"वो मैं पूछ लूंगा." अपनी जीत पर उछलता सुशांत नीरा के आगे गर्व से इठलाया, "देखी मेरी रणनीति."
तभी पीछे से सम्मिलित हंसी का स्वर सुन वह चौंका. मां और मिनी बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी दबा पा रहे थे. अब तो नीरा भी उनमें शामिल हो गई थी.
"मांजी की रणनीति के आगे आप चारों खाने चित हो गए हैं."

कहते हैं कि पीढ़ियों का अंतराल विचारों में फ़र्क़ पैदा कर एक परिवार में विघटन का कारक बनता है. हर प्रचलित मान्यता के अपवाद भी देखने को मिल जाते हैं. सुशांत राय का परिवार ऐसा ही परिवार है. मिनी और उसकी दादी गायत्रीजी की लोग मज़ाक़ में फूल और पत्ती, दीया और बत्ती कहते हैं. सुशांत और उनकी पत्नी नीरा दोनों अच्छे प्रशासनिक पदों पर हैं. जिस वर्ष मिनी पैदा हुई, उसी वर्ष गायत्री अपनी सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त होकर उनके संग रहने आ गई. पोती मिनी ही अब उनके जीने का संबल थी, वरना नौकरों की फौज के संग दिमाग़ खपाने के अलावा इस घर में और करने को था ही क्या.
दादी के लाड़-प्यार में मिनी बड़ी होने लगी और उनके बीच स्नेह भी प्रगाढ़ होता चला गया. उम्र और पीढ़ियों का अंतराल दिलों के बीच अंतराल लाने में सर्वथा नाकाम रहा था. दोनों जितने मनोयोग से भजन सुनती, उतनी ही तल्लीनता से पॉप-रॉक पर थिरक भी लेती थीं. मंदिर जाना उनकी दिनचर्या में जैसे ही शुमार था जैसे कि जिम जाना. दोनों जितना खिलखिलाते हुए कार्टून का मज़ा लेती थीं, उतने ही मनोयोग से पुरानी हिंदी फिल्मों का. बाहर वाले तो क्या, स्वयं सुशांत और नीरा के लिए भी यह अजीबोग़रीब जोड़ी कौतुक का विषय थी.
एक और गौर करने योग्य विशेषता थी इस जोड़ी की. दोनों आपस में कितना भी लड़-झगड़ लें, मनमुटाव कर लें, लेकिन किसी तीसरे द्वारा हस्तक्षेप करने या आक्षेप लगाने पर तुरंत एक हो जाती थीं.
अब उस दिन की ही बात ले लीजिए. सुशांत घर में प्रविष्ट हुआ तो अजीब नज़ारा था. एक और कतार से कुर्सियां रखी हुई थीं, दूसरी और स्वयं मिनी दादी का हाथ पकड़े हुए थी. दादी दोनों पैरों में स्केट्स बांधे सहारे से चलने का प्रयास कर रही थीं.
"यह क्या तमाशा है मिनी? खोलो दादी के स्केट्स... और आप भी ना मां! अभी गिरकर हाथ-पैर तोड़ बैठीं तो इस उम्र में हड्डियां भी नहीं जुड़ेगी. किसके दिमाग़ की उपज है यह सब?"
"व... वो पापा मैंने ही कहा था दादी से कि चलकर देखो, मज़ा आएगा."
"अरे नहीं, मैंने ही ज़िद पकड़ ली थी." स्केट्स खोलती दादी बोल पड़ीं तो सुशांत बेचारा हैरानी से दोनों की ओर ताकता रह गया.
समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है, पता ही नहीं चल पाता. बित्तेभर की मिनी अब एक ख़ूबसूरत नवयुवती बन चुकी है. स्कूल बदल गए, परिवेश बदल गया, सोचने का अंदाज़ बदल गया; नहीं बदला तो वह था दादी का साथ और उनका दोस्ती का हाथ.
मिनी को डेंटल कॉलेज में प्रवेश मिल गया था और अब वह कॉलेज के अंतिम वर्ष में आ गई थी. घर में उसकी शादी को लेकर फुसफुसाहटें आरंभ हो गई थी. जब-जब मिनी की शादी की बात छिड़ती, विदाई की बात सोचकर गायत्रीजी बेहद भावुक हो उठतीं. आंखें डबडबा जातीं और आवाज़ भरनि लगती. सुशांत को मजबूरन वार्ता बीच में ही समाप्त कर उन्हें संभालना पड़ता.
