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कहानी- रेत का घरौंदा (Short Story- Ret Ka Gharounda)

मुझे लगा जैसे शिवांगी ने अपनी बंबई वाली बात फिर याद करवाई है. रात के खाने के बाद मैंने नरेन को होटल नहीं जाने दिया. घर पर ही रोक लिया. उस रात मैंने शिवांगी की चूड़ियों की लाज रख ली थी और उसकी ऐसी सहेली बन गई, जो उसके पति के काम आ सके. नेल्सन से अलग होने के बाद मैंने पहली बार किसी मर्द के शरीर को छुआ था. दोनों को एक विचित्र सी तृप्ति का एहसास हुआ था. मन में किसी पाप का एहसास नहीं था.

आज फिर वही हुआ. यह मेरे साथ ही क्यों होता है? जीवन के कटु अनुभवों से भी कुछ नहीं सीख पाई हूं मैं. बार-बार जीवन से नई उम्मीदें लगा बैठती हूं. जब-जब उम्मीदों की चादर में छेद हो जाते हैं, मैं एक बार फिर रेत के घरौदे बनाना शुरू कर देती हूं…. यह भी भूल जाती हूं कि प्रारब्ध कितनी बेरहमी से रेत के घरौंदों को तोड़ देता है.
नेल्सन से नरेन तक का सफ़र मेरी पिछली दस वर्षीय ज़िंदगी का लेखा-जोखा है. नेल्सन..! जीवन से भरपूर, जीवन के छोटे से छोटे पहलू को भी जीना जानता था. पैसे की कोई कमी नहीं थी. पांच बेडरूम का घर, लंदन शहर के बीचो बीच. बेडरूम की खिड़की से ही पूरा ग्रीन पार्क दिखाई देता था. गर्मी की दोपहरी में चमकता, हरियाली से भरपूर, ग्रीन पार्क. कितनी यादें जुड़ी हैं इस पार्क से. तब मैं उन्नीस की रही होऊंगी या फिर बीस की. वैसे इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है.
नेल्सन कहीं भी अपने प्यार का इज़हार करने में शर्म महसूस नहीं करता था. फिर चाहे पार्क हो या सड़क. लंदन में पैदा होने और गोरी चमड़ी का मालिक होने का एक यह भी तो लाभ है. मैं पंजाब के एक छोटे से गांव में जन्मी. अब तो सिर्फ़ नाम ही याद है. नकोदर… न जाने कैसा लगता होगा देखने में. कुछ महीनों की ही तो थी जब बाऊजी और बीजी मुझे और मेरे दोनों भाइयों को लेकर लंदन चले आए थे. दोनों भाई उम्र में मुझसे काफ़ी बड़े हैं. बड़ा महेश तो दस वर्ष बड़ा है और सोमेश उससे तीन वर्ष का छोटा है.
ज़ाहिर है घर की सबसे छोटी सदस्या मैं ही थी. सब का प्यार जैसे मेरे लिए आरक्षित था. सब की लाडो थी मैं. घर में शायद ही किसी को याद होगा कि मेरा कोई नाम भी है. सब मुझे लाडो ही कहकर बुलाते थे. दीपा तो किसी को याद ही नहीं रहता था.
बहुत सी बातों को याद न रखना अच्छा रहता है. अब नेल्सन को मिलने से पहले मेरे जीवन में ऐसा क्या था जिसे मैं अपनी याद में सहेज कर रखूं? हां, उन दिनों बहुत अच्छा लगता होगा कि बाऊजी और बीजी अपनी लाडो की ज़िद पूरी करने के लिए कैसे आपस में झगड़ पड़ते थे. पर बचपन के साथ ही यादें भी उड़न छू हो गईं. भाई कैसे अपनी बहन के नाज नखरे उठाते थे, मेरे लिए यह भी इतिहास की बात हो गई. आज की हालत तो यह है कि उन्हीं भाइयों की शक्ल देखे भी वर्षों बीत गए हैं. समय को रोककर, सहेज कर आलमारी में बंद करके तो रखा नहीं जा सकता.
