिर्च खाकर अपनी हिम्मत साबित की. समीर के आगे बोतल रुकते ही गिरीश ने चिल्लाकर कहा, “मैं पूछूंगा… बताइए समीर सर, ट्रुथ या?”
“सच का साथ दूंगा भाई. पूछो सवाल.”
समीर ने हंसते हुए सबकी ओर देखा, गिरीश ने आंखें नचाते हुए पूछ लिया, “सेक्सुअल फैंटेसी बताइए सर. क्या सोचते हैं?”

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सारी टीचर्स ने आंख फाड़कर गिरीश को देखा था.
मालिनी के पूरे शरीर में झुरझुरी फैल गई थी. कितना बेहूदा सवाल था… पूछा भी किससे गया था, सवाल से भी ज़्यादा बेहूदा जवाब आएगा. समीर ने आंखें बंद करके कुर्सी पर सिर टिका लिया था. मालिनी की हथेलियां पसीज गई थीं. कुछ बहुत ख़राब सुनाई देने वाला था शायद.
“फैंटेसी? हम्म्म… यही है कि सामने बोनफायर हो, बगल में बीयर की बॉटल हो, और उसकी बांहों में रात बीते, जिससे मुझे बेहद मुहब्बत हो…”
समीर ने आंखें खोलकर सबको देखा था, सब जैसे एक ट्रांस में थे… चुपचाप! किसी तरह वो गेम ख़त्म हुआ था, लेकिन वापस क्वार्टर की तरफ़ आते हुए पता चला कि कुछ बाकी रह गया था.
“मालिनी!”
सीढ़ियों के पास वाले झुरमुट से समीर की आवाज़ आई थी, जैसे छुपकर खड़ा हो. ताला खोलते हुए मालिनी के हाथ रुक गए, “आप, यहां?”
“चाय पिला देंगी? मेस में सब सो गए होंगे. मेरे पास चायपत्ती नहीं है.”
दो-तीन बेमतलब के बहाने लिए, समीर सर रात के दस बजे चाय स़िर्फ पीने तो नहीं आए थे, लेकिन मालिनी चाहकर भी नहीं टाल पाई. अंदर आते व़क्त पहला सवाल ये आया, “मेरे इस तरह यहां आने से कंफर्टेबल हो?”
मालिनी ने भी खुलकर बोलना बेहतर समझा था, “आप सचमुच चाय पीने आए हैं?”
“नहीं… वो वजह जानने आया हूं, जो तुमसे उस दिन पूछी थी. बताओगी नहीं मुझे?”
समीर की गहरी आंखों का मालिनी के चेहरे पर कुछ ढूंढ़ना और सीधे तुम पर आकर साधिकार ये सवाल पूछ लेना. मालिनी की आंखें भर आई थीं.
“डिवोर्स का यही रीज़न था. मैं, वहां.. मतलब, फिज़िकली बहुत इन्वॉल्व्ड नहीं थी…” ज़मीन पर रखे पायदान को देखते हुए मालिनी किसी तरह इतना ही बोल पाई थी. समीर की आवाज़ जैसे किसी गहरे कुएं से आती हुई सुनाई दी, “तो इस बात के लिए अपने को गिल्टी मानती हो?”
“पता नहीं… शायद हां… मेरे ऊपर सारे ब्लेम डाले गए कि नॉर्मल नहीं हूं, बीमार हूं…” मालिनी की दोनों आंखों से निकले आंसू गाल भिगोने लगे थे. समीर के आगे स्टाफ रूम वाली बात कौंध गई थी.
“इसीलिए मेरी बात इतनी ख़राब लगी थी? अवैध संबंध, बिना प्यार वाली बात?” समीर ने अपना रुमाल आगे बढ़ाते हुए पूछा था. मालिनी ने हामी भर दी थी.
“तुम रो लो. ज़रूरी है. मन की बात बाहर निकल जाए, तो ये गिल्ट भी बाहर निकाल देना. तुम नॉर्मल हो, शायद उस रिश्ते में प्यार था ही नहीं, तभी तुम पूरी तरह जुड़ नहीं पाई. बीमार तुम नहीं, वो रिश्ता बीमार था.”