नीरा भी दिल से उनका दर्द समझती थी. मां वह थी, लेकिन मात्र जन्मदात्री. पाला तो दादी ने ही था. उनका इतना जुड़ाव स्वाभाविक था. लेकिन भावनाओं के पंख लगाकर यथार्थ के धरातल पर कैसे चला जा सकता है? लिहाज़ा माता-पिता ने अपने स्तर पर ही मिनी के वर की खोज का अभियान आरंभ कर दिया. अपनी जाति-बिरादरी में उन्हें जल्द ही तीन-चार सुपात्र मिल गए. बात आगे बढ़ाने से पहले मां को बताना और उनकी स्वीकृति लेना आवश्यक था.
उस दिन दोनों ऑफिस से समय पर आ गए. मिनी अपनी सहेली के यहां गई हुई थी. मां लॉन में चेयर डाले चाय के लिए उन्हीं का इंतज़ार कर रही थीं. दोनों को साथ आते देखकर वे प्रसन्न हो उठीं. नौकर को चाय के साथ गरम पकौड़े बनाने का निर्देश देकर वे फिर से लॉन में आ गई. तब तक सुशांत और नौरा भी फ्रेश होकर आ चुके थे. मां का अच्छा मूड देखकर सुशांत ने अपने खोजे रिश्तों की बात छेड़ दी. चर्चा छिड़ते ही मां का मूड बदल गया. किसी भी रिश्ते से वे संतुष्ट नज़र नहीं आई. उन्होंने हर रिश्ते पर अस्वीकृति की मुहर लगा दी. पकौड़ों का मज़ा किरकिरा हो गया था.
सुशांत और नीरा थके क़दमों से बेडरूम में आकर ढेर हो गए. नीरा का ग़ुस्सा फट पड़ा, "मांजी तो चाहती ही नहीं कि मिनी की घर से डोली उठे. अपने स्वार्थ में इंसान इस कदर भी अंधा हो सकता है मैंने यहीं आकर देखा है."
"नीरा, मां मिनी की दोस्त, शुभचिंतक हैं. मिनी की पसंद-नापसंद, उसकी ख़ुशी-नाख़ुशी वे हमसे बेहतर जानती है. हो सकता है जो रिश्ते हमने खोजे हैं, वहां मिनी सचमुच सुखी न रह सके."
नीरा ने नए सिरे से कमर कस ली. इस बार वह एक बहुत अच्छा रिश्ता लेकर आई. स्वजातीय, सुशील, स्वस्थ, अच्छे घर-परिवार का लड़का विदेश में डॉक्टर था. पता नहीं मिनी उन्हें पसंद भी आएगी या नहीं. लेकिन उनका अभिमत जानने से पूर्व मांजी का मत जानना ज़रूरी था. उसे पूरी उम्मीद थी कि मांजी इस रिश्ते में कोई खोट नहीं निकाल पाएंगी. लेकिन उसकी उम्मीदों पर उस समय तुषारापात हो गया जब मांजी ने यह कहते हुए रिश्ते को सिरे से नकार दिया कि तुम लोगों ने सोच भी कैसे लिया कि मैं अपनी मिनी को इतनी दूर जाने दूंगी? अरे, विदेश में उसके संग कोई ऊंच-नीच हो गई तो लड़की से ही हाथ धो बैठोगे. इतने क़िस्से सुन-पढ़ लेने के बावजूद तुमने इस बारे में सोचा कैसे.
यह भी पढ़ें: 40 बातें जो हैप्पी-हेल्दी रिलेशनशिप के लिए ज़रूरी हैं (40 Tips for maintaining a happy and healthy relationship)
नीरा का आक्रोश भी उमड़ पड़ा. जो कुछ अभी तक दिल ही दिल में उफन रहा था सब ज़ुबां पर आ गया. अंदर की कड़वाहट ने बाहर आकर सारे वातावरण की विषाक्त बना दिया था. मांजी चुपचाप कमरे में आकर लेट गईं. मां की चुप्पी सुशांत को आनेवाले ख़तरे का पूर्वाभास करा रही थी.
देर रात मिनी ने पापा को जगाया.
"दादी को घबराहट हो रही है." सुशांत और नीरा भागकर उनके पास पहुंचे.
"डॉ. मेहता को बुला लेता हूं."
डॉ. मेहता उनके फैमिली डॉक्टर थे.
"उनका घर बहुत दूर है. आने में देर लगेगी." मांजी की बिगड़ी हालत देख नीरा बहुत घबरा गई थी. अंदर से यह अपराधबोध उसे खाए जा रहा था कि उसकी वजह से ही मांजी की तबियत ख़राब हुई है. यदि उन्हें कुछ हो गया तो वह अपने आप को कभी माफ़ नहीं कर पाएगी.