नरेन हमेशा जीवन की व्याख्या बड़े खूबसूरत ढंग से करता है. कहता है, इंसान का जीवन पहले से रिकॉर्ड किए वीडियो कैसेट की तरह होता है. वी.सी.आर. में केवल प्ले करने का बटन है. रिवाइंड और फास्ट फारवर्ड के बटन हैं ही नहीं. जीवन जैसा है, वैसा ही जीना पड़ता है. आप सुहाने पलों को रिवाइंड करके दोबारा नहीं जी सकते और दुखी पलों को फास्ट फारवर्ड करके आगे नहीं जा सकते. मनुष्य यदि इतना ही समझ ले तो अपनी परेशानियों से अधिक परेशान नहीं होगा और ज़िंदगी को जीना सीख लेगा.

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मुझे नरेन की यह बात बहुत अच्छी लगती है कि जीवन के हर पहलू के लिए वह तर्क खोज लेता है. और यही बात सबसे अधिक बुरी भी लगती है कि जीवन उसके लिए तर्क-वितर्क ही बन कर रह गया है. उसने जैसे दिल से जीना बंद कर दिया है… दिमाग़ से जीना शुरू कर दिया है.
उसके पास इसके लिए भी तर्क है. कहता है कि दिल का काम है सिर्फ़ धड़कना. सोचना नहीं. भावना और तर्क दिमाग़ के ही दो रूप हैं. हर व्यक्ति दिमाग़ से ही सोचता है और जीता है. किसी के दिमाग़ में भावनाएं तर्क शक्ति पर हावी हो जाती हैं, तो इंसान भावुक बन जाता है. तर्क शक्ति भावनाओं से अधिक बलशाली हो जाती है, तो भावुकता उस व्यक्ति का साथ छोड़ जाती है और वह अपने जीवन का संचालन तर्क से करता है. दिल से जीना केवल कमज़ोर आदमियों और शायरों की कोरी बकवास है.
नेल्सन तो दिल से जीता था. चाहे नरेन मेरी इस बात को माने या न माने. नेल्सन खुलकर ठहाका लगाता था. कम से कम इस मामले में तो बिल्कुल भी अंग्रेज़ नहीं था. दिल का सच्चा था. मेरी ही कंपनी में मैनेजर था. कंपनी का प्रबंध संभालते-संभालते उसने कब मेरे दिल का प्रबंध भी अपने हाथों में लिया था, पता ही नहीं चला. अचानक महसूस हुआ कि नेल्सन के सामने मैं सहज नहीं हो पाती. दिल चाहता था कि वह मेरे आसपास रहे, पर उससे बात करते वक़्त होंठ सूखने लगते थे, धड़कन तेज हो जाती थी.
मनुष्य जीवित होकर भी 'है' से 'था' कैसे हो जाता है? नेल्सन तो आज भी ज़िंदा है. शायद उसने अपनी मां की पसंद की लड़की से विवाह भी कर लिया हो. जब मैं कर सकती हूं, तो वो क्यों नहीं करेगा. फिर एकाएक मेरे लिए केवल अतीत का हिस्सा बन कर कैसे रह गया? ठीक भी तो है… यदि नरेन मेरा वर्तमान है, तो नेल्सन को अतीत बनना ही होगा… आजकल नेल्सन को ज़्यादा याद करने लगी हूं… उसकी बीएमडब्ल्यू कार तो इसकी वजह नहीं हो सकती. उसका बड़ा सा घर भी कोई विशेष कारण नहीं होना चाहिए… तो फिर ऐसा क्या है… क्यों वह फिर से मेरे जीवन में घुसपैठ करने लगा है? जब-जब नरेन से नाराज़ होती हूं, तभी यह घुसपैठ बड़ी शिद्दत से होने लगती है.
नरेन के व्यवहार से प्रसन्न होती हूं, तो क्या मजाल कि हम दोनों के बीच किसी की याद तो क्या… विचार भी आ पाए. सच तो यह है कि नरेन ने मेरे अतीत के बारे में कभी कोई सवाल नहीं किया है. उसने नेल्सन की निशानी टॉम को भी पूरे मन से अपना लिया है. उसे स्कूल छोड़ने जाता है, पढ़ाता है. और तो और हिंदी बोलना भी सिखाता है… गोरा टॉम अपने अंग्रेज़ी लहजे में हिंदी बोलता है, तो कितना अच्छा लगता है. आज आठ वर्ष का हो गया है टॉम… सिर्फ़ साल भर का था जब नेल्सन से संबंध विच्छेद कर आई थी.