वो रात मालिनी ने अकेले नहीं बिताई, समीर चले गए थे. महक अब भी कमरे में थी. उनके रूमाल में बसी हुई!
मालिनी ने रूमाल की महक कितनी ही बार महसूस की, रात में भी… सुबह भी, और फिर तकिए में मुंह घुसाकर, बहुत देर तक हंसी थी. उसके बाद से अक्सर हंसने लगी थी. पिछला काफ़ी कुछ मैला धुलकर धवल होने लगा था. कुछ अभी भी स्याह था.
“सब लोग मिलते हैं थोड़ी देर में… न्यू ईयर का वेलकम बॉन फायर और म्यूज़िक के साथ करते हैं.”
समीर का आइडिया किसी और को पसंद नहीं आया था, इकत्तीस दिसंबर की शाम थी, सब बाहर जाने का प्लान बना चुके थे. बस मालिनी ने आसमान देखते हुए कहा था, “गुड आइडिया! लेकिन कहां बैठेंगे? इतनी ठंड होती है रात में, ओस गिरती है.”
“मेरे ही घर में बैठते हैं. बाहर बरामदे में टीन शेड है, ओस नहीं गिरेगी आपके ऊपर.”
मालिनी की आंखों में झांक कर कही गई यह बात स़िर्फ ओस के लिए नहीं थी, अवसाद के लिए भी थी. सब कुछ तो ढक लिया था समीर ने, कुछ भी तो नहीं छू पाता था अब मालिनी को… न अतीत की ठंडी हवा, न ही मन की किसी ग्रंथि में उभरी टीस.
मालिनी और समीर ने मिलकर तैयारी की, खाना मंगाया, आग में आलू खोंसे. थोड़ी ही देर में लपटें ऊंची हो गई थीं. आग तापती मालिनी का चेहरा हर बीतते पल के साथ और लाल होता जा रहा था. कुछ उड़ते अंगारे उसकी ओर बढ़ रहे थे. धुआं भी…
“मालिनी, इधर आकर बैठ जाओ. हवा इस तरफ़ है, तुम्हारी आंखों में धुआं जा रहा है.”
समीर ने पनीली आंखें देखकर धुएं को दोषी माना, लेकिन बाद में पता चला वो कुछ और था.
“तुम रो रही हो?”
“आशीष की एक बात याद आ गई. उसने मेरे पापा से कहा था कि मुझे किसी डॉक्टर को दिखाएं, मैं बीमार हूं… मुझे कुछ फील नहीं होता, मैं कभी पहल नहीं कर पाई, कभी फिजिकली इन्वॉल्व नहीं हो पाई. आज वो सब झूठ लग रहा है, बस आपकी बात सच लग रही है.”
“कौन सी बात सच लग रही है?”
“वही बात कि पास आना मुश्किल नहीं था… लेकिन बिना मन मिले, शरीर मिलना मुश्किल था…” मालिनी फफक कर रो पड़ी थी, समीर ने तुरंत रोक दिया था, “मत याद करो ना वो सब. इस समय क्यों याद कर रही हो उसको, हम साथ हैं. देखो ना सब कुछ कितना रोमांटिक है.”
मालिनी ने समीर के सीने में सिर गड़ाए हुए कहा, “तभी तो सब कुछ याद आ रहा है.”
“मतलब?”
समीर ने हथेलियों में उसका चेहरा ऊपर उठाते हुए पूछा.
मालिनी ने बिना झिझके कहा, “आप उस दिन अपनी फैंटेसी बता रहे थे ना. यही सब तो था ना उसमें.. बॉन फायर, आप और मैं साथ…” कहते हुए मालिनी की आवाज़ कांपने लगी थी. समीर ने अपना चेहरा मालिनी के एकदम पास लाते हुए कहा, “तुम ये सब क्यों कर रही हो? मुझे ख़ुशी देने के लिए?”
मालिनी ने आंखें खोलकर समीर की आंखों में झांका, वही गहरी आंखें, उनमें तैरते लाल डोरे… आग से एक अंगारा उछल कर मालिनी के पास आ गिरा.
उसने समीर के होंठों पर अपने होंठ सटाते हुए कहा, “आपको ख़ुश करने के लिए नहीं, अपने आपको बताने के लिए.. कि मैं बीमार नहीं हूं!”

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