"आप मिश्राजी के बेटे यश को बुला लीजिए. वह अच्छा कार्डियालॉजिस्ट है."
"लेकिन..."
"यह मौक़ा गड़े मुर्दे उखाड़ने का नहीं है. वह डॉक्टर है. पेशे की गंभीरता समझता है. इंकार नहीं करेगा. आप कहें तो मैं फोन करती हूं."
"नहीं, मैं बुलाता हूं."
फोन के दस मिनट बाद ही यश उपस्थित हो गया. अच्छे से जांच करके उसने गायत्रीजी को ग्लूकोज पिलाया. कुछ ही देर में वे सामान्य हो गईं. यश को दरवाज़े तक छोड़ने आते हुए सुशांत ने आभार जताया. फीस देनी चाही, लेकिन यश ने नहीं ली.
"वे मेरी दादी जैसी हैं. उनका आशीर्वाद बना रहे बस."
"वैसे उन्हें हुआ क्या था?"
"शायद किसी मानसिक तनाव की वजह से सांस अनियमित हो गई थी. कोशिश करें, उन्हें मानसिक आघात न पहुंचे. वैसे अब वे बिल्कुल ठीक हैं. कोई चिंता की बात नहीं है. फिर भी ज़रूरत हो तो आप निसंकोच बुला लीजिएगा."
"श्योर थैंक्यू बेटे." सुशांत ख़ुद ही नहीं समझ पाए कैसे उनके मुंह से बेटा शब्द निकल गया.
यश पिछली लाइन में रहने वाले न्यायिक अधिकारी प्रबोध मिश्रा का बेटा है. किसी मुक़दमे के सिलसिले में सुशांत और मिश्राजी में कहा-सुनी हो गई और वे परस्पर दूरी बरतने लगे. दोनों अधिकारियों ने इसे प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया था. हालांकि यश की दादी सुभद्राजी और गायत्रीजी के बीच गहरी छनती थी. दोनों अब भी रोज़ मंदिर में मिलती थीं.
इधर यश के व्यवहार ने सुशांत की सारी कड़वाहट भुला देने पर मजबूर कर दिया था. अगले दिन भी नर्सिंग होम जाते वक़्त वह गायत्रीजी को देख गया था. सुभद्राजी ने भी फोन पर हालचाल पूछ लिया था. नीरा उनकी उदारता के आगे दबती जा रही थी.
"हमें यश को सपरिवार खाने पर बुलाना चाहिए. उसने फीस भी नहीं ली है. अब वे लोग पिछली सारी कड़वाहट भुलाने को तैयार हैं तो हमें भी अपनी अकड़ छोड़ देनी चाहिए. वैसे भी प्रशासनिक मुद्दों को व्यक्तिगत रिश्तों से पृथक ही रखना चाहिए." नीरा की बात में सुशांत को दम नज़र आया.
पूरे परिवार को डिनर पर आमंत्रित किया गया. नौरा ने मिनी की मदद से डाइनिंग टेबल पर व्यंजनों का अंबार लगा दिया. व्यंजनों के स्वाद और सुगंध ने रिश्तों में भी मिठास घोल दी. बड़े ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में मिश्रा परिवार ने विदा ली. यश की विनम्रता और सज्जनता ने राय दंपती का मन मोह लिया था. रात को शयनकक्ष में दोनों ही करवटें बदल रहे थे.
"क्या आप भी वही सोच रहे हैं, जो मैं सोच रही हूं?" नीरा ने बात छेड़ी.
"तुम भी यश के बारे में सोच रही हो? काश वह हमारी जाति का होता तो मैं इसी क्षण उसे अपना दामाद बना लेता."
"क्या फ़र्क़ पड़ता है जाति के अलग होने से. बस प्रेम होना चाहिए, ताकि गृहस्थी की गाड़ी हंसी-ख़ुशी चलती रहे. एक बात कहूं. मुझे तो लगता है यश हमारी मिनी की ओर आकर्षित है. कनखियों से बार-बार उसी को देखे जा रहा था. और मिनी ने भी जितने उत्साह से खाना बनवाया और सबको खिलाया, लगता है उसके दिल में भी यश के लिए कुछ है."
"तुम औरतों की दिव्य दृष्टि और अलौकिक प्राणशक्ति का कोई मुक़ाबला नहीं है."
"आपको तो हर बात में मज़ाक सूझता है. देख लेना मेरी बात झूठ निकले तो..."