शिवांगी तो मरने के बाद भी नरेन के जीवन का अटूट अंग बनी हुई है. कैंसर की रोगी, दोनों छातियां कटवाई हुई शिवांगी के शरीर में ऐसा क्या होगा कि नरेन के तन और मन से शिवांगी निकल ही नहीं पा रही. कितनी बेरुखी से कह गया नरेन, मेरे पास जितना प्यार था, वह सब शिवांगी पर ख़र्च कर चुका हूं. अब कुछ नहीं बचा है मेरे पास. प्यार का सोता सूख चुका है. नरेन को जीवन की एक अहम बात का एहसास नहीं है कि प्यार ही तो जीवन का एक ऐसा धन है, जो जितना ख़र्च किया जाए उतना ही बढ़ता है.
नेल्सन और मेरा प्यार भी फल-फूल रहा था. अब तो दफ़्तर में भी सब को एहसास हो चुका था कि कहीं ना कहीं कुछ हो रहा है. मेरे चेहरे पर प्यार की इबारत साफ़ लिखी रहती थी. उसे कोई भी पढ़ सकता था. फिल्मों में देखती थी जब नायक नायिका को तीन शब्द कहता है आई लव यू, तो नायिका के चेहरे पर कैसे भाव आते हैं. मन चाहता था जब कभी भी नेल्सन मुझे यह शब्द कहे, तो सामने कहीं दर्पण लगा हो इन शब्दों का प्रभाव मैं अपने चेहरे पर देखने को अधीर थी.

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किन्तु जब तक नेल्सन यह शब्द न कहे, तो चेहरा देखने का अर्थ ही क्या रह जाता है. मेरे दफ़्तर में कई हिंदुस्तानी लड़कियां काम करती थीं. अधिकतर, गुजराती थीं. मन-ही-मन कहीं मुझसे जलती भी थीं. उनके माता-पिता भारत से उनके लिए पति आयात करना चाहते थे. उनके मन में भी तीव्र इच्छा उठती थी कि कोई नेल्सन उन्हें भी चाहे. एक तरह से मैं ही उनकी नायिका बन गई थी. जो वह केवल सोच पाती थीं, मैं कर रही थी.
सोचते तो मेरे माता पिता भी थे कि मैं ग़लत दिशा में जा रही हूं. परंतु मैं तो नेल्सन के प्यार में सराबोर थी. ऐसा लगता था जैसे कई जन्मों से एक-दूसरे को जानते हों. जन्म.. हां मेरा जन्मदिन ही तो था. नेल्सन ने मुझे एक हीरे की अंगूठी भेंट की थी. दोपहर के लंच ब्रेक में ही मेरे
पास आया और कहा,‌ "दीपा आज डिनर हम साथ-साथ करेंगे." नेल्सन कैसे समझाती कि हमारे परिवार में जन्मदिन एक पारिवारिक त्योहार होता है. और फिर लाडो का जन्मदिन! घर में सभी अपनी लाडो की प्रतीक्षा में होंगे… फिर सोचा कल को तो नेल्सन के साथ ही घर बसाना है. मन में कहीं डर भी था कि नेल्सन का प्रेम कहीं क्षण भंगुर स्वप्न न साबित हो.
साउथ हॉल के महाराजा रेस्टॉरेंट में बैठे थे हम दोनों. नेल्सन ने शैम्पेन मंगवाई थी. मैं जानती थी कि नेल्सन को शैम्पेन पीने से सिर दर्द हो जाता है, पर आख़िर मेरा जन्मदिन था. नेल्सन के लिए भी तो महत्वपूर्ण था यह दिन. मेरी संगत में नेल्सन को भी भारतीय भोजन पसंद आने लगा था. चिकन टिक्का उसे विशेष तौर पर पसंद था. वह टिक्का को हमेशा टीका कहता था. शैम्पेन का ग्लास उठाकर नेल्सन ने चीयर्स कहा था और साथ ही वह शब्द भी जिनकी प्रतीक्षा मुझे बेचैन किए जा रही थी. अपने अनोखे अंदाज़ में उसने मेरी ठोड़ी थोड़ी ऊंची उठाई थी और सीधा मेरी आंखों में देखा था, "आई लव यू दीपा! मुझसे शादी करोगी?"
सैकड़ों घंटियां एक साथ बजने लगी थीं. जीवन की तमाम ख़ुशियां मुझे मिल गई थीं. मन कह उठा कि जीवन में इससे मधुर क्षण दोबारा कभी नहीं आ पाएगा. यदि मैं उसी क्षण मर जाती, तो भी जीवन से कोई शिकायत नहीं होती, क्योंकि उस वक़्त मैं संसार की सबसे तृप्त औरत होती. तभी नेल्सन ने मेरे क़रीब आकर अपने होंठ मेरे होंठों पर रख दिए थे. उसका आज का चुंबन फ़रिश्तों की तरह पवित्र लग रहा था. दीपा नेल्सन… सोचकर ही रोमांच हो रहा था.
परन्तु क्या आज मुझे नेल्सन के बारे में सोचना चाहिए? क्या यह पाप नहीं होगा? किन्तु नरेन क्या शिवांगी के बारे में नहीं सोचता? उसके लिए भी तर्क है उसके पास,‌ "तुम नेल्सन को इसलिए छोड़कर आई हो, क्योंकि तुम्हारी उससे नहीं बनी. शिवांगी की बात दूसरी है. वह अपनी मर्ज़ी से मुझे नहीं छोड़ गई. भगवान ने उसे उठा लिया. मुझे उसकी हर बात याद करने का हक़ है." कितनी नाराज़गी थी नरेन की आवाज़ में! मैंने तो सिर्फ़ इतना ही कहा था कि जैसे वह शिवांगी को याद करता रहता है, अगर मैं भी नेल्सन के बारे में वैसे ही बातें करना शुरू कर दूं. बाद में घंटों रोती रही कि यह बात कही क्यों?
कहने से बाज भी तो नहीं आती. नरेन को साफ़ साफ़ कह दिया कि सुनीता और मंदिरा से ना मिला करें. मुझे उन दोनों की नीयत पर शक है. वह नरेन को केवल मित्र नहीं समझती हैं… उनके मन में कुछ और है… ग़ुस्से में तो यहां तक कह गई कि उसकी अपनी नौकरानी उसका बिस्तर गर्म करती रही है.
तिलमिला उठा था नरेन. उठ कर लिविंग रूम में चला गया. यह नरेन की नई आदत है. ग़ुस्सा आता है, तो आधी रात को भी बेडरूम छोड़कर लिविंग रूम में चला जाता है. आवाज़ ऊंची नहीं करता. काश, यह उसने मेरे लिए किया होता. यह भी शिवांगी के लिए करता है. शिवांगी को वचन दिया था उसने कि कभी ऊंची आवाज़ में बात नहीं करेगा. यहां भी शिवांगी मुझे मात दे जाती है. क्यों? शिवांगी मर कर भी मेरी सौत क्यों बन गई? पर अगर शिवांगी ज़िंदा होती, तो क्या मैं नरेन के पास होती?
नरेन से पहली मुलाक़ात लंदन में ही हुई थी. हाऊंसलो हाई स्ट्रीट में मैं टॉम को बग्घी में बैठाकर मैक्डोनल्ड से मिल्क शेक लेने अंदर चली गई थी. बाहर आई, तो देखा कि टॉम के साथ एक अजनबी खड़ा है. तरह-तरह के मुंह बनाकर आवाज़ें निकालकर टॉम से बातें कर रहा है. वह तो सोच भी नहीं सकता था कि टॉम की मां कोई हिंदुस्तानी लड़की हो सकती है. बाद में नरेन ने बताया भी था कि पहली मुलाक़ात में वह मुझे टॉम की आया समझ बैठा था. टॉम रो रहा था और बग्घी में अकेला था. नरेन उसे चुप करवाने में व्यस्त था. बातों ही बातों में नरेन ने उसे बताया था कि वह लंदन निवासी नहीं है. वह ऑफिस के काम से लंदन आया है और अगले ही दिन वापस भी जा रहा है.
न जाने क्यों पहली ही नज़र में नरेन अच्छा लगा था. बात करता था तो जैसे मुंह से कविता निकलती थी. कुछ ऐसा था उसके व्यक्तित्व में कि आकर्षित हुए बिना रहा नहीं जा सकता था. पहली मुलाक़ात बहुत छोटी थी और उस समय में भी उसे पत्नी के लिए सेंट माइकल की ब्रा ख़रीदनी थी, तो रेवलॉन की लिपस्टिक, घर के लिए और कुछ छोटा-मोटा सामान. अगली सुबह ही उसकी उड़ान थी. सुनकर तसल्ली हुई कि ऑफिस के काम से नरेन हर तीन-चार महीने बाद लंदन का दौरा कर ही लेता है.