"अच्छा बाबा मान लिया. पर मां कभी राज़ी नहीं होगी. कितनी भी आधुनिक हो, लड़का वे बिरादरी का ही चाहेंगी."
"हां, यह तो है." नीरा निराश हो उठी.
"फिर भी मैं प्रयास करूंगा. अब अभी सो जाते हैं. तुम भी बहुत थक गई होगी."
अगले दिन ही सुशांत ने दोस्त की समस्या के नाम पर पूरी कहानी तौड़-मरोड़कर मां के सामने प्रस्तुत कर दी. "अब आप ही बताइए मां, मात्र विजातीय होने के चलते इतने होनहार, सभ्य, सुसंस्कृत, सुशील, विनम्र लड़के को हाथ से निकलने देना बेवकूफ़ी नहीं है?"
मां गहरे सोच में डूब गई थीं. "बात तो तू सही कह रहा है पर..."
लोहा गरम देख सुशांत ने अगली चोट की, "लड़का-लड़की हमेशा सुखी रहें इससे ज़्यादा हमें और क्या चाहिए? कितने ही देखभाल कर किए गए विवाह असफल सिद्ध हो जाते हैं. फिर यदि लड़का-लड़की बिना बताए अपनी पसंद से शादी कर लें..."
"हां, यह तो है." मां गंभीर हो गई थीं.
"अच्छा मां, यश कैसा लड़का है?" सुशांत मुद्दे की बात पर आ गया था.
"अच्छा है, पर क्यों पूछ रहा है?" मां के भाल पर सलवटें उभर आई थीं.
"वो अपनी मिनी के लिए कैसा रहेगा? दोनों डॉक्टरी के प्रोफेशन में हैं. हमउम्र, पारिवारिक स्तर भी एक जैसा आपको पसंद नहीं है तो रहने देते हैं."
"अरे नहीं-नहीं. ऐसी कोई बात नहीं है. लड़का तो वाक़ई बहुत अच्छा है. मैं तो ख़ुद ही सोच रही थी. बस वो थोड़ा जाति और तुम लोगों के आपसी संबंधों की वजह से झिझक रही थी. पर अभी तूने जो दोस्त का मामला समझाया तो मुझे लगता है इस रिश्ते में कोई बुराई नहीं है. दोनों सुखी रहे. फिर भी एक बार मिनी से."
"वो मैं पूछ लूंगा." अपनी जीत पर उछलता सुशांत नीरा के आगे गर्व से इठलाया, "देखी मेरी रणनीति."
तभी पीछे से सम्मिलित हंसी का स्वर सुन वह चौंका. मां और मिनी बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी दबा पा रहे थे. अब तो नीरा भी उनमें शामिल हो गई थी.
"मांजी की रणनीति के आगे आप चारों खाने चित हो गए हैं."
"मैं समझाती हूं बेटा. मिनी और यश एक-दूसरे से बहुत प्यार करते हैं. जब घर में मिनी की शादी की बात होने लगी तो उसने मुझे सब बता दिया. मैंने कह दिया यह संभव नहीं है. उसे भूल जा. वह रोने लगी. और बस यहीं तुम्हारी मां हार जाती है. उसके आंसुओं ने मुझे पिघला दिया. फिर सोची-समझी रणनीति के तहत जो हुआ, तुम्हारे सामने है."
"वाह! मैं तो हारकर भी जीत गया. यश जैसा दामाद जो मिल गया." सुशांत उत्साहित था.
"अभी तो पचास प्रतिशत जीत हुई है बेटा. यश के माता-पिता को राज़ी करना अभी बाकी है. पर चिंता की कोई बात नहीं है. यश के अलावा हमारा एक मोहरा वहां भी काम कर रहा है."
"कौन?" हैरानी में सुशांत और नीरा के मुंह से एक साथ निकला.
तभी फोन बज उठा. सुशांत ने फोन उठाया.
'हेलो सुशांत, प्रबोध बोल रहा हूं. यार, शाम से ही मां की दाढ़ में बहुत दर्द हो रहा है. मिनी बिटिया को भिजवा सकते हो या मां को लेकर आऊ?"
पलक झपकते सुशांत सारा माजरा समझ गया. "अरे नहीं, मांजी को क्यों तकलीफ़ देते हो. मिनी आ जाएगी. मिनी बेटी..."
मिनी अपना बैग लेकर तैयार खड़ी थी. रेडी फॉर मिशन इंप्रेशन.
"ऑल द बेस्ट!" सबके मुंह से एक साथ निकला.

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES
Photo Courtesy: Freepik
अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का गिफ्ट वाउचर.