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और तीन चार महीने बाद टेलिफोन की घंटी पर सवार नरेन आ पहुंचा था. पेंटा होटल से बोल रहा था. टॉम रो रहा था, उसे भूख लगी थी.
"टॉम रोता भी अंग्रेज़ी में है?" नरेन के सवाल से होंठों पर हंसी उभर आई थी. फोन किया भी तो बड़े अंदाज़ से था, "जी गोरे बेटे की काली मां से बात कर सकता हूं?" सच होकर भी अच्छा नहीं लगा था यह वाक्य. आज अगर नरेन ऐसा न कहे तो बुरा लगता है. लगता है जैसे औपचारिक हो गया है. नरेन मेरे लिए एक शैम्पेन की बोतल ले आया था. मैंने उसे फ्रिज में रख दिया था. जब उससे पूछा कि क्या पिएगा, तो बोला, "स्क्रू ड्राइवर."
मैं उसे कहां बख़्शने वाली थी, "स्क्रू ड्राइवर से तुम्हारे स्कू तो कस सकती हूं, पर पिला नहीं सकती."
नेल्सन भी तो स्क्रू ड्राइवर ही पसंद करता था, वोदका और संतरे का रस. नरेन को भी शैम्पेन पीने से सिर में दर्द हो जाता है. शिवांगी की मौत के बाद तो नरेन ने कुछ भी पीना बंद कर दिया है. जीना बंद कर दिया है. शिवांगी थी भी तो अद्भुत. भगवान ने जैसे उसे फ़ुर्सत के क्षणों में बनाया था. जो भी उसे मिलता, उस पर लट्टू हुए बिना रह ही नहीं सकता था.
"हमारी बीवी को देखकर अगर कोई आदमी दोबारा मुड़कर नहीं देखे, तो वह आदमी नॉर्मल हो ही नहीं सकता." नरेन का यह दावा था. परंतु शिवांगी केवल शरीर से सुंदर नहीं थी. उसका मन उसके शरीर से भी कहीं अधिक सुंदर था. मैं जब पहली बार बम्बई गई थी, तो नरेन के घर ही ठहरी थी. शिवांगी से मिलने के बाद ऐसा महसूस हुआ था जैसे मैं शिवांगी की मित्र हूं और नरेन केवल मेरी मित्र का पति है.
शिवांगी जीवन के हर क्षेत्र में एक संपूर्ण व्यक्तित्व थी. पढ़ाई, सिलाई, कढ़ाई, साहित्य, राजनीति और बच्चों की परवरिश- सभी विषयों में दक्ष. गार्गी और कुणाल दोनों में शिवांगी की छवि दिखाई देती है. नरेन को भी अच्छा लगता है कि उसके दोनों बच्चों की शक्ल में शिवांगी आज भी ज़िंदा है. टॉम तो देखने में अंग्रेज़ लगता है. नरेन कहां कहने से बाज़ आता है, "गोरे बेटे की काली अम्मा, हम तो तुम्हें पहली मुलाक़ात में ही टॉम की आया समझे थे, उस हिसाब से मैं भी उसका अर्दली हो गया."
नरेन अनुशासन के मामले में सख़्त है, पर टॉम को प्यार बहुत करता है. प्यार तो नेल्सन भी मुझे बहुत करता था. फिर मैं नेल्सन को छोड़ने पर क्यों मजबूर हो गई थी. मैं भी तो उसे कम प्यार नहीं करती थी. नेल्सन की एक मां भी थी. वह मेरे लिए सदा एक अंग्रेज औरत ही बनी रही, मां नहीं बन पाई. और नेल्सन कभी भी यह बात नहीं समझ पाया कि मैं अपनी मां, अपने पिता और भाई सभी को छोड़ आई हूं.
उसकी मां विधवा थी. यही उसकी मां का सबसे बड़ा हथियार था. अपने विधवा होने का नाटक वह इतनी निपुणता से करती थी कि इस संसार की सबसे दुखियारी औरत वही लगती थी. उसकी आकांक्षा थी कि उसका पुत्र किसी लार्ड का दामाद बनेगा, परंतु उसके पुत्र ने एक एकाउंटेंट और वह भी भारतीय से विवाह कर लिया था… नेल्सन की मां मुझे बार-बार याद दिलाती थी कि उसका पिता भारत में अफ़सर हुआ करता था और उन दिनों रेस्टॉरेंट में भारतीयों और कुत्तों को अंदर आने की अनुमति नहीं होती थी. आज एक भारतीय उसकी बहू थी. उसके लिए तो डूब मरने की बात थी. उसने अपने रिश्तेदारों से मिलना-जुलना तक बंद कर दिया था. उसे डर लगता था कि लोग क्या कहेंगे. नेल्सन ने उसे जीते जी मार डाला था.
नेल्सन का तो मालूम नहीं, परंतु मैंने तो अपने माता-पिता की हत्या कर ही दी थी. मां को पक्षाघात हो गया था. पिता को दिल का दौरा पड़ा था. उन्हें तो समझ ही नहीं आ रहा था कि उनकी परवरिश में कहां कमी रह गई थी कि दीपा उनके मुंह पर कालिख पोत कर चली गई. महेश और सोमेश ने तो सदा के लिए मुझसे नाता ही तोड़ लिया था. मेरी राखी और भाईदूज को अनाथ कर दिया था उन्होंने.
ऐसे माहौल में हम हनीमून पर निकले थे. नेल्सन और मैं स्वयं भारत जाने को ख़ासे उत्सुक थे. हमारा सफ़र दिल्ली से शुरू होकर आगरा, जयपुर, कश्मीर, बम्बई, गोवा, ऊटी से होता हुआ कन्याकुमारी पर जाकर समाप्त हुआ था. हर शहर में पांच सितारा होटल में ही रखा मुझे.
नरेन से विवाह को छह महीने हो गए, अब तक तो हम अकेले एक फिल्म भी देखने नहीं गए. हनीमून को लेकर नरेन की एक अलग ही विचारधारा है. हनीमून जीवन में एक ही बार मनाया जाता है. वो तुम भी मना चुकी हो और मैं भी. घर में एक जवान बेटी है. हमें अपने बरताव को संयत और परिपक्व बनाना होगा. बच्चों के सामने हमें बड़ा दिखना है… बच्चा नहीं.
नरेन मेरी दिक़्क़त को समझता नहीं, यह कहना तो ग़लत होगा, पर अपनी तर्कशक्ति से मेरी हर ख़्वाहिश का गला घोंट देता है. मैं सोचती हूं शिवांगी मरी है, मैं तो ज़िंदा हूं. मुझे क्यों ज़िंदा मार देना चाहते हो? नरेन पंद्रह चीज़ें गिनवा देता है कि देखो तुम्हारे लिए यह किया, वह किया, ऐसा किया, वैसा किया. सच बोल रहा होता है वह. सब उसने किया होता है, पर क्या वही जीवन है? नरेन को जब पता चला था कि शिवांगी को स्तन कैंसर हो गया है, तो उसने सबसे पहले मुझे ही सूचित किया था.
शिवांगी का बायां स्तन कटवा दिया गया. उसके तीसरे ही महीने दायां स्तन भी कैंसर की भेंट चढ़ गया था. मैं यह सोच कर हैरान होती रहती थी कि बिना छातियों की शिवांगी से नरेन कैसे प्यार कर पाता होगा. कैंसर के भयावह नाम ने मुझे मजबूर कर दिया था कि मैं शिवांगी को मिलने बंबई जाऊं. टॉम को साथ लेकर नरेन के घर जा पहुंची थी. घर के बाहर दरवाज़े पर नई नामपट्टी लगी थी. नरेन और शिवांगी उभरी थी. कोई किसी को इतना प्यार कैसे कर सकता है? और प्यार के इज़हार का इतना ख़ूबसूरत तरीक़ा.
शिवांगी मुझे गले मिल कर बहुत रोई थी. मैंने शिवांगी को पहली बार रोते देखा था.
"दीपा, अब तो जीवन पर कोई विश्वास नहीं रह गया है. पता नहीं कब बुलावा आ जाए. गार्गी और कुणाल को तुम्हारे हवाले किए जा रही हूं. मेरे बाद इनकी देखभाल तुम्हें ही करनी होगी."
"शिवांगी, नरेन को पूरा विश्वास है कि तुम ठीक हो जाओगी. जिस विश्वास से वह तुम्हारा इलाज करवा रहा है, उससे मेरे मन में भी विश्वास की कली अंकुरित हो रही है. तुम्हें ठीक होना ही है."
"अब ठीक होकर भी क्या करूंगी? लगता है सारी दुनिया मेरी सपाट छातियों को देख रही है. बिल्कुल अधूरी हो गई हूं मैं. इन छातियों की तारीफ़ में नरेन कविता करने को मजबूर हो जाता था. आज तो उससे आंख मिलाने की हिम्मत नहीं बटोर पाती."
"क्या नरेन ने कभी तुम्हारी छातियों के बारे में कुछ कहा?"
"वह क्या कहेगा. वह तो मुझे इतना प्यार करता है कि अगर सारी उमर बिस्तर पर पड़ी रहूं, तो भी उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं उभरेगी. पर, मैं भी तो उसे प्यार करती हूं. जानती हूं केवल देखने से प्यार की भूख नहीं मिटती. शरीर की भी ज़रूरत पड़ती है. यह आदमी अगर सारी उमर मेरे शरीर के साथ संबंध नहीं बना पाएगा, तो भी शिकायत नहीं करेगा. मैं तो बस इसे एक नज़र प्यार से देख लूं, तो इसे संभोग का आनंद आ जाता है. मेरी कोई ऐसी सहेली भी तो नहीं जो नरेन के काम आ सके." शिवांगी रो पड़ी.
इतनी बड़ी बात और शिवांगी इतनी सहजता से कह गई. यदि मुझे पता चलता कि नेल्सन का किसी दूसरी औरत से संबंध है, तो मैं नेल्सन का जीना मुश्किल कर देती. और यह औरत अपनी किसी सहेली की तलाश कर रही है, जो बिस्तर में इसके पति के काम आ सके. मन में आया था कि कह दूं, मैं हूं ना, पर कह पाना इतना आसान नहीं था.
अब गार्गी और कुणाल मुझ से और अधिक जुड़ने लगे थे. जितने भी दिन बंबई में रही, मैं उन्हें रोज़ अपने साथ बाहर ले जाती थी. वह दोनों भी टॉम से बहुत प्यार करने लगे थे. नरेन अपनी शिवांगी के पास बैठता था.
अगली बार नरेन लंदन आया, तो शिवांगी ने हरे कांच की चूड़ियां भेजी थीं.

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मुझे लगा जैसे शिवांगी ने अपनी बंबई वाली बात फिर याद करवाई है. रात के खाने के बाद मैंने नरेन को होटल नहीं जाने दिया. घर पर ही रोक लिया. उस रात मैंने शिवांगी की चूड़ियों की लाज रख ली थी और उसकी ऐसी सहेली बन गई, जो उसके पति के काम आ सके. नेल्सन से अलग होने के बाद मैंने पहली बार किसी मर्द के शरीर को छुआ था. दोनों को एक विचित्र सी तृप्ति का एहसास हुआ था. मन में किसी पाप का एहसास नहीं था.
मन में कहीं एक शक भी उभरा था. नरेन तो मुझे प्यार नहीं करता. फिर मेरे साथ हम बिस्तर होने को तैयार कैसे हो गया? पर उन क्षणों का आनंद इतना संपूर्ण था कि इस बेकार से सवाल को खड़ा होने का अवसर ही नहीं मिला.
अब मैं नरेन के लंदन आने की प्रतीक्षा करने लगी थी. नरेन के लंदन आने का अर्थ था कि मैं तो दफ़्तर नहीं जाऊंगी. बात अब शिवांगी की सहेली बने रहने तक नहीं थी. अब मैं नरेन की भी सखी बनना चाहती थी. किंतु नरेन का व्यवहार मेरे प्रति ख़ासा कैल्कुलेटिव था. वह अपने प्यार का इज़हार खुलकर नहीं करता था. दबे स्वर में भी कहां करता था. अंतरंग क्षणों की पराकाष्ठा में भी कभी उसके मुंह से नहीं निकला, "आई लव यू." फिर भी एक बात की तसल्ली थी कि हम दोनों के बीच कभी शिवांगी आकर खड़ी नहीं हुई.
शिवांगी जब जीवित थी तो हमारे बीच नहीं आ सकी. परंतु मरने के बाद मेरी सबसे अच्छी सहेली, मेरी दुश्मन क्यों बनती जा रही है?

- तेजेन्द्र शर्मा

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